Author : Aparna Roy

Expert Speak Terra Nova
Published on Jun 05, 2025 Updated 6 Days ago

प्लास्टिक के कचरे को नीतिगत तौर पर तवज्जो दिए जाने के बावजूद, इसको लेकर भारत के शहरों का रवैया विखंडित और प्रतिक्रियावादी रहा है. इस कचरे से निपटने के लिए शहरों को संस्थागत रूप से सर्कुलर अर्थव्यवस्था की दिशा में आगे बढ़ाना ज़रूरी है

शहरों की नसों में बहता प्लास्टिक: शहरों को सर्कुलर और जलवायु परिवर्तन के प्रति सहनशील कैसे बनाएं?

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ये लेख ‘विश्व पर्यावरण दिवस 2025:सर्कुलर शहरों में वेस्ट मैनेजमेंट’ सीरीज़ का हिस्सा है.


अब जबकि मानसून आ रहा है, तो भारत के शहरों के सामने एक बार फिर से बंद नालों, पानी में डूबी सड़कों और कचरे के उफनते पहाड़ों का जाना पहचाना डर सता रहा है. ये सब एक गहरी और बेहद भयंकर संकट के लक्षण हैं. चूंकि शहरों में प्लास्टिक के कचरा मोटे तौर पर जमा नहीं किया जाता और इसका ठीक से प्रबंधन नहीं होता, इसलिए ये कचरा पानी निकालने वाले नालों की व्यवस्था को अवरुद्ध कर देता है और भयंकर मौसम के असर को बड़ा बना देता है. आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के मुताबिक़, टियर 1 के शहरों में पैदा होने वाला कचरा, देश में प्रतिदिन इकट्ठा होने वाले कचरे का 72.5 प्रतिशत होता है. भारत में हर साल 41 लाख टन कचरा पैदा होता है, इसमें से 40 प्रतिशत से अधिक कचरा जमा नहीं किया जाता है. और, जो कचरा इकट्ठा भी किया जाता है, उसको अक्सर जैविक और ख़तरनाक कचरे के साथ मिला दिया जाता है, जिससे उनकी रीसाइक्लिंग कर पाना मुश्किल हो जाता है. बेंगलुरु और मुंबई जैसे शहरों में जहां रोज़ाना 9,000 टन से अधिक कचरा जमा होता है, वहां प्लास्टिक से होने वाला प्रदूषण अब सिर्फ़ पर्यावरण की समस्या नहीं रहा. अब ये योजना बनाने, डिज़ाइन तैयार करने और प्रशासन की संरचनात्मक नाकामी बन चुका है. 2023 में बैंगलुरू में आई बाढ़ के दौरान प्लास्टिक से अवरुद्ध हो चुके नालों ने ये दिखा दिया था कि उचित प्रबंधन न किए जाने पर कचरा शहरी सहनशक्ति को किस तरह चोट पहुंचाता है. इस साल जब विश्व पर्यावरण दिवस 2025 प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण पर ध्यान देने की अपील कर रहा है, तो इस सच्चाई का सामना करने की ज़रूरत है कि ये कचरा सिर्फ़ साफ़-सफ़ाई का मसला नहीं बल्कि जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीले शहरों का निर्माण करने की राह में बाधा बन गया है.

प्लास्टिक के कचरे के प्रबंधन को निहित स्तर पर अधिक तवज्जो दिए जाने के बावजूद इससे निपटने को लेकर शहरों का रवैया विखंडित और आम तौर पर प्रतिक्रियावादी ही रहा है. 2021 में संशोधित किए गए प्लास्टिक के कचरे के प्रबंधन के नियमों ने निर्माता की विस्तारित जवाबदेही (EPR) को अनिवार्य बना दिया है. लेकिन, नगर निगमों के स्तर पर क्षमता के अभाव और असंगठित क्षेत्र में स्रोत का पता लगा पाने में कमी की वजह से इनको लागू करने में कमियां रही हैं. सिंगल-यूज़ प्लास्टिक पर राज्य स्तर पर लगाई गई पाबंदियों को लागू करना भी ख़ास तौर से बाज़ारों और छोटे दुकानदारों के स्तर पर मुश्किल साबित हुआ है. नगर निगमों के पास पैसे की कमी है और काम का बोझ अधिक है. ऐसे में ठोस कचरे का प्रबंधन शहरी विकास के बजटों का एक मामूली हिस्सा बनकर रह गया है. जिस तरह भारत पहले हीटवेव का प्रबंधन करता था- यानी मूलभूत ढांचे का विकास करने के बजाय सिर्फ़ एलर्ट जारी किए जाते थे- उसी तरह अब प्लास्टिक के कचरे के प्रबंधन को भी जलवायु परिवर्तन के प्रति सहनशीलता बढ़ाने की योजना के मुख्य स्तंभ समझने के बजाय, एक गौण विषय की तरह देखा जाता है. इसका नतीजा शहरों में गहरी लीनियर अर्थव्यवस्था के रूप में सामने है: लीनियर अर्थव्यवस्था यानी जो वस्तुओं को लेती है, इस्तेमाल करती है और कचरे के रूप में फेंक देती है. इसमें उत्पादों के दोबारा इस्तेमाल या उनके बचे हुए हिस्से को हासिल करने या फिर से उत्पाद बनाने में उपयोग करने की व्यवस्थाएं गिनी चुनी हैं.

