जनवरी 2021 में जो बाइडेन ने अमेरिकी राष्ट्रपति की कुर्सी संभाली तो शुरूआत में उनकी प्राथमिकता ट्रांसअटलांटिक देशों के साथ संबंधों को वापस पटरी पर लाने और उत्तरी अमेरिकी पड़ोसी देशों, ख़ास कर मेक्सिको के साथ पुराने तनाव को भूलकर आगे बढ़ने पर केंद्रित रही. बाइडेन के पूर्ववर्ती सरकार ने अमेरिका के दक्षिणी पड़ोसी देशों के साथ व्यापार और अप्रवासन (इमीग्रेशन) के मामले को लेकर संबंध ख़राब कर लिए थे. जैसा कि पहले ही बताया गया है कि बाइडेन की उत्तरी अमेरिकी देशों और यूरोपीय देशों के राष्ट्राध्यक्षों तक पहुंच बढ़ाने का मक़सद पुराने जख़्मों पर मरहम लगाकर संबंधों की नई सीमा में प्रवेश करना और व्यापार को बढ़ावा देना है. इतना ही नहीं अमेरिका के सहयोगियों को यह भरोसा दिलाना कि वैश्विक पटल पर थोड़े समय के लिए अमेरिका की निष्क्रियता असामान्य है लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि वॉशिंगटन विचारधारा के सिद्धांतों से अमेरिका मुंह मोड़ रहा है.
आसियान क्षेत्र या उत्तरी एशिया के राष्ट्राध्यक्षों तक पहुंच बढाने की किसी कोशिश के बग़ैर भी बाइडेन का ध्यान हमेशा से अपने पूर्ववर्ती की तरह ही हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर केंद्रित था.
एशिया को लेकर ट्रांस-पैसिफ़िक पार्टनरशिप (टीपीपी) ओबामा सरकार की नीतियों की धुरी रही थी क्योंकि तब राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में आक्रामक चीन लगातार आसियान देशों से अपने आर्थिक संबंध बढ़ाने की कोशिशों में जुटा था और दक्षिण चीन सागर (साउथ चाइना सी) में सैन्य संघर्ष के पैदा होने के संकेत मिलने लगे थे.
एशिया को लेकर ट्रांस-पैसिफ़िक पार्टनरशिप (टीपीपी) ओबामा सरकार की नीतियों की धुरी रही थी क्योंकि तब राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में आक्रामक चीन लगातार आसियान देशों से अपने आर्थिक संबंध बढ़ाने की कोशिशों में जुटा था और दक्षिण चीन सागर (साउथ चाइना सी) में सैन्य संघर्ष के पैदा होने के संकेत मिलने लगे थे. पूरे क्षेत्र में चीन की आक्रामकता की तलवार लटकी हुई थी और आसियान की केंद्रीयता की परीक्षा की घड़ी नज़दीक थी. ट्रंप सरकार ने एशिया पैसिफ़िक को लेकर अपनी नीतियों में इसे हिंद-प्रशांत (इंडो-पैसिफ़िक) के रूप में नया नाम दे दिया, जबकि इस क्षेत्र के लिए प्राथमिकताओं ने राष्ट्रपति ट्रंप के व्यापार संरक्षणवादी रवैये के लिए दूसरी भूमिका निभाई और अमेरिका ने टीपीपी जैसे व्यापारिक समझौते से ख़ुद को दूर रखा. हालांकि, ट्रंप सरकार के इस व्यापारिक समझौते से मुकरने के चलते इस क्षेत्र में अमेरिका के लिए एक बड़ी खाई पैदा हो गई. वॉशिंगटन की उदासीनता और बीजिंग की इस क्षेत्र में सैन्य और आर्थिक मज़बूती को बढ़ाने के प्रति आक्रामकता को कई लोगों ने ट्रंप द्वारा ख़ुद गोल करने या इससे भी ख़राब तौर पर परिभाषित किया. यह शायद ऐसा ही था जैसे बिना मैच खेले ट्रंप ने बीजिंग को उसके पाले में मैच बतौर तोहफ़ा दे दिया हो.
