Published on Feb 22, 2021 Updated 0 Hours ago

इस वक़्त पूर्वी प्रशांत क्षेत्र में पश्चिम की ओर विस्तार की रणनीति आज़माई जा रही है. हालांकि, इस वक़्त इस रणनीति का संदर्भ बिल्कुल अलग है. पश्चिम की ओर विस्तार की इस नीति में हवाई द्वीपों पर स्थिति अमेरिका की पैसिफिक कमांड, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अन्य समान विचारधारा वाले देश शामिल हैं.

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में श्रीलंका के सामने नए शीत युद्ध के हालात पैदा हो रहे हैं

पिक्चर कैप्शन: श्रीलंका के 72वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर श्रीलंका के नौसैनिक जहाज़-4 फ़रवरी 2020, कोलंबो. फोटो: इशारा एस. कोफ़िकारा-AFP/गेटी

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान श्रीलंका कभी भी सीधे तौर पर जापान के ख़िलाफ़ युद्ध नहीं लड़ा था. जापान की लड़ाई, मित्र देशों की सेनाओं के साथ थी. उस वक़्त श्रीलंका (सीलोन), ब्रिटेन की पूर्वी कमान का अभियान केंद्र हुआ करता था. जापान ने प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के पर्ल हार्बर पर ऐसा चौंकाने वाला हमला किया, जिसने अमेरिका की विदेश नीति को बदल दिया. पर्ल हार्बर पर हमला करने के चार महीने बाद, जापान ने पर्ल हार्बर से मिलता जुलता हमला, हिंद महासागर क्षेत्र में भी किया था. 5 अप्रैल 1942 को ईस्टर के रविवार के दिन, श्रीलंका पर जापान ने हमला किया था. हवाई और श्रीलंका की एक जैसी भौगोलिक सामरिक स्थिति होने के कारण ही जापान और जर्मनी के सामरिक रणनीतिकारों-जैसे कि जापान के वाइस एडमिरल नोमुरा और जर्मनी की नौसैनिक युद्ध कमान (सीक्रिएगस्लीटंग) के चीफ ऑफ़ स्टाफ एडमिरल कर्ट फ्रिके ने दोनों ठिकानों को निशाना बनाना तय किया था. उनका ये फ़ैसला बिल्कुल सही भी था. वो इन दोनों ठिकानों  पर हमला करके, अपने प्रभाव क्षेत्र का दायरा बढ़ाना चाहते थे.

21वीं सदी की इस रणनीति के तहत एक बार फिर से श्रीलंका की जियोस्ट्रैटेजिक स्थिति की समीक्षा इस तरह से की जा रही है, जिससे उभरते चीन को रोका जा सके. 

श्रीलंका पर जापान के फास्ट एयरक्राफ्ट कैरियर स्ट्राइक फ़ोर्स ने हमला किया था, जिसका नेतृत्व वाइस एडमिरल चुइची नागुमो कर रहे थे. ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि श्रीलंका पर जापान का हमला, दूसरे विश्व युद्ध का निर्णायक लम्हा था. इसकी वजह ये थी कि अगर मित्र राष्ट्रों की सेनाएं श्रीलंका के मोर्चे पर हार जातीं- तो इससे दुश्मन देशों को एक ज़बरदस्त भौगोलिक फ़ायदा मिलता. तब जापान और जर्मनी, श्रीलंका को केंद्र बनाकर भारत, मध्य पूर्व और अफ्रीका तक अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर सकते थे. श्रीलंका पर जापानी हमले और इसकी सामरिक अहमियत के बारे में इतिहासकार सर ऑर्थर ब्रायंट ने, ‘अप्रैल 1942 में जापान की नौसैनिक जीत से हिंद महासागर पर उसका पूर्ण रूप से नियंत्रण हो जाता, इससे मध्य पूर्व अलगथलग पड़ जाता और चर्चिल की सरकार गिर जाती’ शीर्षक से विस्तार से लिखा है. लेकिन, जहां हवाई के पर्ल हार्बर पर जापान के हमले ने अमेरिका को चौंका दिया था, वहीं ब्रिटेन को श्रीलंका पर जापान के हमले की आशंका पहले से थी और वो इसके लिए पूरी तरह तैयार था. श्रीलंका पर हमले को नाकाम करके ब्रिटेन ने जापान की पश्चिम की ओर विस्तार वाली रणनीति को विफल कर दिया था. ये श्रीलंका पर आकर ख़त्म हो गई थी. इसीलिए, श्रीलंका पर जापान के हमले को दूसरे विश्व युद्ध का निर्णायक पल कहा जाता है.

