Published on Sep 13, 2023 Updated 0 Hours ago

समावेशी संपन्नता के आयाम को अपनाने पर भारत के पास इस बात का अवसर होगा कि प्रगति को एक ऐसे नए नज़रिए से देखे, जो प्रकृति की ज़रूरतों के साथ मानवता की आकांक्षाओं का तालमेल कराने वाली हो. 

विकास को नए सिरे से टिकाऊ बनाना: समावेशी संपन्नता की ओर

सितंबर 2015 में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों ने वैश्विक प्रगति के लिए एक दूरदृष्टि वाला ब्लूप्रिंट अपनाया था, जिसे एजेंडा 2030 कहा गया. बड़े बदलाव लाने वाले इस एजेंडे में टिकाऊ विकास के 17 लक्ष्य (SDGs) और 169 मक़सद तय किए गए थे. इनका मक़सद देशों को ऐसे टिकाऊ विकास की राह दिखाना था, जिसमें सामाजिक प्रगति और पर्यावरण संरक्षण के साथ आर्थिक विकास हो. हालांकि, इन लक्ष्यों को हासिल करने की राह में बाधा आ गई है. क्योंकि, टिकाऊ विकास के तमाम आयामों के मामले में अब तक हुई प्रगति की निगरानी करने के लिए व्यापक औज़ार उपलब्ध नहीं हैं.

आज के युग को जब टिकाऊ विकास की राह पर चलने के लिए परिभाषित किया जाता है, तो समावेशी संपन्नता (IW) एक व्यापक और परिवर्तनकारी आयाम के तौर पर उभरी है, जो तरक़्क़ी मापने के पारंपरिक पैमानों की सीमा के पार जाकर काम करती है.

आज के युग को जब टिकाऊ विकास की राह पर चलने के लिए परिभाषित किया जाता है, तो समावेशी संपन्नता (IW) एक व्यापक और परिवर्तनकारी आयाम के तौर पर उभरी है, जो तरक़्क़ी मापने के पारंपरिक पैमानों की सीमा के पार जाकर काम करती है. वैसे तो वैश्विक चुनौतियों से निपटने के लिए स्थायी विकास के लक्ष्यों (SDGs) ने एक महत्वपूर्ण रूपरेखा  उपलब्ध कराई है. लेकिन, समावेशी समृद्धि का विचार एक बड़ा नज़रिया पेश करने वाला है. इसमें आर्थिक वृद्धि तो शामिल है ही. इसके साथ साथ ये विचार तमाम तरह की पूंजी को टिकाऊ और समान रूप से जमा करने की बात करता है. केवल आर्थिक विकास पर ज़ोर देने के बजाय, ये विचार ये मानता है कि विकास की राह पर चलने के लिए तीन तरह की पूंजियों के बीच नाज़ुक आपसी निर्भरता को लेकर समझदारी से विचार करने की ज़रूरत है.

समावेशी विकास की परिकल्पना के केंद्र में संपत्ति की पारंपरिक व्याख्या को नए सिरे से देखने की ज़रूरत है. आर्थिक उत्पादन का आकलन करने वाले सकल घरेलू उत्पाद (GDP) जैसे पारंपरिक पैमाने से अलग समावेशी संपन्नता संपत्तियों के एक व्यापक समूह ऐसे के आधार पर आकलन करती है, जो आपस में मिलकर समाज को ख़ुशहाल और पर्यावरण को बेहतर बनाते हैं. GDP महत्वपूर्ण भले हो, लेकिन ये मानव संभावनाओं की क़ीमत, हमारे पर्यावरण के संसाधनों के ग़ैर बाज़ारी फ़ायदों और सकारात्मक और नकारात्मक बातों के आर्थिक असर को अपने गुणा भाग में शामिल कर पाने में नाकाम रहती है.

हाल की परिचर्चाएं, आर्थिक विकास के आकलन के लिए ज्ञान की पूंजी को शामिल करने और तकनीकी तरक़्क़ी के सामाजिक और आर्थिक भलाई पर प्रभाव को स्वीकार करने की अहमियत रेखांकित करती हैं.

समावेशी संपन्नता पर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की ताज़ा रिपोर्ट, तरक़्क़ी मापने के लिए ऐसे वैकल्पिक सूचकांकों को अपनाने की वकालत करती है, जो विकास संबंधी प्रगति के टिकाऊ होने का अधिक व्यापक मूल्यांकन उपलब्ध कराते हों. समावेशी संपत्ति का सूचकांक (IWI) इस मामले में एक नया नज़रिया पेश करता है. क्योंकि इसमें संसाधनों के बाज़ार मूल्य को उनके सामाजिक मूल्य के साथ जोड़कर देखा जाता है. इसमें उन अनिवार्य इकोसिस्टम की प्राकृतिक पूंजी भी शामिल किया जाता है जो ज़िंदगी का पहिया चलाते हैं; स्वास्थ्य, ज्ञान और व्यक्तियों के कौशल के तौर पर मानव पूंजी को देखा जाता है; और इसमें मूलभूत ढांचे और दूसरे भौतिक साधनों का हिसाब भी शामिल होता है, जो उत्पादित पूंजी कहे जाते हैं. सब मिलाकर ये आयाम वो बुनियाद तैयार करते हैं, जिस पर किसी समाज की बेहतरी और पर्यावरण की सेहत सामूहिक रूप से दमकते हैं.

