Published on Apr 10, 2017 Updated 5 Days ago
सोमालिया: एक विफल देश?

यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अफ्रीका के लगभग सारे देश किसी न किसी प्रकार के संघर्ष का सामना कर रहे हैं। फिर भी, उनमें से अधिकांश देश अपना वजूद बनाये रखने में कामयाब रहे हैं और दक्षिण सुडान तथा लोकतांत्रिक गणराज्य कांगो जैसे कुछ देश तो काफी हद तक सफल देशों के रूप में उभर कर सामने आए हैं। बहरहाल, सोमालिया ऐसा नहीं कर पाया है। सोमालिया के ऐसा कर पाने में विफलता के क्या कारण हैं? क्या इसमें बाहरी हस्तक्षेपों की कोई भूमिका है? इस्लाम के फोबिया का इसमें कोई योगदान है और क्या अंतः कबीलाई गृह युद्ध की भी इसमें कोई भूमिका है? इस लेख के अनुसार, हालांकि इसके पीछे कई कारण हैं, जैसेकि अनावश्यक हस्तक्षेप — खासकर, 2006 में इथोपिया के मामले में पर सोमालिया के एक देश के रूप में विफलता की मुख्य वजह एक दक्ष नेतृत्व की कमी रही है।

भूमिका

19वीं सदी एवं 20वीं सदी के पूर्वार्ध में औपनिवेशिक देशों ने सोमालिया को पांच भागों में विभाजित कर दिया — ब्रिटेन (यूके) ने दो हिस्से अपने पास रखे जबकि इटली, इथोपिया एवं फ्रांस ने एक-एक हिस्सा रखा। सोमालियावासियों ने लगभग सभी औपनिवेशिक ताकतों से आजादी के लिए लड़ाई लड़ी। उत्तरी एवं दक्षिणी सोमालिया को क्रमशः 26 जून, 1960 एवं 01 जुलाई, 1960 को आजादी मिली। सोमालिया के सभी हिस्सों ने अंततोगत्वा एक वृहद सोमालिया का निर्माण किया।

1960 से लेकर 1969 तक, सोमालिया एक लोकतांत्रिक देश था। 1969 में हुए तख्तापलट के जरिये, सियाद बर्रे सत्ता में आया। बर्रे ने सोवियत संघ के साथ घनिष्ठ संबंध बनाये जिसने पूरे 1970 के दशक के दौरान सोमालिया को सहायता प्रदान की। समस्या तब शुरु हुई, जब बार्रे ने ओगाडेन सोमाली क्षेत्र को इथोपिया से वापस लेने का प्रयास किया और सोवियत संघ ने इथोपिया को समर्थन देने का फैसला किया। इससे बर्रे कुपित हो गया जिसका नतीजा सोमालिया और सोवियत संघ के रिश्तों के खात्मे के रूप में सामने आया। इसके परिणामस्वरूप, अमेरिका सोमालिया के करीब आ गया।

अमेरिका ने सोमालिया को 1980 एवं 1988 के बीच सैन्य प्रौद्योगिकी के लिए 163.5 मिलियन डॉलर के बराबर की विदेशी सहायता दी, और इस राशि से चार गुना अधिक आार्थिक विकास के लिए दी।

1980 के उत्तरार्ध तक, ओगाडेन युद्ध के बाद, उत्तर में बर्रे की नीतियों का परिणाम इसाक कबीले के बीच असंतोष के रूप के सामने आया। (सोमालिया में पांच बड़े कबीले हैं — इसाक, दारूद, डिगिल एवं मिरिफ्ल, दिर एवं हावीव — एवं विभिन्न छोटे कबीले) इसाक सबसे बड़े उत्तरी कबीले थे और वर्तमान नीतियों एवं सरकारी संसाधनों से उन्होंने खुद को अलग थलग महसूस किया। कुछ कदमों, जैसेकि ओगाडेन शरणार्थियों को उत्तरी क्षेत्र में फिर से बसाने, को दक्षिणी प्रयासों द्वारा उत्तरी हितों को नष्ट करने की कोशिशों के रूप में देखा गया। उत्तरी इसाक कबीले के नेतृत्व में बर्रे के खिलाफ एक बगावत हुई और इसके प्रत्युत्तर में बर्रे ने उत्तरी शहरों, गांवों एवं यहां तक कि ग्रामीण ढांचों पर भी बमबारी के आदेश दिए। धीरे धीरे, बगावत दक्षिणी क्षेत्रों तक फैल गई और 1992 में बर्रे को भागने को मजबूर होना पड़ा। युद्ध में सोमालिया की हार से एक तीखे आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरु हो गया। अंततोगत्वा, इसका परिणाम उनके खिलाफ विद्रोह के रूप में सामने आया।

बर्रे के बाद सोमालिया में अराजकता

नतीजतन, सियाद बर्रे जनवरी 1991 में मोगादिशु से भाग गया। जनरल मोहम्मद फराह ऐडिड के नेतृत्व में सैनिकों ने सियाद बर्रे का पीछा किया जबकि अली महदी मोहम्मद, जोकि मोगादिशु का एक समृद्ध व्यवसायी था, ने खुद को नया राष्ट्रपति घोषित कर लिया और एक सरकार का गठन किया। उत्तर में, इसाक कबीलों ने एक स्वतंत्र सोमालीलैंड का गठन किया। सत्ता में आने के अली महदी के दावों को उनके अपने नियंत्रण वाले समूहों के अतिरिक्त अन्य किसी समूह द्वारा मान्यता नहीं दी गई।

दो युद्धरत कबीला सरदारों-मोहम्मद फराह ऐडिड एवं अली महदी मोहम्मद के बीच सत्ता संघर्ष के परिणामस्वरूप, हजारों सोमाली नागरिक मारे गए एवं घायल हुए। 1992 तक, बीमारी, भूख या प्रत्यक्ष गृह युद्ध में लगभग 350,000 लोग मारे जा चुके थे। इसके बाद, संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) ने ‘ऑपरेशन विश्वास पुनर्बहाली’ नामक एक अभियान को मंजूरी दी और अमेरिका को संघर्षरत कबीलाई सरदारों से भोजन के जहाजों की सुरक्षा करने का दायित्व सौंपा। बहरहाल, अमेरिका स्थानीय समूहों के साथ झड़पों में संलिप्त हो गया।

1993 में सोमाली बागियों ने दो अमेरिकी हेलीकॉप्टर मार गिराए जिसमें 18 अमेरिकी सैन्य रेंजर तथा मलेशिया का एक यूएन जवान मारा गया। इसके बाद भारी लड़ाई हुई जिसमें सोमालिया के हजारों नागरिक मारे गए। 1994 में, अमेरिका ने औपचारिक रूप से सोमालिया में अपने मिशन को समाप्त कर दिया जिसकी कीमत उसे 1.7 बिलियन डॉलर तथा 43 अमेरिकी सैनिकों की जान से चुकानी पड़ी। इसमें 153 अमेरिकी सैनिक घायल भी हुए।

1993 में सोमाली बागियों ने दो अमेरिकी हेलीकॉप्टर मार गिराए जिसमें 18 अमेरिकी सैन्य रेंजर तथा मलेशिया का एक यूएन जवान मारा गया।

सोमालिया में संयुक्त राष्ट्र कार्रवाई (यूएनओएसओएम) देश में स्थिरता लाने के लिए एक अधिक सुविचारित कदम था पर अपने लक्ष्य को अर्जित करने की जगह यह शक्तिशाली कबीला सरदार जनरल मोहम्मद फराह ऐडिड के साथ संघर्ष में उलझ गया। यूएनओएसओएम विफल रहा और इसने सोमालिया को ध्वंस एवं युद्ध की एक स्थायी स्थिति में छोड़ दिया। सोमालिया को ऐडिड के शासनकाल के तहत एवं इसके बाद आपस में लड़ने वाले कबीलों के कारण भारी नुकसान का सामना करना पड़़ा। जनरल मोहम्मद फराह ऐडिड की हत्या के बाद, हुसैन फराह ऐडिड ने शासन भार संभाला। बहरहाल, इसका परिणाम एक स्थिर प्रशासन के रूप में सामने नहीं आया।

