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2022 बज़ट की कोशिश उन चुनौतियों का सामना करने की है जो भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने आने वाली हैं,यह स्वागत योग्य है, लेकिन वक़्त की मांग इसे व्यापक दृष्टिकोण से देखने की है.
भारत का केंद्रीय बज़ट 2022 इस बात की खुले तौर पर घोषणा करता है कि इसका स्वीकृत लक्ष्य अगले 25 वर्षों में अर्थव्यवस्था की नींव रखने और इसके लिए एक ब्लूप्रिंट तैयार करना है. बज़ट भाषण स्पष्ट रूप से पारंपरिक मैक्रोइकोनॉमी (व्यापक आर्थिक) मापदंडों (जैसे आय वृद्धि, राजकोषीय मापदंड, खपत, निवेश, बचत, आदि) के बजाए समग्रता के साथ विकास के मुद्दे को संबोधित करता है, जो कि वैश्विक टिकाऊ विकास के लक्ष्यों (एसडीजी) द्वारा बढ़ावा दिया गया है. बल्कि, पिछले तीन वर्षों में कम से कम केंद्रीय बज़ट को लेकर यही चलन रहा है. इस वर्ष, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण शायद “हरित बदलाव” के रास्ते पर अर्थव्यवस्था को ले जाने में ज़्यादा ही तत्पर नज़र आईं. इस पर जोर देने के लिए बज़ट भाषण में “टिकाऊ” शब्द का इस्तेमाल कई बार किया गया. मौजूदा समय में पटरी पर लौटती अर्थव्यवस्था के इस दौर में भारत ही दुनिया का नेतृत्व कर रहा है, बावजूद इसके कि दूसरे देशों की तरह ही कोरोना महामारी ने भारत में भी भारी तबाही मचाई थी. ऐसे में केवल यही प्रासंगिक है कि भारत अपने विकास के लक्ष्य में एसडीजी द्वारा निर्धारित वैश्विक विकास व्यवस्था के बदलते प्रतिमानों को स्वीकार करे, क्योंकि अर्थव्यवस्था अपनी यात्रा के अगले 25 वर्षों की ओर आगे बढ़ रही है.
पिछले तीन वर्षों में कम से कम केंद्रीय बज़ट को लेकर यही चलन रहा है. इस वर्ष, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण शायद “हरित बदलाव” के रास्ते पर अर्थव्यवस्था को ले जाने में ज़्यादा ही तत्पर नज़र आईं. इस पर जोर देने के लिए बज़ट भाषण में “टिकाऊ” शब्द का इस्तेमाल कई बार किया गया.
दरअसल, केंद्रीय बज़ट 2022-23, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उन अवधारणाओं को विस्तार देता है जिसे उन्होंने अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण में रेखांकित किया है. ये हैं : (ए) माइक्रो स्तर की खुशहाली के साथ मैक्रो-स्तर के विकास को जारी रखना, (बी) डिज़िटल अर्थव्यवस्था और फिनटेक को बढ़ावा देना और तकनीक के जरिए विकास, ऊर्जा बदलाव और जलवायु संबंधी कार्रवाई को बढ़ावा देना और (सी) निजी और सार्वजनिक निवेश की मदद से पैदा हुए “नेकी के चक्र” का पूर्ण इस्तेमाल करने के साथ सार्वजनिक पूंजी निवेश के जरिए निजी निवेश को शामिल करने की प्रक्रिया को बढ़ावा देना.
दिलचस्प बात तो यह है कि यहां कुछ ट्रेड-ऑफ़ प्रस्तावित हैं और केंद्रीय बज़ट इन ट्रेड-ऑफ़ का आमने-सामने मुक़ाबला करने की चुनौती स्वीकार करता है. इस ट्रेड-ऑफ़ को दो संदर्भ में देखने की ज़रूरत है. वैश्विक विकास शासन असल में एसडीजी द्वारा बढ़ावा दिया जाता है जो “नीतियों के त्रिकोणीय चुनौतियों” या दक्षता, इक्विटी और स्थिरता की त्रिमूर्ति के अस्तित्व की पहचान करता है. ऐसा लगता है कि जब बज़ट “नीतियों के त्रिकोणीय चुनौतियों” का सामना करने की कोशिश करता है तो अधिक सावधानी से व्याख्या करने पर पता चलता है कि कुछ ट्रेड-ऑफ़ को ठीक से नहीं समझा गया है. इससे विकास शासन में नीतिगत विफलता का सामना करना पड़ सकता है.