वैसे तो इसका संदर्भ बिल्कुल अलग है. लेकिन, इस वक़्त पूर्वी प्रशांत क्षेत्र में पश्चिम की ओर विस्तार की एक और रणनीति पर काम चल रहा है. इस रणनीति के तहत अमेरिका की हवाई द्वीप स्थित पैसिफिक कमान, जापान, ऑस्ट्रेलिया और ऐसे ही समान विचार वाले ऐसे सहयोगियों को साथ जोड़ने की कोशिश कर रही है, जिनके विचार नियम आधारित विश्व व्यवस्था पर अमेरिका से मिलते हैं. 21वीं सदी की इस रणनीति के तहत एक बार फिर से श्रीलंका की जियोस्ट्रैटेजिक स्थिति की समीक्षा इस तरह से की जा रही है, जिससे उभरते चीन को रोका जा सके. चीन के आक्रामक रवैये और नियम आधारित विश्व व्यवस्था संबंधी साझा मूल्यों की हिफ़ाज़त के लिए, अमेरिका की पैसिफिक कमान के कमांडर एडमिरल फिलिप एस. डेविडसन ने हवाई से बिल्कुल स्पष्ट संदेश दिया है: ‘मालदीव और अमेरिका के बीच हाल ही में सुरक्षा के क्षेत्र में सहयोग के एक ऐसे फ्रेमवर्क पर सहमति बनी है, जिससे हिंद महासागर में शांति और सुरक्षा के लिए दोनों देश आपसी सहयोग और संवाद को बढ़ाएंगे. अमेरिका की इस नई कोशिश को भारत का समर्थन इस बात का प्रतीक है कि किस तरह समान विचारधारा वाले देश, इस क्षेत्र के हमारे साझा नज़रिए को अमल में लाने के लिए एक दूसरे का समर्थन कर सकते हैं.’ एडमिरल डेविडसन का इशारा नवंबर 2020 में भारत, ऑस्ट्रेलिया और जापान की नौसेनाओं के साझा युद्धाभ्यास मालाबार की सफलता की ओर था. हिंद महासागर में कई तरह के सैन्य गठबंधन के आकार लेने के दौरान श्रीलंका को भी ये विकल्प प्रस्तावित किया गया है कि वो इस गठबंधन का हिस्सा बन सकता है. ये अपने आप में एक सख़्त चेतावनी भी है कि श्रीलंका को ‘नियम आधारित व्यवस्था’ का पालन करना चाहिए,  कि आक्रामक चीन के साथ जाना चाहिए. श्रीलंका के सबसे क़रीबी पड़ोसी देश भारत ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में समान विचारधारा वाले कई देशों जैसे कि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ गठबंधन बनाए हैं. राजेश्वरी राजगोपालन का कहना है कि ऐसे गठबंधन करके भारत दो मक़सद साधना चाहता है. एक तो इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को सीमित करना और दूसरा ख़ुद भारत की क्षमताओं का विस्तार करना.

श्रीलंका को आज ज़रूरत है कि वो अमेरिका और चीन की खेमेबंदी वाली सोच से ख़ुद को आज़ाद करे. वो अपने आपको सामरिक प्रतिद्वंदिता की इस रेस से अलग कर ले. मगर, इसका फ़ैसला वो हर विषय के हिसाब से करे.

