Published on Jul 27, 2023 Updated 0 Hours ago

बलात्कार पर मौजूदा क़ानूनी व्यवस्था और फ़ैसले की प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव लाने की दरकार है. इससे दुष्कर्म पीड़िता को समुचित स्वास्थ्य सेवाएं और देखभाल मुहैया कराना सुनिश्चित हो सकेगा.  

Rape Victims: दुष्कर्म पीड़िता की मेडिकल जाँच के दौरान ज़ख़्मों को कुरेदने वाले तौर-तरीक़ों को बदलना ज़रूरी!
Rape Victims: दुष्कर्म पीड़िता की मेडिकल जाँच के दौरान ज़ख़्मों को कुरेदने वाले तौर-तरीक़ों को बदलना ज़रूरी!

भारत में दुष्कर्म (rape)के मामलों में न्यायिक फ़ैसलों के लिए बलात्कार पीड़िता की मेडिकल जांच (medical examination) एक बेहद अहम पहलू है. हालांकि, ऐसे परीक्षण न केवल अमानवीय और अवैज्ञानिक साबित हुए हैं बल्कि इनसे बलात्कार पीड़िता के प्रति स्वास्थ्य व्यवस्था के बर्ताव की भी झलक मिलती है. इस लेख में हम टू-फ़िंगर टेस्ट (two finger test)जैसी अपमान जनक गतिविधि की मौजूदगी पर नज़र डालेंगे, और ये पता लगाने की कोशिश करेंगे कि ऐसी मेडिकल प्रक्रिया दुष्कर्म पीड़ितों (rape victims) के लिए कैसे भारी तकलीफ़देह साबित होती है.

दरअसल,बलात्कार के मामलों में मेडिकल सबूत अपराध के स्पष्ट प्रमाण होते हैं. इनसे आरोपी का अपराध तय करने में मदद मिलती है. लिहाज़ा स्वास्थ्य कर्मियों का बर्ताव और उनका इलाज, इस मसले में बेहद अहम हो जाते हैं. 2017 की रिपोर्ट हर कोई मुझे दोषी ठहराता है: भारत में यौन उत्पीड़न के शिकार लोगों को न्याय दिलाने और सहायता सेवाएं मुहैया कराने के रास्ते की रुकावटें में ऐसी अनेक मिसालें दी गई हैं जिनमें लड़कियों और महिलाओं से मेडिकल जांच के दौरान उनके यौन इतिहास को लेकर पूछे जाने वाले सवालों का ब्योरा है. इसमें कई ऐसे क़िस्से हैं जिनसे पीड़ितों द्वारा अनुभव किए गए सदमे का पता चलता है, साथ ही स्वास्थ्य कर्मियों की प्रतिक्रियाओं को भी विस्तार से बताया गया है.इससे ख़ुलासा हुआ है कि कैसे यौन क्रिया के लिए सहमति जताने से जुड़ा पूरा विचार धुंधला पड़ गया है. इस कड़ी में पीड़िता को शायद ही कोई मनोवैज्ञानिक परामर्श मुहैया कराया जाता है.  

तकलीफ़देह मेडिकल प्रक्रियाएं

वैसे तो सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में ही टू-फ़िंगर टेस्ट पर पाबंदी लगा दी थी लेकिन व्यवहार में अब भी इसका इस्तेमाल जारी है. राजस्थान में बलात्कार के 114 से भी ज़्यादा मामलों में टू-फ़िंगर टेस्ट का सहारा लिया गया. इसी तरह उत्तरप्रदेश के लखनऊ में रेप के मामलों की चल रही सुनवाई से भी इस तौर-तरीक़े के बरक़रार रहने की तस्दीक़ होती है. 21 अप्रैल 2022 को मद्रास हाईकोर्ट ने राजीव गांधी बनाम राज्य के मामले की सुनवाई करते हुए पूछा था कि आख़िर इस जांच का अब भी इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है. अदालत ने तमिलनाडु सरकार कोटू-फ़िंगर टेस्ट का रिवाज़ ख़त्म करने का आदेश दिया. कोर्ट ने कहा कि ये जांच पीड़ितों के लिए अपमानजनक है और उनकी निजता पर आक्रमण है. इस संदर्भ में वायुसेना की एक अधिकारी की आपबीती हैरान करने वाली है.उसके साथ प्रशिक्षण के दौरान बलात्कार हुआ था और उसने भी अपने साथ ज़बरदस्ती टू-फ़िंगर टेस्ट किए जाने का इल्ज़ाम लगाया था. इससे भी ज़्यादा तकलीफ़ की बात ये है कि ये परीक्षण अभियुक्त का दोष साबित करने का निर्धारक कारक बन जाता है. बलात्कार के 200 मुक़दमों का अध्ययन करते हुए जन साहस ने पाया कि तक़रीबन 80 प्रतिशत मामलों में कौमार्य परीक्षण ही निर्धारक तत्व बन जाता है. संयुक्त राष्ट्र केइंटर-एजेंसी बयान में भी कौमार्य की जांच के लिए लंबे अर्से से चले आ रहेतौर-तरीक़े की तस्दीक़ की गई है. साथ ही पीड़ितों पर इसके अनेक शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दुष्परिणामों का भी ब्योरा दिया गया है.