Table 1: प्रति व्यक्ति समावेशी समृद्धि के मामले में सबसे अच्छे प्रदर्शन वाले देश 1992-2014

IWI Ranking Country Average Growth Per Capita During 1992-2014 (in percentage)
1 Republic of Korea 33
2 Singapore 25.2
3 Malta 18.9
4 Latvia 17.9
5 Ireland 17.1
6 Moldova 17
7 Estonia 16
8 Mauritius 15.5
9 Lithuania 15.2
10 Portugal 13.9

स्त्रोत – Inclusive Wealth Report 2018

प्राकृतिक संसाधनों में आ रही अभूतपूर्व कमी, जलवायु परिवर्तन के ख़तरों के मंडराते साए और बढ़ती सामाजिक असमानताओं के बीच समावेशी संपन्नता का आयाम, इन चुनौतियों से निपटने के एक संभावित विकल्प के तौर पर उभरता है. जिसे हासिल करने के लिए टिकाऊ विकास की रूपरेखा  के हर पहलू पर एक साथ प्रगति करनी ज़रूरी होगी. इकोसिस्टम और पर्यावरण के बुनियादी मूल्य पर ज़ोर देते हुए, ये आयाम संसाधनों के टिकाऊ प्रबंधन पर ज़ोर देता है. इसके अलावा, ये आयाम विकास के व्याख्यानों में मानव पूंजी को सबसे आगे रखता है, और स्वास्थ्य, शिक्षा व कौशल विकास में निवेश को प्रगति के सबसे अहम पहलुओं के तौर पर पेश करता है. समावेशी समृद्धि का ढांचा ये बात स्वीकार करता है कि मौजूदा और भविष्य की पीढ़ियों की भलाई के लिए स्थायी मूलभूत ढांचे की संपत्तियों का निर्माण बहुत महत्वपूर्ण है.

GDP विकास को प्रगति का इकलौता मानक मानने पर ज़ोर देने वाले पारंपरिक नज़रिए की वजह से अक्सर अर्थशास्त्रियों और पारिस्थितिकी विशेषज्ञों के बीच बहस छिड़ती रही है. जहां कुछ लोगों का तर्क है कि तकनीकी तरक़्क़ी से प्राकृतिक पूंजी को हो रहे नुक़सान की भरपाई की जा सकती है. वहीं, इकोलॉजी के वैज्ञानिकों का कहना है कि एक तरह की पूंजी के नुक़सान को दूसरे तरह की पूंजी से पूरा करना तार्किक नहीं है. इस मामले में IWI, टिकाऊ विकास के मॉडल के तौर पर एक लचीले और बहुआयामी विकल्प के तौर पर केंद्रीय भूमिका लेता है. अगर समावेशी संपन्नता पर ज़ोर दिया जाता है, तो इससे ग़रीबी हटाने, खाद्य सुरक्षा बढ़ाने, टिकाऊ खेती को प्रोत्साहन देने, लोगों की बेहतरी को आगे बढ़ाने में मदद मिलती है, और, ये स्थायी विकास के कई अन्य लक्ष्यों (SDGs) को प्राप्त करने में भी सहयोग देता है. सच तो ये है कि समावेशी संपन्नता का सूचकांक (IWI) का स्कोर सीधे तौर पर कई SDG (1,2,3,8,12,13,14,15) प्राप्त करने पर असर डालता है.

भारत के विकास के सफर पर बारीक़ नज़र

भारत की विकास यात्रा एक ज़रूरी केस स्टडी का विकल्प देती है. भारत ने वैसे तो अपने विकास की आकांक्षाओं को आर्थिक वृद्धि के ज़रिए पूरा करने का प्रयास किया है. लेकिन, मोटे तौर पर उसका ज़ोर GDP के विस्तार पर केंद्रित रहा है, और इस दौरा प्रगति के अन्य मानकों की अनदेखी की जाती रही है. हालांकि, सिर्फ़ GDP पर ध्यान केंद्रित करने से आर्थिक क्षमताओं की जटिलताओं और विकास की हक़ीक़त पूरी तरह समझ में नहीं आती. क्योंकि, तरक़्क़ी मापने का ये नज़रिया आर्थिक गतिविधियों की सामाजिक और पर्यावरण संबंधी क़ीमत, और आबादी के तमाम वर्गों के बीच संपत्ति के वितरण की असमानताओं की अनदेखी की जाती है. इससे रहन सहन के सामूहिक स्तर का सही आकलन नहीं हो पाता है. सबसे ज़्यादा चिंता की बात तो ये है कि भारत की आबादी का एक बड़ा वर्ग अपनी रोज़ी रोटी के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है. ऐसे में पारिस्थितिकी को हो रहे नुक़सान का आकलन नहीं करने से अर्थव्यवस्था की दूरगामी स्थिरता के लिए जोखिम पैदा होते हैं. इस वजह से भारत प्राकृतिक आपदाओं और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के आगे कमज़ोर स्थिति में पहुंच जाता है.

