Published on Nov 08, 2016 Updated 7 Days ago
अखिलेश की रथ यात्रा: वर्जन 3.0

अखिलेश एक “ट्रेनी” मुख्यमंत्री हैं, लेकिन वे निपुण “महारथी” भी हैं। लामार्टिनियर ग्राउन्ड लखनऊ के भव्य मंच से स्वयं उन्होंने गर्व से बताया कि यह उनकी तीसरी रथयात्रा है। 2011 में विधानसभा चुनाव के पूर्व अखिलेश ने अपना क्रांतिरथ निकाला था। उस यात्रा के परिणाम सुखद रहे। सपा पूर्ण. बहुमत से चुनकर सत्ता में आयी। थोडे़ दिन के कयास के बाद सपा के राजकुमार का राज्यारोहण हुआ। पिता मुलायम ने विजय का श्रेय अखिलेश को दिया। वार्धक्य में प्रवेश कर रहे पिता को आबाल-वृद्ध नर-नारियों की भरपूर प्रशंसा मिली। कुछ उत्साही समीक्षकों ने मुलायम के इस त्याग-भाव को, करूणानिधि को एक नसीहत के तौर पर पेश किया। पिता मुलायम ने मुख्यमंत्री पुत्र अखिलेश को 2017 में उन्हें प्रधानमंत्री पद दिलाने का कठिन लक्ष्य सौंपा।

अखिलेश युवा हैं एवं सुदर्शन भी। आम राजनेताओं से भिन्न, उनके चेहरे से भलमनसाहत झलकती है। वे पढे-लिखे, प्रगतिशील एवं आस्ट्रेलिया से शिक्षित होने के कारण लीक से हटकर चलने वाले तथा नरमपंथी माने जाते हैं। अपने लगभग पॉच वर्ष के कार्यकाल में अखिलेश आपा खोते नहीं दिखे। चाहे मुजफ्फरनगर के दंगे हो या जवाहरबाग का गोली कांड, चाहे बुलन्दशहर के बहुचर्चित बलात्कार की घटना हो या कुंभ एवं बनारस के जयगुरूदेव के कार्यक्रम की भगदड़, अखिलेश मीड़िया की तमाम आलोचनाओं को सहकर भी निर्विकार भाव प्रदर्शित करते रहे। इन घटनाओं का ठीकरा नौकरशाही पर नही फोड़ा गया, यद्यपि कि ऐसा करके वे बहुत कुछ अपनी साख बचा सकते थे, आलोचनाओं से बच सकते थे। यह गुण उन्हे अपने पिता से मिला होगा — “अपनों के सौ खून माफ”।

यह सत्य है कि अखिलेश के मुख्यमंत्रित्व काल में एक बेचारगी रही है। विरोधी दल ही नहीं बल्कि आम जनता भी यह मानने लगी थी कि उ.प्र. में सपा सरकार को “साढे-चार मुख्यमंत्री” चला रहे हैं। यह बिना कहे भी जाना जा सकता है कि वे “आधे” मुख्यमंत्री कौन हैं।

लोकसभा में सपा की करारी पराजय का ठीकरा भी अखिलेश की अनुभवहीनता के मत्थे फूटा। सपा के लिए सांत्वना इसी बात की थी कि चिर प्रतिद्वन्दी बसपा का तो खाता भी नहीं खुला। हार का पोस्टमार्टम हुआ। पश्चिमी उ.प्र. में किस प्रकार भाजपा ने मुजफ्फरनगर दंगों के पश्‍चात उभरी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का भरपूर लाभ उठाया। दंगों में हुई प्रशासनिक चूक एवं राहत कार्यो में बरती गयी ढ़िलाई स्वभाविक रूप से मुख्यमंत्री के खाते में आयी।