श्रीलंका में भारत के उच्चायुक्त गोपाल बागले ने हाल ही में एक इंटरव्यू में इस बात की विस्तार से व्याख्या की थी. बागले ने कहा था कि, ‘मुझे ख़ुशी है कि हाल ही में श्रीलंका ने अपनी विदेश नीति और ख़ास तौर से सुरक्षा की नीति को ‘इंडिया फ़र्स्ट’ के नाम से परिभाषित किया है.’ उच्चायुक्त गोपाल बागले ने इस बारे में आगे चर्चा करते हुए कहा था कि ‘भारत, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में नियम आधारित व्यवस्था को लेकर प्रतिबद्ध है, और ‘मुक्त, स्वतंत्र और समावेशी हिंद-प्रशांत क्षेत्र’ को लेकर श्रीलंका के विचारों की सराहना करता है. क्योंकि एक समावेशी हिंद-प्रशांत क्षेत्र न केवल भारत के लिए फ़ायदेमंद है, बल्कि श्रीलंका के भी महत्वपूर्ण है. ये बेहद ख़ुशी की बात है कि श्रीलंका की सरकार के कई आला अधिकारियों ने भी न सिर्फ़ द्विपक्षीय बातचीत में बल्कि बहुपक्षीय चर्चाओं के दौरान भी, ऐसे ही विचार व्यक्त किए हैं.’ यहां ये बात भी ध्यान देने लायक़ है कि हाल ही में श्रीलंका की सरकार के उच्च पदाधिकारियों ने चीन के BRI प्रोजेक्ट का विरोध भी किया है और साथ ही साथ चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के विकास के मॉडल का समर्थन भी किया है, जबकि चीन का विकास वाला मॉडल न तो खुलेपन वाला है और न ही स्वतंत्र है. श्रीलंका की विदेश नीति के दो अलग-अलग आयाम हैं, और ये समझना ज़रूरी है कि आख़िर क्यों श्रीलंका दोनों पालों में रहने का इच्छुक है. वो आर्थिक लाभ को देखते हुए तो चीन के साथ रहना चाहता है. लेकिन, सुरक्षा के लिहाज़ से वो दूसरे पक्ष का भी हिस्सा बने रहना चाहता है. किसी एक पक्ष के पाले में पूरी तरह से जाने से विदेशी ताक़तों के साथ गठबंधन की श्रीलंका की स्थिति कमज़ोर होने का डर है. फिर श्रीलंका को एक बाहरी संघर्ष का हिस्सा बनना पड़ेगा. जो उसका चुनाव नहीं, मजबूरी होगी. श्रीलंका को आज ज़रूरत है कि वो अमेरिका और चीन की खेमेबंदी वाली सोच से ख़ुद को आज़ाद करे. वो अपने आपको सामरिक प्रतिद्वंदिता की इस रेस से अलग कर ले. मगर, इसका फ़ैसला वो हर विषय के हिसाब से करे. ऐसा एक तरीक़ा ये हो सकता है कि वो ‘मध्यम दर्जे की ताक़तों’ के साथ गठबंधन बनाए. इससे वो चीन या अमेरिका के पाले के चुनाव की मुश्किल से बच सकेगा.

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में जियो-इंटेलिजेंस गठबंधन

अमेरिका के नेशनल इंटेलिजेंस के निदेशक के मुताबिक़, अमेरिका ने अपने ख़ुफ़िया बजट का दायरा बढ़ा लिया है. अमेरिका ने निश्चित रूप से ये क़दम चीन के ख़तरे को देखते हुए उठाया था. जैसा कि नेशनल इंटेलिजेंस के निदेशक ने कहा भी कि, ‘अगर मैं अपने ओहदे के नज़रिए से अमेरिका के नागरिकों को कुछ कहना चाहूं, तो यही कहूंगा कि आज अमेरिका के लिए सबसे बड़ा ख़तरा चीन ही है.’ इसीलिए, अमेरिका, आने वाले समय में कई देशों के साथ ख़ुफ़िया जानकारी साझा करने के समझौते करेगा. इसके अलावा वो न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और ब्रिटेन के साथ गोपनीय जानकारी साझा करने के अपने पुराने गठबंधन यानी फाइव आईज़ एलायंस की भी नए सिरे से समीक्षा करेगा.

मौजूदा संदर्भ में इस ख़ुफ़िया गठबंधन में जापान के शामिल होने से इसे छठवीं आंख मिलेगी. 

