Author : Sushant Sareen

Published on Sep 27, 2023 Updated 0 Hours ago
तलवार की धार पर चलता ‘पाकिस्तान’

पाकिस्तान मौत के करीब है. पाकिस्तान उस मरणासन्न मरीज़ की तरह है जिसकी उम्मीद उस वक्त अचानक बढ़ जाती है जब उसकी सेहत से जुड़ी किसी रिपोर्ट में थोड़ा सा भी सुधार दिखता है लेकिन अगले ही पल जब उसका सामना इस वास्तविकता से होता है कि वो मल्टी-ऑर्गन फेल्योर, पाकिस्तान के मामले में कहें तो मल्टी-इंस्टीट्यूशनल फेल्योर, की तरफ बढ़ रहा है तो उसकी उम्मीदें धाराशायी हो जाती हैं. जो कुछ भी गलत हो सकता है, वो गलत हो रहा है. ये मुल्क लड़खड़ा रहा है और जो लोग इसे चला रहे हैं वो इस बात को लेकर बेख़बर, यहां तक कि बेबस भी, दिख रहे हैं कि कैसे पाकिस्तान को पटरी पर लाया जाए. सरकार और सेना के बड़े अधिकारियों की ये समझ है कि अगर वो लोगों की सोच पर नियंत्रण कर सकते हैं तो सब कुछ ठीक हो जाएगा. संकट की गंभीरता से इनकार करना, ख़बरों को घुमाना (और ख़राब ख़बरों को दबाना), दिखावा करना कि सब कुछ सामान्य है, यहां तक कि ये भी बताना कि कितना अमीर पाकिस्तान जल्द बनने जा रहा है- 6 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का खनिज, 100 अरब अमेरिकी डॉलर का होने वाला अमेरिकी निवेश, कुछ ही समय में 80 अरब अमेरिकी डॉलर का निर्यात– और अच्छी किस्मत की उम्मीद करना. संक्षेप में कहें तो ये योजना है- ग्रोथ और विकास का शेख़ चिल्ली मॉडल.  

जब जून में आख़िरी वक्त पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) का आपातकालीन पैकेज मिला तो इस बात का उल्लास था कि शहबाज़ शरीफ़ ने पाकिस्तान को डिफॉल्टर बनने से बचा लिया. पाकिस्तानी रुपये की कीमत में थोड़ी रिकवरी आई और शेयर बाज़ार ने ख़ास ढंग से बढ़त बनाकर अपनी प्रतिक्रिया जताई.

जब जून में आख़िरी वक्त पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) का आपातकालीन पैकेज मिला तो इस बात का उल्लास था कि शहबाज़ शरीफ़ ने पाकिस्तान को डिफॉल्टर बनने से बचा लिया. पाकिस्तानी रुपये की कीमत में थोड़ी रिकवरी आई और शेयर बाज़ार ने ख़ास ढंग से बढ़त बनाकर अपनी प्रतिक्रिया जताई. बोझिल PDM गठबंधन द्वारा चलाई जा रही मिली-जुली हुकूमत ने डींग हांकी कि उसने अर्थव्यवस्था को फिर से सुधार के रास्ते पर डाल दिया है. राजनीतिक तौर पर देखें तो बेलगाम सेना ने सबसे बड़े और सबसे लोकप्रिय राजनीतिक दल PTI को ख़त्म करने के लिए अपनी पहचान बन चुके मूर्खतापूर्ण, क्रूरतापूर्ण और कानून से ऊपर तरीकों का इस्तेमाल किया. भ्रष्टाचार के आरोपों में पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान को जेल भेजने के बाद ऐसा लगा कि कुछ हद तक राजनीतिक स्थिरता बहाल होने की प्रक्रिया में है. सुरक्षा के हालात भयावह बने रहे लेकिन इस बात का एहसास था कि तालिबान पर दबाव डाल कर आतंकवाद को नियंत्रण में किया जा सकता है. कूटनीतिक तौर पर सरकार को ये भरोसा था कि वो सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और दूसरे खाड़ी देशों से अरबों डॉलर का निवेश आकर्षित करने के रास्ते पर है जिससे आर्थिक संकट भी थोड़ा कम होगा. 