1999 में डिजिबाउटी गणराज्य द्वारा प्रायोजित एक सम्मेलन के माध्यम से सोमाली सिविल सोसाइटी समूहों को सहायता प्रदान की गई और उसके बाद वार्ताकार पक्षों ने एक समझौता किया जिसने ट्रांजिशनल नेशनल गवर्नमेंट (टीएनजी) के लिए रास्ता प्रशस्त किया। हालांकि यह सोमाली के इतिहास के लिए एक निर्णयक मोड़ साबित हो सकता था, पर टीएनजी मुख्य रूप से इसकी अक्षमता और इसके नेताओं की लालच तथा इथोपिया और उसके सहयोगी देशों की समझौते को कमतर करने की लगातार कोशिशों के कारण विफल रहा।

16 वर्ष से अधिक की अवधि में सोमालिया ने सरकार के गठन की 14 नाकाम कोशिशें कीं। एक मूलभूत समस्या यह थी कि टीएनजी पर मोगादिशु स्थित विशेष रूप से हाविये/हैबर गेदिर/एवीआर उप कबीलों का वर्चस्व रहा, और इस प्रकार वह एक राष्ट्रीय एकता वाली सरकार नहीं बन सकी। इसे सोमाली समन्वय एवं पुनर्वास परिषद (एसआरआरसी) नामक कबीलों के एक असंगठित गठबंधन से विरोध का सामना करना पड़ा जिसे इथोपिया की सहायता प्राप्त थी। एसआरआरसी का नेता पूर्वात्तर सोमालिया में पंटलैंड के स्वयतशासी देश का राष्ट्रपति अब्दुल्लाह युसुफ था।

16 वर्ष से अधिक की अवधि में सोमालिया ने सरकार के गठन की 14 नाकाम कोशिशें कीं।

सोमालिया में 1990 के दशक के उत्तरार्ध में वाणिज्यिक अवसर खुलने लगे। हालांकि व्यवसायियों को नागरिक सेनाओं के लिए पैसे देने पड़ते थे, पर उन्हें इसके बदले कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं होती थी। इससे उनमें कुंठा पैदा हुई और इसके बाद उन्होंने नागरिक सेनाओं के जवानों को लुक छिप कर अलग से पैसे देने शुरू कर दिए और यह सुनिश्चित किया कि बंदूकधारी स्थानीय शरिया अदालतों के नियंत्रण के अधीन ही रहें। शरिया सहायक सेना एक विख्यात सुरक्षा स्रोत में तबदील हो गई जो युद्धरत कबीलाई समूहों से अधिक भरोसेमंद थे। 2000 में गठित टीएनजी सरकार ने सुनिश्चित किया कि शरिया नागरिक सेना अस्थायी रूप से भंग हो जाए क्योंकि व्यावसायिक समूहों ने भी नई सरकार को अपना समर्थन देना आरंभ कर दिया। टीएनजी के विफल होने के बाद, व्यावसायियों ने अपनी परिसंपत्तियों को सुरक्षा देने के लिए भारी संख्या में निजी सुरक्षा बलों का निर्माण किया। ये निजी समूह मेगादिशु में सबसे ताकतवर नागरिक सेना बन गए और 2006 तक उनकी यही स्थिति बनी रही।

अंततोगत्वा, टीएनजी को इंटरगवर्नमेंटल अथॉरिटी ऑन डेवेलपमेंट (आईजीएडी) द्वारा प्रायोजित शांति परामर्श को स्वीकार करने को मजबूर होना पड़ा। शांति विचार सभा के मुख्य निदेशक केन्या और इथोपिया थे। उन्होंने युद्ध नेताओं के साथ एक सामरिक गठबंधन का निर्माण करना पसंद किया। इसका परिणाम 2004 में युद्ध नेताओं के नेतृत्व में एक नई सरकार के उद्भव के रूप में सामने आया। अपने प्रभाव के जरिये, इथोपिया राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री का चयन करने में अपनी पसंदगी थोपने में समर्थ हो गया।

पुराना एसएसआरसी गठबंधन प्रकृति में इस्लाम का घोर विरोधी था और मेगादिशु से बाहर स्थित था। दूसरी तरफ, मेगादिशु स्थित गठबंधन को अरब विश्व का समर्थन हासिल था जोकि प्रकृति में इथोपिया विरोधी था और इसने अपने गठबंधन में इस्लामियों पर नियंत्रण रखा। इसने एक संघवादी सरकार की तुलना में मजबूत एकता वाली सरकार को वरीयता दी और इस पर हाविये कबीले का वर्चस्व रहा। आईजीएडी ने 2002 में शांति स्थापित करने की एक और कोशिश की। पहले इस पर फैसला करना एक आम प्रचलन था कि कौन सा कबीला किन क्षेत्रों पर नियंत्रण रखेगा। आम तौर पर आईजीएडी एवं विशेष रूप से इथोपिया के सतत दबाव के कारण अगस्त में एक 275 सदस्यीय संसद तथा सितंबर 2004 में 4.5 फॉर्मूला के रूप में सफलता मिली। 4.5 फॉर्मूले के अनुसार, चार प्रमुख कबीलों में से प्रत्येक को समान संख्या में स्थानों का आवंटन किया गया और आधे स्थान का आवंटन उस कबीले को किया गया जिसने अल्पसंख्यकों एवं महिलाओं के लिए स्थान निर्धारित किया था।

 अक्तूबर, 2004 में मिजेरटीन/दारूद कबीले के अब्दुल्लाही युसुफ को ट्रांजिशनल फेडेरल गवर्नमेंट (टीएफजी) का अध्यक्ष चुना गया। युसुफ पूर्वोत्तर सोमालिया में पंटलैंड के स्वायतशासी देश का राष्ट्रपति और इथोपिया का एक घनिष्ठ सहयोगी भी था। युसुफ ने मोहम्मद घेदी को अपन प्रधानमंत्री बनाया। घेदी के भी इथोपिया के साथ बहुत अच्छे संबंध थे। घेदी ने जिस 82 सदस्यीय मंत्रिमंडल का गठन किया, उसने हालांकि 4.5 फॉर्मूले का अनुसरण किया, पर वह एसआरसीसी गठबंधन के समर्थकों से बना हुआ था। टीएनजी वस्तुतः अलग थलग पड़ गया क्योंकि उसके साथ जुड़े लोगों को कोई भी महत्वपूर्ण पद प्राप्त नहीं हुए। इसके अतिरिक्त, भ्रष्टाचार के भी आरोप थे जिससे यह संकेत मिला कि इथोपिया के पैसे का इस्तेमाल करने के जरिये सांसदों के मतों की खरीद फरोख्त की गई थी।

शांति प्रक्रिया

केन्या शांति प्रक्रिया विफल रही क्योंकि संघर्ष के मूल कारणों पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया और इसके लिए सोमाली समूह और प्रभावहीन अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थ जिम्मेदार थे। नागरिक सेना के कुछ सदस्यों ने तो उस कक्ष में भी बैठने से इंकार कर दिया जिसमें टीएफजी मंत्रिमंडल के सदस्य बैठते थे। विपक्ष का रुख अडि़यल था और उसने मोगादिशु के बाहर किसी भी शहर को राजधानी बनाने पर विचार करने से इंकार कर दिया जिससे बातचीत में गतिरोध पैदा हो गया। इस समस्या को मोगादिशु में हाविये कबीले के दबदबे ने और भी जटिल कर दिया क्योंकि इस कबीले को लगा कि नगर पर उसके कब्जे ने उन्हें संपूर्ण देश पर शासन करने का पूरा अधिकार दे दिया है। इसलिए, वे सत्ता नहीं छोड़ना चाह रहे थे। आंशिक रूप से, यही वजह थी कि मोगादिशु समूह सोमालिया में संघवाद का इतने पुरजोर तरीके से विरोध कर रहे थे।