एक बात पक्की है: इस उपभोग जैसी चीज को बड़े पैमाने पर वेतनभोगी मध्यम वर्ग और निम्न आय समूहों द्वारा संचालित किया जाता है, जो अमीर और सुपर-रिच के मुक़ाबले में उपभोग करने के लिए एक उच्च स्तर के सीमांत प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं.
यहां, हम पहले इक्विटी बनाम दक्षता के बारे में बात करेंगे. बज़ट में शिक्षा, स्वास्थ्य, मानव विकास, एमएसएमई, पिछड़ा वर्ग और कमज़ोर समुदाय जैसे कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात की गई है. ये स्वागत योग्य कदम हैं. हालांकि, बज़ट “किफ़ायत के विरोधाभास” के तथ्यात्मक विस्तार का शिकार हो गया है, जैसा कि वेतनभोगी मध्यम वर्ग को टैक्स में किसी तरह की राहत नहीं देने से साफ हो जाता है. पिछले तीन दशकों में भारतीय विकास की कहानी काफी हद तक उपभोग आधारित रही है. दिलचस्प बात यह है कि 2021-22 की पहली दो तिमाही में पटरी पर लौटते विकास के पीछे काफी हद तक निजी खपत एक कारण है, जो कि सकल घरेलू उत्पाद का 55 प्रतिशत से अधिक है. एक बात पक्की है: इस उपभोग जैसी चीज को बड़े पैमाने पर वेतनभोगी मध्यम वर्ग और निम्न आय समूहों द्वारा संचालित किया जाता है, जो अमीर और सुपर-रिच के मुक़ाबले में उपभोग करने के लिए एक उच्च स्तर के सीमांत प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं. यह इस तथ्य से भी प्रमाणित होता है कि भारत में बढ़ती आय असमानता की वजह से साल 1991 और 2020 के बीच संपत्ति की असमानता ज़्यादा तेजी से बढ़ी है. इसका मतलब यह है कि निम्न आय समूहों की आय में वृद्धि से उनके अर्थव्यवस्था के उपभोग आधारित चैनल में शामिल होने की संभावना ज़्यादा बढ़ जाती है, इसकी संभावना उच्च आय समूह के लोगों की आय में बढ़ोतरी होने के मुक़ाबले इसलिए भी ज़्यादा है क्योंकि इस समूह की आय में बढ़ोतरी होने से वो अतिरिक्त धन को अर्थव्यवस्था के बचत चैनल में शामिल कर देते हैं, जिससे वो पूंजी का निर्माण करते हैं.
जीएसटी की बात करते हुए बजट संबोधन में “एक देश एक टैक्स” की बात का ज़िक्र किया गया लेकिन वास्तविकता से यह अभी भी कोसों दूर है. बल्कि, जीएसटी के साथ व्यवसायों की अनुकूलता के मुद्दे अभी भी गंभीर हैं, जिससे व्यापार करने की लागत में बढ़ोतरी हुई है, जो कि व्यापार करने में सहूलियत होने के दावों के ठीक उलट है.
इसलिए, यदि उपभोग आधारित विकास को बढ़ावा देने की ज़रूरत है तो यह महत्वपूर्ण है कि मध्यम और निम्न-आय वर्ग के लोगों के पास अधिक पैसा होना चाहिए. यहां पर यह याद रखना बेहद अहम है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की उपभोग संबंधी आंकड़े अभी तक कोरोना महामारी से पहले के दौर के आंकड़े तक नहीं पहुंच पाए हैं. इसलिए, निजी इनकम टैक्स में छूट, संपत्ति कर के जरिए आय के घाटे को दुरुस्त करना या फिर जीएसटी के बेहतर प्रबंधन जैसे कुछ उपायों को इसमें शामिल किया जाना चाहिए था. इसलिए, इस तरह के “बचत का विरोधाभास” (जो बताता है कि व्यक्तिगत बचत में वृद्धि विकास के लिए हानिकारक है) की प्रवृति को आसानी से दरकिनार किया जा सकता था और कीनेसियन व्यवस्था के जरिए विकास और असमानता जैसे दोनों ही मुद्दों को सुलझाया जा सकता था.