लेकिन पाकिस्तान के भविष्य को लेकर उम्मीदें बेहद कमज़ोर बुनियादी पर टिकी हुई हैं. ये बेहद मुश्किल आर्थिक हालात को नज़रअंदाज़ करती है जिसका सामना पाकिस्तान के आम लोग कर रहे हैं. वो इस वक्त कमरतोड़ महंगाई के साथ पूरी तरह आर्थिक बदइंतज़ामी एवं भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और औद्योगिक एवं व्यायसायिक गतिविधियों में सुस्ती के हालात का सामना कर रहे हैं. रुपये की कीमत में भारी गिरावट, जिसने डॉलर के मुकाबले 300 का आंकड़ा पार कर लिया है (खुले बाज़ार में एक डॉलर की कीमत 330 पाकिस्तानी रुपये के नीचे है), और ईंधन की कीमत में भारी-भरकम बढ़ोतरी (पेट्रोल की कीमत में एक महीने के दौरान 50 पाकिस्तानी रुपये से ज़्यादा का इज़ाफ़ा किया गया है) ने आम लोगों, यहां तक कि मिडिल क्लास के ऊपर भी, भारी बोझ डाल दिया है. लेकिन ये भारी-भरकम बिजली बिल है जो मुहावरों में बताए जाने वाले खच्चरों के लिए ताबूत में आख़िरी कील की तरह लगता है (पाकिस्तान ऊंट की तुलना में खच्चरों के लिए ज़्यादा जाना जाता है). हताश लोगों, जिनका बिजली बिल अक्सर महीने भर की आमदनी से ज़्यादा आ रहा है, के देशव्यापी प्रदर्शनों ने सरकार को हिला दिया है. घबराई हुई सरकार ने थोड़ी सी राहत का वादा करके लोगों को शांत करने की कोशिश की लेकिन कुछ ख़ास नहीं कर पाई. वास्तव में कार्यवाहक प्रधानमंत्री अनवारुल हक काकड़, जो कि पाकिस्तानी सेना के वफादार सैनिक के रूप में देखे जा रहे हैं, ने शुरू में इस संकट को हल्का बताने की कोशिश की लेकिन बाद में पलटकर उन्हें सफाई देनी पड़ी. 

अगर IMF की बात नहीं मानी तो कुछ दिन में नहीं तो कुछ ही हफ्तों में पाकिस्तान दिवालिया हो जाएगा.

आसान सच ये है कि अगर चाहते तब भी न तो सरकार, न ही सेना के पास इस संकट का कोई समाधान है और रुपये में गिरावट, ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी और इसके नतीजतन बिजली के दाम में इज़ाफ़े के साथ आर्थिक हालात और भी बिगड़ रहे हैं. बात ये है कि 50 रुपये से 70 रुपये के बीच प्रति यूनिट बिजली की लागत ज़्यादातर मिडिल क्लास के लोगों के लिए भी बहुत बड़ा बोझ है, लोअर मिडिल क्लास और ग़रीब तो इतनी महंगी बिजली का बिल चुकाने की हालत में ही नहीं हैं. सरकार की हालत इतनी ख़राब है कि वो बिजली पर सब्सिडी देने की स्थिति में नहीं है, IMF की शर्तों की वजह से तो वो ऐसा करने की हालत में और भी नहीं है. अगर IMF की बात नहीं मानी तो कुछ दिन में नहीं तो कुछ ही हफ्तों में पाकिस्तान दिवालिया हो जाएगा. इससे भी ख़राब बात ये है कि एक के बाद एक पाकिस्तान की सरकारें इतनी समझौतावादी, भ्रष्ट और निकम्मी रही हैं कि वो उन ढांचागत मुद्दों का समाधान करने में पूरी तरह अयोग्य साबित हुई हैं जिनकी वजह से बिजली सेक्टर पाकिस्तान की सरकार के लिए गले की फांस साबित हुआ है. मिसाल के तौर पर, ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन के नुकसान को कम करने, बिल की उगाही को बढ़ाने और पावर प्लांट की कार्यक्षमता को बेहतर करने के मामले में दिखाने के लिए बहुत कम उपलब्धियां हैं. 