केन्या शांति प्रक्रिया विफल रही क्योंकि संघर्ष के मूल कारणों पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया और इसके लिए सोमाली समूह और प्रभावहीन अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थ जिम्मेदार थे।

इसके अतिरिक्त, मोगादिशु समूह द्वारा शांति प्रक्रिया को भंग करने के प्रत्यक्ष प्रयास भी किए गए। संसद को बोडोया में पुनस्थापित करने से रोकने के लिए मोगादिशु के दो समूहों द्वारा बोडोया पर कब्जा कर लिया गया। यह सभी समूहों द्वारा हस्ताक्षरित अतिक्रमण खंड की समाप्ति का एक स्पष्ट उल्लंघन था। इथोपिया जैसे अंतरराष्ट्रीय सक्रिय देशों की सत्ता परिवर्तन प्रक्रिया के दौरान जोड़तोड़ में भूमिका स्पष्ट थी। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम, ईसी एवं विश्व बैंक ने बगैर उसके जोड़तोड़ की आलोचना किए, बहुत जल्द युसुफ के प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया। उनके इस कदम को युसुफ का पक्ष लेना माना गया।

सैन्य समूह अल-शाबाब (द यूथ) मोगादिशु में सोमालियों के खिलाफ राजनीतिक हत्याओं के खूनी खेल में संलिप्त था जिन पर टीएफजी के साथ संबंध रखने का संदेह था। 2005 में युसुफ एवं घेदी की हत्या करने के कम से कम तीन प्रयास किए गए। 2005 के मध्य तक, एससीआईसी मोगादिशु में सबसे मजबूत राजनीतिक एवं सैन्य बल था।

एक खोया हुआ अवसर नागरिक प्रणाली की विफलता थी, जो 2015 में मोगादिशु सुरक्षा एवं स्थिरीकरण योजना (एमएसएसपी) से उत्पन्न हुई। यह एक असंगठित गठबंधन था जिसमें हाविये कबीले, खासकर, अएर उप-कबील की कुछ बड़ी राजनीतिक हस्तियां; टीएफजी मंत्रालय में कुछ लोगों समेत हाविये युद्धनेता; देश के अग्रणी व्यावसायी; एवं सिविल सोसाइटी समूह शामिल थे।

महिला समूहों एवं सिविल सोसाइटी द्वारा उपलब्ध कराई गई सहायता से सोमालिया में सुरक्षा एवं आजादी का एक अस्थायी भाव आया। इस्लामी, नागरिक सेना एवं राजनीतिक कुलीनों ने एक साथ काम करके यह सुनिश्चित किया कि यह आंदोलन बर्बाद हो जाए। उनके लिए यह आसान था क्योंकि सिविल सोसाइटी असंगठित थे और धीरे धीरे वे निष्क्रिय हो गए।

अनावश्यक संघर्ष

दक्षिणी सोमाली कबीलों के बीच जो संघर्ष हुए, उनमें शांति एवं आतंकरोधी व्यवस्था बहाल करने के लिए मोगादिशु के इस्लामवादियों एवं अमेरिका समर्थित गठबंधन के बीच की लड़ाई सर्वाधिक अप्रत्याशित और आतंकविरोधी थी। इसने पहले से मौजूद तनाव को और बढ़ा दिया। अक्तूबर 2005 तक, टीएफजी उल्लेखनीय रूप से कमजोर हो गया था। नगरपालिका प्रशासन पर नियंत्रण को लेकर इस्लामवादियों एवं हाविये के जमींदार मूसा सुदे के बीच हुए संघर्ष में युद्धनेताओं और इस्लामवादियों के बीच एक बड़ा दरार पैदा कर देने की गंुजाइश थी। अमेरिकी सरकार को यह आशंका थी कि सोमालिया अल कायदा के आतंकियों के लिए एक सुरक्षित शरण स्थली के रूप में काम कर रहा है। अगस्त 1998 में नैरोबी एवं डेरे सलाम के अमेरिका दूतावासों में हुई बमबारियों ने उनका खौफ बढ़ा दिया था। चूंकि वहां कोई स्थानीय सरकारें नहीं थीं इसलिए अमेरिका ने कुछ युद्धनेताओं समेत स्थानीय लोगों के साथ गठबंधन करने का फैसला किया। बहरहाल, अल कायदा के आतंकियों को निकाल बाहर करने की इसकी इच्छा पूरी नहीं हुई।

फरवरी 2006 में, नौ हाविये कबीले के नागरिक सेनाओं के नेताओं और व्यवसायियों के एक समूह ने ‘शांति एवं आतंकरोधी व्यवस्था बहाल करने के लिए एक गठबंधन’ का निर्माण किया। लेकिन कुछ ही सप्ताहों के भीतर, संघर्ष पैदा हो गए। विडंबना यह थी कि इस संघर्ष की शुरूआत गठबंधन — इस्लामवादियों के बीच किसी प्रतिद्वंदिता के रूप में नहीं हुई, बल्कि संपत्ति के ऊपर पहले से मौजूद एक झगड़े और विरोधी पक्ष के दो व्यावसायियों के बीच एक निजी बंदरगाह के ऊपर नियंत्रण को लेकर हुई। जल्द ही यह एक बड़ी लड़ाई के रूप में तबदील हो गया। तीन महीने तक चली लड़ाई में इस्लामी मोर्चे ने लगभग हर लड़ाई जीती और जून तक उन्होंने लगभग पूरी राजधानी को अपने कब्जे में ले लिया था। सितंबर तक, उनका उत्तर में पंटलैंड से लेकर दक्षिण में केन्या सीमा तक नियंत्रण हो चुका था। टीएफजी का नियंत्रण बैडोआ और इसके आसपास के क्षेत्रों तक था। इस्लामवादियों ने खुद को इस्लामी अदालतों की एक परिषद (सीआईसी) के रूप में पुनगर्ठित किया।

पहले कुछ महीनों के दौरान, सीआईसी का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा। उन्होंने सोमाली डायसपोरा (प्रवासियों) से समर्थन हासिल करने में सफलता पाई और देश में सबसे मजबूत सैन्य और राजनीतिक ताकत के रूप में उभर कर सामने आए तथा अपने वित्तीय और सैन्य संसाधनों को बढ़ाया। उन्हें अंतरराष्ट्रीय समुदाय का समर्थन भी हासिल हुआ जिसने टीएफजी पर एक सरकार बनाने के लिए सीआईसी के साथ बातचीत करने का दबाव बनाया। वे 11 वर्षों के बाद बंदरगाह और 10 वर्षों के बाद अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे को खोलने में कामयाब हुए। सीआईसी द्वारा ये उल्लेखनीय उपलब्धियां थीं और इसने टीएफजी, पंटलैंड एवं सोमालीलैंड समेत विरोधी ताकतों का मनोबल गिरा दिया। इथोपिया की ताकतों और अंदरुनी कट्टरपंथ ही उनके सामने एकमात्र खतरा थे।