लीनियर अर्थव्यवस्था यानी जो वस्तुओं को लेती है, इस्तेमाल करती है और कचरे के रूप में फेंक देती है. इसमें उत्पादों के दोबारा इस्तेमाल या उनके बचे हुए हिस्से को हासिल करने या फिर से उत्पाद बनाने में उपयोग करने की व्यवस्थाएं गिनी चुनी हैं.

शहरों को सर्कुलर कैसे बनाए

ऐसे में सर्कुलर शहरों की दिशा में संस्थागत परिवर्तन आवश्यक हो गया है. हालांकि, इस परिवर्तन को पहले ये स्वीकार करना होगा कि भारत के शहर बेहद असमान परिस्थितियों वाले हैं. रीसाइक्लिंग की लगभग 80 प्रतिशत अर्थव्यवस्था असंगठित क्षेत्र में है. कचरा बीनने वाले लाखों लोग, जिनमें से ज़्यादातर महिलाएं और दलित होते हैं, वो हाथ से प्लास्टिक का कचरा जमा करते हैं और फिर उसे छांटते हैं. इसके लिए उन्हें ज़रा भी संरक्षण नहीं मिलता. न आमदनी की सुरक्षा होती है और न ही संस्थागत सहायता दी जाती है. नगर निकाय शायद ही कभी इन कामगारों को संगठित सेवा देने का हिस्सा बनाते हैं और ज़्यादातर शहरों में इस बात के आंकड़े नहीं हैं कि ये लोग कौन हैं या फिर ये कहां काम करते हैं. इस तरह अलग थलग रहने से उनकी बहाली की दर कम रहती है और इससे सामाजिक असमानताएं और मज़बूत होती हैं. मिसाल के तौर पर दिल्ली ने जब स्वचालित तरीक़ों से कचरा जमा करने की कोशिश की, तो असंगठित क्षेत्र के हज़ारों कचरा बीनने वाले बेरोज़गार हो गए और उनके पास रोज़ी-रोटी चलाने का कोई वैकल्पिक उपाय नहीं था. इसकी तुलना में पुणे जैसे शहरों ने दिखाया है कि स्वच्छ (SWaCH) जैसी सहकारी संस्थाएं इस कमी को पूरा कर सकती हैं और बेहतर सेवा को बढ़ावा देने के साथ साथ ऐसे लोगों को  सामाजिक सुरक्षा भी प्रदान करती हैं. ऐसे में सर्कुलर अर्थव्यवस्था की ओर न्यायोचित परिवर्तन को लोगों पर केंद्रित होना चाहिए और ये स्वीकार करना चाहिए कि असंगठित क्षेत्र, विनियमन का बोझ नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन से निपटने का सहयोगी है.

ऐसे में सर्कुलर अर्थव्यवस्था की ओर न्यायोचित परिवर्तन को लोगों पर केंद्रित होना चाहिए और ये स्वीकार करना चाहिए कि असंगठित क्षेत्र, विनियमन का बोझ नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन से निपटने का सहयोगी है.