प्रशांत क्षेत्र से जापान, इस ख़ुफ़िया नेटवर्क का हिस्सा बनेगा क्योंकि जापान, अमेरिका का एक महत्वपूर्ण साझीदार है. जापान के नए प्रधानमंत्री योशिहिडे सुगा, जापान को Five Eyes का हिस्सा बनाने के लिए पुरज़ोर कोशिश कर रहे हैं. ऐसा पहली बार होगा जब पूर्वी क्षेत्र का कोई देश इस सैन्य-ख़ुफ़िया गठबंधन का हिस्सा बनेगा. फ़ाइव आईज़ (Five Eyes) की स्थापना दूसरे विश्व युद्ध के दौरान 1941 में हुई थी. शीत युद्ध के दौरान भी इस ख़ुफ़िया गठबंधन की मदद से काफ़ी अहम सिग्नल इंटेलिजेंस इकट्ठा करने और उनका विश्लेषण का काम किया गया था. मौजूदा संदर्भ में इस ख़ुफ़िया गठबंधन में जापान के शामिल होने से इसे छठवीं आंख मिलेगी. इसकी ज़रूरत इसलिए है कि इसके ऑस्ट्रेलिया समेत अन्य पांच सदस्य देश ये मानते हैं कि चीन के आक्रामक रवैये से सुरक्षा संबंधी चिंताएं बढ़ रही हैं. गोपनीय जानकारी साझा करने के इस गठबंधन को हाल ही में तब और मज़बूती मिली, जब जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच रेसिप्रोकल एक्सेस एग्रीमेंट (RAA) हुआ.

हिंद महासागर के महत्वपूर्ण द्वीपों के साथ, इस उप-क्षेत्र में भारत के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए, श्रीलंकामालदीवभारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच समुद्री सुरक्षा सहयोग की चौथी त्रिपक्षीय बैठक सफलतापूर्वक आयोजित की गई. वर्ष 2014 में तीनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की ये बैठक इसलिए स्थगित कर दी गई थी. क्योंकि, श्रीलंका और मालदीव दोनों के ही चीन के साथ मज़बूत द्विपक्षीय संबंध थे. कोलंबो में हाल ही में हुई त्रिपक्षीय बैठक में आपस में ख़ुफ़िया जानकारी साझा करने के एक महत्वपूर्ण समझौते पर दस्तख़त हुए. इस संधि के तहत, आतंकवाद और साइबर सुरक्षा को ‘सुरक्षा के लिए साझा ख़तरा’ माना गया है. श्रीलंका और भारत के बीच पिछले उच्च स्तरीय डिफेंस डायलॉग के बाद निश्चित रूप से ये बहुत अहम सुधार है, जो कोलंबो में रक्षा मंत्रालय के कार्यालय में हुई थी. इस बैठक में दोनों देशों के रक्षा सचिव शामिल हुए थे. आतंकवाद या उग्रवाद के विषय को इस बैठक के एजेंडे से बाहर रखा गया था. ये बात इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि दोनों देशों के रक्षा सचिवों की वो बैठक 8 अप्रैल 2019 को हुई थी. जिसके कुछ ही हफ़्तों बाद श्रीलंका में 21 अप्रैल को ईस्टर के दिन आतंकवादी हमले हुए थे.

श्रीलंका, मालदीव और भारत की इस बैठक में भारत के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल कर रहे थे. इस त्रिपक्षीय वार्ता के दौरान ही अजित डोवल ने श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के साथ भी मुलाक़ात की. इस मीटिंग में डोवल और राजपक्षे ने दोनों देशों के सामने खड़ी सुरक्षा संबंधी तमाम चुनौतियों पर चर्चा की. ये अजित डोवल ही थे, जिन्होंने वर्ष 2014 में, तब श्रीलंका के रक्षा सचिव रहे गोटाबाया राजपक्षे से कहा था कि श्रीलंका के बंदरगाहों पर चीन की पनडुब्बी की मौजूदगी भारत के हितों के लिए ख़तरा होगी. उसके बाद से ही दोनों नेताओं के बीच निजी स्तर पर संबंध और प्रगाढ़ हुए हैं. भारत और श्रीलंका के सुरक्षा संबंधों को मज़बूत बनाने के लिए निजी गर्मजोशी को संस्थागत रूप देना आवश्यक है. भारत के अमेरिका के साथ क़रीबी सुरक्षा गठबंधन बनाने और सुरक्षा संबंधी कई समझौते करने से आगे चलकर इसमें श्रीलंका को भी उसी तरह भागीदार बनाया जाएगा, जिस तरह अभी मालदीव को बनाया गया है. इसका मक़सद न केवल आतंकवाद से मुक़ाबले के लिए ख़ुफ़िया जानकारी साझा करना होगा, बल्कि चीन से (जो अमेरिका के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है) चौकन्ना रहना भी है.

