Author : Ramanath Jha

Published on Oct 28, 2023 Updated 0 Hours ago

सामाजिक-आर्थिक विषाक्तता के आधार पर, ध्रुवीकरण के इस्तेमाल के प्रभावों को आंशिक तौर पर कम करने, में ONOE काफी मददगार साबित हो सकता है.

सुशासन के लक्ष्य को पाने में महत्वपूर्ण साबित होगी, “एक राष्ट्र – एक चुनाव” की योजना!

“एक राष्ट्र-एक चुनाव” ONOE नामक विचार, कोई नया विचार नहीं है. हालांकि, यह विषय, 31 अगस्त 2023 को, केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री द्वारा, सदन में पेश किए जाने के बाद, फिर से चर्चा में आ गई है. भारत सरकार (जीओआई) ने सदन में पेश किए जाने के महज़ एक दिन बाद ही, भारत के पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में, एक समिति का गठन करके, पूरे देश में एक ही बार में चुनाव कराए जाने की संभावना पर विचार करने के उद्देश्य की घोषणा कर दी है. इस घोषणा ने समाज के विभिन्न राजनीतिक दलों, शिक्षाविदों, राजनीतिक टिप्पणीकारों, और मीडिया वर्ग के बीच एक लंबे अरसे तक चलने वाली गरमा-गरम  बहस की शुरुआत कर दी, और ये बहस, महिला आरक्षण विधेयक के पेश किए जाने तक, देश भर में चर्चा का विषय बना रहा. ONOE समिति ने विगत 23 सितंबर 2023 को को अपनी पहली बैठक के दौरान देश के तमाम राष्ट्रीय दलों, मान्यता प्राप्त  राज्य स्तरीय  दलों और राज्य सरकार के प्रतिनिधियों को इस विषय पर विचार विमर्श करने, उनकी राय और परामर्श को जानने के लिये, आमंत्रित किया. इस विषय पर केंद्रीय स्तर पर गठित कमेटी द्वारा विधि आयोग से भी उनकी राय मांगी गई है.  

भारत सरकार (जीओआई) ने सदन में पेश किए जाने के महज़ एक दिन बाद ही, भारत के पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में, एक समिति का गठन करके, पूरे देश में एक ही बार में चुनाव कराए जाने की संभावना पर विचार करने के उद्देश्य की घोषणा कर दी है.

इस अवधारणा के तहत, प्रस्तावित मूल विचार यही है कि देश भर में लोकसभा, या संसद के निचली सदन एवं  सभी  राज्य विधानसभाओं के चुनाव, किसी एक खास साल में, एक ही बार में, किसी तय तारीख़ और वक्त़ में कराये जाने का प्रस्ताव है. इस प्रस्तावित, निश्चित चुनावी खिड़की के द्वारा, यह देश में लगातार होने वाले चुनावों की प्रक्रिया को समाप्त करने की कोशिश है. अगर ऐसा होना तय हो गया तो, इस योजना के तहत आयोजित किए जाने वाले राष्ट्रव्यापी चुनावों में देश भर के हज़ारों किलोमीटर के क्षेत्र में फैले कुल 28 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के विधानसभा क्षेत्रों को चुनावों में शामिल किया जाएगा.  

एक राष्ट्र एक चुनाव का प्रावधान 

स्वतंत्र भारत के शुरुआती दशकों में, वर्ष 1952,1957,1962 और 1967 के दौरान समवर्ती चुनाव कराए गए थे. इन वर्षों के दौरान, सभी राज्य विधानसभा चुनाव, संसदीय चुनावों के साथ ही आयोजित किए गए थे. हालांकि, बाद के वर्षों में, राजनीतिक अनिश्चितता, अस्थिरता और अन्य परिस्थितिजनक हालातों की वजह से, यह एकीकृत चक्र ज्य़ादा लंबे वक्त तक नहीं चल पाया. 1968 और 1969 के वर्षों में, कुछ राज्य के विधानसभाओं में समय से पूर्व हुए विघटन की वजह ने, समानांतर चुनावों के इस क्रम को रोक दिया. 1970 में, चौथी लोकसभा भी अपनी समय अवधि पूरा होने से पहले भंग हो गई थी. बढ़ते समय के साथ, मध्याविधि चुनाव खुद ब खुद फैलती जा रही है, जिस वजह से इस प्रकार के मध्याविधि चुनाव लोकतंत्र में एक स्वभाविक परंपरा सी बन गई है.  