क्वॉड और IPEF
टीपीपी को अब ट्रांस-पैसिफ़िक पार्टनरशिप (सीपीटीपीपी) के लिए व्यापक और प्रगतिशील समझौते के रूप में फिर से नामित किया गया है लेकिन इसमें वॉशिंगटन की भूमिका के बिना ही यह आगे बढ़ गया है. इंडो-पैसिफ़िक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क (आईपीईएफ) को टीपीपी के स्थान पर किसी सुधार की प्रक्रिया के तौर पर नहीं देखा जा सकता है, बल्कि निश्चित रूप से यह इस क्षेत्र में अमेरिका की आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने का एक तरीक़ा है. बाइडेन प्रशासन ने इस क्षेत्र को अपनी प्राथमिकता बनाई है और राष्ट्रपति पद संभालने के महज़ 18 महीने के बाद ही अब तक चार बार क्वॉड की सैद्धांतिक स्तर की बैठक आयोजित हो चुकी है, जिसमें बीते सितंबर को वॉशिंगटन में आयोजित इन-पर्सन क्वॉड सम्मेलन और उसके बाद पिछले महीने टोक्यो में आयोजित इन-पर्सन क्वॉड सम्मेलन भी शामिल हैं.
हालांकि, आईपीईएफ क्वॉड का हिस्सा नहीं है, फिर भी बाइडेन ने पिछले महीने ही अपने पहले एशियाई दौरे के दौरान उसकी नींव डाली है. आईपीईएफ कोई व्यापारिक समझौता नहीं है लेकिन व्यापार इसका मुख्य घटक है और इसके साथ सप्लाई चेन को बढ़ावा देना, क्लीन एनर्जी के लक्ष्यों को प्राप्त करना, कार्बन उत्सर्जन में कमी लाना, बुनियादी सुविधाओं का विस्तार करना और टैक्स के साथ-साथ भ्रष्टाचार विरोधी मामले भी शामिल हैं.
हिंद-प्रशांत क्षेत्र के मुद्दों, महत्व और आपसी ध्यान को लेकर आईपीईएफ और क्वॉड सदस्यों की प्रथामिकताओं में एक तरह से गहरा तालमेल है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण ये है कि क्वॉड और आईपीईएफ (IPEF) दोनों ही हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता, नियम आधारित आज़ाद और मुक्त व्यवस्था को सुनिश्चित करने का प्रयास करने में लगे हैं.
चीन क्वॉड को लेकर यह ख़तरा जता चुका है कि यह एशिया का नेटो संगठन बनने जा रहा है और जैसा कि क्वॉड चीन की रणनीतिक हितों पर नकेल कसने और उसकी घेराबंदी करने में जुटा हुआ है, क्वॉड सदस्य देशों द्वारा किए गए साझा युद्धाभ्यास के बावज़ूद इस संगठन के किसी सैन्य समूह के तौर पर विकसित होने की संभावना बेहद कम नज़र आती है. जैसा कि पहले तर्क दिया गया है कि ऑकस, जो ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका के बीच एक त्रिस्तरीय सुरक्षा समझौता है, इसने भी महत्वपूर्ण और उभरती हुई नई प्रौद्योगिकियों, सप्लाई चेन को बढ़ावा देने, स्वच्छ ऊर्जा, बुनियादी ढांचा, वैक्सीन कूटनीति और शैक्षिक भागीदारी जैसे आर्थिक और स्वास्थ्य प्रोत्साहनों पर क्वॉड के फोकस को ही फिर से प्राथमिकता दी है. हिंद-प्रशांत क्षेत्र के मुद्दों, महत्व और आपसी ध्यान को लेकर आईपीईएफ और क्वॉड सदस्यों की प्रथामिकताओं में एक तरह से गहरा तालमेल है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण ये है कि क्वॉड और आईपीईएफ (IPEF) दोनों ही हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता, नियम आधारित आज़ाद और मुक्त व्यवस्था को सुनिश्चित करने का प्रयास करने में लगे हैं.