निर्णायक बदलाव नज़दीक है

जो भी हो लेकिन लगता है कि हालात एक निर्णायक बिंदु पर पहुंच गए हैं. इस बात का डर है कि लोगों की प्रतिक्रिया उग्र हो सकती है और इससे पाकिस्तान की स्थिरता कमज़ोर होगी. निराशा चरम पर होने और मिडिल क्लास के लिए भी गुज़ारा मुश्किल होने के साथ कुछ न कुछ तो होगा. बिजली बिल को लेकर परेशानी एक व्यापक आर्थिक संकट का सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा है. आर्थिक संकट इतना भयावह है और देश को फिसलने से बचाने के लिए ज़रूरी सुधार इतने अधिक हैं कि काफी हद तक टेक्नोक्रैट्स को शामिल करके बनाई गई कार्यवाहक सरकार के लिए इनका समाधान करना नामुमकिन है. जब बात बिजली बिल के संकट के निपटारे की आती है तो ये अंतरिम सरकार के बूते की बात नहीं लगती. न तो इसके पास चीज़ों को ठीक करने की राजनीतिक क्षमता है, न ही समस्या के समाधान के लिए कोई तकनीकी हल. यहां तक कि एक अलोकप्रिय अर्ध तानाशाह- सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर- का साथ भी पाकिस्तान की ख़तरनाक गिरावट को रोकने में किसी काम का नहीं है. 

इसका मतलब ये है कि सेना को लंबे समय तक कार्यवाहक सरकार की किसी भी सोच को छोड़ना होगा. ये ऐसी चीज़ है जिसके बारे में इस्लामाबाद में सत्ता के गलियारों में अक्सर अटकलें और फुसफुसाहट होती रही है. दूसरे शब्दों में कहें तो मौजूदा सरकार के लिए नवंबर में होने वाले आम चुनाव को कुछ महीनों से ज़्यादा समय तक आगे बढ़ाना नामुमकिन होगा. राजनीतिक तौर पर ये अस्थिर करने वाला होगा. इमरान ख़ान के कई विरोधी जैसे कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (PPP) चुनाव में किसी भी तरह की देरी के ख़िलाफ़ हैं. इसकी एक वजह ये है कि उन्हें लगता है कि चुनाव में किसी भी तरह की देरी लोकतंत्र की मौत के समान होगी. वहीं दूसरी वजह ये है कि उन्हें इस बात का डर है कि जब सेना इमरान ख़ान से छुटकारा पा लेगी तो उसके बाद वो उन्हें निशाना बनाएगी. इसलिए चुनाव में अनिश्चित समय की देरी राजनीतिक विरोध को मज़बूत और सेना को अलग-थलग कर सकती है और इस तरह न सिर्फ़ टॉप अधिकारियों के लिए बल्कि देश के लिए भी विनाशकारी साबित होगी. इससे भी ज़्यादा बात ये है कि राजनीतिक इंजीनियरिंग में शामिल होने, जिसके लिए पाकिस्तान की सेना और खुफिया एजेंसियां कुख्यात हैं, का प्रलोभन वास्तव में देश में उथल-पुथल को तेज़ कर सकता है.  

मिडिल ईस्ट से मदद

ये कहना शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पाकिस्तान 1971 से भी ज़्यादा गंभीर संकट का सामना कर रहा है. जब तक पाकिस्तान पर जन्नत से पैसों की बरसात (अरबों डॉलर) नहीं होती तब तक आर्थिक हालात और भी बदतर होते जाएंगे. चूंकि दर्द को बर्दाश्त करने की क्षमता अब कम हो रही है, ऐसे में अचानक हालात नियंत्रण से बाहर हो सकते हैं. सऊदी अरब, UAE या चीन से मदद की जो बूंदे बरस रही हैं, उससे आर्थिक संकट टल तो सकता है लेकिन उसे रोका नहीं जा सकता है. आर्थिक संकट की बढ़ती गंभीरता के साथ सुरक्षा हालात भी बिगड़ने का ख़तरा है. तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) के हमलों की तीव्रता और उसके साहस में बढ़ोतरी हो रही है. साथ ही वो नये इलाक़ों को भी निशाना बना रहा है. बलोच लड़ाके भी काफी दुस्साहस के साथ हमलों को अंजाम दे रहे हैं. उन्होंने चीन के उन नागरिकों को भी निशाना बनाया है जो CPEC प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं. 

