घरेलू राजनीति के मोर्चे पर बतौर राष्ट्रपति एक अहम पहल करते हुए मालदीव के राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह ने अपनी मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) के सहयोगियों से मुलाकात की. पार्टी के अध्यक्ष और संसद के स्पीकर मोहम्मद नशीद भी इस बैठक में मौजूद रहे. राष्ट्रीय स्तर पर लोकल काउंसिल के चुनावों के मद्देनज़र इस मुलाक़ात की काफ़ी अहमियत है. चुनाव आयोग द्वारा दिए गए संभावित कार्यक्रम के हिसाब से लोकल काउंसिल के चुनाव 3 अप्रैल को कराए जाने के आसार हैं.
ये चुनाव मार्च 2020 में ही कराए जाने थे लेकिन कोविड महामारी के चलते इन्हें टालना पड़ा था. वैसे कोरोना के प्रकोप से पहले ही एमडीपी इन काउंसिलों के कार्यकाल को तीन साल से बढ़ाकर 5 साल करने पर विचार कर रही थी क्योंकि उसे चुनावों में अपनी जीत को लेकर कुछ आशंकाएं थीं. ऐसे में कोरोना महामारी ने पार्टी की चिंताओं के बोझ को हल्का कर दिया.
मध्यावधि जनमत संग्रह
लोकल काउंसिल के ये चुनाव कई वजहों से महत्वपूर्ण हैं
पहला, अभी जब ये चुनाव होने जा रहे हैं, राष्ट्रपति सोलिह के 5 साल के कार्यकाल का आधा समय बीत चुका है. राष्ट्रपति ने 2018 में कामकाज संभाला था. ऐसे में लोकल काउंसिल के ये चुनाव राष्ट्रपति के कामकाज पर ‘मध्यावधि’ जनमत संग्रह जैसा है. ये चुनाव सरकार को अपने कार्यकाल के बीचोंबीच सुधारात्मक कदम उठाने का अवसर भी प्रदान कर सकते हैं. समान रूप से यही मौका मालदीव के विभाजित विपक्ष को भी मिल सकता है.
दूसरा, नवंबर 2023 में प्रस्तावित राष्ट्रपति चुनाव से पहले चुनावों का ये आख़िरी अहम दौर है. इसमें जीतने वाला अपनी जीत को जनता का मूड बताकर प्रचारित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगा और राष्ट्रपति चुनाव के लिए गठजोड़ बनाने की प्रक्रिया आरंभ कर देगा.
तीसरा, एमडीपी के सहयोगियों के लिए ये चुनाव उनके गठबंधन के नेता का इम्तिहान है. पिछली बार उन्होंने एमडीपी को सीट बंटवारे पर होने वाली बातचीत को टालने दिया था और तब पार्टी अध्यक्ष नशीद ने एकतरफ़ा रूप से अकेले चुनावों में जाने की घोषणा कर उन्हें चौंका दिया था. नशीद का कहना था कि राष्ट्रपति चुनावों में कामयाबी हासिल करने वाले उनके चार दलों के गठबंधन को संसदीय चुनावों में जारी रखने को लेकर कोई बातचीत नहीं हुई थी.
चौथा, ये चुनाव मौजूदा राष्ट्रपति सोलिह के लिए इस दृष्टिकोण से भी अहम है कि इसमें अपने मित्र, रिश्तेदार और राजनीतिक गुरु नशीद को अपने पाले में लाने की उनकी क़ाबिलियत का भी पता चल सकेगा. ऐसा नहीं हुआ तो नशीद लोकल काउंसिल चुनाव के लिए बन रहे गठजोड़ को बर्बाद भी कर सकते हैं. ये चुनाव 2023 में एमडीपी के अध्यक्ष पद के लिए खुद को मनोनीत किए जाने की सोलिह की इच्छाओं को भी दर्शाएंगे. पार्टी के मौजूदा सहयोगी दल इसके लिए उनका पुरज़ोर समर्थन कर रहे हैं.
पांच, स्थानीय चुनाव एक और वजह से बेहद अहम हैं. इन चुनावों में और इनके बाद ज़मीन से जुड़े संगठनों की होने वाली बैठकों से ऊपर से लेकर नीचे तक पार्टी के कैडर में एक बार फिर से उर्जा का संचार किया जा सकता है. इतना ही नहीं पार्टी कैडर के मतदाताओं के साथ और बेहतर उद्देश्य से जुड़ाव की संभावनाएं भी बनती है. व्यापक तौर से देखें तो जिस तरह से कोविड महामारी ने जीवन को बेपटरी कर दिया है उसके मद्देनज़र जनता से इस तरह का जुड़ाव और भी ज़्यादा ज़रूरी हो गया है.
