Published on Jun 28, 2023 Updated 0 Hours ago
बेलआउट की राजनीति: श्रीलंका के संकट में छिपा है पाकिस्तान के लिए सबक

पाकिस्तान आर्थिक एवं राजनीतिक संकट, खाने-पीने के सामान एवं ईंधन की महंगाई, घटते विदेशी मुद्रा भंडार और बढ़ते कर्ज़ के भुगतान के हालात से गुज़र रहा है. डिफॉल्ट की स्थिति को रोकने के लिए पाकिस्तान काफ़ी दबाव में है. इसके लिए वो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से 1.1 अरब अमेरिकी डॉलर का पैकेज हासिल करने की कोशिश कर रहा है जिसकी अवधि 30 जून तक है. कुछ हिचकिचाहट के बाद पाकिस्तान आखिरकार अपने बजट का ब्यौरा IMF के साथ साझा करने के लिए तैयार हो गया है. लेकिन पैकेज को लेकर लंबी बातचीत और IMF की बढ़ती शर्तें इस बात की तरफ इशारा करती हैं कि गतिरोध का समाधान अभी दूर है. ज़्यादा दिन पुरानी बात नहीं है जब श्रीलंका ने भी इसी तरह के हालात का सामना किया था. वैसे तो श्रीलंका को अपनी अर्थव्यवस्था को स्थिर करने के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना है लेकिन बेलआउट की मदद से उसकी सफलता पाकिस्तान के लिए कुछ महत्वपूर्ण अनुभव पेश करती है. 

राजनीतिक नेताओं को ये एहसास हो गया था कि IMF से बेलआउट पैकेज हासिल करने के अलावा श्रीलंका के पास कोई विकल्प नहीं है. वास्तव में IMF के पास जाने के एक महीने के भीतर श्रीलंका ने अपनी सभी बाहरी जिम्मेदारियों के मामले में डिफॉल्ट किया.

घरेलू राजनीति 

श्रीलंका में राजनीतिक इच्छाशक्ति और सर्वसम्मति ने कुछ हद तक IMF के साथ सफल बातचीत में योगदान दिया है. IMF के पास जाने में राजपक्षे भाइयों की हिचकिचाहट की वजह से उन्हें विपक्ष की आलोचना का सामना करना पड़ा था. लेकिन मार्च 2022 में सरकार की तरफ से राह बदलने के बाद IMF के पास जाने को लेकर सभी बड़े किरदारों के बीच सर्वसम्मति बन गई. राजनीतिक नेताओं को ये एहसास हो गया था कि IMF से बेलआउट पैकेज हासिल करने के अलावा श्रीलंका के पास कोई विकल्प नहीं है. वास्तव में IMF के पास जाने के एक महीने के भीतर श्रीलंका ने अपनी सभी बाहरी जिम्मेदारियों के मामले में डिफॉल्ट किया. IMF ने अपनी शर्तों के मुताबिक श्रीलंका सरकार को टैक्स बढ़ाने, कर्ज़ की पुनर्संरचना, राजस्व में बढ़ोतरी, खर्च में कमी और सब्सिडी खत्म करने एवं किसी क्षेत्र विशेष को टैक्स में छूट खत्म करने की गुजारिश की. टैक्स और टैरिफ को लेकर IMF के रवैये पर विपक्ष ने विरोध जताया और सुधार की काफी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी. लेकिन संसद में सिर्फ़ एक सीट और कम स्वीकार्यता के साथ राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे राजनीतिक जोखिम उठाने के लिए तैयार थे. अंत में इसका नतीजा सुधारों और उसके बाद बेलआउट के रूप में निकला. 