इमरान ख़ान के कई विरोधी जैसे कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (PPP) चुनाव में किसी भी तरह की देरी के ख़िलाफ़ हैं. इसकी एक वजह ये है कि उन्हें लगता है कि चुनाव में किसी भी तरह की देरी लोकतंत्र की मौत के समान होगी.

वैसे तो राजनीतिक रूप से इमरान ख़ान इतिहास बन गए हैं, साथ ही पाकिस्तान की सेना पूरी तरह से नियंत्रण में है, सभी फैसले वही ले रही है और नेताओं एवं मीडिया को वो अपनी धुन पर नचा रही है लेकिन हालात बहुत ज़्यादा जटिल हैं. ऐसी ताकतें हैं जो अतीत की तरह पाकिस्तानी सेना के नियंत्रण में नहीं हैं. लोग मायूस हैं लेकिन उनकी ख़ामोशी को सेना की स्वीकार्यता या फिर सेना की सर्वोच्चता के प्रति सहमति समझना भूल होगी. सच्चाई ये है कि सेना के नेतृत्व को लेकर बहुत ज़्यादा नफ़रत है. पाकिस्तान जिस मुसीबत में फंसा हुआ है, सेना उसके दोष से बचने में नाकाम रही है. इससे भी ख़राब बात ये है कि आरोप पूरे राजनीतिक समुदाय पर मढ़ा जा रहा है. सेना के लिए ये तथ्य और अधिक चिंताजनक है कि इमरान ख़ान की लोकप्रियता को ध्वस्त करने और उन्हें चुप कराने के उसके ज़ालिमों वाले नज़रिए के बावजूद वो राजनीतिक रूप से अहम बने हुए हैं और जनरल आसिम मुनीर और उनके सहयोगी न सिर्फ इमरान ख़ान से डरे हुए हैं बल्कि इमरान की लगातार लोकप्रियता की वजह से उनकी सोचने-समझने की शक्ति भी ख़त्म हो गई है. वास्तव में इमरान की लोकप्रियता बढ़ती हुई दिख रही है. इसकी वजह न केवल इमरान की चुनौती है बल्कि उनके विरोधियों का कुशासन भी है. अर्थव्यवस्था जितनी ज़्यादा बर्बाद होगी, इमरान ख़ान की लोकप्रियता में उतनी बढ़ोतरी होगी. उन्हें चुनाव लड़ने का मौका नहीं देने या उन्हें चुनाव से दूर रखने पर लोगों का गुस्सा इस कदर भड़क सकता है जिस पर काबू पाने में सेना को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. सेना को हालात काबू में करने के लिए नरसंहार को अंजाम देना पड़ेगा जिसके भयावह नतीजे निकल सकते हैं. 

राजनीतिक रूप से इमरान ख़ान इतिहास बन गए हैं, साथ ही पाकिस्तान की सेना पूरी तरह से नियंत्रण में है, सभी फैसले वही ले रही है और नेताओं एवं मीडिया को वो अपनी धुन पर नचा रही है लेकिन हालात बहुत ज़्यादा जटिल हैं.