अपनी तमाम अनुभवहीनता के बावजूद अखिलेश ने पिछली रथ-यात्रा से एक सबक अवश्‍य याद रखा था। उ.प्र. की आम जनता समाजवादी पार्टी  की आपराधिक छवि वाले बाहुबली नेताओं से गठजोड़ को नापसंद करती है। 2012 के चुनाव से पूर्व बाहुबली सजातीय डी.पी. यादव को पार्टी से निकालने के अखिलेश के “एक मात्र” साहसी कार्य को लोग अभी भी प्रशंसापूर्वक याद करते हैं। माफिया एवं बाहुबली सत्ता की छांव में ही पुष्पित-पल्लवित हो सकते हैं- यह सार्वभौम सत्य अखिलेश भी जानते हैं। बाहुबली अतीक अहमद एवं मुख्तार अन्सारी से दूरी बनाकर चलने को अखिलेश ने अपना साहस दिखाने एवं पिता-चाचा के साये से निकलने का सुनहरा अवसर समझा।

भारतीय राजनैतिक दल भी भारतीय संविधान की तरह मजबूत केन्द्र के हिमायती है। हाईकमान का पहली बार प्रयोग शायद कांगेस के प्रसंग में आया होगा, किन्तु घर-घर में जिसकी सत्ता चलती है, उसे प्रकारान्तर से हाईकमान ही कहा जाता है। “कौमीं एकता दल” से विलय का विरोध एवं उस विलय के शिल्पकार एक “प्यादे” मंत्री की बर्खास्तगी को शहजा़दे सलीम की मुगलिया सल्तनत से बगावत से तुलना की गयी। यह बगावत किसी “अनारकली” के लिए नहीं की गयी थी। बगावत का आधार “मोहब्बत” जैसा “रूमानी” ना होकर “नैतिकता” जैसा उच्च मापदण्ड था। एक ही झटके में अखिलेश ने शेष “चार” मुख्यमंत्रियों का बोझ अपने कंधे से उतार फेंका। “आधा” मुख्यमंत्री जब अचानक पूरा बन बैठा। एक कद्दावर मुख्यमंत्री। मध्यमवर्ग की नैतिकता को सुकून मिला। सपा के युवा वर्ग को एक आदर्श तथा देशभर के स्तम्भकारों के एक महानायक।

अक्तूबर 2016 के अन्तिम पखवाडे़ की घटना को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। अखिलेश की रथयात्रा एक तरह से हाईकमान से बगावत ही है। मुलायम की लाचारी दो वजह से है- एक तो बगावती शहज़ादा उनका पुत्र है, दूसरा वही सत्ता की गद्दी पर आसीन भी है। सारा सरकारी अमला, विवेकाधीन कोष, पद की ताकत एवं गरिमा अखिलेश की ही ताबेदार है। मुलायम के खाते में कुछ है तो बस कुछ बूढे़ सिपहसालार जो भीष्म की तरह हस्तिनापुर से बंधे है, पिछडों विशेषकर यादव मतदाताओं का परम्परागत वोट एवं सबसे मजबूत मुस्लिम मतदाताओें का अण्क्षुण विश्‍वास।

परिवार, पार्टी बचाने की कवायद ने मुलायम को “महागठबन्धन” की ओर धकेला है। “महागठबन्धन” काठ की हाड़ी है, हारे को हरिनाम भी है, छिटकते मुस्लिम “वोट बैंक” को लुभाने के लिए, पिछड़ों-मुस्लिमों में एका बनाए रखने का जतन मात्र है। “महागठबन्धन” की मृग-मरीचिका “एक्सपायरी” डेट की “संजीवनी” है, जो थके-हारे अजित सिंह या “खाट”  लुटाए प्रशांत किशोर की शायद ही मूर्छा कम कर सके। महागठबन्धन का तिलस्म सपा के शायद ही काम आ सके। “महागठबन्धन” सीमित अवधि का मायाजाल है, जिसका एक मात्र उद्देश्‍य परंपरागत मुस्लिम-यादव वोट बैंक का भय दिखाकर अखिलेश को परिवार में रोके रखना है। किन्तु अखिलेश “सिद्धार्थ” की तरह “महानिष्क्रमण” के लिए तैयार हैं। उन्हे बन्धु-बान्धव, पिता-चाचा से कहीं प्रिय सपा से हाल में निष्कासित युवा “सखा” हैं। सपा सरकार के शेष “चार” मुख्यमंत्रियों से एक टैक्निकल भूल हो गयी। अखिलेश की प्रशिक्षण अवधि असाधारण रूप से लम्बा रखना एवं “बेजा” गुरू-दक्षिणा मांगना “गुरूओं” एवं पार्टी दोनों को मंहगा पड़ रहा है।