हालांकि जीएसटी की बात करते हुए बजट संबोधन में “एक देश एक टैक्स” की बात का ज़िक्र किया गया लेकिन वास्तविकता से यह अभी भी कोसों दूर है. बल्कि, जीएसटी के साथ व्यवसायों की अनुकूलता के मुद्दे अभी भी गंभीर हैं, जिससे व्यापार करने की लागत में बढ़ोतरी हुई है, जो कि व्यापार करने में सहूलियत होने के दावों के ठीक उलट है. वास्तव में जैसा कि वित्त मंत्री ने ज़िक्र किया है कि जनवरी 2022 में जीएसटी कलेक्शन अब तक सबसे ज़्यादा हुआ है, लेकिन इसकी सबसे बड़ी वजह, कोरोना से पहले के कई ऑफ़लाइन गैर-पंजीकृत सेवाओं के कोरोना महामारी के दौरान डिज़िटल प्लेटफ़ॉर्म पर आने को लेकर है. हो सकता है कि यह कई ऐसे व्यवसायों के लिए अच्छा नहीं रहा हो, जिन्हें डिज़िटल दुनिया में जगह नहीं मिली. इसलिए, केंद्रीय बज़ट में दक्षता और समानता के बीच सामंजस्य को लेकर होने वाली चिंताओं को शायद ही ध्यान में रखा गया है.
“44,605 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से केन-बेतवा लिंक परियोजना का कार्यान्वयन शुरू किया जाएगा. इसका मक़सद 9.08 लाख हेक्टेयर किसानों की भूमि को सिंचाई लाभ पहुंचाना, 62 लाख लोगों को पेयजल आपूर्ति कराना , 103 मेगावाट हाइड्रो और 27 मेगावाट सौर ऊर्जा प्रदान करना है.”
इसके बाद विकास प्रक्रिया में स्थिरता का मुद्दा आता है. बज़ट यह दावा करता है कि यह भविष्य के 25 वर्षों के लिए आगे की राह सुनिश्चित करता है और पर्यावरण संबंधित कार्रवाई और ऊर्जा बदलाव का ज़िक्र करता है, साथ ही यह बड़े पैमाने पर पीएम गति शक्ति के तहत सड़क, रेलवे, एयरपोर्ट, बंदरगाह, परिवहन, वाटरवेज़ और लॉजिस्टिक जैसी बुनियादी ढांचा के विकास की भी बात करता है. कनेक्टिविटी वास्तव में विकास के लिए एक महत्वपूर्ण बिंदू है लेकिन बड़े पैमाने पर पूंजीगत व्यय के जरिए बुनियादी ढ़ांचे के निर्माण के परिणामस्वरूप लैंड यूज (भूमि के उपयोग) में वनों और घास के मैदानों के वैकल्पिक इस्तेमाल के रूप में बदलाव देखा गया है, जिससे जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं में भारी नुक़सान हुआ है. हालांकि बज़ट भाषण में पर्यावरण संबंधी कार्रवाई की बात की गई है लेकिन इससे यह साफ नहीं है कि पर्यावरण कार्रवाई के लिए ऐसा बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के साथ क्षतिपूरक वनीकरण या पर्यावरण-बहाली का पालन किया जाएगा या नहीं. वैसे शोध से यह पता चलता है कि पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं में हुए नुकसान, को जब पैसों के संदर्भ में देखा जाता है, तो यह अक्सर ऐसी परियोजनाओं से होने वाले लाभ से अधिक होता है.
इसी सिलसिले में केंद्रीय बज़ट ने कम से कम दो मामलों में समानता और दक्षता की तलाश में स्थिरता की चिंता को छोड़ दिया है. पहला खरीद और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) व्यवस्था के जरिए धान और गेहूं की खेती को बढ़ावा देने से जुड़ा है और यह मज़बूती के साथ तर्क दिया गया है कि भारत में पानी को लेकर कुछ संघर्ष मुख्य रूप से सिंचित खेती क्षेत्र के कारण होते हैं, जो मुख्य रूप से दो फसलों के रूप में गेहूं और धान को बढ़ावा देते हैं, जिनके द्वारा अब तक भारत में खाद्य सुरक्षा को परिभाषित किया जाता रहा है. बज़ट ने उस आग में और घी डालने का काम किया है. बजाए इसके कि एमएसपी का उपयोग व्यापार की शर्तों को बदलने और कम पानी की खपत वाले बाजरे की फसल को उत्पादन के लिए अधिक आकर्षक बनाने के लिए किया जा सकता है. यह पानी की बचत, पानी के प्रवाह को बनाए रखने में सहायक हो सकता है और पानी से संबंधित कुछ अधिक गंभीर विवादों (जैसे, कावेरी, तीस्ता, या पंजाब-हरियाणा संघर्ष) को हल करने में मदद कर सकता है.