जून 2006 से दिसंबर 2006 तक बहस इस बात को लेकर थी कि सीआईसी का नियंत्रण नरमपंथी कर रहे हैं या उग्रपंथी। इसका नेतृत्व एक नरमपंथी शेख शरीफ और एक उग्रपंथी हसन दाहिर अवेयस के बीय एक असहज साझीदारी से निर्मित्त था। टीएफजी एवं सीआईसी में नरमपंथियों के बीच बातचीत करने में जटिलताएं थीं क्योंकि दोनों उग्रपंथी और इथोपिया बातचीत के विरोधी थे। इसके अतिरिक्त, अमेरिका ने जोर दिया कि उनके पास खुफिया रिपोर्ट है कि नैरोबी एवं डारे सलाम पर बम गिराने वाले अल-कायदा के कुछ संदिग्धों को अल-शाबाब ने शरण दे रखी है पर सीआईसी ने इन आरोपों का खंडन किया। एविस ने भी उपहास एवं उपेक्षा करने वाला भाव दिखाया। इसके परिणामस्वरूप, अमेरिका ने इथोपिया को हमले की हरी झंडी दे दी।

ऐसा कहा जा सकता है कि नरमपंथी बनाम उग्रपंथी की बहस को कुछ अधिक खींच दिया गया।

सीआईसी के कई समर्थकों ने जोर दिया कि एवेयस ने अपने जेहाद के एजेंडा को त्याग दिया था और राजनीतिक रूप से नरमपंथी बन गया था। कुछ सोमालियों का यह भी मानना है कि अल कायदा के आतंकियों को सोमालिया में शरण नहीं दिया गया था। बहरहाल, इन दावों को अगर सही भी मान लें तो एक कुशल नेतृत्व को, जो देश को अराजकता से बाहर निकालने का प्रयास कर रहा था, एक महाशक्ति के प्रति उपहास का भाव नहीं रखना चाहिए जिनकी खुफिया इकाइयों ने जोर देकर कहा था कि अल कायदा के आतंकी सोमालिया में पनाह ले रहे हैं।

इथोपिया का पदार्पण

24 दिसंबर, 2006 को इथोपिया ने एक ही साथ सीआईसी के खिलाफ, मध्य सोमालिया के खिलाफ एवं बेडोया के निकट खाड़ी में हमला कर दिया। इसके बाद, आम उम्मीद यह थी कि सीआईसी मोगादिशु में गुरिल्ला युद्ध शुरु कर देगा। बहरहाल, सीआईसी ने अपने विघटन की घोषणा की और अपने अधिकांश हथियार और सैन्य इकाइयों को कबीले के अधिकारियों को वापस कर दिया, इसके बाद किसमायों के दक्षिणी बंदरगाह शहर की तरफ भाग गए जहां उन्होंने आगे बढ़ रही इथोपिया एवं टीएफजी बलों के खिलाफ खड़े होने का फैसला किया। बहरहाल, किसमायो के निवासियों ने सीआईसी को एक युद्ध के मैदान के रूप में किसमायो का इस्तेमाल करने की अनुमति देने से मना कर दिया। जून 2007 तक, टीएफजी एवं सीआईसी दोनों ने ही अपना रुख कड़ा कर लिया था। टीएफजी ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे जीतने की स्थिति में थे और सीआईसी ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उनका यह मानना था कि वे बातचीत में तभी हिस्सा लेंगे जब इथोपिया की सेना सोमालिया से हट जाएगी।

इन संघर्षों को और आगे बढ़ाते हुए, अमेरिकी वायु सेना ने अल कायदा के आतंकवादियों को निशाना बनाने के लिए वापसी कर रही इस्लामिक कोर्ट्स यूनियन (आईसीयू) के खिलाफ हमला कर दिया जिन पर आईसीयू द्वारा पनाह दिए जाने के आरोप थे। इसके परिणामस्वरूप, आईसीयू ने एरिट्रिया में पनाह दिया। अन्य विरोधी समूहों के साथ सेनाओं को संयोजित करते हुए, आईसीयू ने इथोपिया के कब्जे के खिलाफ विपक्ष को मजबूत बनाने के लिए एलायंस फॉर रि-लिबरेशन ऑफ सोमाली (एआरएस) की स्थापना की। 2007 के प्रारंभ में, एयू शांतिवाहिनी (एएमआईएसओएम) का एक छोटा सैन्य दल आया और उसने शांति लाने और ट्रांजिशनल फेडेरल इंस्टीच्यूशंस (टीएफआई) की सुरक्षा करने का प्रयास किया। बहरहाल, अगले कुछ वर्षों के दौरान, इथोपिया एवं टीएफजी द्वारा ‘विजयी द्वारा शांति (विक्टर्स पीस)’ थोपने के प्रयासों का परिणाम कबीला नागरिक सेना और आईसीयू के सैन्य विभाग, अल-शाबाब के अवशेषों के एक मिश्रण से एक हिंसक प्रतिरोध के रूप में सामने आया। केवल 2007 में ही, टीएफजी एवं बागी दल के बीच लड़ाई का नतीजा मोगादिशु से लगभग 700,000 लोगों के विस्थापन के रूप में सामने आया। हाविये कबीले की आर्थिक बुनियाद कमजोर हो गई। लंबे समय तक इथोपिया के कब्जे का सोमालिया के भीतर एवं डायसपोरा से काफी प्रतिरोध पैदा हुआ जिसका परिणाम सोमालियों की एक नई पीढ़ी के कट्टरपंथी होने के रूप में सामने आया।

जब टीएफजी एवं एआरएस के बीच संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता वाली बातचीत हुई, तो सोमालिया में एक नरमपंथी इस्लामी सरकार की संभावना के साथ एक नई और संगठित टीएफजी की स्थापना हुई। अब्दुल्लाह युसुफ ने इस्तीफा दे दिया और आईसीयू के पूर्व अध्यक्ष शेख शरीफ शेख अहमद से सत्ता संभाला। यह राष्ट्र निर्माण के लिए एक अवसर था क्योंकि इस सरकार को आंतरिक (सोमालिया) एवं बाहरी (अंतरराष्ट्रीय समुदाय) कारकों दोनों का समर्थन हासिल था। बदकिस्मती से, केवल नौ महीनों के भीतर ही, सोमालिया में फिर से अराजकता भड़क उठी। अल शाबाब ने एआरएस द्वारा विश्वासघात के रूप में जिबौती समझौते को खारिज कर दिया। अहमद गोदाने के नेतृत्व में, जिसे व्यापक रूप से अक्तूबर 2008 में, हरगैसों एवं बोसासो पर आत्मघाती बमों के लिए जिम्मेदार माना जाता था, अल-शाबाब ने अल कायदा के लिए अपने समर्थन की घोषणा की। अंततोगत्वा, अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने 2012 में हसन शेख मोहम्मद को समर्थन दिया जिसने राष्ट्रपति का पद भार ग्रहण किया। वर्तमान में, सोमालिया को अल कायदा एवं हिजबुल इस्लामी ताकतों, जिसका अधिकांश मध्य सोमालिया पर नियंत्रण है, दोनों से ही निपटने में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है।

सोमालीलैंड एवं पंटलैंड के मामले

सोमालीलैंड 26 जून 1960 को आजादी प्राप्त करने से पहले 75 वर्षों तक ब्रिटेन संरक्षित देश था। सोमाली गणराज्य बनाने के लिए पूर्व इटालियन सोमालीलैंड के साथ स्वेच्छा से एकजुट हो जाने से पहले सोमालीलैंड का अस्तित्व एक स्वायतशासी देश के रूप में था। सोमालीलैंड का अस्तित्व , 1991 से एक वास्तविक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में रहा है। इसने एक विद्रोह के कारण हुए नुकसान के बावजूद, जिसने इसकी अधिकांश आबादी को इथोपिया के शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर किया, सफलतापूर्वक अपनी अर्थव्यवस्था और आधारभूत ढांचे का पुनर्निर्माण किया। बहरहाल, अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने फैसला किया है कि वह इसे तबतक मान्यता नहीं देगा, जबतक एयू इसे मान्यता नहीं देता। इसके उलट, एयू को आशंका है कि इस सोमालिया के अन्य हिस्सों, जैसे हिरनलैंड, जुबलैंड, पंटलैंड एवं अफ्रीका के अन्य क्षेत्रों को भी प्रेरित कर सकता है। इसलिए, एयू ने भी सोमालीलैंड को मान्यता देने से इंकार कर दिया है।

