पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति: ज़बरदस्त या उबाऊ? (पार्ट-2)
सीरीज़ का पहला भाग यहां पढ़ें.
फ़ौजी जनरलों का शब्दजाल
पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति (NSP) में एक खंड पारंपरिक सैन्य ख़तरों पर है, जो इस वाक्य से शुरू होता है : ‘हमारे ठीक पड़ोस में सामूहिक चेतना को एक ख़तरनाक और प्रतिगामी विचारधारा जकड़ रही है, जिसे देखते हुए हिंसक टकराव के आसार बहुत ज्यादा बढ़ गये हैं.’ यह शायद इमरान ख़ान और मोईद यूसुफ़ के पसंदीदा हौआ- भारत- की ओर इशारा करता है, लेकिन ज्यादा लागू होता है उनके पसंदीदा प्रोजेक्ट और वैचारिक सहयोगी- तालिबान अमीरात- पर. बेशक, पाकिस्तानियों की मनोवृत्ति को देखते हुए, यह बिल्कुल संभव है कि वे मानते हों कि तालिबान एक ऐसी प्रगतिशील और सौम्य विचारधारा की नुमाइंदगी करता है जो पाकिस्तान की सामूहिक चेतना को उतना नहीं जकड़ पा रही है, जितना अफ़ग़ानिस्तान को जकड़ा है. इस खंड का बाकी हिस्सा उन्हीं पुराने सूत्रीकरणों को दोहराता है जिन्हें पाकिस्तानी उबकाई लाने की हद तक बकबकाते रहे हैं- ‘फुल स्पेक्ट्रम डिटरेन्स’, ‘क्रेडिबल मिनिमम न्यूक्लियर डिटरेन्स’, ‘हथियारों की होड़’ से बचना, और, यक़ीनन, सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों की सबसे नयी ख़ब्त ‘हाइब्रिड वारफेयर’. ‘हाइब्रिड वारफेयर’ के लिए वे ‘पाकिस्तान की सुरक्षा एवं स्थिरता को कमज़ोर करने के प्रयासों को निष्क्रिय करने के लिए संपूर्णता भरे, परस्पर-संबद्ध पूरा-राष्ट्र-एक दृष्टिकोण (whole-of-nation approach)’ का प्रस्ताव करते हैं, जो क़तई घिसा-पिटा हुआ है. यह ख़ालिस नौकरशाहाना शब्दजाल है जो किसी को प्रभावित नहीं करता, सिवाय उनके जो इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशन्स (ISPR) द्वारा नियुक्त ‘रक्षा विश्लेषकों’ को गंभीरता से लेते हैं.
आंतरिक सुरक्षा खंड आतंकवाद, हिंसक उप-राष्ट्रवाद, चरमपंथ व संप्रदायवाद, और नारकोटिक्स व संगठित अपराध को मुख्य चुनौतियों के रूप में चिह्नित करता है. यह घोषित करता है कि ‘पाकिस्तान अपनी ज़मीन पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल किन्हीं भी समूहों के लिए ज़ीरो टोलरेन्स की नीति अपनाता है.’
आंतरिक सुरक्षा खंड आतंकवाद, हिंसक उप-राष्ट्रवाद, चरमपंथ व संप्रदायवाद, और नारकोटिक्स व संगठित अपराध को मुख्य चुनौतियों के रूप में चिह्नित करता है. यह घोषित करता है कि ‘पाकिस्तान अपनी ज़मीन पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल किन्हीं भी समूहों के लिए ज़ीरो टोलरेन्स की नीति अपनाता है.’ अगर यह व्याकरण का दोष नहीं है, तो इस वाक्य का मतलब निकलता है कि ज़ीरो टोलरेन्स नीति का विस्तार दूसरों देशों में आतंकी गतिविधियों तक नहीं है. NSP दावा करती है कि वह ‘हिंसक चरमपंथी विचारधाराओं के ज़रिये नस्ली, धार्मिक और सांप्रदायिक लाइनों के दोहन और उनके साथ हथकंडेबाज़ी’ की अनुमति नहीं देगी. ये बड़ी-बड़ी बातें उस शासन द्वारा की जा रही हैं जिसके नेता इमरान ख़ान ने विपक्ष रहते हुए तहरीक-ए-लब्बैक (टीएलपी) के आंदोलन का समर्थन किया है और ख़ुद को उन्हीं में से एक बताया है, और जिसने सरकार में रहते हुए हिंसक इस्लामी चरमपंथी समूहों को तुष्ट किया है. यह दस्तावेज ‘नफ़रती भाषण और सामग्री तैयार और प्रचारित’ करनेवालों के ख़िलाफ़ ‘द्रुत और समझौताविहीन कार्रवाई’ का वादा करता है. लेकिन ये सारे संकल्प धरे रह गये जब इमरान ख़ान को प्रसिद्ध अर्थशास्त्री आतिफ मियां को आर्थिक सलाहकार परिषद से महज़ इसलिए हटाने के लिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि वह विधर्मी अहमदिया संप्रदाय से ताल्लुक रखते हैं.
