पुरानी तरकीबें काम नहीं आ रही हैं. ऐसा लग रहा है कि पाकिस्तान में लोगों के मन से डीप स्टेट और सेना का डर, आतंक और ख़ौफ़ अब गुम होता जा रहा है. पाकिस्तान पर ताक़त के दम पर क़ब्ज़ा करने और उसे नियंत्रित करने का तरीक़ा बेअसर साबित हो रहा है. लोगों के विरोध प्रदर्शन लगातार बढ़ते जा रहे हैं. प्रदर्शनकारी जिस स्तर की निडरता दिखा रहे हैं, वो पाकिस्तान के लिए बेहद असामान्य बात है. ये बहुत पुरानी बात नहीं है, जब पाकिस्तानी फ़ौज के एक अधिकारी को बस उंगली से इशारा करने की देर होती थी, और लोग उसका आदेश मान लेते थे. अब ऐसा नहीं है. पाकिस्तानी सेना की अक़्ल काम नहीं कर रही है. उसको ये पता नहीं है कि वो पूरे देश में, अपने ख़िलाफ़ हो रहे तमाम विरोध प्रदर्शनों पर किस तरह क़ाबू पाए. फ़ौज के लिए इससे भी बुरी बात ये है अब जनता के बीच जो नैरेटिव या जो परिचर्चाएं हैं, उन पर भी उसका नियंत्रण नहीं रह गया है. पाकिस्तान में कुछ तो ऐसा बदलाव हुआ है, जो वहां की जनता अब ख़ामोशी से पाकिस्तानी सेना का फरमान मानने से इनकार कर रही है और फ़ौज को ये समझ में नहीं आ रहा है कि वो नई उभरती हुई सच्चाई के हिसाब से ख़ुद को कैसे ढाले, कैसे तालमेल बिठाए और इस नई हक़ीक़त का कैसे सामना करे.
पाकिस्तान में कुछ तो ऐसा बदलाव हुआ है, जो वहां की जनता अब ख़ामोशी से पाकिस्तानी सेना का फरमान मानने से इनकार कर रही है और फ़ौज को ये समझ में नहीं आ रहा है कि वो नई उभरती हुई सच्चाई के हिसाब से ख़ुद को कैसे ढाले, कैसे तालमेल बिठाए और इस नई हक़ीक़त का कैसे सामना करे.
फ़ौज के दबदबे वाले पाकिस्तान में उसके प्रति दिख रहे ये बग़ावती तेवर, जो एक चिंगारी के तौर पर शुरू हुए थे और अब फ़ौज का विरोध एक दहकता ज्वालामुखी बन चुका है. पूरे देश में जहां-तहां विरोध प्रदर्शन भड़क उठे हैं. जितने बड़े भौगोलिक क्षेत्र में ये विरोध प्रदर्शन फैले हुए हैं, वो एक देश के तौर पर पाकिस्तान के काम करने के रवैये से नाख़ुशी और मोहभंग होने का प्रतीक है. इस विरोध की मोटे तौर पर दो बिल्कुल स्पष्ट और साफ़ देखी जा सकने वाली बातें उभरकर सामने आ रही हैं. पहला तो हिंसक विरोध है, जो न केवल इस्लामकि दहशतगर्द समूह तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) के आतंकी हमलों की शक्ल में दिख रहा है, बल्कि बलोचिस्तान के जातीय अलगाववादी उग्रवादी संगठनों के हमलों और कुछ कम स्तर पर सिंध में भी देखने को मिल रहा है. दूसरा और ज़्यादा परेशान करने वाला चलन (पाकिस्तान के डीप स्टेट के नज़रिए से) ये है कि सत्ताधारी वर्ग की नाइंसाफ़ी के विरोध में शांतिपूर्ण, अहिंसक विरोध और बग़ावती तेवर देखने को मिल रहे हैं. ये चलन आम लोगों की सविनय अवज्ञा और विरोध के अधिक पारंपरिक तरीक़ों- प्रदर्शन, तालाबंदी, हड़ताल और धरने के तौर पर दिख रहा है.