दूसरी तरफ, राजनीतिक अस्थिरता और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी IMF के साथ पाकिस्तान की बातचीत पर असर डाल रही है. पाकिस्तान 2019 के IMF पैकेज को शुरू करने को लेकर बातचीत कर रहा है जिसे इमरान ख़ान की सरकार के द्वारा IMF की शर्तों का उल्लंघन करने की वजह से रोक दिया गया था. IMF अब पाकिस्तान से बाजार आधारित एक्सचेंज रेट को बढ़ावा देने, टैक्स का आधार बढ़ाने, निर्यात सेक्टर के लिए टैक्स में छूट खत्म करने, ईंधन की कीमत बढ़ाने और मित्र देशों से समर्थन मांगने को कह रहा है. लेकिन चूंकि पाकिस्तान इस साल चुनाव की तरफ बढ़ रहा है, इसलिए वो इस तरह के कठोर फैसले लेने में संकोच कर रहा है. राजनीतिक संकट और इमरान ख़ान की लोकप्रियता ने इस तरह के कदमों के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति में और रुकावटें पैदा की हैं. इस तरह सरकार ने आधे-अधूरे मन से प्रतिक्रिया दी है. उसने टैक्स की दरों एवं नीतिगत ब्याज दरों में बढ़ोतरी की है और सरकारी खर्चों में कटौती की है. लेकिन पाकिस्तान की सरकार ने टैरिफ में फेरबदल करने से इनकार कर दिया है और ईंधन पर सब्सिडी सिर्फ़ एक साल के लिए हटाई है. इस झिझक ने IMF के साथ पाकिस्तान की बातचीत में गतिरोध पैदा करने में योगदान दिया है. 

क्षेत्रीय साझेदार और चीन 

IMF ने पाकिस्तान और श्रीलंका से अपने-अपने कर्ज़ देने वालों से बातचीत करने और कर्ज़ की पुनर्संरचना एवं उनका भरोसा हासिल करने को कहा है. श्रीलंका ने कर्ज़ देने वाले बड़े देशों– चीन, जापान और भारत- से अपने कर्ज़ की शर्तों और भुगतान के समय में बदलाव कराया. पाकिस्तान ने कर्ज़ देने वाले बड़े देशों- चीन, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE)- से 8 अरब अमेरिकी डॉलर के भरोसे की गुजारिश की ताकि दिसंबर 2023 तक उसके कर्ज़ का भुगतान सुनिश्चित किया जा सके. 

श्रीलंका के मामले में चीन की मदद बिना किसी दिलचस्पी की रही है. उसने 74 मिलियन अमेरिकी डॉलर की कीमत की मानवीय सहायता की पेशकश की लेकिन कर्ज़ की पुनर्संरचना और 4 अरब अमेरिकी डॉलर की कीमत की मदद के अनुरोध को टाल दिया. इसका कारण निम्नलिखित है: IMF को लेकर श्रीलंका के रवैये से चीन नाराज था क्योंकि वो IMF को पश्चिमी देशों के एक संस्थान के तौर पर देखता है जिसकी जगह लेना उसके वैश्विक उदय को आसान बनाने के लिए जरूरी है. दूसरा, IMF की मदद का नतीजा हेयरकट (कर्ज़ के लिए किसी संपत्ति को गिरवी रखने पर बाजार से कम कीमत मिलना) और कर्ज़ पुनर्संरचना के रूप में निकलेगा जो चीन के कर्ज़ देने और उससे मुनाफ़ा कमाने पर असर डालेगा. ऐसी भी अटकलें लगीं कि कर्ज़ की पुनर्संरचना उन देशों के लिए भी एक उदाहरण तय करेगा जिन्होंने चीन से उधार लिया है. लेकिन दूसरे देशों के द्वारा श्रीलंका को मदद की वजह से चीन को मजबूर होकर सहायता करनी पड़ी. लेकिन उसकी मदद आधे-अधूरे मन से थी. चीन के दो बड़े बैंक में से केवल एक श्रीलंका के कर्ज़ की पुनर्संरचना के लिए तैयार हुआ और चीन ने 10 साल की निर्धारित अवधि के मुकाबले दो साल की मोरेटोरियम अवधि (वो समय जब कर्ज़ देने वाला कर्ज़ चुकाने से राहत देता है) की पेशकश की. 

श्रीलंका के मामले में चीन की मदद बिना किसी दिलचस्पी की रही है. उसने 74 मिलियन अमेरिकी डॉलर की कीमत की मानवीय सहायता की पेशकश की लेकिन कर्ज़ की पुनर्संरचना और 4 अरब अमेरिकी डॉलर की कीमत की मदद के अनुरोध को टाल दिया.