वैसे तो सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में ही टू-फ़िंगर टेस्ट पर पाबंदी लगा दी थी लेकिन व्यवहार में अब भी इसका इस्तेमाल जारी है. राजस्थान में बलात्कार के 114 से भी ज़्यादा मामलों में टू-फ़िंगर टेस्ट का सहारा लिया गया. इसी तरह उत्तरप्रदेश के लखनऊ में रेप के मामलों की चल रही सुनवाई से भी इस तौर-तरीक़े के बरक़रार रहने की तस्दीक़ होती है.

दक्षिण एशिया में यौन हिंसा” रिपोर्ट के मुताबिक भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल जैसे देशों में कौमार्य जांच की क़वायद अब भी धड़ल्ले से जारी है. महिला के यौन अतीत से ‘इज़्ज़त और बदचलन मिज़ाज’ की धारणा जोड़ी जाती है. लगभग इन तमाम देशों में बलात्कार की शिकार महिला के यौन इतिहास को पीड़िता का “अनैतिक” चरित्र तय करने की न्यायिक दलील के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.रिपोर्टों में रेप के मामलों में सज़ा सुनाए जाने की बेहद निम्न दरों के पीछे कौमार्य जांच को तमाम रुकावटी कारकों में से एक बताया गया है. बांग्लादेश में ये दर महज़ 3 फ़ीसदी है.

मौजूदा दिशा निर्देशों पर बेजा अमल

संयुक्त राष्ट्र महिला और संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष ने “अंतरंग साथी द्वारा हिंसा या यौन हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए स्वास्थ्य सेवा” शीर्षक से एक नियमावली जारी की थी. इसमें टू-फ़िंगर टेस्ट को अवैज्ञानिक और बर्बर बताकर उसे ख़त्म करने की सिफ़ारिश की गई. इसके बाद 2014 में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW) ने यौन हिंसा की शिकार महिलाओं के मेडिको-लीगल केस के लिए विशिष्ट दिशानिर्देश जारी किए. इन दिशानिर्देशों में अनुभव पर आधारित मेडिकल डेटा और प्रक्रियाएं पेश की गईं. इनसे बलात्कार के मामलों में फैली व्यापक धारणाओं और अपमानजनक तौर-तरीक़ों को दूर करने में मदद मिलती है. दरअसल मेडिको-लीगल की पारंपरिक प्रक्रियाओं ने ऐसी धारणाओं को हवा दी थी.

इसमें स्वास्थ्य कर्मियों को पीड़िता द्वारा दिए गए बयान के हिसाब से अपनी जांच की विषय वस्तु तय करने के निर्देश दिए गए हैं. इन दिशानिर्देशों से चिकित्सकों को बलात्कार के बाद बदलावों की पड़ताल करने में मदद मिलती है.साथ ही दुष्कर्म हुआ या नहीं, ये तय करने की बजाए सबूत के अभाव से पैदा शून्य को कम करने में आसानी होती है.

कौमार्य परीक्षण के अवैज्ञानिक स्वभाव को लेकर कोई शक़ नहीं है, लेकिन टू-फ़िंगर टेस्ट से पनपे परिणामों और समाजविज्ञान से जुड़ी शंकाओं को रोशनी में लाना बेहद बुद्धिमानी भरा सबब है. ये परीक्षण यौन रूप से सक्रिय महिलाओं से जुड़ी रुढ़िवादिता को आम बना देता है.

हालांकि,ज़्यादातर राज्य इन दिशा निर्देशों का पालन नहीं करते और मेडिकल जांच-पड़ताल के लिए आम बोलचाल वाली प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करते हैं.मिसाल के तौर पर राजस्थान में अब भी कौमार्य की जांच की जाती है. ऊपर बताए गए दिशानिर्देशों का सिर्फ़ 9 राज्य ही पालन करते हैं. यहां तक कि मुंबई जैसे शहरों में भी ज़्यादातर चिकित्सक इन दिशानिर्देशों से अनजान हैं.