अंतरराष्ट्रीय सहायता एवं ऋणों से वंचित, सोमालीलैंड को लगभग 250 मिलियन डॉलर के छोटे बजट पर गुजारा करना पड़ा है।

अधिकतर मामलों में, सोमालीलैंड का अस्तित्व बचा रहा है क्योंकि इसके प्रवासी नागरिक (डायसपोरा) लगभग 1 बिलियन डॉलर अपने देश भेजते हैं। संदेहवादी, जोकि सोमालीलैंड को मान्यता देने के खिलाफ हैं, अपनी स्थिति को न्यायोचित ठहराने के लिए दक्षिण सुडान का जोकि अराजकता से जूझ रहा है; इरिट्रिया का जिसका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है; और खुद सोमालिया का जोकि एक विफल देश है, उदाहरण देते हैं और इस आशंका को रेखांकित करते हैं कि अंत में सोमालिया की स्थिति भी इन तीनों देशों के समान हो सकती है। यह एक अविवेकपूर्ण तर्क प्रतीत होता है।

अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलने के बाद उसे मिलने वाली अधिक सहायता उसे सूखा जैसे संकटों से निपटने में सहायता कर सकती है, जिसने अफ्रीका के हॉर्न क्षेत्र (पूर्वी अफ्रीका का एक क्षेत्र) को अपनी गिरफ्त में ले रखा था। इस भीषण सूखे के कारण लगभग 4.6 मिलियन लोगों को भूख की स्थिति का सामना करना पड़ा। वहाबीवाद में भी बढोतरी होने की रिपोर्ट है जोकि सोमालीलैंड में व्याप्त इस्लाम का एक बेहद उग्र, मूलभूत संस्करण है। जैसाकि फ्रांस के एक पत्रकार राबर्ट विम लिखते हैंः सोमालीलैंड को औपचारिक मान्यता से इंकार करने का अर्थ है उन लोगों को दंडित करना जो बहुत शांतिप्रिय रहे हैं: यह हॉर्न क्षेत्र में स्थिरता के लिए एक बहुत बुरा संकेत है।

सोमालिया के पंटलैंड राज्य का निर्माण 1998 में किया गया था और यह पूर्वोत्तर सोमालिया में स्थित है। यह एक कार्यशील राज्य जैसी नौकरशाही का दावा करता है। पंटलैंड ने कभी भी खुद को स्वतंत्र घोषित नहीं किया और नाम मात्र के लिए टीएफजी के प्रभुत्व को स्वीकार किया। सोमालीलैंड की तुलना में इसकी कमजोर संरकारी संरचना है। बहरहाल, इसने अपने नियंत्रण क्षेत्र के भीतर अपेक्षाकृत स्थिरता बनाई है। इसके संविधान के अनुसार, पंटलैंड सोमाली राज्य का एक हिस्सा है और सोमाली सरकार के पुनर्निर्माण की दिशा में काम करता है।

अमेरिकी हस्तक्षेप

अमेरिकी हस्तक्षेप सियाद बर्रे शासन काल के दौरान शीत युद्ध के कारण आरंभ हुआ, जब सोवियत संघ ने सोमालिया के बदले इथोपिया को समर्थन देने का फैसला किया। तब सियाद बर्रे सत्ता ने अमेरिका से सहायता प्राप्त करनी शुरु की। सियाद बर्रे के बाद, अमेरिका एवं संयुक्त राष्ट्र संघ ने हस्तक्षेपों की शुरुआत की। प्रारंभ में, जनरल ऐडिड, जो एक समूह का नेतृत्व कर रहा था, ने 2002 तक संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप को खारिज किया। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने सुनिश्चित किया कि मानक प्रक्रियाओं का अनुपालन किया जाए। संयुक्त राष्ट्र संघ ने ब्लू हेलमेट (संयुक्त राष्ट्र संघ की शांतिवाहिनी) का उपयोग नहीं किया क्योंकि इसका अर्थ होता कि यह उनकी तैनाती तभी कर सकता था जब सभी विवादास्पद पक्ष इसे स्वीकार कर लेते। हजारों लोग भूखमरी एवं रोगों के शिकार बन गए।

नवंबर में, अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने प्रस्ताव रखा कि संयुक्त राष्ट्र संघ की एक बड़ी सैन्य टुकड़ी सोमालिया भेजी जाए जिसमें अमेरिकी सेना शामिल रहेगी। पेंटागन से सुझाव दिया कि संयुक्त राष्ट्र संघ से इतर अमेरिका के नेतृत्व में एक गठबंधन सहायता वितरित करेगा और कुछ समय के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की सेना अमेरिका की सेना की जगह ले लेगी।और कुछ समय के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की सेना अमेरिका की सेना की जगह ले लेगी।

अमेरिका के विदेश मंत्रालय के सचिव लॉरेंस एस ईगलबर्गर ने अमेरिकी योजना प्रस्तुत की और उम्मीद थी कि वे तीन से चार महीनों में सोमालिया संयुक्त राष्ट्र संघ को सुपुर्द कर देंगे। संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्कालीन महासचिव बुतरस घाली यह जानना चाहते थे कि क्या होगा जब अमेरिका के नए राष्ट्रपति बिल क्लिंटन, जिनके 20 जनवरी, 1993 को पदभार ग्रहण करने की उम्मीद थी, सत्ता में आ जाएंगे। ईगलबर्गर ने इसका जबाव दिया कि अगर क्लिंटन सोमालिया में अमेरिकी सेना के खिलाफ होंगे, तो 19 जनवरी तक सेना को वापस कर लिया जाएगा। इस प्र्रकार, वे एक समझौते पर पहुंच गए। बाद में, महासचिव ने वांशिगटन से आए एक शिष्टमंडल को बताया कि वह चाहते थे कि गठबंधन न केवल सभी सोमाली धड़ों को निःशस्त्र कर दे बल्कि वह सोमालिया के सभी खदान क्षेत्रों में भी शांति स्थापित कर दे जिनमें से ज्यादातर उत्तर में थे।

क्लिंटन ने प्रारंभ में यूएनओएसओएम को तुरंत सुपुर्द कर दिए जाने का समर्थन किया। बहरहाल, फोकस धीरे धीरे बदल कर राष्ट्र-निर्माण की ओर हो गया। 22 सितंबर को, क्लिंटन प्रशासन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) पर संकल्प 865 को अपनाने का दबाव डाला जो प्रभावी रूप से कम से कम 1995 तक ‘राष्ट्र निर्माण’ को बनाये रखने और उसमें सहायता करने का अनुसरण करता था। तीन दिनों के बाद, सोमाली की नागरिक सेना ने ब्लैक हॉक हेलिकॉप्टर को मार गिराया जिसमें तीन अमेरिकावासियों की मौत हो गई। इसके बाद 3 अक्तूबर की घटना हुई जिसमें मोगादिशु में एक भयंकर लड़ाई में 17 अमेरिकी मारे गए एवं कई घायल हुए। एक अमेरिकी को बंधक बना लिया गया और उसके एक मर चुके कॉमरेड को मोगादिशु की गलियों में बिना कपड़ों के घसीटा गया। प्रशासन ने तत्काल सोमालिया और समुद्री क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दोगुनी कर देने और 31 मार्च 1994 तक इसकी पूरी तरह वापसी का फैसला किया ।