विदेश नीति खंड NSP की पूरी क़वायद का असली मक़सद उजागर करता है : ‘विरोधियों द्वारा लगातार दुष्प्रचार और लोगों को प्रभावित करने के अभियानों (influence operations) के चलते अपनी छवि से जुड़ी किसी अन्यायपूर्ण नकारात्मकता को उलटना है.’ पाकिस्तान के लिए यह सोचना कि उसकी नकारात्मक छवि आतंकवाद में उसकी संलिप्तता और इस्लामी आतंकवादियों को निर्भय होकर काम करने की अनुमति देने की वजह से नहीं, बल्कि दुष्प्रचार की वजह से है, तो यह भुलावे में ही जीना है.
‘इस्लामी गणतंत्र’ ने ‘भारत में [तथाकथित] हिंदुत्व-संचालित राजनीति’ को जम्मू-कश्मीर के लिए गंभीर चिंता का एक और मुद्दा बताया है. इसके अलावा भारत द्वारा हथियारों का जख़ीरा बढ़ाये जाने और उसे अंतरराष्ट्रीय अप्रसार व्यवस्थाओं में दी गयी विशेष छूट से क्षेत्र में रणनीतिक अस्थिरता बढ़ने का वही पुराना रोना-धोना है.
भारत और कश्मीर पर वही पुराना राग
भारत और कश्मीर पर, NSP सात दशकों से चली आ रही नीति पर ही कायम है और इसमें कतई कोई नया तत्व नहीं है. यह उसी स्थापित नीति को दोहराती है : ‘जम्मू और कश्मीर विवाद का एक न्यायपूर्ण और शांतिपूर्ण हल पाकिस्तान के लिए एक अहम राष्ट्रीय सुरक्षा हित बना हुआ है.’ यह इस भूतपूर्व राज्य में संवैधानिक सुधारों को ख़ारिज करती है और ‘नैतिक, कूटनीतिक और राजनीतिक समर्थन’ जारी रखने की पुरानी नीति को ही तोते की तरह रटती है. केवल एक नया तत्व ‘क़ानूनी समर्थन’ का जोड़ा गया है. यह सब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) के प्रस्ताव के तहत आत्म-निर्णय के अधिकार का उद्देश्य पूरा होने तक जारी रहेगा. जैसी उम्मीद थी, भारत के साथ रिश्तों को महज़ ‘जम्मू और कश्मीर विवाद के न्यायपूर्ण और शांतिपूर्ण हल’ पर निर्भर रखा गया है. ‘इस्लामी गणतंत्र’ ने ‘भारत में [तथाकथित] हिंदुत्व-संचालित राजनीति’ को जम्मू-कश्मीर के लिए गंभीर चिंता का एक और मुद्दा बताया है. इसके अलावा भारत द्वारा हथियारों का जख़ीरा बढ़ाये जाने और उसे अंतरराष्ट्रीय अप्रसार व्यवस्थाओं में दी गयी विशेष छूट से क्षेत्र में रणनीतिक अस्थिरता बढ़ने का वही पुराना रोना-धोना है.
प्रतिमान (paradigm) में कोई बदलाव नहीं आया है, इस चीज़ को सबसे बेहतर ढंग से NSP में भारत और जम्मू-कश्मीर से जुड़े हिस्से ज़ाहिर करते हैं. NSP को जारी करने की पूर्व-संध्या पर, मोईद यूसुफ़ ने एक पाकिस्तानी अख़बार को इंटरव्यू दिया और भारत से ‘क्षेत्रीय कनेक्टिविटी से फ़ायदा उठाने के लिए साथ आने’ को कहा. लेकिन उन्होंने इसमें कश्मीर की शर्त जोड़ दी. इससे पहले, एक अनाम अधिकारी ने पत्रकारों से कहा था कि ‘अगर बातचीत होती है और इसमें प्रगति होती है, तो भारत के साथ व्यापारिक और वाणिज्यिक रिश्ते सामान्य होने की एक संभावना बनेगी.’ इसने भारत में बहुतों को NSP पर उत्साहित किया. लेकिन वे इस पर ध्यान देने से चूक गये कि कैसे व्यापार को न महज़ एक बातचीत से, बल्कि उसमें प्रगति को भी व्यापार और वाणिज्य सामान्य किये जा सकने से पहले एक शर्त की तरह जोड़ दिया गया. साफ़ तौर पर यह परवान चढ़ने वाला नहीं है.