भारत की शहरी विकास की योजनाएं, जैसे कि अमृत (AMRUT), स्मार्ट सिटी मिशन और स्वच्छ भारत अभियान ने कचरा जमा करने, उसे लाने ले जाने और छांटने के लिए मूलभूत ढांचे का निर्माण शुरू कर दिया है. लेकिन, ये निवेश असमान रूप से वितरित बने हुए हैं और इनके फंड का एक बड़ा हिस्सा अमीर टियर-1 के शहर ले जाते हैं. वहीं. छोटे क़स्बे और अर्ध शहरी इलाक़े पीछे रह जाते हैं. यही नहीं इन योजनाओं में सर्कुलर अर्थव्यवस्था का कोई एकीकृत विज़न नहीं है. C-CAP की पहल के तहत क्लाइमेट एक्शन प्लान की पहलें शायद ही कभी कचरे के बहाव के मूल्यांकन या फिर रिसाव वाले सामानों जैसे कि बहुस्तरीय प्लास्टिक की रिकवरी के तय लक्ष्य नहीं निर्धारित करते. कचरे से ऊर्जा बनाने वाले प्लांट जो अक्सर निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की साझेदारी वाले होते हैं, वो प्लास्टिक जलाने की वजह से विवादित हो जाते हैं. मिसाल के तौर पर चेन्नई में जब WTE (कचरे से ईंधन) बनाने के प्लांट से हवा की गुणवत्ता और ज़मीन पर बुरा असर पड़ने की आशंका पैदा हुई, तो स्थानीय लोगों ने उसका विरोध किया. कचरे को स्रोत के स्तर पर ही छांटने, रिसाइकिल करने के लिए डिज़ाइन करने और कचरे के ऑडिट जैसे सुधार नहीं किए जाएंगे, तब तक तकनीक पर आधारित समाधान ऐसे ही अधूरे साबित होते रहेंगे.

सुधारों की शुरुआत डिज़ाइन और ख़रीद के स्तर से होनी चाहिए. भारत के शहर अभी भी पैकेजिंग और मैटेरियल के लिए सीधी आपूर्ति श्रृंखला के भरोसे हैं. इनको ख़रीदने के दिशा-निर्देश में शायद ही कभी सर्कुलर व्यवस्था पर ध्यान दिया जाता है. होटल वालों, बाज़ारों, ई-कॉमर्स के गोदाम जैसे थोक ख़रीदारों के सिंगल यूज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल बंद करने के लिए बहुत कम प्रोत्साहन होता है. बेंगलुरु में सरकारी दुकानों में री-फिल हब की पायलट परियोजना काफ़ी उम्मीदें जगाने वाली है. जिसमें आम लोग साफ़ सफ़ाई के उत्पाद और खाने-पीने के सामान की रीफिलिंग करते हैं. लेकिन, ऐसे प्रयोगों को संस्थागत स्तर पर लागू करने और भारी निवेश की ज़रूरत है. रिसाइकिल्ड उत्पाद ख़रीदने या फिर दोबारा इस्तेमाल हो सकने लायक़ पैकेजिंग को सब्सिडी देने के लिए सरकारी आदेशों की कमी की वजह से सर्कुलर कारोबार के मॉडल सीमित रह जाते हैं. वित्तीय घाटे की वजह से स्थानीय सरकारें सर्कुलर आविष्कारों की दिशा में बढ़ने की लागत नहीं मुहैया करा पाती हैं.

तकनीक इसमें ताक़तवर मददगार साबित हो सकती है. लेकिन, इसका इस्तेमाल बहुत कम हो रहा है. भारत के शहरों में कई स्टार्टअप हैं जो AI की मदद से कचरे को काटने छांटने, उत्पादक की जवाबदेही (EPR) के लिए पता लगाने वाले मंच और प्लास्टिक से ईंधन बनाने की विकेंद्रीकृत इकाइयां निर्मित करने जैसे प्रयोग कर रहे हैं. लेकिन, इनमें से बहुतों को विनियमन की चुनौतियों, आंकड़ों तक पहुंच न हो पाने या फिर नगर निगम स्तर पर बहुत कम इस्तेमाल जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. स्वास्थ्य सेवा या वित्त के क्षेत्र में आपसी तालमेल से डिजिटल पब्लिक गुड्स को लागू करने की तुलना में शहरी कचरे की तकनीक को संस्थागत समर्थन नहीं मिलता है. शहर डिजिटलीकृत, वास्तविक समय में प्लास्टिक का प्रवाह दिखाने वाले डैशबोर्ड या फिर कचरा अलग करने के प्रदर्शन का कोई आंकड़ा नहीं रखते हैं. एम्सटर्डम और सोल जैसे शहर जहां तत्वों को शहरी उपयोग के हर मोड़ पर ट्रैक करते हैं, वहीं भारत के शहर इसके लिए मैन्युअल रिपोर्टिंग या फिर कभी कभार ऑडिट के भरोसे रहते हैं. नेशनल अर्बन डिजिटल मिशन कचरे के आंकड़ों पर आधारित प्रबंधन का एक अवसर मुहैया कराता है. जिसमें स्मार्ट बिन, जियो टैगिंग वाले कलेक्शन के रास्तों और सार्वजनिक जवाबदेही के लिए खुले डैशबोर्ड का इस्तेमाल शामिल है.

