Published on May 23, 2018 Updated 0 Hours ago

यदि मोदी वर्ष 2019 के चुनाव में फि‍र से देश की सत्ता पर काबिज हो जाते हैं, तो हमें पहले से ही उस नींव के बारे में पता है जिस पर नई नीतियां तैयार की जाएंगी। वहीं, दूसरी ओर मोदी यदि वर्ष 2019 में होने वाला चुनाव हार जाते हैं, तो भी ये नीतियां अगली सरकार को ठीक इसी दिशा में आगे बढ़ने के लिए विवश कर देंगी।

नौ आर्थिक नीतियां जो Modi@4 को करती हैं परिभाषित

नरेंद्र मोदी 25 मई, 2018 को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान रहने के चार साल पूरे कर लेंगे। इस लंबी अवधि के दौरान मोदी सरकार ने आर्थिक नीति के मोर्चे पर अनगिनत निर्णय लिए हैं, जिनमें से नौ निर्णय काफी मायने रखते हैं। वित्तीय समावेश से लेकर काले धन की पहचान करने एवं उस पर तगड़ा प्रहार करने और कॉरपोरेट दिवालियापन तक इन आर्थिक नीतियों में शामिल हैं जो पिछले 48 महीनों के दौरान विभिन्‍न परिचर्चाओं में काफी हद तक हावी रही हैं। इनमें से कुछ नीतियां तो अतीत के ही अनूठे आइडिया का विस्तृत रूप हैं। मतलब यह कि इन आइडिया पर पहले से ही काम चल रहा था जिन्‍हें और आगे ले जाया गया है। उदाहरण के लिए, इस तरह की नीतियों में ‘आधार’ या वस्‍तु एवं सेवा कर (जीएसटी) शामिल हैं। वहीं, दूसरी ओर अन्य आर्थिक नीतियां जैसे कि विमुद्रीकरण (नोटबंदी) और दिवाला एवं दिवालियापन संहिता बिल्‍कुल अभिनव आइडिया हैं। कुछ आर्थिक नीतियों जैसे कि जीएसटी के मामले में सरकार को संसद, राज्यों और मीडिया से भरपूर सहयोग मिला। उधर, अन्‍य आर्थिक नीतियों, मुख्‍यत: विमुद्रीकरण (नोटबंदी) के मामले में सरकार को इस तरह का सहयोग नसीब नहीं हुआ। चाहे अच्छी हों या बुरी, ये आर्थिक नीतियां (वर्ष 2014, 2015 एवं 2017 में एक-एक आर्थिक नीति और वर्ष 2016 में छह आर्थिक नीतियां घोषित) मोदी सरकार की आर्थिक सोच की दिशा को परिभाषित करती हैं। यदि मोदी वर्ष 2019 के चुनाव में फि‍र से देश की सत्ता पर काबिज हो जाते हैं, तो हमें पहले से ही उस नींव के बारे में पता है जिस पर नई नीतियां तैयार की जाएंगी। वहीं, दूसरी ओर मोदी यदि वर्ष 2019 में होने वाला चुनाव हार जाते हैं, तो भी ये नीतियां अगली सरकार को ठीक इसी दिशा में आगे बढ़ने के लिए विवश कर देंगी। मोदी ने जिस तरह से ‘आधार’ को मजबूत किया है और ‘मनरेगा’ का विस्‍तार किया है, ठीक उसी तरह से आने वाले समय में भी कुछ ऐसा ही नजर आने की उम्‍मीद है। इस लेख में इन नौ नीतियों का आकलन किया गया है।

वित्तीय समावेश से लेकर काले धन की पहचान करने एवं उस पर तगड़ा प्रहार करने और कॉरपोरेट दिवालियापन तक इन आर्थिक नीतियों में शामिल हैं जो पिछले 48 महीनों के दौरान विभिन्‍न परिचर्चाओं में काफी हद तक हावी रही हैं।