इथोपिया की दखलंदाजी

इथोपिया को अपना खुद का एजेंडा पूरा करना था। अधिकतर ईसाई नेतृत्व एवं लगभग 50 प्रतिशत मुस्लिम आबादी के साथ, इथोपिया को आशंका थी कि उसके पिछले क्षेत्र में इस्लामवादी जागृति हो सकती है। उसे यह भी डर था कि सोमालिया इथोपिया के बागियों के लिए एक शरण स्थली बन जाएगा और यह भी कि इथोपिया के विद्रोही और सोमाली के इस्लामवादी पड़ोसी एरिट्रिया के साथ, जोकि इथोपिया का कट्टर विरोधी था, एक गठबंधन का निर्माण करेंगे ; ये सारी आशंकाएं बाद में सही साबित हुईं। इस्लामी अराजकतावादियों और इथोपिया की सेनाओं के बीच भयंकर लड़ाइयों में हजारों निर्दोष नागरिकों की जानें गईं। इथोपिया की सेनाओं ने पूरे पड़ोसी क्षेत्रों में बम बरसाए जिसके कारण यूरोपीय संघ (ईयू) को युद्ध अपराधों की जांच आरंभ करने को विवश होना पड़़ा। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार, इथोपिया ने युद्ध में सफेद फॉस्फोरस बमों तक का इस्तेमाल भी किया जिससे लोग वास्तव में गल जाते थे। इथोपिया ने टीएफजी जोडतोड़ों को गुप्त समर्थन भी दिया। जैसाकि पहले कहा जा चुका है, ऐसे आरोप थे कि 2004 में टीएफजी के गठन के दौरान इथोपिया के पैसों से संासदों के वोट खरीदे गए थे। एक तरफ सीआईसी में कट्टरपंथियों के घोर अडि़यल रवैये और दूसरी तरफ इथोपिया के कारण, सीआईसी एवं इथोपिया के बीच संघर्ष एक अपरिहार्य परिणाम था।

सोमालिया में नरमपंथी बनाम उग्रपंथी बहस एक जटिल मसला है। उदाहरण के लिए, क्या अवेयस एक रूढि़वादी था? हालांकि उस एक चरमपंथी कहा गया लेकिन उसी ने परामर्शदात्री परिषद में महिलाओं को शामिल करने का प्रस्ताव रखा। उसने विश्व एड्स दिवस के लिए एक नागरिक समारोह में भाग लिया।

यह चतुराई भरी अभिव्यक्ति, जो सीआईसी से खासकर, रूढि़वादियों से सामने आई, से उसके प्रयोजन को कोई मदद नहीं मिली। इसमें इथोपिया के खिलाफ जेहाद का ‘फतवा’ मेली सरकार के खिलाफ लोगों से उठ खड़े होने अपील, इथोपिया में सोमाली की आबादी वाले क्षेत्रों के ऊपर दावे, इरिट्रिया (इथोपिया का सबसे बड़ा क्षेत्रीय शत्रु) के साथ घनिष्ठ संबंधों का निर्माण और इथोपिया की सरकार के खिलाफ दो सैन्य विद्रोहों को लॉजिस्टिकल सहायता और आधार उपलब्ध कराना शामिल थे। युद्ध टालने के लिए अंतिम क्षण के समझौते के तहत सीआईसी के नरमपंथियों एवं इथोपिया के बीच बातचीत हुई। बहरहाल, रूढि़वादियों द्वारा इसे विफल कर दिया गया।

सबसे बड़ा प्रश्न, जो अभी भी अनुत्तरित बना हुआ है, वह यह कि क्या यह हमला आवश्यक था। पहली बात, सोमालिया में प्रशासन के कई प्रयासों के विफल होने के बाद, भले ही उसने कई दावे प्रस्तुत किए हों, अमेरिका को उस सरकार (सीआईसी) को मजबूत बनाने का प्रयास करना चाहिए था, जो व्यवस्था बनाये रखने में सक्षम थी। दूसरी बात यह कि, चाहे इथोपिया ने अमेरिकी सहायता के साथ हमला किया या उसकी मदद के बगैर हमला किया, यह मान लेना उपयुक्त होगा कि अमेरिका अपने दबाव का बखूबी इस्तेमाल कर सकता था और इथोपिया को हमला करने से रोक सकता था। अंत में, इस्लामी समूहों के हमलों के खिलाफ इथोपिया एवं टीएफजी का प्रत्युत्तर भयंकर था। पूरे पड़ोसी क्षेत्र पर गोलीबारी की गई थी जिसमें भारी संख्या में जान माल की हानि हुई। लड़ाई के पहले महीने के दौरान, कम से कम एक हजार लोग मारे गए और 200,000-300,000 लोगों को विस्थापित होना पड़ा। ईसी ने चेतावनी दी है कि अंतरराष्ट्रीय मानवता कानून का उल्लंघन हो रहा है। इसी हमले की बदौलत अल शाबाब एक विध्वंसात्मक सैन्य संगठन के रूप में तबदील हो गया।

अल शाबाब और केन्या का हस्तक्षेप

अल शाबाब, अब निष्क्रिय हो चुकी यूआईसी की एक उग्र युवा शाखा बन गया जिसने 2006 में मोगादिशु को नियंत्रित किया। अल शाबाब की मदद करने के लिए विदेशी लड़ाकुओं के सोमालिया पहुंचने की कई खबरें हैं। अल शाबाब ने केन्या पर अनगिनत हमले किए हैं जिनमें गरीसर विश्वविद्यालय पर हुए नवीनतम हमले में 148 लोगों की मौतें हुई हैं। इससे पहले, इसने 2013 में नैरोबी के वेस्टगेट शॉपिंग सेंटर पर हमला किया जिसमें कम से कम 68 लोग मारे गए। हालांकि, शहरों से इसका नियंत्रण समाप्त हो चुका है, अल शाबाब का दबदबा अभी भी बना हुआ है और ग्रामीण क्षेत्रों में इसका नियंत्रण बरकरार है। अगस्त 2011 में, इसे मोगादिशु छोड़ने को विवश कर दिया गया और सितंबर 2012 में इसने किसमायो के महत्वपूर्ण बंदरगाह को छोड़ दिया।

अल शाबाब ने अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों में शरिया का सख्त संस्करण लागू किया है। अल शाबाब के पूर्व नेता अहमद अब्दी ने अल कायदा के प्रमुख एईमैन अल जवाहरी के प्रति निष्ठा का संकल्प लिया। ऐसी भी खबरें रहीं हैं कि अल शाबाब के नाईजीरिया में बोको हरम एवं सहारा रेगिस्तान में स्थित इस्लामिक मेघरेब जैसे अफ्रीका के अन्य आतंकी इस्लामी समूहों के साथ भी संपर्क हो सकते हैं। अल शाबाब की साख को उस वक्त जबर्दस्त धक्का लगा जब इसने 2011 के भीषण सूखे एवं अकाल के दौरान पश्चिमी देशों की खाद्य सहायता लेने से इंकार कर दिया।

अक्तूबर 2011 में, केन्या ने भी सोमालिया में अपनी सैन्य टुकडि़यां भेजीं।

हालांकि इसके पीछे आधिकारिक वजह यह थी कि उसकी सेना सोमाली आतंकियों द्वारा केन्या के पर्यटकों के अपहरण की समस्या को सुलझाएगी, इसके पीछे संभावित दूसरी वजह भी थी जो यह थी कि — 1964 के एक छोटे विद्रोह एवं 1982 में विफल तख्तापलट की कोशिशें के अतिरिक्त, केन्या मुख्य रूप से एक शांतिप्रिय देश था और उगांडा एवं नाईजीरिया जैसे अन्य समकक्ष अफ्रीकी देशों के सैन्य शासन द्वारा प्रभावित नहीं था। सोमालिया में अपनी सेनाएं भेजने का प्रयोजन एक प्रकार से केन्या के सैन्य संसाधनों की जांच करना भी था।