जापान और भारत जैसे क्षेत्रीय साझेदारों ने श्रीलंका की कर्ज़ पुनर्संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. जापान ने 104 मिलियन अमेरिकी डॉलर की कीमत की मानवीय सहायता की पेशकश की, शुरुआती जनवरी में कर्ज़ पुनर्संरचना का आश्वासन दिया और पेरिस क्लब के बाकी देशों को भी श्रीलंका के कर्ज़ की पुनर्संरचना के लिए तैयार किया. दूसरी तरफ, भारत ने श्रीलंका के आर्थिक संकट को लेकर सबसे पहले प्रतिक्रिया दी. भारत ने क्रेडिट लाइन, करेंसी स्वैप, कर्ज़ टालने, अल्पकालीन कर्ज़ की सुविधा, अनुदान और जरूरी सामानों की सप्लाई के ज़रिये 4 अरब अमेरिकी डॉलर की सहायता की पेशकश की. भारत ने अंतर्राष्ट्रीय सहायता हासिल करने में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. उसने क्वॉड के देशों से अनुरोध किया कि श्रीलंका को सहायता दी जाए और G20 के देशों को तैयार किया कि श्रीलंका और ज़्यादा कर्ज़ लेने वाले दूसरे देशों की वित्तीय कमजोरियों का समाधान किया जाए. भारत ने पेरिस क्लब की बैठक में भी भागीदारी की और उसकी सह-अध्यक्षता की जबकि वो क्लब का सदस्य नहीं है. इससे काफी हद तक IMF के द्वारा श्रीलंका के बेलआउट पैकेज में मदद मिली. 

दूसरी तरफ, पाकिस्तान के मामले में चीन ने उसे IMF की कुछ शर्तों को पूरा करने में मदद की लेकिन IMF के सामने पाकिस्तान के पक्ष को बढ़ावा देने से वो दूर रहा. इसका कारण चीन का असमंजस है. चीन IMF को पश्चिमी देशों की तरह विरोधी मानता है और IMF ने लगातार चीन की अपारदर्शी कर्ज़ देने की चाल और उसके इरादों पर सवाल उठाए हैं. IMF ने तो पाकिस्तान को अपने गैर-जरूरी कर्जों, परियोजनाओं और चीन को इंडिपेंडेंट पावर प्रोड्यूसर्स (IPP) के भुगतान (बिजली की खरीद के बदले में भुगतान) को बदलने और उनकी फिर से जांच-पड़ताल करने को भी कहा है. लेकिन चीन ये भी नहीं चाहता कि पाकिस्तान कर्ज़ के भुगतान में डिफॉल्ट करे क्योंकि ऐसा होने पर पहले से ही देर से हो रहे चीन के IPP भुगतान और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) की परियोजनाओं पर असर पड़ेगा. इसलिए चीन ने द्विपक्षीय सहायता जैसे कि 700 मिलियन अमेरिकी डॉलर की कीमत का कर्ज़ फिर से देने, 1.3 अरब अमेरिकी डॉलर के कर्ज़ के भुगतान की समय सीमा बढ़ाने और 2 अरब अमेरिकी डॉलर की जमा राशि मुहैया कराने के मामले में अपनी भूमिका को सीमित कर दिया है. 

पाकिस्तान को लेकर क्षेत्रीय साझेदारों की प्रतिक्रिया भी बेपरवाही की रही है. श्रीलंका के मामले से अलग क्षेत्रीय साझेदारों ने बहुपक्षीय संगठनों और संस्थानों में पाकिस्तान के पक्ष को बढ़ावा नहीं दिया. साथ ही पाकिस्तान की मदद करने के लिए कोई देश आगे नहीं आया. पाकिस्तान को लेकर कुछ भरोसे की कमी भी दिखती है. सऊदी अरब ने 2 अरब अमेरिकी डॉलर और UAE ने 1 अरब अमेरिकी डॉलर की सहायता की पेशकश तो की लेकिन ये फंड अभी तक जारी नहीं किया गया है. पाकिस्तान के ये साझेदार फंड जारी करने से पहले ज़्यादा आर्थिक और वित्तीय सुधार की मांग कर रहे हैं. 