संविधान निर्माताओं ने हमेशा से संविधान में ONOE के प्रावधानों को प्राथमिकता देते हुए, देश के भीतर एक साथ चुनाव कराए जाने की परिकल्पना की थी. इसी के आधार पर, साल 2015 में भारत सरकार (जीओआई) ने देश के चुनाव आयोग (ईसी) से पूछा कि क्या एक साथ, एक ही वक्त पर राष्ट्रव्यापी चुनाव कराया जाना संभव है अथवा नहीं? अपने जवाब में, चुनाव आयोग ने चुनाव कराया जाने को पूरी तरह से संभव बताया, परंतु, इसने इससे पहले संविधान और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में कुछ संशोधन की आवश्यकता बतलाई. इसके अलावा, इस बढ़ी हुई मांग की पूर्ति एवं इतने बड़े पैमाने पर देशभर में एकल चुनाव करवाने के लिए चुनाव आयोग को निर्मित एवं आपूर्ति के लिए तैयार इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम मशीन) जैसे संसाधन आदि की आवश्यकता पड़ेगी. इसके साथ ही, देशभर में एक ही वक्त में एक साथ चुनाव कराए जाने की स्थिति में देशभर में कानून और व्यवस्था को नियंत्रित बनाए रखने के लिए, पर्याप्त संख्या में अर्धसैनिक बलों के तैनाती की आवश्यकता पड़ेगी. 

सभी चुनाव एक ही बार और एक ही समय पर करवाए गए होते तो, इस पर आने वाले मद से बचे कोष का बेहतर इस्तेमाल अन्य विकास कार्यक्रमों के लिए किया जा सकता था, जो की आम जनता और उनकी जीवनशैली को और भी बेहतर तरीके से फायदा पहुंचाती.

एक राष्ट्र एक चुनाव के समर्थक, बारह महीने की बिन मौसम चुनाव प्रणाली की वजह से उपजी हुई विभिन्न बुराइयों  की ओर इशारा करते हैं. इस साल भर के चुनाव होते रहने की वजह से, गैर उत्पादक वस्तुओं पर, किए जाने वाले खर्च के लिए सरकारी खजाने खोल दिए जाते हैं. इसीलिए समझा जाता है कि, एक साथ एक ही वक्त पर चुनाव कराए जाने की स्थिति में, इस तरह के अनावश्यक खर्चों को या तो नियंत्रित किया जा सकता अथवा बचा जा सकता है. आज, लोकसभा चुनावों के मद में भारत सरकार (जीओआई) और राज्य विधानसभा के चुनावों में राज्य सरकार, इन चुनावों के आयोजन एवं संचालन का पूरा खर्च वहन करते हैं. सेंटर फ़ोर मीडिया स्टडीज़ द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार, 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय करेंसी में 55,000 करोड़ रुपये या 8 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर खर्च किए गए. उसके बाद हुए अब तक के सभी राज्य चुनावों में भी लगभग इतने ही खर्च किए गए. अगर ये सभी चुनाव एक ही बार और एक ही समय पर करवाए गए होते तो, इस पर आने वाले मद से बचे कोष का बेहतर इस्तेमाल अन्य विकास कार्यक्रमों के लिए किया जा सकता था, जो की आम जनता और उनकी जीवनशैली को और भी बेहतर तरीके से फायदा पहुंचाती. विभिन्न राजनीतिक दलों को ही, अन्य चीज़ों के अलावा, चुनाव अभियानों और विज्ञापनों एवं प्रचार आदि पर खर्च करने के लिए दबाव डाला जाता है. समय के साथ-साथ, ये सारे उपकरण काफी महंगे हो गए हैं, और इस वजह से राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों पर इस मद के खर्च में आने वाले कोष को एकत्र करने के लिए उन्हें विभिन्न दाताओं पर दबाव डालने को विवश होना पड़ता है. इस प्रवृत्ति का प्रभाव शासन, सत्यनिष्ठा और ईमानदारी, तीनों ही संदर्भ में, काफी विषाक्त साबित हुआ है.  