पाकिस्तान की सेना के लिए, ये बाद वाला चलन यानी शांतिपूर्ण विरोध ज़्यादा चिंता की बात है, क्योंकि ऐसा लगता है कि उनको समझ में ही नहीं आ रहा है कि वो इनसे निपटें तो कैसे. कोई हिंसक आंदोलन ख़ूनी ज़रूर होता है, मगर उससे निपटना भी आसान होता है. बंदूकों और संसाधनों के मामले में कोई भी समूह पाकिस्तान के सत्ता तंत्र का मुक़ाबला नहीं कर सकता है. हिंसा से पाकिस्तान के सत्ताधारी वर्ग को अपनी बेहतर ताक़त का इस्तेमाल किसी भी बग़ावत को कुचलने के लिए करने का वाजिब बहाना मिल जाता है. इसके लिए किसी सियासी समझदारी या फिर समझौता करने की भी ज़रूरत नहीं होती. लेकिन, ये बात शांतिपूर्ण मगर बड़े सियासी मक़सद से किए जाने वाले प्रदर्शनों पर लागू नहीं की जा सकती. इन प्रदर्शनों के विशाल राजनीतिक आंदोलनों में तब्दील होने की आशंका बनी रहती है, जो फ़ौज में अवामी लीग के उन विरोध प्रदर्शनों का ख़ौफ़ पैदा कर देते हैं, जो तब के पूर्वी पाकिस्तान और अब के बांग्लादेश में हुए थे.
फ़ौज की मुख़ालफ़त
पिछले कुछ वर्षों के दौरान, पाकिस्तानी फ़ौज का फ़रमान न मानने का संक्रमण बहुत फैल गया है. न केवल विरोध प्रदर्शन बढ़ गए हैं, बल्कि उनकी मियाद और दायरे के साथ साथ उनकी गूंज भी बढ़ती जा रही है. मिसाल के तौर पर आप, बलोच यकजहती समिति (BYC) के इस्लामाबाद मार्च को ही लें. ये मार्च, बलोचों के नरसंहार के ख़िलाफ़ निकाला जा रहा है. पाकिस्तान की सेना और उसके डर्टी ट्रिक डिपार्टमेंट ने बलोच महिला कार्यकर्ताओं द्वारा निकाले गए इस मार्च को रोकने की पुरज़ोर कोशिशें की, मगर वो नाकाम रहे. पिछले दो महीनों से ये बलोच प्रदर्शनकारी, राजधानी इस्लामाबाद के बीचो-बीच धरने पर बैठे हैं. पूरे अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नज़र इस धरने पर है और विदेशी राजनयिक समुदाय इस संकट को पहले से कहीं ज़्यादा नज़दीकी से देख रहा है. बलोच प्रदर्शनकारियों ने अपने प्रदर्शन तेज़ कर दिए हैं और अब वो बाक़ी दुनिया से बात कर रहे हैं और अपनी बात भी उनके सामने रख रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिनिधि उनसे बात कर रहे हैं और अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भी इन प्रदर्शनों का कवरेज करना शुरू किया है और इससे बलोच प्रदर्शनकारियों को वो पब्लिसिटी दे रहे हैं, जो पाकिस्तानी हुकूमत के ख़िलाफ़ बलोचों की पांचवीं बग़ावत के बाद के 20 सालों से नहीं मिल रही थी. पाकिस्तान की सरकार इन प्रदर्शनकारियों की इच्छाशक्ति तोड़ने में पूरी ताक़त लगा रही है और इस्लामाबाद की भयंकर ठंड में भी इन्हें गर्म बिस्तरों और टेंट जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी महरूम रख रही है. मगर, इससे भी उनके हौसले पस्त नहीं किए जा सके हैं. पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसियों ने प्रदर्शनकारियों को डराने के लिए बदनाम मारक दस्ते को भी प्रदर्शनकारियों के ठीक सामने एक शिविर में टिकाने की कोशिश की थी. मगर ये नुस्खा भी काम नहीं आया. सच तो ये है कि पाकिस्तान के सत्ता तंत्र ने जो भी चाल इस प्रदर्शन को दबाने के लिए चली है, उससे बलोचिस्तान में जनता के जज़्बात और भड़क ही उठे हैं. बलोचिस्तान सूबे में BYC के प्रदर्शनकारियों से एकजुटता दिखाने वाले विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है.
पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसियों ने प्रदर्शनकारियों को डराने के लिए बदनाम मारक दस्ते को भी प्रदर्शनकारियों के ठीक सामने एक शिविर में टिकाने की कोशिश की थी. मगर ये नुस्खा भी काम नहीं आया. सच तो ये है कि पाकिस्तान के सत्ता तंत्र ने जो भी चाल इस प्रदर्शन को दबाने के लिए चली है, उससे बलोचिस्तान में जनता के जज़्बात और भड़क ही उठे हैं.
बलोचिस्तान की पश्तून पट्टी में भी हज़ारों लोग पिछले 90 दिन से सीमावर्ती क़स्बे चमन में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. उनकी मांग है कि पाकिस्तान की सरकार उन सख़्त क़दमों को वापस ले, जो क़बीलाई लोगों को अफ़ग़ानिस्तान आने-जाने के पारंपरिक अधिकारों में बाधा डालते हैं. ये प्रदर्शन जितने लंबे खिचेंगे, उतना ही पाकिस्तान की सरकार की असंवेदनशीलता को लेकर पश्तून आबादी में ग़ुस्सा बढ़ता जाएगा. इसी तरह, ग्वादर में भी स्थानीय लोगों को बुनियादी अधिकारों से महरूम रखने के ख़िलाफ़ बड़ा आंदोलन चल रहा है. अन्य बातों के अलावा स्थानीय लोग ग्वादर के आस-पास के समुद्री इलाक़े में चीन के मछली मारने के ट्रॉलरों की मौजूदगी का विरोध भी कर रहे हैं. उनका आरोप है कि चीन की मछली मारने की नौकाएं, अपने लूट-खसोट वाले तरीक़े से मछली मारकर पूरे इलाक़े में ज़बरन मछलियां पकड़ रहे हैं और प्रकृति को भी नुक़सान पहुंचा रहे हैं.
पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले गिलगित बाल्टिस्तान इलाक़े में भी सरकार प्रायोजित सुन्नी फ़िरक़े के आतंकवादी संगठनों की दहशतगर्दी का बड़े पैमाने पर विरोध किया जा रहा है. गिलगित बाल्टिस्तान के लोग गेहूं पर उस सब्सिडी को भी बहाल करने की मांग लेकर सड़कों पर हैं, जिसे सरकार ने वापस ले लिया था. पिछले कई वर्षों से गिलगित बाल्टिस्तान के लोग ये मांग भी उठा रहे हैं कि उन्हें दोबारा भारत में शामिल होने दिया जाए. यही जज़्बात पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर (PoK) में भी देखने को मिल रहे हैं, जहां सरकारी अधिकारियों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन अब रोज़मर्रा की बात हो गई है. अब ख़ैबर पख़्तूनख़्वाब सूबे में शामिल किए जा चुके पुराने क़बीलाई इलाक़े भी उबल रहे हैं. जैसे कि कुर्रम एजेंसी में सुन्नी दहशतगर्दों द्वारा की जा रही हत्याओं को लेकर ग़ुस्सा बढ़ रहा है. दूसरे क़बीलाई ज़िलों में प्रदर्शन आम हो गए हैं. ये क़बीले तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान (TTP) और उस जैसे दूसरे इस्लामिक संगठनों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग कर रहे हैं. क़बीलाई इलाक़ों में विरोध प्रदर्शन करने वालों के बीच ये नारा बेहद लोकप्रिय है- ये जो दहशतगर्दी है, इसके पीछे वर्दी है- यानी आतंकवाद में पाकिस्तानी फ़ौज और ख़ुफ़िया एजेंसियों का हाथ है.