प्रधानमंत्री जन धन योजना

प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान होने के बाद ठीक तीसरे महीने में ही मोदी ने वित्तीय रिकॉर्डों के जश्‍न और राजनीतिक नारों की झड़ी के साथ ‘प्रधानमंत्री जन धन योजना’ का शुभारंभ कर दिया। शीर्ष स्‍तर से ही वित्तीय समावेश सुनिश्चित करने वाली जन धन योजना बैंकिंग सुविधाओं से वंचित भारतवासियों को अपना बैंक खाता खोलने, डेबिट कार्ड प्राप्त करने और बीमा एवं पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं तक अपनी पहुंच बनाने में सहायता करती है। संख्या की दृष्टि से इस योजना ने जितने बड़े पैमाने पर भारत का वित्तीयकरण किया है वैसा इससे पहले कभी भी नहीं देखा गया था। 17 जनवरी 2018 तक 73,690 करोड़ रुपये के कुल बैलेंस के साथ लगभग 310 मिलियन लाभार्थी आंके गए जिनमें से तीन बटा पांचवां हिस्‍सा ग्रामीण क्षेत्रों में था। प्रति खाता 2,377 रुपये का औसत बैलेंस यह दर्शाता है कि न्यूनतम बैलेंस संबंधी आवश्यकता न रहने के बावजूद बैंकिंग सुविधाओं से वंचित भारतीयों ने संगठित वित्‍त की ओर अपना पहला कदम बाकायदा उठा लिया है। वैसे तो आलोचकों ने गोपनीयता और सुरक्षा के मुद्दों को उठाया है, लेकिन आने वाले समय में इन्‍हें सुलझा लिए जाने की पूरी संभावना है। इतना ही नहीं, आधुनिक वित्त तक गरीबों की पहुंच सुनिश्चित हो जाने के फायदों से कोई भी व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता है।

मध्यस्थता एवं सुलह (संशोधन) अधिनियम

अपने कार्यकाल के 19वें महीने में मोदी सरकार ने मध्यस्थता एवं सुलह (संशोधन) अधिनियम (एसीएए) को संसद में पारित कराते हुए एक ऐसा कानून बनाया जिसने वाणिज्यिक विवादों की मध्यस्थता में तेजी ला दी है। यद्यपि कानून का स्‍वरूप भारतीय मध्यस्थता अधिनियम के जरिए वर्ष 1899 तक पुराना है, लेकिन इसका उद्भव और स्वतंत्र भारत की स्थितियों के अनुसार इसका अनुकूलन लंबे समय से जारी है। एसीएए ने विधायी एवं कानूनी खामियों जैसे कि ‘मध्यस्थता से पहले, मध्यस्थता के दौरान और मध्यस्थता के बाद मध्यस्थों के निर्णय पर बैठे न्यायालयों की भूमिका’ को समाप्‍त कर दिया है, जैसा कि मध्यस्थता पर गठित न्यायमूर्ति सराफ कमेटी ने रेखांकित किया था। नए कानून ने हितों के टकराव को भी सुगम बना दिया है और इसके साथ ही मध्यस्थों द्वारा खुलासों को कानून के दायरे में ला दिया है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है: अब सभी मध्यस्थताओं को निश्चित तौर पर 12 महीनों के भीतर समाप्‍त करना होगा। इस तरह मध्यस्थता के मूल उद्देश्य यानी तेज गति अथवा तेजी से निपटान को कानून की शक्ति मिल गई है।

अब सभी मध्यस्थताओं को निश्चित तौर पर 12 महीनों के भीतर समाप्‍त करना होगा। इस तरह मध्यस्थता के मूल उद्देश्य यानी तेज गति अथवा तेजी से निपटान को कानून की शक्ति मिल गई है।

हाइड्रोकार्बन अन्वेषण एवं लाइसेंसिंग नीति

अपने 23वें महीने में मोदी सरकार ने 19 साल पुरानी ‘नई अन्वेषण लाइसेंसिंग नीति (नेल्‍प)’ के स्‍थान पर ‘हाइड्रोकार्बन अन्‍वेषण एवं लाइसेंसिंग नीति (हेल्प)’ पेश करके उसके जरिए ऊर्जा क्षेत्र में सरकार और निजी कंपनियों के बीच कायम गतिरोध के मकड़जाल का सफाया कर दिया। अमल के मामले में ‘हेल्प’ के राजकोषीय मॉडल, जिसके तहत कंपनियों को तेल एवं गैस क्षेत्रों की नीलामी की जाती है, ने राजस्व में हिस्‍सेदारी करने की व्‍यवस्‍था अपनाई है, जबकि नेल्‍प के तहत लाभ में हिस्‍सेदारी की जाती थी और जो इस क्षेत्र में बढ़ते गतिरोध का एक प्रमुख कारण था। इससे कंपनी के खर्चों का सूक्ष्म प्रबंधन करने की जरूरत कम हो जाएगी, जिसकी बदौलत नियामक बोझ के साथ-साथ प्रशासनिक विवेकाधिकार भी घट जाएगा। यही नहीं, नई नीति के तहत हाइड्रोकार्बन के समस्‍त रूपों जैसे कि कोल बेड मि‍थेन, शेल गैस एवं तेल, टाइट (घनी) गैस और गैस हाइड्रेट की खोज एवं उत्पादन के लिए एकसमान लाइसेंस प्रदान किया जाता है। इसने नेल्‍प की हाइड्रोकार्बन-विशिष्ट नीतियों का स्‍थान लिया है, जो एक अच्‍छा कदम है। दरअसल, अक्सर किसी एक प्रकार के हाइड्रोकार्बन की खोज करते समय किसी और प्रकार का हाइड्रोकार्बन मिलता है एवं इसके लिए कंपनियों को पहले एक अलग लाइसेंस लेने की आवश्यकता पड़ती थी। ऐसे में कंपनियों को काफी परेशानी होती थी जो अब दूर हो गई है। यही नहीं, नई नीति से प्राकृतिक गैस के विपणन एवं मूल्य निर्धारण के मामले में अब कहीं अधिक आजादी मिल गई है (कच्चे तेल में इस तरह की आजादी पहले से ही थी)। हालांकि, यह अब भी एक खुला सवाल बना हुआ है कि क्‍या ‘हेल्‍प’ से वह सब कुछ संभव हो जाएगा जिन्‍हें ‘नेल्‍प’ संभव नहीं कर पाई थी।