निष्कर्ष

वर्तमान में, सोमालिया के समक्ष सबसे बड़ा खतरा अल शाबाब है। इस खतरे का सामना करने के प्रयासों को कुछ सफलता मिली है। बहरहाल, एएमआईएसओएम कई मामलों में आतंकियों पर दबाव डालने और उन्हें पीछे धकेलने में सफल रहा है पर वे पूरी तरह उनका नाश नहीं कर पाए हैं। इस बीच, अल शाबाब ने एएमआईएसओएम के सैकड़ों सैनिकों को मार डाला है और पिछले 10 महीनों के दौरान एएमआईएसओएम के तीन ठिकानों पर कब्जा कर लिया है।

एएमआईएसओएम में पांच देशों के 22,000 सैन्य दल तथा 400 पुलिस अधिकारी शामिल हैं। अराजकतारोधी सिद्धांतों से संकेत मिलता है कि सोमालिया में अल शाबाब से सफलतापूर्वक निपटने के लिए कम से कम 47,000 सैन्य दलों की जरुरत होगी। कमान एवं संचार के अक्सर ठप हो जाने समेत एएमआईएसओएम के साथ अन्य समस्याएं भी हैं। सैन्य दल मोगादिशु में कमान एवं नियंत्रण संभालने से पहले अक्सर अपने गृह नगर को रिपोर्ट करते हैं जिससे देरी होती है और संचार ठप हो जाता है जिसका खामियाजा लोगों को अपनी जानों की कीमत देकर चुकाना पड़ता है। इथोपिया समेत कुछ देशों पर यह भी शक है कि वे दीर्घकालिक रूप से सोमालिया को कमजोर बनाना चाहते हैं।

सेमाली नेशनल आर्मी (एसएनए) को कायदे से इनमें से ज्यादातर समस्याओं का समाधान कर देना चाहिए था, लेकिन उसे खुद ही कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इसने सोमालिया के कई कबीला आधारित नागरिक सेनाओं को एक साथ जोड़ दिया है जिनकी निष्ठा अभी भी केंद्र सरकार के बजाये कबीला समूहों के साथ है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने एसएनए के प्रशिक्षण के लिए सैकड़ों मिलियन डॉलर खर्च किए हैं। फिर , प्रशिक्षण भी अपने आप में समस्या का एक हिस्सा है। ईयू, एयू, यूएई एवं अमेरिका सभी प्रशिक्षण देने के हिस्से रहे हैं। बहरहाल, विभिन्न इकाइयों से अलग अलग निर्देश दिए जा रहे हैं जिसकी वजह से उनमें समन्वय और सामंजस्य की कमी हो रही है। एक संभावित समाधान यह है कि प्रशिक्षण के लिए एक ही देश को प्रभार दिया जाए। इसके लिए एयरलिफ्ट की सुविधा की भी आवश्यकता है क्योंकि इसके अभाव के कारण एएमआईएसओएम सैन्य ठिकानों पर कब्जा कर लिया गया है।

एएमआईएसओएम में खुद कई तरह की दूसरी त्रृटियां हैं। उदाहरण के लिए, बुरुंडी जैसे कुछ देशों की सेनाओं को अंग्रेजी बोलनी नहीं आती। बहुत कम सेनाओं के पास आतंकी घटनाओं से निपटने का प्रशिक्षण, तकनीक है और इसके अलावा, उनके बीच आपस में कोई समन्वय भी नहीं है। उनमें कुछ अलग प्रकार की सामाजिक संवेदनशीलताएं भी हैं। सेामाली अपने को अरब मानते हैं न कि अफ्रीकी। अल शाबाब आसानी से बुरुंडी, केन्या, उगांडा एवं इथोपिया पर ईसाई आक्रमणकारी होने का आरोप लगा सकते हैं। सोमालिया के अपने सैन्य बल को भी, जो सेना, पुलिस और सैन्यकृत खुफिया सेनाओं से निर्मित्त है, को महीनों से तनख्वाह नहीं दिया गया है, जिसके परिणामस्वरूप वे अक्सर अपने हथियार तक बेच देते हैं। इन बलों में भारी संख्या में अल शाबाब के बलों की भी घुसपैठ रहती है।

इथोपिया के बलों के लगातार सोमालिया में बने रहने के खिलाफ सोमालिया के नागरिकों में काफी आक्रोश भी पैदा हो गया है। इसमें कोई शक नहीं कि संघर्ष के बदतर होने के पीछे इथोपिया सबसे प्रमुख वजहों में एक है। जहां तक पश्चिमी हस्तक्षेपों का सवाल है तो यह नोट किया जाना चाहिए कि अमेरिका की प्रारंभिक प्रेरणा एवं इरादों के स्पष्ट अर्थ थे। ऑपरेशन ‘विश्वास पुनर्बहाली’ की शुरुआत बुश सीनियर द्वारा भूखमरी के शिकार लाखों सोमाली निवासियों की मदद करने के लिए की गई थी।

ऐसे भी आरोप हैं कि अगर सियाद बर्रे के भागने के बाद सोमालिया में स्थिरता आ गई होती तो इसका सबसे अधिक लाभ चार बड़ी तेल कंपनियों को हुआ होता और यही वजह थी कि बुश सीनियर ने सोमालिया में हस्तक्षेप किया। बहरहाल, अगर यह सही भी है तो भी सोमालिया में भूख से मर रहे लोगों की जान बचाने के लिए हस्तक्षेप करने पर बुश प्रशासन की कोई गलती नहीं मानी जानी चाहिए। हर देश की एक वास्तविक-राजनीतिक महत्वांकांक्षी होती है। ऐसे इरादों के लिए किसी एक देश पर उंगली उठाना उचित नहीं है।

 ‘ब्लैक हॉक’ के मार गिराए जाने की घटना के बाद कहीं जाकर अमेरिका ने अपनी सेनाओं को पूरी तरह वापस बुला लिया। इससे देश की स्थिति में और गिरावट आई और सोमाली नागरिकों के कष्ट और बढ़ गए। इसी प्रकार, संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप में भी कोई त्रृटि नहीं थी। बहरहाल, एक कमी अवश्य रही है कि न तो अमेरिका और न ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2002 में आयोजित केन्या वार्ता के दौरान इथोपिया के जोडतोड़ के प्रयासों को रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाया।

जब सीआईसी ने सत्ता संभाला था, उस वक्त उसे देश के भीतर के सोमाली नागरिकों एवं डायसपोरा दोनों का खासा समर्थन प्राप्त था। उन्होंने मेगादिशु में एक कारगर प्रशासन उपलब्ध कराया और उनके वित्तीय संसाधनों एवं सैन्य संसाधनों में वृद्धि की। उन्हें पर्याप्त मात्रा में अंतरराष्ट्रीय सहायता भी प्राप्त हुई जिसने टीएफजी पर उनके साथ बातचीत करने के लिए दबाव डाला। इन सकारात्मक कदमों के बावजूद सख्त सजा एवं शरिया कानूनों का कार्यान्वयन उनके लिए नुकसानदायक साबित हुआ। अमेरिकी अधिकारी आतंकियों को पनाहगाह उपलब्ध कराए जाने को लेकर काफी चिंतित थे और लगातार इस बात पर जोर दे रहे थे कि उनके पास साक्ष्य हैं कि 1998 में नैरोबी एवं डारे एस सलाम में हुई बमबारी के कुछ संदिग्ध अलकायदा आतंकियों एवं संदिग्धों को अल कायदा के आतंकियों के द्वारा पनाह दिया गया था। सीआईसी ने इन आरोपों को कभी भी गंभीरतापूर्वक नहीं लिया। इस लापरवाही भरे बर्ताव के परिणामस्वरूप, अमेरिका की नीति में बदलाव आया और इसके बाद अमेरिका ने इथोपिया को सोमालिया पर हमला करने को हरी झंडी दे दी और इसका नतीजा सीआईसी की हार के रूप में सामने आया। नागरिक आंदोलन ‘मेगादिशु सुरक्षा एवं स्थिरीकरण योजना’ (एमएसएसपी) जो 2005 में आरंभ हुआ, एक आश्चर्यजनक आंदोलन था जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों के लोग शामिल थे। इसमें टीएफजी सरकार के हविये युद्धनेता, कई अग्रणी व्यावसायी एवं सिविल सोसाइटी समूह शामिल थे।

