Author : Kabir Taneja

Published on Jan 30, 2024 Updated 0 Hours ago

आज सऊदी अरब एक रूढ़िवादी और परंपरागत इस्लामिक देश से गल्फ के भविष्य के व्यापारिक केंद्र के रूप में तब्दील हो रहा है.

गाजा में युद्ध की वजह से ‘पुराने’ और ‘नए’ पश्चिम एशिया के बीच टकराव जैसे हालात!

वर्ष 2023 के पहले छह महीने खाड़ी देशों में और ख़ास तौर पर अरब देशों में भू-राजनीति और भू-आर्थिक तौर पर ज़बरदस्त बदलाव वाले रहे. विशेष रूप से इस परिवर्तन की अगुवाई कहीं न कहीं आर्थिक तौर पर विकसित संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और महत्वाकांक्षी व परिवर्तनशील सऊदी अरब ने की. चाहे पुर्तगाल के फुटबॉल खिलाड़ी क्रिस्टियानो रोनाल्डो के सऊदी अरब के फुटबॉल क्लब अल नस्र में शामिल होने की बात हो, या फिर रियाद द्वारा ईरान के साथ संबंधों को सामान्य बनाने की कोशिश हो, सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की प्रयासों से वैश्विक स्तर पर देश की छवि बदल रही है. आज सऊदी अरब एक रूढ़िवादी और परंपरागत इस्लामिक देश से गल्फ के भविष्य के व्यापारिक केंद्र के रूप में तब्दील हो रहा है.

खाड़ी देशों में ज़्यादातर राजशाही सत्ता है और भविष्य में शासन का यह तरीक़ा इसी तरह चलता रहे, इसके लिए वहां न केवल कनेक्टिविटी बढ़ाने पर ध्यान दिया जा रहा है

खाड़ी देशों में ज़्यादातर राजशाही सत्ता है और भविष्य में शासन का यह तरीक़ा इसी तरह चलता रहे, इसके लिए वहां न केवल कनेक्टिविटी बढ़ाने पर ध्यान दिया जा रहा है, बल्कि तेल पर आधारित अर्थव्यवस्था से अलग एक नए आर्थिक वातावरण का निर्माण करने को प्रमुखता दी जा रही है. इन देशों में तेल का अकूत भंडार मौज़ूद है और तेल पर आधारित अर्थव्यवस्था इन देशों की सबसे बड़ी ताक़त है. इसी ताक़त ने दशकों तक खाड़ी देशों को बेफिक्र होकर अपनी क्षेत्रीय नीतियों और विदेश नीति को संचालित करने की सहूलियत प्रदान की है. तेल का भंडार इन खाड़ी देशों के लिए एक बहुत बड़ी शक्ति है और इसने न केवल इन देशों के निवासियों का सशक्तिकरण किया है, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा समेत तमाम महत्वपूर्ण योजनाओं के लिए सब्सिडी का मार्ग भी प्रशस्त किया है. हालांकि, पश्चिम एशिया की (मिडिल ईस्ट) तेल पर आधारित राजनीति और शासन प्रणाली ज़्यादा दिनों तक ऐसे नहीं चल पाएगी और इसे बदलाव के दौर से गुजरना ही होगा, साथ ही ऊर्जा परिवर्तन के अनुरूप ढलना होगा. निसंदेह तौर पर कम से कम अगले दो दशकों तक तेल का दबदबा बना रहेगा और खाड़ी देशों के लिए हालात भी अनुकूल बने रहेंगे, लेकिन इसके बाद अगर खाड़ी देशों को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखनी है, तो उन्हें दूसरे पारंपरिक एवं प्रतिस्पर्धात्मक उद्योगों पर निर्भर रहने की ज़रूरत पड़ेगी. इस प्रकार से 2024 में ऊर्जा परिवर्तन एवं भू-राजनीति का मुद्दा 'पुराने' और 'नए' मिडिल ईस्ट के लिए सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण होगा और सभी की निगाहें इस पर टिकी रहेंगी.