ख़ैबर पख़्तूनख़्वा सूबे में पाकिस्तानी सेना के ख़िलाफ़ जो जज़्बात भड़क उठे हैं, उसकी एक वजह सूबे की सबसे लोकप्रिय राजनीतिक पार्टी- इमरान ख़ान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (PTI) के ख़िलाफ़ चलाई जा रही मुहिम भी है.
ख़ैबर पख़्तूनख़्वा सूबे में पाकिस्तानी सेना के ख़िलाफ़ जो जज़्बात भड़क उठे हैं, उसकी एक वजह सूबे की सबसे लोकप्रिय राजनीतिक पार्टी- इमरान ख़ान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (PTI) के ख़िलाफ़ चलाई जा रही मुहिम भी है. पाकिस्तानी सेना ने PTI को ख़त्म करने की तमाम कोशिशें कीं. पर, पार्टी के समर्थकों में कोई कमी नहीं आई है. फ़ौज ने जिस तरह से पार्टी के नेताओं पर दबाव बनाया है, उससे लोगों ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भी सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं. लोगों को आशंका है कि चुनावों में धांधली करके अपनी सरकार चुनने का उनका हक़ मार दिया जाएगा. ख़ैबर पख़्तूनख़्वा, बलोचिस्तान, गिल्गित बाल्टिस्तान, पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर और सिंध में पाकिस्तान की फ़ौज के विरुद्ध सविनय अवज्ञा और विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला बढ़ना कोई अनअपेक्षित बात नहीं है. लेकिन, सबसे ज़्यादा तो पाकिस्तान के सबसे आज्ञाकारी, ग़ुलाम और हर बात पर हामी भरने वाले सूबे पंजाब ने हैरान किया है. पंजाब में पाकिस्तानी सेना के ख़िलाफ़ नाराज़गी, फ़ौज के अफ़सरों के लिए सबसे ज़्यादा चिंता की बात है. पंजाब में मुल्क के सत्ता तंत्र के ख़िलाफ़ बग़ावत की एक धारा तो हमेशा से रही है. लेकिन, इमरान ख़ान ने इसे और उभारकर सामने ला दिया है. फ़ौज का विरोध करने वालों के ऊपर बर्बर ज़ुल्म से भले ही प्रदर्शनकारी छुपने के लिए मजबूर हुए हों, लेकिन उनका विरोध तो अब भी जारी है. हालांकि, ये विरोध सड़कों पर नहीं दिख रहा है. सेना के प्रति पंजाब सूबे का ये विरोध साइबर दुनिया में ज़्यादा दिख रहा है. साइबर मोर्चे पर पाकिस्तानी सत्ता तंत्र के ख़िलाफ़ एक बड़ा अभियान चलाया जा रहा है और फ़ौज को समझ में नहीं आ रहा है वो इसे कैसे दबाए? क़ाबू कैसे पाए?
डरी हुई सेना
पाकिस्तान की सेना इसलिए डरी हुई है, क्योंकि नाख़ुश लोगों से निपटने और इस तरह के प्रदर्शनों को ख़त्म करने के उसके पुराने नुस्खे अब काम नहीं आ रहे हैं. पहले, पाकिस्तान की सरकार विरोध के आंदोलनों को बड़ा होने से पहले ही उसमें घुसपैठ करके कई तरीक़ों से उसे भीतर से ही कमज़ोर कर देती थी. ‘सत्ता तंत्र’ के जासूस प्रदर्शनकारियों को डराते धमकाते थे. वो प्रदर्शनकारियों के नेताओं को घूस देकर भी तोड़ लिया करते थे. जब कोई तरीक़ा काम नहीं आता था, तो ख़ुफ़िया एजेंट ताक़त का इस्तेमाल करते थे और कई प्रदर्शनकारियों को अगवा कर लेते थे और कई बार तो अगवा प्रदर्शनकारियों को मार दिया जाता था. ये तादाद हाल के दिनों में हज़ारों तक पहुंच गई, फिर भी विरोध का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है. साफ़ है कि विरोध प्रदर्शन को कमज़ोर करने और उसका गला घोंटने के लिए डराने धमकाने, घूस देने और ख़ून बहाने के तरीक़ों ने सरकार के ख़िलाफ़ ग़ुस्से को और भड़का दिया, जो अब तमाम मोर्चों पर एक साथ विरोध की शक्ल में सामने आ रहा है.