जैसे-जैसे भारत महामारी के चलते आये आर्थिक मंदी के दौर से उबरता जा रहा है, आर्थिक विकास की पटरी पर लौटने की दिशा में एक समग्र विकास के दृष्टिकोण को अपनाने की भी ज़रूरत है.
दूसरा मुद्दा नदियों को आपस में एक दूसरे से जोड़ने का है. बज़ट में कहा गया है, “44,605 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से केन-बेतवा लिंक परियोजना का कार्यान्वयन शुरू किया जाएगा. इसका मक़सद 9.08 लाख हेक्टेयर किसानों की भूमि को सिंचाई लाभ पहुंचाना, 62 लाख लोगों को पेयजल आपूर्ति कराना , 103 मेगावाट हाइड्रो और 27 मेगावाट सौर ऊर्जा प्रदान करना है.” यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अभी तक केन-बेतवा लिंक का कोई समग्र मूल्यांकन नहीं किया गया है जो समय के साथ इस तरह की नदियों के जुड़ाव की सामाजिक और पारिस्थितिकी लागत (पैसों के संदर्भ में) को बता सके. यह इस बात का एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि कैसे अदूरदर्शी विकास की महत्वाकांक्षाएं लंबे समय के लिए स्थिरता संबंधी मुद्दों को बाधित करती है. “पांच नदियों को जोड़ने वाले डीपीआर के मसौदे को अंतिम रूप दे दिया गया है. एक बार इससे लाभान्वित होने वाले राज्यों के बीच सहमति बन जाएगी तब, केंद्र कार्यान्वयन के लिए सहायता प्रदान करेगा.” रिडक्सनिस्ट इंजीनियरिंग (न्यूनीकरणवादी इंजीनियरिंग) और संकीर्ण आर्थिक लाभ-केंद्रित विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) काफी हद तक इस तरह के प्रोजेक्ट से लंबे समय में बड़े पैमाने पर होने वाले नुक़सान से बेख़बर होते हैं. वैश्विक उत्तर के साथ दक्षिण एशिया में इस तरह के दावे की पुष्टि के लिए पर्याप्त उदाहरण मौजूद हैं.
कई मामलों में, बज़ट व्यापार प्रतिस्पर्धात्मकता को सक्षम करने की बात कर रहा है (और विश्व बैंक की नाकामी के बावजूद “व्यापार करने में आसानी” शब्द का इस्तेमाल किया गया है). पिछले ओआरएफ अनुसंधान ने पहले ही इस बात को दिखाया है कि एसडीजी को बढ़ावा देने से व्यवसायों को और ज़्यादा प्रतिस्पर्द्धी बनाने में मदद मिलती है. इसलिए यह ज़रूरी नहीं है कि स्थिरता की कीमत पर विकास हो, बल्कि होना तो ये चाहिए कि विकास प्रतिमानों में इन्हें एक दूसरे के लिए इस्तेमाल किया जा सके.
जैसे-जैसे भारत महामारी के चलते आये आर्थिक मंदी के दौर से उबरता जा रहा है, आर्थिक विकास की पटरी पर लौटने की दिशा में एक समग्र विकास के दृष्टिकोण को अपनाने की भी ज़रूरत है. मोटे तौर पर, यह दो प्रमुख सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए: (ए) मानव में वृद्धि (स्वास्थ्य और शिक्षा के माध्यम से) और भौतिक पूंजी, प्राकृतिक पूंजी की क़ीमत पर यह नहीं होना चाहिए : वैश्विक गतिविधियों से पूंजी के तीनों रूपों के सह-अस्तित्व और विकास को निश्चित किया जाना चाहिए तभी मानव विकास को पाया जा सकता है. और (बी) लॉन्ग टर्म आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए सबके लिए न्याय और समानता वाले बराबरी के भारत को आगे करना होगा. ब्रिटेन और नॉर्डिक देशों की अर्थव्यवस्थाओं के कल्याणकारी राज्य भारत और ग्लोबल साउथ (वैश्विक दक्षिण) के लिए सबक देते हैं लेकिन दुर्भाग्य से, केंद्रीय बज़ट यह बताता है कि नॉर्थ ब्लॉक में ऐसी चिंताओं की पहचान किया जाना अभी बाकी है.
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Dr Nilanjan Ghosh is Vice President – Development Studies at the Observer Research Foundation (ORF) in India, and is also in charge of the Foundation’s ...
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