ये चुनाव 2023 में एमडीपी के अध्यक्ष पद के लिए खुद को मनोनीत किए जाने की सोलिह की इच्छाओं को भी दर्शाएंगे. पार्टी के मौजूदा सहयोगी दल इसके लिए उनका पुरज़ोर समर्थन कर रहे हैं.
विपक्ष की मुश्किलें
संसदीय चुनावों में भी गठबंधन को जारी रखने के सोलिह के तमाम प्रयासों के बावजूद सिर्फ़ धर्म-केंद्रित अदालत पार्टी (एपी) ही एमडीपी के साथ ही आंशिक तौर पर सीटों का समझौता हो सका. बाकी दो दलों- जम्हूरी पार्टी (जेपी) और पूर्व राष्ट्रपति ममून अब्दुल गयूम की ममून रिफ़ॉर्म्स मूवमेंट (एमआरएम) को गठबंधन से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
घटक दलों के लिए लोकल काउंसिल चुनावों में गठबंधन को लेकर एमडीपी द्वारा समय रहते फ़ैसला लिया जाना और सीटों का संतोषजनक बंटवारा बेहद अहम है. ये दल पक्ष और विपक्ष दोनों से ही अपने रिश्ते ख़राब नहीं करना चाहते. अगर उन्हें एमडीपी का साथ छोड़ना पड़ा तो उन्हें खुद को नए सिरे से खड़ा करने और जेलंबद पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के विपक्षी पीपीएम-पीएनसी गठबंधन के साथ ऐसे ही गठजोड़ की संभावना तलाशने के लिए बातचीत करने के लिए वक़्त चाहिए होगा.
ये गयूम द्वारा एक दशक में बनाई गई तीसरी पार्टी थी. दिलचस्प बात ये थी कि उनके सभी उम्मीदवारों के चुनाव चिन्ह भी एक नहीं थे और पार्टी को सिर्फ़ एक सीट पर जीत हासिल हो पाई थी.
ये चुनाव पीपीएम-पीएनसी की जोड़ी के लिए तो और भी अहम हैं. यूं तो उम्मीद के मुताबिक ही यामीन 2018 का चुनाव हार गए थे लेकिन इसके बावजूद उन्होंने 42 प्रतिशत वोट लाकर जानकारों को चौंका दिया था. ये आंकड़ा 2008 में हुए पहले बहुदलीय चुनावों में उनके सौतेले भाई और तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा हासिल किए गए 40-45 फ़ीसदी वोट की श्रेणी में आता है. मौजूदा स्पीकर और एमडीपी के नेता नशीद दूसरे रन-ऑफ राउंड में जीत के ज़रिए ही राष्ट्रपति बने थे
2008 में पहले दौर में गयूम को सबसे ज़्यादा 40 प्रतिशत वोट हासिल हुआ था, जबकि नशीद को 25 फ़ीसदी मत प्राप्त हुए थे. दूसरे रन-ऑफ़ राउंड में जेपी समेंत अपने तमाम घटक दलों के साथ नशीद 55 प्रतिशत मतों तक पहुंच गए जबकि गयूम को भी पहले के मुक़ाबले ज़्यादा वोट हासिल हुए. उनके वोटों का आंकड़ा 45 प्रतिशत रहा. दोनों ही दौर में गयूम को यामीन के तत्कालीन पीपुल्स अलायंस (पीए) के पूरे पांच प्रतिशत मत हासिल हुए थे. इसके 6 महीने बाद संपन्न संसदीय चुनावों में भी ये साबित हुआ था.
यहां सवाल है कि क्या 2018 में यामीन को हासिल हुए वोट 2008 में गयूम को हासिल हुए वोट का ठीक उल्टा था. इसके बाद 2019 के संसदीय चुनावों में एकदम नई पार्टी के बैनर तले चुनाव लड़ने वाले एमआरएम का प्रदर्शन बेहद ख़राब रहा था. ये गयूम द्वारा एक दशक में बनाई गई तीसरी पार्टी थी. दिलचस्प बात ये थी कि उनके सभी उम्मीदवारों के चुनाव चिन्ह भी एक नहीं थे और पार्टी को सिर्फ़ एक सीट पर जीत हासिल हो पाई थी.