NSP साफ़ तौर पर कहती है कि ‘पाकिस्तान खेमेबाजी की राजनीति को कबूल नहीं करता.’ यह अमेरिका के लिए संदेश है कि पाकिस्तान अमेरिका के साथ संबंध बनाये रखना चाहता है, लेकिन चीन या किसी अन्य देश (शायद भारत को छोड़कर) के ख़िलाफ़ अमेरिका की कठपुतली नहीं बनेगा.
बात यह है कि भारत में, उस पुरानी नीति पर बड़ा पुनर्विचार हुआ लगता है जो मानती थी कि पहले व्यापार और वाणिज्य के साधनों के ज़रिये साझा हित विकसित किये जाएं, और फिर उन ज्यादा कंटीले मुद्दों को संबोधित करने की ओर बढ़ा जाए जो द्विपक्षीय संबंधों को प्रभावित करते हैं. जैसा कि चीन के साथ संबंधों में हालिया गिरावट ने प्रदर्शित किया है, यह नीति केवल एक बिंदु तक ही काम करती है. दूसरे शब्दों में, चीन के साथ रिश्तों के नीचे जाते ग्राफ ने सीमा और संप्रभुता के मुद्दों से ग्रसित द्विपक्षीय संबंधों को सामान्य करने में व्यापार, वाणिज्य और अब कनेक्टिविटी की सीमा दिखायी है. अगर चीन से जुड़े अनुभवों के आईने में पाकिस्तान के मामले को देखें, तो ऐसा लगता है कि भारत उस बिंदु तक पहुंच गया है जहां पाकिस्तान जब तक कश्मीर पर अपनी दावेदारी नहीं छोड़ता है, बात आगे बढ़ने की उम्मीद बहुत कम है.
साफ़ तौर पर, अगर जम्मू-कश्मीर भारत के साथ ‘द्विपक्षीय रिश्ते के केंद्र’ में बना रहता है, तो यह एक जहरीला कुआं बना रहेगा. पाकिस्तानी उम्मीद करते हैं कि भारत में नेतृत्व में परिवर्तन – यह बात NSP में नहीं है, लेकिन ऊपर उद्धृत ‘अनाम अधिकारी’ द्वारा कही गयी है- नयी दिल्ली में एक ऐसी व्यवस्था लेकर आयेगा जो इस जहरीले कुएं से पानी पीने के लिए मचलेगी, जैसा कि अतीत में पहले भी कई बार हो चुका है.
अमेरिका और चीन के बीच संतुलन साधने की कोशिश
विदेश नीति खंड कहता है कि चीन के साथ रिश्ते ‘भरोसे और रणनीतिक मेल’ पर आधारित हैं और इनका मज़बूत होना जारी रहेगा. चाइना पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (CPEC) में सामने आ रहे स्वाभाविक जोखिमों के बावजूद, NSP इस प्रोजेक्ट की और तगड़ी हिमायत करती है. इसमें कहा गया है कि CPEC ‘क्षेत्रीय कनेक्टिविटी को पुनर्परिभाषित कर रहा है तथा घरेलू वृद्धि को तेजी देने, ग़रीबी में कमी लाने और क्षेत्रीय कनेक्टिवटी को बेहतर करने की क्षमताओं के साथ पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को गति प्रदान कर रहा है.’ बात यह है कि पाकिस्तान के पास ले-देकर CPEC ही है. वस्तुत: कोई और निवेश नहीं आ रहा है. राजनीतिक, कूटनीतिक, रणनीतिक और आर्थिक रूप से, पाकिस्तान की चीन पर निर्भरता केवल बढ़ी ही है.