आधार

26 मार्च, 2016 को मोदी सरकार के कार्यकाल के 23वें महीने में उस ‘आधार’ को मजबूत किया गया, आगे बढ़ाया गया और संस्थागत रूप प्रदान किया गया जिसे जनवरी 2009 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) द्वारा एक ‘पहचान विवरण प्रमाण’ के रूप में लांच किया गया था। एक ऐसे देश में जहां वेतन से लेकर पेंशन तक के बुनियादी लाभ देने के वादों पर चुनाव जीते जाते हैं, वहां यह सुनिश्चित करना कि वे लक्षित लाभार्थियों तक अवश्‍य ही पहुंचें, यह धन वितरण नीतियों के लिए अब भी एक बड़ी चुनौती है। वैसे तो ‘आधार’ से जुड़े कार्यकलाप भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) के तहत ही पूरे किए गए, लेकिन इस निकाय को वैधानिक बुनियाद या स्‍वरूप प्राप्‍त नहीं था। इसे ध्‍यान में रखते हुए मोदी सरकार ने एक प्रस्ताव रखा और संसद ने आधार (वित्तीय एवं अन्य सब्सिडी, लाभों और सेवाओं का लक्षित वितरण) अधिनियम को कानून का रूप प्रदान कर दिया। ‘आधार’ आज भारत की सबसे विश्वसनीय ‘पहचान मुद्रा’ बन गया है और इसका उपयोग टैक्‍स रिटर्न को भरते समय एवं म्यूचुअल फंड जैसे वित्तीय उत्पादों को खरीदते समय किया जाता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली, रोजगार गारंटी योजनाओं, बैंक खातों को खोलने एवं गरीबों को नकद हस्तांतरण जैसे प्रत्यक्ष लाभों को ‘आधार’ से जोड़ने के साथ-साथ इसे विभिन्न अदालतों में चुनौती भी दी गई है और सरकार द्वारा फिंगरप्रिंट एवं आइरिस (आंख की पुतली) स्कैन जैसी व्यक्तिगत जानकारी एकत्रित करने पर आपत्तियां व्‍यक्‍त की गई हैं। वैसे तो इनका निदान किसी-न-किसी तरीके से तो हो ही जाएगा, लेकिन ‘आधार’ में भारत के प्रमुख सॉफ्ट पावर निर्यातों में से एक बनने की अपार क्षमता है।