सबको जोड़ने की ज़रूरत
2019 के संसदीय चुनावों में बग़ैर किसी सहयोगी दल के अकेले लड़कर एमडीपी ने 65 फ़ीसदी वोट शेयर के साथ चुनावों में ज़बरदस्त प्रदर्शन करते हुए कुल 87 सीटें हासिल कर लीं. इससे पहले भी नशीद के नेतृत्व वाले दल ने 2009 में हुए संसदीय चुनावों में अपने सहयोगी दलों को किनारे लगा दिया था. हालांकि, इससे कुछ ही महीनों पहले उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में रन-ऑफ़ राउंड में जीत हासिल करने के लिए इन्हीं सहयोगी दलों का ‘इस्तेमाल’ किया था.
बहरहाल सोलिह के नेतृत्व की बात करें तो 2019 के संसदीय चुनावों में बिना उनकी ग़लती के उनके वोट शेयर का 58 प्रतिशत से खिसककर 46 प्रतिशत पर आ जाना चिंता का कारण था. दूसरी ओर एक बंटे हुए विपक्ष- जिसमें एमडीपी से अलग हुए सहयोगी दल भी शामिल हैं- को उस समय 54 फ़ीसदी वोट हासिल हुए थे. राष्ट्रपति चुनाव के लिए 50 फ़ीसदी वोट का कट-ऑफ़ था.
अगर पार्टी कैडर को इस बात का भरोसा हो जाए कि पार्टी अपने बूते राष्ट्रपति चुनाव जीत रही है तो नशीद एक बार फिर से उनके सबसे प्रिय बन सकते हैं.
अगले राष्ट्रपति चुनाव में एमडीपी को सहयोगी दलों द्वारा गंभीरता से लिए जाने के लिए उन्हें ज़मीन पर इस बात के सबूत चाहिए कि नेता गठबंधन धर्म के अलिखित कायदों का पालन करेंगे. ऐसा नहीं हुआ तो उन्हें तीसरे मोर्चे के गठन के या यामीन कैंप के साथ सौदे के लिए वक़्त चाहिए होगा. दोनों ही मामलों में इस बात की ही संभावना है कि ये दल 2018 के पहले वाले मॉडल की ओर ही लौट जाएंगे. इसके तहत पहले दौर में वो अपने दम पर चुनाव लड़ेंगे और रन-ऑफ़ के लिए ही गठजोड़ पर बातचीत शुरू करेंगे.
संक्षेप में कहें तो राष्ट्रपति चुनाव में जीत हासिल करने के लिए सहयोगी दलों पर निर्भरता जारी रखने की ज़रूरत के मद्देनज़र एमडीपी के रजिस्टर्ड सदस्य मौजूदा राष्ट्रपति सोलिह या उनके जैसे किसी नरमपंथी नेता को ही पसंद करेंगे. नियमों के तहत इन्हीं सदस्यों को राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार चुनने का दायित्व दिया गया है. अगर पार्टी कैडर को इस बात का भरोसा हो जाए कि पार्टी अपने बूते राष्ट्रपति चुनाव जीत रही है तो नशीद एक बार फिर से उनके सबसे प्रिय बन सकते हैं. संभावनाएं हैं कि लोकल काउंसिल के चुनाव से पहले गठबंधन के मुद्दे को लेकर नशीद पार्टी की जनरल काउंसिल की बैठक बुला सकते हैं. हो सकता है कि ये बैठक ऑनलाइन माध्यमों के ज़रिए हो.
सोलिह का आत्मविश्वास
इसी पृष्ठभूमि में सोलिह की मेज़बानी में सहयोगी दलों की हाल की बैठक में एमआरएम के संस्थापक गयूम, जेपी के प्रमुख गासिम इब्राहिम, एपी के नेता और गृह मंत्री शेख़ इमरान के साथ-साथ एमडीपी के नशीद ने भी हिस्सा लिया. सोलिह के राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद इन तमाम घटक दलों ने हर महीने कम से कम एक बार इस तरह की मेल-मुलाक़ात करने का फ़ैसला किया था. लेकिन तब से ये शायद पहला मौका है जब इन तमाम सहयोगी दलों की आपसी मुलाक़ात हुई.