पाकिस्तान में जिस तरह हालात बदल रहे हैं उसमें कोई भी निश्चित रूप से ये नहीं कह सकता कि सब्र का बांध या लोगों के गुस्से का उबलता लावा कब फूटेगा और सब कुछ ख़त्म कर देगा. राजनीति और अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने का जनरल आसिम मुनीर का लापरवाह तौर-तरीका निश्चित रूप से काम नहीं आ रहा है. मुनीर को बहुत तेज़ी से हालात को ठीक करना होगा नहीं तो स्थिति उनके नियंत्रण के बाहर हो जाएगी. लेकिन अरबों डॉलर का सवाल ये है कि- कैसे? न तो मुनीर, न किसी और- न इमरान, न नवाज़ शरीफ़ और आसिफ ज़रदारी या उनके बेटे बिलावल तो निश्चित तौर पर नहीं- के पास इस मुसीबत से बाहर निकलने का सही रोडमैप है. मुनीर या सेना और नागरिक प्रशासन में मौजूद उनके वफादारों का बहुत ज़्यादा असर नहीं होने का ये मतलब है कि उन्हें इस हालात को बनाए रखने के लिए क्रूरता का इस्तेमाल करना होगा. लेकिन क्या वो ऐसा कर सकते हैं? ख़ास तौर पर उस हालात में जब सेना इतनी अलोकप्रिय है और उसे न सिर्फ़ राजनीतिक मोर्चे पर लड़ना पड़ रहा है बल्कि कई दूसरे मोर्चों पर भी. इसका ये मतलब है कि अगर देश के हालात ऐसे ही बने रहते हैं- जिसकी संभावना ज़्यादा है- तो देर-सबेर सेना को मजबूर होकर किसी लोकप्रिय नेता को अपना सहारा बनाना होगा और सब कुछ ख़त्म होने से बचाना होगा. उस तरह के नेता नवाज़ शरीफ़ या मौलाना फ़ज़लुर रहमान या आसिफ ज़रदारी नहीं हैं. वो नेता इमरान ख़ान ही होंगे. 

इमरान बनाम मुनीर

निश्चित तौर पर आसिम मुनीर और उनके गुट के जनरल इस विचार का विरोध करेंगे. आख़िर ये बात तेज़ी से साफ होती जा रही है कि ये जनरल आसिम मुनीर और इमरान ख़ान के बीच वजूद की लड़ाई है. इसके अलावा कोई भी चीज़ अचानक और यहां तक कि महत्वहीन है. मुनीर का असमंजस ये है कि अगर वो इमरान के साथ समझौता करते हैं तो वो ख़त्म हो जाएंगे; लेकिन अगर वो समझौता करने से परहेज करते हैं तब भी वो ख़त्म हो जाएंगे जब तक कि वो कोई चमत्कार नहीं कर दिखाते. इमरान ख़ान को शारीरिक तौर पर ख़त्म करने (पाकिस्तान में इससे कभी भी इनकार नहीं किया जा सकता) से अराजक हालात बन सकते हैं और देश में उथल-पुथल मच सकती है. ये सभी हालात कुछ हद तक 1971 की तरह हैं. उस वक़्त सैन्य तानाशाह याहया खान ने शेख़ मुजीब के साथ समझौता करने से इनकार कर दिया था. यहां तक कि सैन्य हार के बावजूद याहया और उनके साथियों को लगा कि वो खुल्लमखुल्ला सत्ता में बने रह सकते हैं. लेकिन उन्हें सत्ता से हटा दिया गया और पाकिस्तान को और टुकड़ों में बंटने से बचाने के लिए ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को कमान सौंप दी गई. घुमा-फिरा के जो भी कहा जा रहा हो या आर्थिक, सुरक्षा और राजनीतिक हालात को बेहतर बनाने के लिए जो भी अथक प्रयास किए जा रहे हों लेकिन सच्चाई ये है कि मौजूदा हालात कई मायनों में पूर्वी पाकिस्तान के अलग होने के बाद की स्थिति से भी ज़्यादा ख़राब हैं. 1971 से हटकर, जब पाकिस्तान को सहारा देने के लिए भुट्टो मौजूद थे, आज टूटे हुए पाकिस्तान को स्थिर करने के लिए कोई दिमाग वाला और चालाक नेता नहीं है. आज पाकिस्तान के पास सिर्फ एक खोखले, बदला लेने वाले और शातिर इमरान ख़ान हैं जिनके पास न तो देश को ठीक करने की समझ है, न ही आइडिया. 

1971 से हटकर, जब पाकिस्तान को सहारा देने के लिए भुट्टो मौजूद थे, आज टूटे हुए पाकिस्तान को स्थिर करने के लिए कोई दिमाग वाला और चालाक नेता नहीं है.

सामान्य समझ ये कहती है कि मौजूदा परेशानियों और दुखों के बावजूद फिलहाल वो जीत की ओर बढ़ रहे हैं जबकि आसिम मुनीर हार रहे हैं लेकिन पाकिस्तान डूब चुका है.


सुशांत सरीन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.

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