 

‘पुराने’ मध्य पूर्व की वापसी

पिछले साल 7 अक्टूबर को जिस प्रकार से इजराइल पर हमास ने आतंकी हमला किया, उसने पूरे क्षेत्र को और ख़ास तौर पर अरब देशों को चेतावनी देने का काम किया है कि फिलिस्तीन के मुद्दे को भुलाया नहीं जा सकता है. यानी कि मध्य पूर्व के देशों में बुनियादी बदलावों के लिए चाहे जितनी भी ज़ोर आज़माइश की जा रही हो, लेकिन फिलिस्तीन का मुद्दा अपनी जगह पर बना हुआ है. ज़ाहिर है कि हमास के हमले ने इजराइल-फिलिस्तीन विवाद को एक बार फिर से सुर्खियों में ला दिया है. कहा जा सकता है कि इस हमले के पीछे जो मकसद था, वो कुछ हद तक तो क़ामयाब रहा है.

गाजा में चल रहे युद्ध के विरोध में सड़कों पर व्यापक स्तर पर कोई विरोध प्रदर्शन देखने को नहीं मिला है, लेकिन इतना तो तय है कि अरब दुनिया में जन-जन के बीच फिलिस्तीन का मुद्दा पहुंच चुका है.

इजराइल की ओर से गाजा में की गई जवाबी सैन्य कार्रवाई में अब तक 17,100 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है. उल्लेखनीय है कि गाजा में अभी भी युद्ध जारी है, ऐसे में खाड़ी और अरब देशों के सामने वही पुरानी समस्या खड़ी हो गई है, यानी फिलिस्तीन को लेकर घरेलू स्तर पर नागरिकों के खुले समर्थन को संभालना. अरब देशों ने पूर्व में अरब स्प्रिंग अर्थात सरकारों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों का लंबा सिलसिला भी देखा है, जिनमें मिडिल ईस्ट और उत्तरी अफ्रीका में लोगों के गुस्से और आक्रोश ने पूरी क्षेत्र के तमाम देशों में राजशाही एवं तानाशाही वाली सरकारों को झकझोर दिया था. इन्हीं सार्वजनिक विरोध प्रदर्शनों का नतीज़ा था कि कई देशों में सैन्य तानाशाहों को सत्ता से बेदख़ल होना पड़ा था, जिनमें मिस्र के शासक होस्नी मुबारक भी शामिल थे. यह ज़रूर है कि गाजा में चल रहे युद्ध के विरोध में सड़कों पर व्यापक स्तर पर कोई विरोध प्रदर्शन देखने को नहीं मिला है, लेकिन इतना तो तय है कि अरब दुनिया में जन-जन के बीच फिलिस्तीन का मुद्दा पहुंच चुका है. इसकी एक वजह यह है कि खाड़ी के लोग पहले की तुलना में अधिक खुले हुए हैं, वहां युवाओं की बड़ी आबादी है और डिजिटल दुनिया से अच्छी तरह से जुड़ी हुई है. यानी दुनिया में कहीं भी कुछ भी घटित होता है तो उसकी हर हलचल उन तक पहुंच जाती है. 

 

‘नए’ मध्य पूर्व के लिए चुनौती

वर्ष 2021 में इजराइल और कई अरब देशों के बीच अब्राहम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे. इस समझौते के पश्चात अरब देशों के इजराइल के साथ संबंध तेज़ी के साथ सामान्य होने लगे और इसके बाद पूरे क्षेत्र में उल्लेखनीय रूप से परिवर्तन देखने को मिला. जब गाजा में लड़ाई छिड़ी तो इजराइल के साथ प्रगाढ़ होते संबंधों का असर अरब देशों द्वारा दी गई संतुलित प्रतिक्रिया में स्पष्ट रूप से दिखाई दिया. उदाहरण के तौर पर पिछले दो महीनों से संयुक्त अरब अमीरात ने गाजा में इजराइल हमले के मसले पर ढुलमुल रवैया अपनाया हुआ है. एक तरफ यूएई युद्ध विराम की मांग करने वाले संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव का प्रायोजक बना हुआ है, जबकि दूसरी तरफ अबू धाबी की दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा बनके यूएई ने इजराइल के साथ अपने संबंधों को सामान्य बनाए रखने की कोशिश की है. यानी यूएई कहीं न कहीं इजराइल पर तीखी प्रतिक्रिया से बचा है और संतुलन बनाने का प्रयास किया है. एक चुनौती यह भी है कि इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर (IMEEC) जैसी नई आर्थिक कनेक्टिविटी परियोजनाओं और भारत, इजराइल, यूएई व अमेरिका के साथ I2U2 मिनीलेटरल के हिस्से के रूप में सहकारी आर्थिक संबंधों पर कुछ समय के लिए इसका असर पड़ सकता है. हालांकि, इन भू-राजनीतिक मैत्रीपूर्ण संबंधों के मूल सिद्धांत बरक़रार हैं, अर्थात फिलहाल उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. अमेरिकी वार्ताकारों के मुताबिक़ लंबी अनबन के बाद दिखाई देने वाली घनिष्टता पूर्ण संबंधों की कूटनीति, या कहा जाए कि इजराइल और सऊदी अरब के बीच सामान्य होते रिश्तों के बीच फिलहाल ऐसे हालात पैदा नहीं हुए हैं, जिन्हें संभाला नहीं जा सकता है, अर्थात दोनों देशों के पारस्परिक रिश्ते में फिलहाल कोई बड़ी दरार पैदा नहीं हुई है. 