हाल ही में भारतीय अख़बार द हिंदू को दिए एक साक्षात्कार में सोलिह ने अपने गठबंधन में मौजूद तमाम मतभेदों के बावजूद उसपर भरोसा जताया था. उन्होंने कहा कि “ज़ाहिर तौर पर मतभेद और असंतोष हैं लेकिन इसके बावजूद हक़ीक़त यही है कि हम एकजुट हैं…हमलोग गठबंधन को बरकरार रखने में कामयाब रहे हैं और मिलजुल कर काम करके कड़ी चुनौतियों का सामना कर सके हैं. मुझे भरोसा है कि हम बातचीत और दोस्ताना तरीके से तमाम मुद्दों का हल निकाल लेंगे,” उनका ये बयान तब आया जब उनकी अपनी पार्टी एमडीपी के भीतर से गठबंधन तोड़ने को लेकर उनपर दबाव बढ़ता ही जा रहा है.
हाल ही में विपक्षी गठबंधन के कार्यकारी नेता अब्दुल रहीम अब्दुल्ला ने माफ़ुसी जेल में बंद यामीन से मुलाक़ात की थी. इस मुलाक़ात के बाद यामीन ने अब्दुल्ला के ज़रिए एक सार्वजनिक अपील जारी करते हुए लोकल काउंसिल के चुनावों में सोलिह सरकार को हराने का आह्वान किया. रहीम ने यामीन से जेल में मुलाक़ात करने के इच्छुक लोगों को मंज़ूरी देने के लिए राष्ट्रपति सोलिह का आभार जताया. लेकिन इसके साथ ही उन्होंने दो टूक कहा कि अगर यामीन जेल से रिहा भी हो जाते हैं तो भी सरकार के साध किसी भी तरह के ‘सौदे’ का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता.
चुनाव आयोग लोकल काउंसिल चुनावों के साथ-साथ पूरे देश में महिला विकास समितियों के भी चुनाव करवाना चाहता है.
रहीम ने ट्रायल कोर्ट द्वारा यामीन को ‘मनी लॉन्ड्रिंग केस’ में 5 साल की जेल और 1 करोड़ डॉलर के जुर्माने के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में दायर अपील की सुनवाई को आख़िरी क्षण में 14 जनवरी से 21 जनवरी के लिए मुल्तवी किए जाने के फ़ैसले पर संदेह जताया था. उनका कहना था कि सोलिह और नशीद की जोड़ी यामीन के जल्द जेल से छूटने को लेकर डरी हुई है और इसी वजह से न्यायपालिका को प्रभावित कर रही है. यहां ये याद दिलाना ज़रूरी है कि ट्रायल कोर्ट को भी ठीक उसी दिन पुनर्गठित कर तीन जजों की बेंच में बदला गया था जिस दिन एक जज वाली बेंच अपना फ़ैसला सुनाने वाली थी.
बहरहाल चुनाव आयोग ने अपने हिसाब से लोकल काउंसिल चुनावों के कार्यक्रम को फिर से तय करते हुए लिए 3 अप्रैल की तारीख़ तय कर रखी है. हालांकि इसके लिए संसद को संबंधित कानूनों में ज़रूरी बदलाव करने होंगे ताकि स्वास्थ्य को लेकर राष्ट्रव्यापी आपातकाल के लागू रहते चुनाव करवाए जा सकें और ज़रूरी हो तो चुनावों की नई तारीख़ भी तय की जा सके. चुनाव आयोग लोकल काउंसिल चुनावों के साथ-साथ पूरे देश में महिला विकास समितियों के भी चुनाव करवाना चाहता है. संसद के विशेष सत्र में विधेयक के मसौदे पर मुहर लगने की उम्मीद रखते हुए चुनाव आयोग ने अपनी ओर से एक समयसीमा के भीतर तमाम ज़रूरी काम निपटाने की प्रक्रिया तेज़ कर दी है.
इस सिलसिले में चुनाव आयोग ने सत्तारूढ़ दल एपी को अपने नियमों पर पुनर्विचार कर महिलाओं पर पार्टी का नेता बनने से जुड़ी रोक को हटाने को कहा. चुनाव आयोग के निर्देशानुसार पार्टी ने इस मकसद से ऑनलाइन तरीके से आंतरिक बैठक बुलाने का एलान किया. हालांकि इससे पहले ही पार्टी ने 23 जनवरी को अपने अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चुनाव कराने का फ़ैसला कर लिया था.
यह लेख मूल रूप से ओआरएफ साउथ एशिया वीकली में छपा है.
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