बलात्कार से जुड़े मिथक और रुढ़िवादी धारणाएं: समाज विज्ञान का नज़रिया

हालांकि, कौमार्य परीक्षण के अवैज्ञानिक स्वभाव को लेकर कोई शक़ नहीं है, लेकिन टू-फ़िंगर टेस्ट से पनपे परिणामों और समाजविज्ञान से जुड़ी शंकाओं को रोशनी में लाना बेहद बुद्धिमानी भरा सबब है. ये परीक्षण यौन रूप से सक्रिय महिलाओं से जुड़ी रुढ़िवादिता को आम बना देता है. साथ ही पीड़िता के बर्ताव को लेकर ऐसे विचारों को जन्म देता है जो हक़ीक़त से कोसों दूर होते हैं. इनसे ऐसी धारणाएं पैदा होती हैं कि यौन क्रिया की आदी लड़कियां ‘गंदी’ और ‘बदचलन’ मिज़ाज की होती हैं. एक ख़ास मामले में सुप्रीम कोर्ट पीड़िता को ही दोषी ठहराने की कगार पर पहुंच गया था. अदालत का कहना था कि चूंकि वो यौन क्रियाओं की “आदी” थी लिहाज़ा वो ‘बदचलन’ औरत थी. UN-WHO के इंटरएजेंसी बयान में भी इस बात की पड़ताल की गई है कि मेडिकल जांच के दौरान कैसे पीड़ितों को दोबारा यातनाएं दी जाती हैं और किस तरह ये परीक्षण पीड़ितों की निजता और शारीरिक मर्यादा को तार-तार कर देता है. ये जांच पीड़िता के शरीर में चोट के निशान मौजूद होने से जुड़े मिथक को भी गहरा कर देता है. इस तरह यौन क्रिया के लिए उसकी सहमति से जुड़े सवाल धुंधले पड़ जाते हैं. ये भी देखा गया है कि इस परीक्षण से गुज़रने वाली महिलाओं में आगे चलकर कई तरह की मनोवैज्ञानिक विकार उभरने के आसार ज़्यादा रहते हैं. आत्मसम्मान में कमी, उदासी, अपराधबोध, घबराहट, चिंता, सदमा, ख़ुद से घिन का अनुभव होना और यौन जीवन में खलल आना इसके जाने-माने नकारात्मक प्रभावों में से हैं. कई अध्ययनों से ऐसे मनोवैज्ञानिक नुक़सानों की तस्दीक़ हुई है. 1998 में तुर्की में किए गए एक अध्ययन में शामिल 93 फ़ीसदी प्रतिभागियों ने स्वीकार किया था कि टू-फ़िंगर टेस्ट से गुज़रना मनोवैज्ञानिक रूप से सदमे भरा तजुर्बा है. 60 प्रतिशत लोगों का विचार था कि इससे आत्मसम्मान को चोट पहुंचती है.

आदिम ज़माने की मेडिकल क़िताबें

सामाजिक कार्यकर्ता और वक़ील फ़्लाविया एग्नेस ने मेडिकल की क़िताबों में मौजूद धुर महिला-विरोधी सिद्धांतों की आलोचना की है. उनका विचार है कि ये पुस्तकें“बलात्कार के मेडिको-लीगल पहलुओं में हालिया रुझानों को शामिल करने में” बुरी तरह से नाकाम रही हैं. उन्होंने ‘टू-फ़िंगर’ की शब्दावली का इस्तेमाल बंद करने और इसकी जगह ज़्यादा वैज्ञानिक शब्दावली के प्रयोग का सुझाव भी दिया है. साथ ही इस परीक्षण के साथ जुड़ी नैतिक मान्यताओं को भी परे हटाने की अपील की है. इसके अलावा डॉक्टरों को दिए जाने वाले मेडिकल शिक्षण और प्रशिक्षण के पुरातनपंथी और महिला-विरोधी स्वरूपों पर भी नज़र डालना ज़रूरी है. इस कड़ी में हम मेडिकल न्यायशास्त्र पर पारेख की क़िताब और प्रभुदास मोदी की पुस्तक, दोनों की मिसाल ले सकते हैं. दोनों क़िताबों में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि कैसे महिलाएं अक्सर बलात्कार के झूठे इल्ज़ाम लगाती हैं. इस तरह इन पुस्तकों से पीड़ितों के प्रति नकारात्मक धारणाएं पनपती हैं.

बलात्कार के मामलों में मौजूदा न्यायिक कार्यवाहियों और आपराधिक न्याय व्यवस्था में सुधार की दरकार है क्योंकि वर्तमान प्रणाली दुष्कर्म पीड़ितों को पर्याप्त सेवाएं पहुंचाने में निश्चित रूप से नाकाम साबित हो रही है.