पुरानी सभ्यता वाली शक्तियां

अमेरिका और चीन जैसी दो बड़ी ताक़तों के बीच बढ़ती प्रतिद्वंदिता के कई मोर्चे हो सकते हैं. जैसे कि मध्य एशिया, आर्कटिक क्षेत्र, मध्य पूर्व और हिंद-प्रशांत क्षेत्र. लेकिन, ऐसे कई कारण मौजूद हैं जिनके आधार पर ये कहा जा सकता है कि अमेरिका और चीन के बीच तनाव का सबसे ज़्यादा असर हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर ही पड़ेगा. बीसवीं सदी में शीत युद्ध के दौरान, पश्चिमी देश जिस मुख्य भौगोलिक क्षेत्र की रक्षा के लिए तत्पर थे, वो यूरोप और बर्लिन शहर था. वहीं, आज चीन और अमेरिका के बीच शीत युद्ध के केंद्र में पूर्वी एशिया में ताइवान की हिफ़ाज़त करना है.

एशिया की तीन प्राचीन सभ्यता वाली शक्तियां-भारत, चीन और ईरान-सीधे तौर पर हिंद-प्रशांत क्षेत्र की जियोपॉलिटिक्स पर असर डालेंगी. इन तीनों ही देशों की सभ्यता का अपने अपने भौगोलिक क्षेत्र में ऐसा गहरा प्रभाव रहा है जिससे पड़ोसी देशों पर उनका साया पड़ता है. मध्य पूर्वी सीमा में ईरान केंद्रीय स्थिति में है. ईरान के लिए पिछले साल की शुरुआत उसके बड़े सैनिक कमांडर जनरल क़ासिम सुलेमानी की हत्या के झटके से हुई थी और साल के आख़िर में ईरान के परमाणु कार्यक्रम के प्रमुख वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़देह महबादी की हत्या कर दी गई. तेहरान में जिस तरह से तालमेल के साथ वैज्ञानिक फ़ख़रीज़देह की हत्या की गई, उससे अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडेन को ये संदेश दिया गया था कि वो ईरान के साथ परमाणु समझौते में अमेरिका को दोबारा शामिल करने से बाज़ आएं. ईरान के वैज्ञानिक की हत्या का मक़सद, संयुक्त अरब अमीरात, इज़राइल और बहरीन के बीच उस ‘अब्राहम समझौते’ को और मज़बूत बनाना था, जिसे सऊदी अरब के युवराज मोहम्मद बिन सलमान की सरपरस्ती हासिल है. ईरान के वैज्ञानिक पर ये हमला, सऊदी अरब के नए बसाए जा रहे शहर नियोम में इज़राइल-सऊदी अरब और अमेरिका के बीच ख़ुफ़िया मुलाक़ात के बाद हुआ था.

आने वाले समय में जियोपॉलिटिकल दबाव के दो बिंदु ऐसे होंगे, जो दो क्षेत्रों पर असर डालेंगे. पहला तो मध्य पूर्व होगा, जहां अब्राहम समझौते से ईरान को डराने की कोशिश की जाएगी. दूसरा, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन को संदेश देने का प्रयास होगा. 

आने वाले समय में जियोपॉलिटिकल दबाव के दो बिंदु ऐसे होंगे, जो दो क्षेत्रों पर असर डालेंगे. पहला तो मध्य पूर्व होगा, जहां अब्राहम समझौते से ईरान को डराने की कोशिश की जाएगी. दूसरा, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन को संदेश देने का प्रयास होगा. अगर, प्रतिबंधों में रियायत दी जाती है, तो ईरान तेल व्यापार में बड़ी आर्थिक भूमिका निभा सकेगा. इससे वो अपने पाले हुए उग्रवादी सैन्य संगठनों की और मज़बूती से मदद कर सकेगा. अगर अमेरिका और उसके सहयोगी देश चीन के विस्तार को सीमित नहीं करते, तो ये अपने आर्थिक, सुरक्षा और विकास के CCP वाले मॉडल के ज़रिए अपने प्रभाव क्षेत्र का दायरा बढ़ाता रहेगा. तमाम भौगोलिक क्षेत्रों में कई सैन्य और ख़ुफ़िया समझौते करना और फाइव आइज़ एलायंस में जापान को शामिल करने का मक़सद चीन के प्रभाव को सीमित करना ही है. ऐसे में श्रीलंका जैसे देश, जो विकल्प चुनने की दुविधा का शिकार हैं, उनके लिए वर्ष 2021 की शुरुआत ऐसे माहौल में हुई है, जब दुनिया में भयंकर महामारी फैली हुई है और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शीत युद्ध का माहौल गर्मा रहा है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.