अगर यह आंदोलन कामयाब हुआ होता तो सोमाली की राजनीति ने एक सकारात्मक मोड़ ले लिया होता। लेकिन इस्लामवादियों, सैन्य नेताओं एवं राजनीतिक कुलीनों ने इस असंगठित आंदोलन को विफल करने के लिए आपस में हाथ मिला लिए जिसकी वजह से यह अपनी अपेक्षित रफ्तार नहीं पकड़ पाया।

आखिर में, अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने 2012 में राष्ट्रपति हसन शेख मोहमुद को समर्थन दिया, और उम्मीद जताई कि वह पूर्व के नकारा और भ्रष्ट सरकारों से अलग और बेहतर साबित होंगे। अमेरिका ने 20 वर्षों में पहली बार सोमालिया के साथ फिर से राजनयिक संबंध बहाल कर लिए और चीन एवं ब्रिटेन समेत कई देशों ने मेगादिशु में अपने दूतावास फिर से खोल लिए। बहरहाल, 2013 में, संयुक्त राष्ट्र संघ ने मोहमुद के शासन पर बेहद भ्रष्ट होने का आरोप लगाया और दावा किया कि सोमाली सेन्ट्रल बैंक के 80 प्रतिशत लेनदेन धोखाधड़ी से भरे हैं। इसके अतिरिक्त, सत्ता संघर्ष एवं अंदरुनी लड़ाइयों ने कई राजनीतिक कदमों एवं सुधारों के द्वारा बंद कर दिए।

रॉथबर्ग के अनुसार, किसी विफल देश के लक्षणों में लगातार हिसंक घटनाओं के साथ गृह युद्ध की स्थिति; समुदायों के बीच विद्वेष/संघर्ष; परिधिय क्षेत्र पर बाह्य समूहों का नियंत्रण ; गिरोंहो एवं हथियारों की तस्करी समेत आपराधिक हिंसा में बढ़ोतरी; विधायी एवं न्यायिक कामकाज में रुकावट; शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य सामाजिक सेवाओं का अनौपचारिक निजीकरण; भ्रष्टाचार; वैधता की कमी; तस्करी में बढोतरी के साथ जुड़ी कम होती प्रति व्यक्ति आय (जीडीपी) ; एवं बाहरी धन के साथ राष्ट्रीय मुद्रा का स्थान लेना शामिल हैं।

चार्ल्स कॉल कहते हैं कि किसी देश को विफल तब कहा जा सकता है जब वह उपरोक्त वर्णित सभी मुद्दों से प्रभावित हो। यह देखा जा सकता है कि एक समय सोमालिया उपरोक्त वर्णित सभी समस्याओं का शिकार था। रॉथबर्ग यहां तक कहते हैं कि रूस और ताजकिस्तान में भी इनमें से कई लक्षण हो सकते हैं लेकिन उन्हें विफल देश नहीं कहा जा सकता। श्रीलंका और कोलंबिया को पाशविक संघर्षों का सामना करना पड़ा लेकिन वे वापसी करने में सफल रहे। चार्ल्स काल् एक कदम आगे बढ़ कर यहां तक कहते हैं कि ‘विफल देश’ शब्द का उपयोग केवल पूरी तरह ध्वस्त देशों को संदर्भित करने के लिए किया जाना चाहिए। उसके बाद वह कहते हैं कि 20वीं सदी के उत्तरार्ध में ऐसी स्थित केवल सोमालिया में व्याप्त थी।

रॉथबर्ग कहते हैं कि पूरी तरह ध्वस्त देश किसी विफल देश का एक बेहद दुर्लभ संस्करण है और सोमालिया इसका एक सटीक उदाहरण है। क्या हस्तक्षेपों को सोमालिया की विफलता के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ? सच्चाई यह है कि गुप्त एजेंडा के साथ हस्तक्षेप विशिष्ट रूप से केवल सोमालिया में ही नहीं हुआ। हस्तक्षेप पूरी दुनिया में होते रहे हैं। कई देशों ने हस्तक्षेपों के बावजूद खुद को स्थिर किया है। श्रीलंका इसका एक अच्छा उदाहरण है। भारतीय हस्तक्षेप के बावजूद, श्रीलंका ने अपने को समुचित रूप से रूपांतरित कर लिया। इथोपिया एवं संभवतः केन्या के भी अपने खुद के एजेंडा रहे होंगे। जैसाकि पहले कहा जा चुका है, इसके आरोप लगते रहे हैं कि इथोपिया ने रिश्वतखोरी के जरिये हेरफेर किया और एक पसंदीदा टीएफजी सरकार की स्थापना करने में कामयाब रही।

इथोपिया द्वारा खासकर, सोमालिया में 2006 में किया गया हस्तक्षेप अनावश्यक, टाले जाने योग्य एवं महंगा साबित हुआ।

90 के दशक के पूर्वार्ध में अमेरिका द्वारा सोमालिया को बचाने के लिए किए गए हस्तक्षेपों के बावजूद, अमेरिका को भी इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए, क्योंकि अगर उनकी ऐसी इच्छा रही होती तो वे इथोपिया को आक्रमण करने से रोक सकते थे।

टीएफजी एवं इथोपिया द्वारा सीआईसी पर जीत के बाद विजेता के रूप में शांति थोपने की उनकी कोशिशों का भी कोई लाभ नहीं हुआ। सीआईसी के रूढि़वादियों पर भी आत्मघाती बमबारी, टीएफजी के शीर्ष नेताओं की हत्या करने की कोशिशों और इथोपिया के खिलाफ भारी दुष्प्रचार करने का दोषारोपण किया जाना चाहिए।

हालांकि बहुत सारे कारकों का एक देश के रूप में सोमालिया को विफल बनाने में योगदान रहा है, पर इसके पास खुद को व्यवस्थित बनाने के भी कई अवसर थे। बहरहाल, वे इन अवसरों का लाभ उठाने में विफल रहे। सोमालिया को अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मदद की कभी कोई कमी नहीं रही। पिछले कई वर्षों के दौरान मुसीबतों से ग्रस्त इस देश को मानव एवं वित्तीय-बहुत सारे संसााधन प्राप्त हुए। अन्य किसी चीज की तुलना में, एक ईमानदार, प्रभावपूर्ण, मजबूत और समझौताकारी नेतृत्व की कमी की वजह से एक विफल देश की स्थिति तक पहुंच गया।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय को राष्ट्रपति हसन शेख मोहमुद से काफी उम्मीदें थीं, जब उन्होंने 2012 में सत्ता संभाली थी। बदकिस्मती से, उनके खिलाफ भी भ्रष्टाचार के इल्जाम हैं और ऐसे आरोप हैं कि उन्हांेने सियाद बर्रे की सरकार के गिरने के बाद जब्त की गई परिसंपत्तियों से बेईमानी से पैसा निकाल लिया था।

सोमालिया को एक लोकतांत्रिक देश के रूप में रूपांतरित होना होगा जो संघीय ढांचे के साथ चुनी हुई सरकारों के माध्यम से चलती है, जिससे कि कबीलों के बीच कोई आपसी लड़ाईयों न हों और सभी कबीलों का समुचित रूप से प्रतिनिधित्व हो। बहरहाल, सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता एक अच्छे शासन और एक ईमानदार, निर्भीक राजनेता की है। अगर सोमालिया को ऐसा राजनेता मिल जाता है तो हो सकता है इसे फिर से अपने पांवों पर खड़ा होने का अवसर प्राप्त हो जाए।

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