बीते अक्टूबर पूर्वी एशिया सम्मेलन में अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन ने कहा कि “संयुक्त राज्य अमेरिका भागीदारों के साथ एक हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचे के विकास के मौक़े को तलाशेगा, जो व्यापार सुविधा, डिजिटल अर्थव्यवस्था और प्रौद्योगिकी के मानकों, सप्लाई चेन, कार्बन के उत्सर्जन को कम करने और स्वच्छ ऊर्जा, बुनियादी ढांचे, कार्यकर्ता मानकों और अन्य क्षेत्रों के आसपास हमारे साझा उद्देश्यों को साझा हित के साथ परिभाषित करेगा.” क्वॉड की तरह ही जिसे पहली बार 2004 में हिंद महासागर में आई सूनामी के बाद समुद्री राहत के तौर पर शुरू किया गया था, आईपीईएफ के संगठनात्मक चरित्र को लेकर अभी काफी अस्पष्टता की स्थिति है. हालांकि, एक बात तय है कि व्यापारिक समझौता नहीं होने जा रहा है और भारत के लिए, यह एक स्वागत योग्य बात है.
भारत और IPEF
जब भारत-अमेरिका वाणिज्यिक संबंधों की बात आती है तो व्यापार समझौतों और व्यापार पर संरक्षणवादी रुख़ के प्रति भारत का विरोध इसके बीच आ जाता है. जबकि भारत की जापान के साथ व्यापक आर्थिक साझेदारी है, ऑस्ट्रेलिया के साथ शुरुआती व्यापारिक समझौता है, हालांकि – अमेरिका के साथ व्यापार में आईटी सेवाओं से पोर्क तक के बाज़ार में पहुंच से संबंधित कई तरह की बारीक़ियां शामिल हैं. हालांकि, नवंबर 2021 में ट्रेड पॉलिसी फ़ोरम पोर्क और फलों में आम के मामले में एक सकारात्मक व्यापार का संकेत रहा है फिर भी बाधाएं अभी ख़त्म नहीं हुई हैं, जिसकी वज़ह से पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप ने एक बार तो भारत के लिए “टैरिफ़ किंग” जैसे शब्द का भी प्रयोग किया.
भारत इस खेमे से दूर चला गया, जबकि दूसरे देश क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) के लिए अपनी प्रतिबद्धता जता रहे थे. हालांकि, इस मामले में नकारात्मक शक्ति के रूप में चीन मौज़ूद था. नई दिल्ली की घबराहट यह थी कि यह व्यापार ब्लॉक बीजिंग को इस क्षेत्र के सबसे बड़े व्यापारिक ब्लॉकों पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान करेगा जो बाद में भारत के लिए और अधिक बाधाएं पैदा करेगा. भारत की दूसरी बड़ी चिंता छोटे और मंझोले उद्योग को लेकर थी. भारत को लग रहा था कि जब घरेलू बाज़ार में सस्ते चीनी सामान भर जाएंगे तब भारत के छोटे और मंझोले कारोबारियों के लिए भारी समस्या पैदा होगी, और उनका चीन के सस्ते सामान के आगे टिक पाना आसान नहीं होगा.
भारत की दूसरी बड़ी चिंता छोटे और मंझोले उद्योग को लेकर थी. भारत को लग रहा था कि जब घरेलू बाज़ार में सस्ते चीनी सामान भर जाएंगे तब भारत के छोटे और मंझोले कारोबारियों के लिए भारी समस्या पैदा होगी, और उनका चीन के सस्ते सामान के आगे टिक पाना आसान नहीं होगा.