बढ़ते विरोध प्रदर्शनों को कमज़ोर करने और उनका ख़ात्मा करने की पाकिस्तानी फ़ौज की क्षमता दो कारणों से और कमज़ोर हो गई है: पहला, पाकिस्तान की हुकूमत लगातार कमज़ोर होती जा रही है और उसे ख़र्च चलाने के लिए रोज़मर्रा की जद्दोजहद करनी पड़ रही है; दूसरा, नैरेटिव गढ़ने में अपने एकाधिकार को पाकिस्तान के सत्ताधारी वर्ग ने गंवा दिया है. क्योंकि, अख़बार, टीवी और रेडियो जैसे पारंपरिक मीडिया पर अब सोशल मीडिया हावी हो गया है. सोशल मीडिया अराजक है, उसे क़ाबू में नहीं किया जा सकता, वो बेलग़ाम और सेंसर से भी आज़ाद है. सोशल मीडिया सम्मान नहीं देता और न ही हुक्म मानता है, और चूंकि सोशल मीडिया किसी निगहबान के नियंत्रण में नहीं है, तो इसे पारंपरिक मीडिया की तुलना में ज़्यादार विश्वसनीय, भरोसेमंद और सच्चा माना जाता है. प्रदर्शनकारी इस औज़ार का बख़ूबी इस्तेमाल कर रहे हैं और वो पाकिस्तानी तंत्र की दादागीरी और क्रूरता वाले तरीक़ों का पर्दाफ़ाश कर रहे हैं. इससे सरकार के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा और बढ़ता जा रहा है. इससे भी बड़ी बात ये कि सोशल मीडिया अब पलक झपकते ही समर्थकों को जुटाने का ज़रिया भी बन गया है. ये काम न केवल स्थानीय बल्कि वैश्विक स्तर पर भी किया जा रहा है. निश्चित रूप से पाकिस्तान की फ़ौज इस बात पर नज़र रख सकती है कि सोशल मीडिया में क्या चल रहा है. लेकिन, वो इस पर किसी भी तरह से रोक नहीं लगा सकती, क्योंकि इस वजह से डिजिटल अर्थव्यवस्था की दिशा में आगे बढ़ने के बड़े बड़े ख़्वाब चकनाचूर हो जाएंगे.
दुनिया भर में सेनाओं को जो सबसे महत्वपूर्ण सबक़ याद कराया जाता है वो ये कि नाकामी को कभी भी न दोहराएं. लेकिन, पाकिस्तान की सेना, अपने ख़िलाफ़ बढ़ते जज़्बात के उबाल को रोकने में अपनी नाकामी को दोहराती जा रही है.
दुनिया भर में सेनाओं को जो सबसे महत्वपूर्ण सबक़ याद कराया जाता है वो ये कि नाकामी को कभी भी न दोहराएं. लेकिन, पाकिस्तान की सेना, अपने ख़िलाफ़ बढ़ते जज़्बात के उबाल को रोकने में अपनी नाकामी को दोहराती जा रही है. अपना रवैया बदलने के बजाय, फ़ौज ने नाकाम नुस्खों और औज़ारों को इस्तेमाल करना जारी रखने का फ़ैसला किया है. इस वजह से पाकिस्तानी सेना के ख़िलाफ़ नाराज़गी अब नए और बेहद ख़तरनाक स्तर पर पहुंच रही है. चूंकि 2024 के चुनाव में धांधली होनी तय है, तो ज़ाहिर है इसका नतीजा भी ख़तरनाक ही होना है. जब बात कगार तक पहुंच जाएगी, तो छोटे छोटे हज़ारों विरोध इकट्ठा होकर, पाकिस्तान की सियासत में सेना के दबदबे और उसकी दख़लंदाज़ी के लिए मौत का नक्कारा बजा देंगे.
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