दूसरी महत्वपूर्ण बात, कि साल भर चलते रहने वाली चुनावी गतिविधियों में, सुरक्षा बल, व्यापक अवधि के लिए बंधे रहने को विवश रहते हैं, जिस वजह से, राष्ट्रीय सुरक्षा बनाए रखने, प्रमुख कानून और व्यवस्था स्थितियों के लिए उपलब्ध रहने के उनके बुनियादी एवं प्राथमिक कर्तव्य बुरी तरह से बाधित या प्रभावित होते हैं. तैनाती पर लगाए जाने वाले सुरक्षा बल क्रमश: केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बल, राज्य सशस्त्र बल, होम गार्ड, और ज़िला पुलिस होती है. वर्तमान परिदृश्य में, ये तैनाती बार-बार होती ही रहती है, क्योंकि औसतन हर छह महीनों में दो से पाँच राज्य विधानसभाओं के चुनाव होते ही रहते है. कुछ राज्यों में राजनीति की अस्थिर प्रकृति होने की वजह से, कई दफा विभिन्न चरणों में ये चुनाव, दिनों और हफ्तों में कराए जाते हैं. इसलिए शांति, व्यवस्था बनाए रखते हुए, मतदान करवाए जाने की ज़रूरत के मद्देनज़र भी इतना वक्त लिया जाता है ताकि बड़ी संख्या में तैनात सुरक्षा बलों को एक चुनावी क्षेत्र से दूसरे चुनावी क्षेत्र तक स्थानांतरित करने के लिए पर्याप्त समय मिल सके. अंततः ये जितना थकाऊ सशस्त्र बलों के लिए साबित होता है उतना ही राज्य की शांति और सामान्य जीवन के लिए भी. 

वे लोग जो ONOE के खिलाफ़ हैं, वे वर्तमान संवैधानिक ढांचे की ओर इशारा करते हैं जो इसके अम्लीकरण की अनुमति नहीं देता है. संविधान और चुनावी कानून में कई जटिल संशोधन किए जाने की आवश्यकता है. इसके अलावा, ये राष्ट्रीय संघीय ढांचे को हानि पहुंचाएगा और छोटे एवं राज्य स्तरीय राजनीतिक दलों के विरुद्ध काफी भारी और दबावकारी साबित होंगे. इसके पीछे तर्क ये है कि किसी राज्य विशेष से संबंधित स्थानीय मुद्दों को, राष्ट्रीय और राज्य में होने वाले चुनावों में एक करने की स्थिति में स्वतंत्र तौर पर सांस लेने यानी फलने-फूलने की पर्याप्त जगह नहीं मिलेगी. ऐसी स्थिति में, वहां राष्ट्रीय मुद्दों के हावी होने की स्थिति में, उनके बोझ तले दबकर रह जाएंगे. 

ONOE के विरुद्ध, विरोधियों द्वारा दिए जा रहे तर्कों में भी कुछ योग्यता हो सकती है. हालांकि, ये राय चाहे पक्ष में हो अथवा विरोध में, और साथ ही चंद राजनीतिक दलों के लिए फायदेमंद और बाकियों के लिए नुकसानदायक, इसके  महत्व और परिणाम के निर्णय में निर्णायक भूमिका नहीं बन सकते हैं. ONOE के दोनों पहलुओं को राष्ट्रीय हित और नागरिकों के सम्पूर्ण हित के पैमाने पर मापा जाना चाहिए. इसमें कोई दो राय नहीं है की पिछले कई दशकों से चली आ रही बारहमासी चुनावों के परिणाम, नकारात्मक राष्ट्रीय नतीजों से भरे पड़े हैं. 

सामान्य दैनिक जीवन में से वैमनस्य जनित मुद्दों को बाहर निकाल फेंकने में काफी मदद मिलेगी, जैसी आज की स्थिति में बनी हुई है. इस दिशा में ONOE एक काफी सार्थक एवं कारगर कदम साबित होगी.