अमेरिका को वो अहमियत हासिल नहीं रह गयी है, जो अतीत में थी- इसकी हैसियत घटकर अब ‘शेष विश्व’ के रूप में है और इसका ज़िक्र मध्य-पूर्व और पश्चिम एशिया के नीचे, लेकिन ब्रिटेन एवं यूरोप, और मध्य एशिया एवं रूस के ऊपर है. NSP साफ़ तौर पर कहती है कि ‘पाकिस्तान खेमेबाजी की राजनीति को कबूल नहीं करता.’ यह अमेरिका के लिए संदेश है कि पाकिस्तान अमेरिका के साथ संबंध बनाये रखना चाहता है, लेकिन चीन या किसी अन्य देश (शायद भारत को छोड़कर) के ख़िलाफ़ अमेरिका की कठपुतली नहीं बनेगा. यह स्वीकार करते हुए कि ‘अमेरिका के साथ सहयोग क्षेत्रीय शांति और स्थिरता के लिए बेहद अहम बना रहेगा’, NSP साझेदारी को ‘एक संकीर्ण आतंकवाद-विरोधी फोकस से परे’ विस्तृत करने को प्राथमिकता देती है. बात यह है कि चीन के और भी क़रीब आने के साथ ही साथ, पाकिस्तान का काम अपने व्यापार की दिशा, प्रवासियों, वित्तीय मदद, और वित्तीय जुड़ावों की वजह से अमेरिका और पश्चिम के बिना नहीं चल सकता. कोशिश चीन और अमेरिका के बीच संबंधों को संतुलित करने की है. यह कहने में जितना आसान है करने में उतना नहीं है, ख़ासकर जब अमेरिका और चीन के बीच होड़ बढ़ रही है. पाकिस्तान के सामने चुनौती यह सुनिश्चित करने की होगी कि कहीं उसकी स्थिति आधी छोड़ सारी को धावे, आधी रहे न सारी पावे वाली न हो जाए.
जिन लोकप्रिय शब्दों (buzzwords) की NSP में बौछार है, उनका लक्ष्य पश्चिम के भोलेभाले श्रोताओं को प्रभावित करना है, लेकिन इससे पाकिस्तान की विश्वदृष्टि या उन्मुखीकरण में किसी प्रतिमान परिवर्तन का कोई संकेत नहीं मिलता. शैली में उच्च, लेकिन तत्व में सतही, यह NSP न तो यक़ीन पैदा करने वाली है और न ही अपनी बात मनवाने को विवश करने वाली.
NSP का आखिरी खंड मानव सुरक्षा पर है और यह आबादी, स्वास्थ्य, जलवायु व पानी, खाद्य सुरक्षा जैसे मुद्दों पर बात करता है, और चूंकि यह राजनीतिक रूप से दुरुस्त है, इसलिए लैंगिक सुरक्षा पर भी. लेकिन इस खंड में जो है, उसका ज्यादातर हिस्सा बुनियादी तौर पर स्वीकार्य उसूलों की तरह है. NSP के बजाय, तिलक देवेशर की किताब ‘Pakistan: Courting the Abyss’ में उन चुनौतियों का कहीं ज्यादा व्यापक विश्लेषण है, जिनका सामना पाकिस्तान मानव सुरक्षा के क्षेत्र में कर रहा है.
फीका तमाशा
अंतिम विश्लेषण में, NSP में क़ाबिले तारीफ़ कुछ दिखता नहीं. अधिक से अधिक यह छवि निर्माण की क़वायद का हिस्सा है, जिसका मक़सद यह चित्रित करना है कि ‘पाकिस्तान की वास्तविकता एक ज़िम्मेदार राष्ट्र की है, जो अपनी सीमाओं के भीतर और उससे परे शांति के लिए प्रयत्न करते हुए क्षेत्रीय और वैश्विक गतिविधियों के लिए एक आर्थिक केंद्र की पेशकश करता है.’ जिन लोकप्रिय शब्दों (buzzwords) की NSP में बौछार है, उनका लक्ष्य पश्चिम के भोलेभाले श्रोताओं को प्रभावित करना है, लेकिन इससे पाकिस्तान की विश्वदृष्टि या उन्मुखीकरण में किसी प्रतिमान परिवर्तन का कोई संकेत नहीं मिलता. शैली में उच्च, लेकिन तत्व में सतही, यह NSP न तो यक़ीन पैदा करने वाली है और न ही अपनी बात मनवाने को विवश करने वाली. यह शायद ही कोई गंभीर बहस पैदा करेगी, जिसकी सीधी वजह यह है कि इसमें अतीत से अलगाव का कोई संकेत नहीं दिखता. इससे भी बुरा यह कि, भले ही NSP ‘नयी खड़ी हो रही चुनौतियों से पार पाने और उन्हें अवसर में बदलने’ का आह्वान करती है, लेकिन इस दस्तावेज के इमरान ख़ान शासन के बाद बचे रहने की उम्मीद नहीं है, क्योंकि विपक्षी दलों के लिए इसका कोई इस्तेमाल नहीं है. और इस चर्चा का देखते हुए कि इमरान ख़ान अगले कुछ महीनों में सत्ता से बाहर हो सकते हैं, इस नीति की ज़िंदगी चंद महीनों से ज्यादा नहीं होने जा रही. अंत में, NSP और कुछ नहीं, बस समय और प्रयास की बर्बादी है, उन लोगों के जिन्होंने इसे तैयार किया है, और उससे भी ज्यादा उन लोगों के जो इसे पढ़ रहे हैं.
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