समुदाय- ख़ास तौर से महिलाओं की अगुवाई वाले परिवार, रेज़िडेंट वेलफेयर एसोसिएशन और युवा समूह, लोगों के बर्ताव में बदलाव की अगुवाई कर सकते हैं. फिर भी जन जागरूकता के अभियान यहां वहां और ऊपर से थोपे गए ही बने हुए हैं. बर्ताव बदलने के संदेश अक्सर पोस्टर लगाने या फिर दंडात्मक जुर्माना लगाने तक सीमित रहते हैं और वो दूरगामी सामूहिक मालिकाना हक़ को प्रोत्साहित नहीं करते. इंदौर और सूरत जैसे शहर जो स्वच्छता की रैंकिंग में ऊंची पायदान पर आते हैं, उन्होंने आम लोगों की भागीदारी और विकेंद्रीकृत मूलभूत ढांचे की मदद से इसे हासिल किया है. इसी तरह, शहरों में सर्कुलैरिटी के प्रयास को बहुत ज़मीनी स्तर पर लागू किया जाना चाहिए और छोटी कंपनियों की मदद से समुदायों के स्तर पर मटेरियल की रिकवरी की सुविधाएं होनी चाहिए, जिसमें कम कचरा निकालने पर इनाम पर आधारित प्रोत्साहन की व्यवस्थाएं बनानी चाहिए. प्लास्टिक से मुक्त बाज़ार, शून्य कचरे वाली हाउसिंग सोसायटियों और स्कूलों की अगुवाई में ऑडिट के कार्यक्रमों को पायलट से नीतिगत स्तर पर लागू करना चाहिए.

आगे की राह 

अक्रियता के परिणाम अब दूर नहीं हैं, बल्कि वो सामने आने लगे हैं. भारत में कार्बन उत्सर्जन का बोझ बढ़ाने में प्लास्टिकों का बड़ा योगदान है. फेंके हुए प्लास्टिक अक्सर नालों को जाम कर देते हैं, उनसे कचरे के ढेरों में आग लग जाती है और उनके ज़हरीले तत्व रिसकर शहरों की पानी आपूर्ति व्यवस्थाओं में पहुंच जाते. इससे जनता की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है. इसमें प्लास्टिक के बारीक़ टुकड़े शरीर में दाख़िल होने से लेकर सांस की बीमारियां पहले ही घनी आबादी वाली उन असंगठित बस्तियों में दिख रही हैं, जहां कचरा जमा करने की व्यवस्था बेहद कमज़ोर है. गर्म होती दुनिया में प्लास्टिक से होने वाला प्रदूषण ख़तरे को बढ़ा रहा है. इससे शहरों में मौसम की वजह से मचने वाली तबाही बढ़ रही है. जो शहर कचरों का प्रबंधन जलवायु और स्वास्थ्य के लक्ष्यों से अलग कर रहे हैं, वो हमेशा इसी प्रतिक्रियावादी चक्र में फंसे रहेंगे. आपदा के पहले लचीलापन लाने के बजाय, तबाही के बाद सफ़ाई करते रहेंगे.

प्लास्टिक का संकट एक शहरी संकट है और उसका हल करने के लिए भारत के शहरों की ऐसी नई पीढ़ी तैयार करनी होगी, जो सैद्धांतिक तौर पर सर्कुलर हों, डिज़ाइन में समावेशी हों और आदतन लचीले हों.

भारत ने LiFE अभियान के ज़रिए ख़ुद को दुनिया में टिकाऊ रहन सहन के चैंपियन के तौर पर स्थापित किया है और G20 व संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण असेंबली (UNEA) के मंचों से प्लास्टिक प्रदूषण के ख़िलाफ़ सामूहिक सामूहिक एक्शन की आवाज़ उठाई है. फिर भी अगर इस वैश्विक एक्शन को विश्वसनीय बनाना है, तो पहले भारत के शहरों में परिवर्तन लाकर दिखाना होगा. प्लास्टिक के प्रदूषण से मुक़ाबला अब सिर्फ़ स्थानीय स्तर पर साफ़-सफ़ाई का मसला नहीं रहा; अब जलवायु परिवर्तन के प्रति सहनशीलता बढ़ाने, आर्थिक कुशलता और सामाजिक समता लाने के लिए ये एक सामरिक अनिवार्यता बन गया है. 2025 का विश्व पर्यावरण दिवस न सिर्फ़ इस पर विचार करने बल्कि दोबारा डिज़ाइन करने का मौक़ा मुहैया कराता है. प्लास्टिक का संकट एक शहरी संकट है और उसका हल करने के लिए भारत के शहरों की ऐसी नई पीढ़ी तैयार करनी होगी, जो सैद्धांतिक तौर पर सर्कुलर हों, डिज़ाइन में समावेशी हों और आदतन लचीले हों.

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