ऐसी ही एक और बानगी “ए टेक्स्टबुक ऑफ़ मेडिकल ज्युरिस्प्रूडेंस एंड टॉक्सिकोलॉजी” है. क़िताब के 2011 के अंक में भी टू-फ़िंगर टेस्ट और उसके वैज्ञानिक प्रमाण को जायज़ ठहराया गया है. इसमें कहा गया है कि हेइमन (hymen) का बरक़रार रहना पीड़िता के चरित्र को दर्शाता है. इन क़िताबों में यौन क्रिया के लिए महिला की सहमति से जुड़े सवाल को धुंधला करने की कोशिश की गई है. इससे ऐसी धारणाएं गहरी बन जाती हैं कि कुछ महिलाएं मर्ज़ी से यौन क्रिया करती हैं और बाद में बलात्कार के झूठे इल्ज़ाम लगा देती हैं. साथ ही इन पुस्तकों में ये विचार भी शामिल है कि पीड़िता के शरीर में चोट के निशानों की ग़ैर-मौजूदगी का मतलब यौन क्रिया के लिए उसकी सहमति होती है.

सिफ़ारिशें

मेडिकल व्यवस्था में ऐसी रुढ़िवादिता और मिथकों को अपने फ़ैसलों के ज़रिए धराशायी करना न्याय प्रणाली के लिए बेहद अहम हो जाता है. हाल ही में (29 सितंबर 2022) सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फ़ैसले में वैवाहिक दुष्कर्म (marital rape) को अपराध मानकर पति और पत्नी के बीच बिना सहमति के होने वाले यौन संबंध को ‘बलात्कार’ की श्रेणी में रखा. सर्वोच्च न्यायालय ने ज़ोर देकर कहा कि पीड़िता के यौन इतिहास के चलते वैवाहिक दुष्कर्म के अनुभवों को अक्सर दबा दिया जाता है. विवाह के संदर्भ में सहमति का विचार धुंधला पड़ जाता है, जिससे यौन उत्पीड़न का एक दुष्चक्र शुरू हो जाता है. ये फ़ैसला इस बात पर भी रोशनी डालता है कि कैसे एक लंबे अर्से तक परिवार नाम की संस्था में लिंग-आधारित यौन हिंसा और ‘महिलाओं की आपबीती और तजुर्बे’ को नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है.

मेडिकल प्रमाण जुटाने में दुष्कर्म पीड़िता को परामर्श दिए जाने की व्यवस्था को प्राथमिकता दी जानी चाहिए. 2014 के दिशानिर्देशों में ये बात कही गई है. इसके साथ ही बलात्कार पीड़िता को परीक्षण के दौरान या उसके फ़ौरन बाद गर्भावस्था, यौन संपर्कों से फैलने वाली बीमारियों, गर्भनिरोध और HIV के जोख़िमों से जुड़े मसलों पर जागरूक करने के लिए ज़रूरी जानकारियां दी जानी चाहिए. स्थानीय सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में मेडिकल प्रशासन पर भी पर्याप्त तवज्जो दिए जाने की दरकार है. सरकार को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि अस्पतालों के पास यौन उत्पीड़न फ़ॉरेंसिक प्रमाण (SAFE) किट्स पर्याप्त मात्रा में मौजूद हों. पारंपरिक रूप से यही साज़ोसामान, प्रमाण जुटाने के फ़ॉर्म की भूमिका निभाता है.

एक और अहम मसला जिस पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है वो है दुष्कर्म पीड़िता को गर्भपात के सुरक्षित विकल्प मुहैया कराना. मेडिकल टर्मिनेशन प्रेगनेंसी (एमेंडमेंट) एक्ट 2021 के तहत गर्भपात की ऊपरी समय सीमा पहले ही बढ़ाई जा चुकी है. हालांकि दुष्कर्म पीड़ितों के लिए गर्भपात के सुरक्षित विकल्प अब भी दूर की कौड़ी है. लिहाज़ा पीड़िता को केंद्र में रखने वाली ऐसी व्यवस्था तैयार किए जाने की ज़रूरत है, जो दुष्कर्म पीड़ितों की ज़रूरतों और तकलीफ़ों के प्रति संवेदनशील हो. FIR दर्ज करने और मेडिकल जांच से लेकर अदालती सुनवाई तक, पहले से ज़्यादा जवाबदेह व्यवस्था तैयार करना ज़रूरी है. बलात्कार के मामलों में मौजूदा न्यायिक कार्यवाहियों और आपराधिक न्याय व्यवस्था में सुधार की दरकार है क्योंकि वर्तमान प्रणाली दुष्कर्म पीड़ितों को पर्याप्त सेवाएं पहुंचाने में निश्चित रूप से नाकाम साबित हो रही है.

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