हाल की परिचर्चाएं, आर्थिक विकास के आकलन के लिए ज्ञान की पूंजी को शामिल करने और तकनीकी तरक़्क़ी के सामाजिक और आर्थिक भलाई पर प्रभाव को स्वीकार करने की अहमियत रेखांकित करती हैं. स्थायी विकास के लक्ष्य हासिल करने और उनकी प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ने की प्रगति का आकलन करने के लिए IWI केंद्रीय भूमिका अख़्तियार करता है. ये सूचकांक अनूठे तरीक़े से पीढ़ियों की बेहतर स्थिति और वर्तमान और भावी पीढ़ियों की ज़रूरतें पूरी करने के लिए संसाधनों के टिकाऊ इस्तेमाल को अपने आकलन का हिस्सा बनाता है. अन्य मानकों से अलग IWI सूचकांक न केवल पुराने बर्तावों की तस्वीर पेश करता है, बल्कि पहले हासिल हुई प्रगति के दूरगामी तौर पर टिकाऊ होने की एक सांकेतिक तस्वीर भी प्रस्तुत करता है. इससे तमाम पीढ़ियों के बीच पैरेटो ऑप्टिमेलिटी  सुनिश्चित होती है. भारत की विशाल युवा आबादी को देखते हुए, उसके लिए तो ये ख़ास तौर से अहम है.

आज जब भारत 21वीं सदी की चुनौतियों से जूझ रहा है, तो वो विकल्पों के उस चौराहे पर खड़ा है, जहां भारत का चुनाव न सिर्फ़ उसके भविष्य को तय करेगा, बल्कि विश्व मंच पर भी उसकी गूंज सुनाई देगी.

1990 से 2014 के बीच भारत की GDP विकास दर का औसत 6.4 प्रतिशत रहा है. लेकिन, इस दौरान भारत में समावेशी संपन्नता में बदलाव की दर केवल 2.61 प्रतिशत रही है. इसकी मुख्य वजह भौतिक पूंजी इकट्ठा होना रही है. 1990 से 2014 के बीच औसत वार्षिक वृद्धि और अलग अलग तरह की पूंजी में (उसकी कुल समावेशी संपत्ति में तुलनात्मक हिस्सेदारी) भौतिक पूंजी के लिए 7.62 प्रतिशत (23.5 फ़ीसद), मानवीय पूंजी के लिए 2.62 (61.5 प्रतिशत) और प्राकृतिक पूंजी के लिए -0.44 (15.1) प्रतिशत रही है. वैसे तो इस दौरान भारत की समावेशी संपन्नता में मानवीय पूंजी का हिस्सा स्थिर रहा है. लेकिन, जहां प्राकृतिक पूंजी में भारी गिरावट आई है, वहीं उसकी क़ीमत पर भौतिक पूंजी में इज़ाफ़ा दर्ज किया गया है. हालांकि, जैसे जैसे प्राकृतिक संपत्ति के बेहद कम स्तर से जुड़े बाहरी प्रभावों का सीधा असर दिखने लगेगा, तो इससे भारत की आर्थिक प्रगति को ख़तरा पैदा होगा. ऐसे में ज़रूरी ये है कि तरक़्क़ी और विकास के मूल्यांकन पर ध्यान केंद्रित करने का दायरा बढ़ाकर समावेशी संपत्ति के आकलन की परिकल्पना को भी इसमें शामिल किया जाए.

इस मामले में भारत की भूमिका केंद्रीय और प्रेरणादायक, दोनों ही हो सकती है. आज जब भारत 21वीं सदी की चुनौतियों से जूझ रहा है, तो वो विकल्पों के उस चौराहे पर खड़ा है, जहां भारत का चुनाव न सिर्फ़ उसके भविष्य को तय करेगा, बल्कि विश्व मंच पर भी उसकी गूंज सुनाई देगी. भारत के लिए समावेशी संपन्नता के विकल्प को अपनाना सिर्फ़ एक नीतिगत विचार नहीं है; बल्कि ये प्रगति की असली भावना को नए सिरे से परिभाषित करने के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का भी प्रतीक है. समावेशी समृद्धि के आयाम को अपनाने से भारत के पास मौक़ा है कि वो एक अतुलनीय उदाहरण पेश करें , और प्रगति की परिकल्पना इस तरह से करने की मांग करे, जो मानवता की आकांक्षाओं को प्रकृति की ज़रूरतों के साथ तालमेल बिठाने वाली हो.

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