फिलिस्तीन का मुद्दा जिस तेज़ी के साथ उभरा है, उसमें न केवल इस क्षेत्र के देशों के लिए, बल्कि उससे बाहर के देशों के लिए भी एक स्पष्ट संदेश छिपा है और वो संदेश यह है कि फिलिस्तीन के मसले का शीघ्र समाधान किया जाना, मध्य पूर्व की समग्र सुरक्षा के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण है.

सुरक्षा से जुड़े अलग-अलग नैरेटिव्स

कतर के प्रधानमंत्री ने गाजा संकट को एक ऐसी घटना बताया है, जो कि एक पूरी पीढ़ी को कट्टरपंथ की आग में धकेल सकती है. एक बेहद महत्वपूर्ण नैरेटिव, जो तेज़ी से फैल रहा है, वह यह है कि अगर हमास कमज़ोर होता है, तो इससे कई अरब देशों को फायदा पहुंचेगा. इसके साथ ही इस बात का भी भय है कि गाजा में चल रहे युद्ध की वजह से अल कायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी समूहों को भी एक नई ताक़त मिल सकती है और वे फिर से उठ खड़े हो सकते हैं. क्षेत्र में सक्रिय आतंकी गुट जैसे कि हूती आतंकियों ने पहले ही लाल सागर में इजराइल और अमेरिका के व्यापारिक जहाजों पर हमले का ऐलान किया है. इसके अलावा, चीन की मध्यस्थता में सऊदी अरब और ईरान के बीच तनाव कम करके रिश्तों को सामान्य बनाने के लिए हुए समझौते जैसे साधनों के ज़रिए फिलहाल पूरे क्षेत्र में हालात बिगड़ने की स्थिति को टाल दिया गया है. हालांकि, जहां तक इजराइल और ईरान के बीच पनपने वाले तनाव की बात है, तो कुछ ऐसे कूटनीतिक रास्ते भी हैं, जिनके ज़रिए दोनों देशों के तनावपूर्ण रिश्तों को सामान्य करने की कोशिश की जा सकती है. देखा जाए तो गाजा में छिड़े युद्ध के और भी घातक परिणाम सामने आ सकते हैं. उदाहरण के तौर पर अगर इजराइल हिज़बुल्लाह को सबक सिखाने के लिए दक्षिणी लेबनान में जाने का निर्णय लेता है और ईरान समर्थिक आतंकी गुटों जैसे कि यमन में हूती आतंकियों और इराक व सीरिया में अन्य आतंकी समूहों का मुक़ाबला करने के लिए अमेरिका क़दम उठाता है, तो निश्चित तौर पर इसका नतीज़ा रियाद और अबू धाबी दोनों के लिए नुक़सानदायक सिद्ध होगा. कुल मिलाकर फिलिस्तीन का मुद्दा जिस तेज़ी के साथ उभरा है, उसमें न केवल इस क्षेत्र के देशों के लिए, बल्कि उससे बाहर के देशों के लिए भी एक स्पष्ट संदेश छिपा है और वो संदेश यह है कि फिलिस्तीन के मसले का शीघ्र समाधान किया जाना, मध्य पूर्व की समग्र सुरक्षा के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण है.


कबीर तनेजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में फेलो हैं.

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