बारहमासी चुनावी परंपरा ने देश एवं क्षेत्र की वैविध्य स्वरूप – जाति, भाषा, समुदाय और मतदाताओं के तुष्टीकरण के एक बदतरीन/कुरूप पक्ष को उजागर किया है. क्षेत्र में अपनी पकड़ को बनाए रखने को उत्सुक और चुनावी जीत की तलाश कर रहे राजनीतिक दल, निष्क्रिय और निष्प्राण सामाजिक विभाजनों से फायदा लेने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार बैठे हैं, और कई मामलों में, अपने फायदे के लिए समाज में दरार और मतभेद का बीज बोने में व्यस्त हैं. राष्ट्रीय ताने-बाने के लिए ये काफी नुकसानदायक है और देश के भीतर, एकता का सृजन करने के बजाय कलह और नफ़रत पैदा कर रहे हैं. ऐसी स्थिति में अगर, प्रति पांच वर्षों में समवर्ती चुनाव का आयोजन किया जाये तो ऐसी कोई भी दुष्प्रवृत्ति काफी हद तक निष्प्रभावी रह जाएंगी. इससे सामान्य दैनिक जीवन में से वैमनस्य जनित मुद्दों को बाहर निकाल फेंकने में काफी मदद मिलेगी, जैसी आज की स्थिति में बनी हुई है. इस दिशा में ONOE एक काफी सार्थक एवं कारगर कदम साबित होगी.  

निष्कर्ष

आगामी चुनाव के मौसम में, राजनीति की ज़ुबान में, विषाक्तता के साथ, सुशासन के सिद्धांत का पालन करना, विभिन्न राजनैतिक दलों के लिए बेहद मुश्किल है. विभिन्न सामाजिक समूहों के लिए मुफ़्त उपहारों, लोक लुभावन योजनाओं और विभिन्न पैकेजों की घोषणा, इस ओर इशारा करती है कि राजनीतिक दल, चुनावी हित साधने के लिए किस हद तक जाने को उतारू हैं, और इसके लिए वे किसी भी प्रलोभनों का सहारा लेने से पीछे नहीं हटते. इस तरह की घोषणाओं को करने के पहले, इससे पड़ने वाले सामाजिक और वित्तीय दुष्प्रभावों पर राजनीतिक दलों को बिल्कुल भी कोई कोई चिंता नहीं रहती है न ही उन्हें इन चुनावी वादों को अमल में लाने को लेकर कोई भय होती है. ONOE के अमल में लाए जाने से, कम से कम, राष्ट्रीय हित की कीमत पर वोट पाने के इस अंधे दौड़ को नियंत्रित कर पाने में मदद मिलेगी.  

सामाजिक और वित्तीय दुष्प्रभावों पर राजनीतिक दलों को बिल्कुल भी कोई कोई चिंता नहीं रहती है न ही उन्हें इन चुनावी वादों को अमल में लाने को लेकर कोई भय होती है. ONOE के अमल में लाए जाने से, कम से कम, राष्ट्रीय हित की कीमत पर वोट पाने के इस अंधे दौड़ को नियंत्रित कर पाने में मदद मिलेगी.

चुनाव आयोग की आचार संहिता, सामान्य विकास कार्यों में अवरोध का कार्य करती है. आचार संहिता के लागू होने के उपरांत, कोई भी नये कार्यक्रम की घोषणा नहीं की जा सकती है, और न ही किसी नए संविदा या समझौते या अनुबंध किए जा सकते हैं. नौकरशाही काफी सुरक्षित खेलती है और आचार संहिता के उल्लंघन के भय से, नियमित मसलों पर भी दुकान आदि को बंद करवा देती है. यह देखा गया है कि कई चुनाव, चुनावी आचार संहिता उल्लंघन के भय की वजह से विभिन्न प्रकार के विकास कार्यों को, कई दफे लंबी अवधि के लिए बाधित कर देती है. इन सब वजहों से विकास कार्यों के अम्लीकरण में काफी विलंब हो रहा है, जिससे राज्य और राष्ट्र को एक समृद्ध राष्ट्र बनने की दिशा में कई माह और सालों पीछे रहने को विवश होना पड़ रहा है. 

सारांश में, चुनाव को एक जीवंत लोकतंत्र के उत्सव प्रतीक के तौर पर लिया जाना चाहिए. इसे सामाजिक-आर्थिक विषाक्तता के ध्रुवीकरण में नहीं बदला जाना चाहिए. इस प्रतिकूल प्रभाव को कम करने की दिशा में ONOE काफी हद तक कारगर सिद्ध होगी. 

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