आरसीईपी (RCEP) और सीपीटीपीपी (CPTPP) की तरह, आईपीईएफ (IPEF) एक मुक्त व्यापार समझौता नहीं है लेकिन मूल टीपीपी समझौते के एवज़ में इस क्षेत्र में बीजिंग के आर्थिक वर्चस्व को कम करने के लिए वॉशिंगटन को इस क्षेत्र में अपनी आर्थिक स्थिति को बेहद मज़बूत करने की ज़रूरत है. कभी-कभी बिना चीन का नाम लिए, क्वॉड को चीन का उल्लेख करने के लिए सबसे बेहतर विकल्प के तौर पर देखा गया है (खुले इंडो-पैसिफ़िक, नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था और चार देशों के बीच साझा लोकतांत्रिक मूल्यों के बदले). इसी तरह, आईपीईएफ को वॉशिंगटन के लिए एक व्यापारिक ब्लॉक बनाए बिना इंडो-पैसिफ़िक ट्रेड ब्लॉक बनाने के विकल्प के तौर पर देखा गया है जो कि व्यापार बाधाओं को कम किए बिना, नई दिल्ली जैसे क्वॉड के सदस्य देशों को अपनी ओर आकर्षित करता है.
चूंकि, आईपीईएफ एक पारंपरिक व्यापार समझौता नहीं है, इसलिए अब तक 14 सदस्य देश इसके हस्ताक्षरकर्ता होने के बावजूद इसकी बुनियादी चार शर्तों को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं. विशेष रूप से व्यापार को लेकर, आईपीईएफ बाज़ार तक पहुंच की प्रतिबद्धताओं को मानने और टैरिफ़ में कमी को लागू करने को लेकर दबाव नहीं बनाएगा जिसे लेकर भारत और अमेरिका का रवैया हमेशा से अलग रहा है. दिलचस्प बात यह है कि आईपीईएफ में सभी चार क्वॉड सदस्य, सात आसियान सदस्य, दक्षिण कोरिया, फिजी और न्यूजीलैंड हैं. जबकि आसीईपी के साथ बहुत अधिक ओवरलैप है, जिसमें आईपीईएफ के सभी सदस्य शामिल हैं, भारत और अमेरिका को छोड़कर इसमें चीन, कंबोडिया, लाओस और म्यांमार भी हैं, जिनमें से चारों IPEF का हिस्सा नहीं हैं. दोनों की तुलना करना वैसा ही है जैसे हम chalk and cheese की तुलना कर रहे हों, क्योंकि वे व्यापारिक ब्लॉक नहीं हैं लेकिन उनके पास क्षेत्रीय आर्थिक प्रभुत्व के लिए प्रतिस्पर्द्धा का वॉशिंगटन-बीजिंग फ़ैक्टर ज़रूर है.
आसियान की केंद्रीयता के लिए ये फिर से परीक्षा का वक़्त है. दक्षिण चीन सागर में बढ़ते गतिरोध के बाद से इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस और वियतनाम में आसियान शक्तियां, जिनकी नौसेना स्प्रैटलिस और पैरासेल्स द्वीपों में चीनी सैन्य विस्तार के विरोध में थी, बीजिंग के आक्रामक रुख़ से बुरी तरह प्रभावित थी. हालांकि, इसे लेकर चुप्पी मुख्य रूप से थाईलैंड से आई थी, जिसकी कुशल शासनकला ने औपनिवेशिक ताक़तों को इस क्षेत्र में वर्चस्व कायम करने से रोक दिया. थाईलैंड चीन को इस क्षेत्र के लिए ख़तरे के रूप में नहीं देखता है और बीजिंग के प्रति बैंकॉक की चिंताएं वॉशिंगटन से बिल्कुल अलग है.
