Published on Mar 04, 2021 Updated 0 Hours ago

महाशक्ति की रेस में चीन और अमेरिका दोनों हैं. ऐसे में एशिया के सामने लगभग हर भू-राजनीतिक चुनौती महाशक्तियों के मुक़ाबले के इस नये दौर में और बढ़ेगी.

भूगोल और अर्थव्यवस्था की राजनीति – क्या एशिया की भू-राजनीति, चीन की मध्यकालीन सोच की बंधक बनकर रह जाएगी?

दुनिया के 2021 में प्रवेश करते ही वैश्विक शक्ति संतुलन में बदलाव हो रहा है. चीन के अधिकारी विश्वास करते हैं कि दुनिया में इस तरह का “बड़ा बदलाव हो रहा है, जैसा पिछले 100 साल में नहीं देखा गया है” और इस बदलाव की रफ़्तार “100 साल में एक बार” आने वाली महामारी की वजह से और तेज़ हो गई है. चीन में बदलाव और महामारी के इस दुर्लभ मेल को एक अवसर के तौर पर देखा जा रहा है जिसके ज़रिए चीन के पक्ष में शक्ति के संतुलन को बनाया जा सकता है. उधर अमेरिका के लिए ये उसके घटते असर के संकेत के तौर पर ख़तरे की घंटी माना जा रहा है. महाशक्ति की रेस में चीन और अमेरिका दोनों हैं. ऐसे में एशिया के सामने लगभग हर भू-राजनीतिक चुनौती महाशक्तियों के मुक़ाबले के इस नये दौर में और बढ़ेगी.

चीन में बदलाव और महामारी के इस दुर्लभ मेल को एक अवसर के तौर पर देखा जा रहा है जिसके ज़रिए चीन के पक्ष में शक्ति के संतुलन को बनाया जा सकता है.

इस क्षेत्र में तनाव के सबसे ज़्यादा मामलों में चीन और उसके प्रादेशिक और समुद्री दावे सीधे तौर पर शामिल हैं. 2020 में दक्षिणी चीन सागर के विवादित पानी में चीन की नई घुसपैठ की वजह से इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस और वियतनाम ने शिकायत की. इन देशों ने संयुक्त राष्ट्र में भी आधिकारिक शिकायत की. अमेरिका ने चीन पर आरोप लगाया कि वो “दूसरे देशों के ध्यान बंटने या उनके नाज़ुक हालात का फ़ायदा उठाकर दक्षिणी चीन सागर में अपने अवैध दावों का विस्तार कर रहा है.” जापान ने भी पूर्वी चीन सागर में चीन और जापान- दोनों देशों द्वारा जिन द्वीपों पर दावा किया जा रहा है, उनके नज़दीक चीन की बढ़ती मौजूदगी को लेकर इसी तरह के आरोप लगाए. इस बीच 15 जून 2020 को गलवान घाटी में ख़ूनी संघर्ष के बाद चीन-भारत सरहद तनाव का एक बड़ा बिंदु बना हुआ है.

पहले से बंटे हुए आसियान पर आने वाले दिनों में दबाव बढ़ेगा क्योंकि दक्षिणी चीन सागर पर उसके हर बयान की इस बात को लेकर जांच होगी कि वो चीन के पक्ष में है या चीन के ख़िलाफ़.

लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर तनाव घटाने के लिए चीन भारत से बातचीत में लगा हुआ है. उधर दक्षिणी चीन सागर में आचार संहिता पर भी चीन आसियान देशों के साथ बातचीत में शामिल है. लेकिन दोनों मामलों में चीन और अमेरिका के बीच बढ़ता तनाव हालात को जटिल बना रहा है. पहले से बंटे हुए आसियान पर आने वाले दिनों में दबाव बढ़ेगा क्योंकि दक्षिणी चीन सागर पर उसके हर बयान की इस बात को लेकर जांच होगी कि वो चीन के पक्ष में है या चीन के ख़िलाफ़. इस बीच सरहद पर चीन के साथ भारत का तनाव क्वॉड को लेकर भारत की प्रतिबद्धता को और बढ़ा रहा है और इसकी वजह से अमेरिका-चीन के बीच मुक़ाबले का रूप बदल रहा है.

अमेरिका-चीन और उत्तरकोरिया की सामरिक जुगलबंदी

यहां तक कि ऐसे भू-राजनीतिक मामले जो सीधे तौर पर चीन से नहीं जुड़े हैं, वो भी अमेरिका-चीन दुश्मनी से प्रभावित होंगे. उत्तर कोरिया का परमाणु मुद्दा अमेरिका में बाइडेन प्रशासन के एजेंडे पर हावी है. लेकिन इस मुद्दे का समाधान चीन के समर्थन के बिना नामुमकिन है. वैसे तो उत्तर कोरिया के ऊपर चीन के असर को अक्सर बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है लेकिन चीन किम जोंग उन को मोल-तोल की मेज की तरफ़ या उसके विपरीत दिशा में ले जाने में सक्षम है. इसके लिए वो सीधे तौर पर कूटनीतिक संपर्क का सहारा ले सकता है या आर्थिक दबाव का ज़्यादा चालाकी वाला तरीक़ा अपना सकता है (इसमें संयुक्त राष्ट्र की मौजूदा आर्थिक पाबंदियों को चीन द्वारा लागू करना शामिल है). लेकिन अब अमेरिका-चीन के संबंधों में तेज़ी से गिरावट के बीच चीन के पास इस बात की कोई वजह नहीं है कि वो उत्तर कोरिया को सार्थक परमाणु रियायत के लिए तैयार करे. ट्रंप और किम जिस वक़्त एक-दूसरे के क़रीब आ रहे थे, उसी वक़्त चीन और उत्तर कोरिया में भी नज़दीकी आ रही थी और ये संबंध ज़्यादा टिकाऊ साबित हुआ. इस बीच दक्षिण कोरिया की हालत इधर कुआं, उधर खाई जैसी है. दक्षिण कोरिया को उम्मीद है कि चीन दोनों कोरिया के बीच संबंधों में प्रगति की पूरी कोशिश करेगा लेकिन उस पर इस बात के लिए अमेरिका का दबाव बढ़ता ही जा रहा है कि वो ऐसे क़दम उठाए जिससे चीन नाराज़ हो. ऐसे क़दमों में 5जी नेटवर्क से हुवावे को प्रतिबंधित करना शामिल है.

ट्रंप और किम जिस वक़्त एक-दूसरे के क़रीब आ रहे थे, उसी वक़्त चीन और उत्तर कोरिया में भी नज़दीकी आ रही थी और ये संबंध ज़्यादा टिकाऊ साबित हुआ.

मौजूदा भू-राजनीतिक संदर्भ में एशिया के देशों में बुनियादी ढांचे का निर्माण भी काफ़ी महत्व रखेगा. चीन की कंपनियों के साथ समझौते पर हस्ताक्षर को बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के लिए जीत माना जाएगा वहीं अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत इसके विकल्प के लिए पूरी कोशिश करेंगे. यहां तक कि निवेश के सामान्य फ़ैसले- जैसे कि वियतनाम या भारत में नई फैक्ट्री खोलना- का भी असर होगा क्योंकि सप्लाई चेन में विविधता लाने और चीन को आर्थिक रूप से अलग-थलग करने की अपील 2021 में भी जारी रहेगी. जो देश निवेश और कर्ज़ चाहते हैं, वो चाहेंगे कि चीन और अमेरिका के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़े लेकिन आख़िरकार जब वो किसी समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे तो उससे संकेत मिलेगा कि उनकी वफ़ादारी किसके साथ है.

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