अमेरिका और उसकी जियोपॉलिटिक्स

IMF में अमेरिका का महत्वपूर्ण दखल है और बेलआउट को लेकर बातचीत में वो बड़ी भूमिका निभाता है. श्रीलंका के मामले में बेलआउट को लेकर बातचीत में अमेरिका ने महत्वपूर्ण राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई. ये सक्रिय प्रतिक्रिया अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति के अनुरूप है. इस मदद के ज़रिये अमेरिका दक्षिण एशिया में भारत की पहल और सहायता का समर्थन करने का इरादा रखता है. साथ ही श्रीलंका में अमेरिका अपने प्रभाव को फिर से मजबूत बनाना चाहता है; चीन और उसके कर्ज़ के जाल का विरोध और एक व्यावहारिक विकल्प मुहैया कराना चाहता है. इस तरह अमेरिका ने IMF के समझौते को “गेट वेल, स्टे वेल” की योजना के रूप में बढ़ावा दिया है जो देश में लोकतांत्रिक संस्थानों को मजबूत करेगी और मूल्य आधारित व्यवस्था को बढ़ावा देगी. अमेरिका ने एक उचित बेलआउट पैकेज के लिए मोलभाव किया और यहां तक कि श्रीलंका की मदद के लिए चीन के द्वारा आधे-अधूरे मन से की गई कोशिशों की आलोचना भी की. 

पाकिस्तान को लेकर क्षेत्रीय साझेदारों की प्रतिक्रिया भी बेपरवाही की रही है. श्रीलंका के मामले से अलग क्षेत्रीय साझेदारों ने बहुपक्षीय संगठनों और संस्थानों में पाकिस्तान के पक्ष को बढ़ावा नहीं दिया. साथ ही पाकिस्तान की मदद करने के लिए कोई देश आगे नहीं आया.

दूसरी तरफ अमेरिका ने पाकिस्तान के द्वारा बार-बार अनुरोध के बावजूद मदद के मामले में कोई महत्वपूर्ण राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई है. अमेरिका ने संकेत दिया है कि पाकिस्तान के पास IMF की सलाह को लागू करने और उसका पालन करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. अमेरिका ने सिर्फ़ तकनीकी सहायता की पेशकश की है ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि पाकिस्तान निवेश के मामले में अनुकूल देश बन सके और जल्दी से आर्थिक संकट से उबर जाए. लेकिन अमेरिका IMF के साथ गतिरोध को खत्म करने में पाकिस्तान की मदद करने से काफी हद तक हिचकिचा रहा है. इसका कारण निम्नलिखित है: अफगानिस्तान से अपनी वापसी के बाद अमेरिका पाकिस्तान को लेकर कोई ठोस नीति लेकर नहीं आया है. दूसरा, चूंकि भारत के साथ अमेरिका अपनी साझेदारी को बढ़ावा देने में लगा हुआ है, ऐसे में वो पाकिस्तान के साथ नज़दीकी संबंध के मामले में एहतियात बरत रहा है. आखिरी वजह, चीन के साथ पाकिस्तान की बढ़ती करीबी अमेरिका के साथ उसके रिश्तों पर असर डाल रही है और इससे अमेरिकी सहायता की संभावना पर असर पड़ रहा है. 

चूंकि IMF का बेलआउट पैकेज 30 जून को समाप्त हो रहा है, ऐसे में पाकिस्तान के पास विकल्प तेज़ी से खत्म हो रहे हैं. आगे बढ़ने के लिए पाकिस्तान के पास दो विकल्प हैं: वैकल्पिक योजना के रूप में चीन से मदद मांगे या नये कर्ज़ के लिए IMF से अनुरोध करे. वैसे तो पाकिस्तान के लिए चीन से मदद मांगना एक आसान विकल्प है लेकिन ये कुछ समय का ही उपाय होगा जिसके साथ कई शर्तें और जोखिम जुड़े होंगे. लेकिन अगर पाकिस्तान IMF के पास जाता है तो उसे अपनी अर्थव्यवस्था से जुड़े संरचनात्मक मुद्दों का समाधान करना होगा और इसके साथ आने वाली राजनीतिक कीमत को भी बर्दाश्त करना होगा. अगर पाकिस्तान दूसरे विकल्प को चुनता है तो उसे श्रीलंका से कुछ सबक सीखने होंगे. इसकी शुरुआत करने के लिए उसे घरेलू सर्वसम्मति बनानी होगी और क्षेत्रीय साझेदारों एवं अमेरिका से मदद हासिल करनी होगी.


आदित्य गोदारा शिवामूर्ति ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटजिक स्टडीज प्रोग्राम में जूनियर फेलो हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.

Author

Aditya Gowdara Shivamurthy

Aditya Gowdara Shivamurthy

Aditya Gowdara Shivamurthy is an Associate Fellow with ORFs Strategic Studies Programme. He focuses on broader strategic and security related-developments throughout the South Asian region ...

Read More +