श्री मुलायम सिंह का दर्द समझा जा सकता है। एक तरफ शिवपाल जैसा आज्ञाकारी सहोदर भाई है जिसने जीवनपर्यन्त नेता जी के वटवृक्ष सरीखे व्यक्तित्‍व की छाया में अपने अरमानों को मुरझाने दिया। जो नेताजी ने दिया उसे ही सर माथे लगा लिया। नेता जी के प्रति निष्ठा ही शिवपाल की सबसे बड़ी पूंजी है। भले ही शिवपाल ने कभी मुख्यमंत्री का पद मुलायम सिंह से मांगा या न मांगा हो, भाई के मुकाबले पुत्र को उ.प्र. की गद्दी सौपने का निर्णय मुलायम सिंह को कठिन तो जरूर लगा होगा। मुलायम की एक कमजोरी या ताकत जो भी कहिए कि वे अपने ऊपर किए उपकार को कभी नहीं भूलते हैं। भले कोई उनके “चरखादांव” की कितनी भी तारीफ क्यों न करे, वे शिवपाल को नहीं छोड़ पायेगें। “महागठबन्धन” का दांव खाली जाने पर उन्होने “समाजवादी” गुरू परम्परा का हवाला देते हुए शिवपाल की स्वीकार्यता बढ़ाने का प्रयास किया है। बर्खास्त सपा नेताओं के सामने शिवपाल ने भी “माफीनामें” का चारा फेंका है।

“रथयात्रा” के मंच पर सपा का कुनबा इकट्ठा अवश्‍य हुआ किन्तु दिल नहीं मिल सके। सत्ता एवं संगठन की जोर अजमाईश कम होती नहीं दिख रही है। अखिलेश के साथ विगत पॉच वर्ष में सत्तासुख भोगकर नवधनाढ्य हुए कार्यकर्ताओं का धन-जनबल एवं अकूत सरकारी अमला है। अपने शासन काल की उपलब्धियों का एक मात्र श्रेय लेने के लिए प्रचार तंत्र का सहारा है। वे शासन काल की तमाम विफलताओं को आसानी से “चार” मुख्यमंत्रियों के हस्तक्षेप एवं अपनी अनुभवहीनता पर डाल सकते हैं।

अखिलेश को प्रचार-प्रसार में हावर्ड विश्‍वविद्यालय के राजनीति विशेषज्ञ स्टीव जार्डिग का साथ मिला है। “स्टीव” ने प्रचार में एक अनूठा प्रयोग किया है। अखिलेश के व्यक्तित्व की सदाशयता दिखाने के लिए उनके पारिवारिक जीवन को भी अमेरिकी प्रचार तंत्र की तरह दिखाया है। यहॉ अखिलेश का पड़ला भारी लगता है। सपा के सभी मुख्य प्रतिद्वन्दी/स्टार प्रचारक “एकांकी” है। अखिलेश के साथ डिंपल जैसी आकर्षक एवं सलज्ज “सहचरी” हैं। पौराणिक हिन्दू शास्त्र अपने “आराध्य-द्वयी” को आदर्श रूप में देखते हैं। डिम्पल का यह कहना कि जब ट्रेनी मुख्यमंत्री होकर अखिलेश ने इतना विकास किया है, तो दूसरे टर्म में परिपक्व होकर कितना विकास करेंगे, यह सहज ही सोचा जा सकता है। इस रथयात्रा में अखिलेश के साथ उनका “लेडी लक” भी है। अब शायद चुनाव-विश्‍लेषकों के सतर्क होने की बारी है।

लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन नयी दिल्ली में रिसर्च इंटर्न हैं।

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