वॉशिंगटन इस बात को समझता है कि इस क्षेत्र के बनने (इंडो-पैसिफ़िक) का मतलब भारत है और अगर इस क्षेत्र में अमेरिकी हितों को ख़तरा पहुंचता है तो वह केवल भारत से ही सहानुभूति के रवैए की उम्मीद रख सकता है, जो चीन के साथ विवादित सीमा वाला एकमात्र क्वॉड सदस्य देश है.
इसके अलावा कंबोडिया, लाओस और म्यांमार भी हैं, जो बीजिंग की आर्थिक नीतियों से प्रभावित हैं और अपनी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में बीजिंग के निवेश के लिए उसका आभार जताते हैं. जो बाइडेन और आईपीईएफ जिस बात को रेखांकित करना चाहते हैं वह चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) को लेकर निवेश के तरीक़ों और कर्ज़ जाल में फंसाने की कूटनीति है, जिसमें किसी देश के बीजिंग के खज़ाने पर निर्भरता को बढ़ाना है, जैसा कि श्रीलंका के हंबनटोटा मामले में देखा गया है. IPEF इसके बदले आर्थिक पारदर्शिता को प्राथमिकता दे रहा है.
चीन की आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस में बढ़ती ताक़त को देखते हुए क्वॉड की तरह ही आईपीईएफ भी डिज़िटल अर्थव्यवस्था के विस्तार की तरफ देख रहा है. यह पार्टनरशिप कोरोना महामारी के चलते बाधित हुई सप्लाई चेन को फिर से पटरी पर लाने और जलवायु को लेकर कार्रवाई करने का प्रयास कर रहा है, क्योंकि चीन अपने सौर निवेश को तीन गुना कर चुका है. इसके अलावा दूसरी वित्तीय प्राथमिकताओं में वित्तीय पारदर्शिता लाना शामिल है, जिससे इस क्षेत्र में उभरते बाज़ारों को ग़लत निवेश, मनी लॉन्ड्रिंग और टैक्स की चोरी जैसे वित्तीय अपराधों से बचाया जा सके.
निष्कर्ष
वॉशिंगटन के लिए नई दिल्ली के साथ उसके संबंध एक विसंगति की तरह हैं, वो भी तब जबकि भारत अमेरिका के बीच कोई संधि नहीं है फिर भी दोनों देशों के बीच गहरी रणनीतिक साझेदारी और न्यूक्लियर समझौते से लेकर सैन्य साझेदारी है. हालांकि, वॉशिंगटन इस बात को समझता है कि इस क्षेत्र के बनने (इंडो-पैसिफ़िक) का मतलब भारत है और अगर इस क्षेत्र में अमेरिकी हितों को ख़तरा पहुंचता है तो वह केवल भारत से ही सहानुभूति के रवैए की उम्मीद रख सकता है, जो चीन के साथ विवादित सीमा वाला एकमात्र क्वॉड सदस्य देश है.
कुछ साल पहले, एक प्रमुख भारतीय राजनयिक ने कहा था कि भारत के बिना ब्रिक्स ऐसा संगठन लगता है जैसे कि इसे अमेरिका (रूस और चीन के साथ) को लक्षित करने के लिए तैयार किया गया हो और भारत के बिना क्वॉड चीन विरोधी (अमेरिका की मज़बूती को देखते हुए) नज़र आता है. भारत भू-राजनीतिक समझौतों के उबाल को शांत करने वाला ठंडे पानी जैसा था.
हालांकि, 2020 में गलवान की घटना ने भारत की ख़ामोशी को आवाज़ दे दी है, ख़ासकर तब जबकि ग्रीक कहावत के मुताबिक, समय आ गया जब बुराई को ख़त्म करने वाली तलवार के चलने की बारी आ गयी है, और इस अलौकिक तलवार के चलाये जाने में मदद करने का भी वक्त़ आ गया है, जो अभी इस समय चीनी विशेषताओं को केंद्र में रखकर कहा जा रहा है, और ये बात उस बिंदु से कही जा रही है जो नई दिल्ली के लिये एक पवित्र और उल्लंघन न किये जानी वाली सीमा है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.