दिवाला एवं दिवालियापन संहिता

18 मई, 2018 को टाटा स्टील की एक सहायक कंपनी बामनीपाल स्टील ने 35,200 करोड़ रुपये में बीमार कंपनी भूषण स्टील में 72.65 प्रतिशत की नियंत्रणकारी या नियंत्रक हिस्सेदारी हासिल कर ली। वैसे तो कर्नाटक चुनावों से जुड़े हो-हंगामे के कारण यह खबर लोगों का कोई खास ध्‍यान आकर्षित करने में कामयाब नहीं हो पाई, लेकिन यह दिवाला एवं दिवालियापन संहिता (आईबीसी) के तहत सुलझाया गया पहला बड़ा दिवालियापन मामला है। आईबीसी एक नया कानून है जिसे मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के 24वें महीने में प्रस्तावित किया और संसद ने इसे कानून का रूप प्रदान कर दिया। कॉरपोरेट दिवालियेपन के मामलों के समयबद्ध समाधान से जुड़े अपने प्रमुख फोकस के अनुरूप ही यह सौदा क्रोनी पूंजीवाद (कारोबारियों और सरकारी अधिकारियों के बीच सांठगांठ के कारण पक्षपात करना) को समाप्त करने की दिशा में ऐतिहासिक पहला कदम है। विश्व बैंक के मुताबिक, दिवालियापन के मामलों को हल करने के लिए 2016 में आंके गए 2.5 वर्षों के वैश्विक औसत के मुकाबले इस कार्य में जापान में 0.6 साल, सिंगापुर एवं कनाडा में 0.8 साल, अमेरिका में 1.5 साल और चीन में 1.7 साल लगे। वहीं, दूसरी ओर भारत के लिए यह आंकड़ा काफी अधिक रहा : 4.3 साल। आईबीसी का उद्देश्‍य समयबद्ध ढंग से कॉरपोरेट व्यक्तियों, विभिन्‍न व्यक्तियों और साझेदारी फर्मों के पुनर्गठन एवं दिवालियेपन समाधान से संबंधित कानूनों को मजबूत एवं संशोधित करना है, ताकि इस तरह के व्यक्तियों की संपत्ति के मूल्य को अधिकतम किया जा सके। इसका उद्देश्‍य उद्यमिता एवं ऋणों की उपलब्धता को बढ़ावा देने के साथ-साथ सभी हितधारकों के हितों को संतुलित करना भी है। इसके तहत संसद के 10 अधिनियमों में संशोधन किया गया और भारतीय दिवाला एवं दिवालियापन बोर्ड की स्थापना हुई जिसे दिवाला प्रोफेशनलों, दिवाला प्रोफेशनल एजेंसियों और सूचना उपक्रमों पर नियामकीय निरीक्षण का अधिकार प्राप्‍त है। इसी बोर्ड को संहिता पर अमल की जिम्‍मेदारी सौंपी गई है। एक पंक्ति में: यह कानून कारोबारियों को अपने विफल होते व्‍यवसाय से आसानी से बाहर निकालने में मददगार साबित होगा।

आईबीसी का उद्देश्‍य समयबद्ध ढंग से कॉरपोरेट व्यक्तियों, विभिन्‍न व्यक्तियों और साझेदारी फर्मों के पुनर्गठन एवं दिवालियेपन समाधान से संबंधित कानूनों को मजबूत एवं संशोधित करना है, ताकि इस तरह के व्यक्तियों की संपत्ति के मूल्य को अधिकतम किया जा सके। इसका उद्देश्‍य उद्यमिता एवं ऋणों की उपलब्धता को बढ़ावा देने के साथ-साथ सभी हितधारकों के हितों को संतुलित करना भी है।

बेनामी लेन-देन (निषेध) संशोधन अधिनियम

मोदी सरकार के 31वें महीने में संपत्ति में निहित काले धन के खिलाफ बने कानून को और ज्‍यादा कठोर बना दिया गया। ‘बेहिसाब’ एवं कर चोरी वाले धन के खिलाफ भारत की लंबी लड़ाई ‘बेनामी’ लेन-देन के माध्‍यम से जारी है। ‘बेनामी’ लेन-देन के तहत किसी एक व्यक्ति के नाम पर संपत्ति की खरीद की जाती है, लेकिन उसका वित्‍त पोषण किसी दूसरे व्‍यक्ति द्वारा किया जाता है, जो इसे नियंत्रित भी करता है। वर्ष 1988 का बेनामी संपत्ति लेन-देन अधिनियम कमजोर था क्‍योंकि सिविल कोर्ट को कोई अधिकार नहीं था, जब्त संपत्ति को अधिकृत करने के लिए कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं था और किसी भी अपीलीय संरचना को निर्दिष्‍ट नहीं किया गया था। उधर, 1 नवंबर 2016 से प्रभावी बेनामी लेन-देन (निषेध) संशोधन अधिनियम के तहत अधिकारियों को बेनामी संपत्तियों को अनंतिम रूप से कुर्क करने और अंतत: जब्त करने का अधिकार दिया गया है। इसमें एक से सात साल तक जेल की सजा देने और संबंधित संपत्ति के उचित बाजार मूल्य के 25 प्रतिशत तक जुर्माना करने का भी प्रावधान है। अधिनियम के लागू होने के बाद महज छह माह के भीतर ही अधिकारियों ने 400 से भी अधिक बेनामी लेन-देन की पहचान कर ली, जिसमें बैंक खातों में जमा राशि, भूखंड (प्‍लॉट), फ्लैट्स और आभूषण शामिल हैं। इसी तरह 600 करोड़ रुपये से भी अधिक के बाजार मूल्य वाली 240 से भी अधिक संपत्तियों को अनंतिम रूप से कुर्क किया गया।

विमुद्रीकरण (नोटबंदी)

31वें महीने में ही मोदी सरकार की सर्वाधिक विवादास्पद, विघटनकारी और आलोचनात्मक नीति ‘विमुद्रीकरण’ घोषित की गई। 8 नवंबर, 2016 को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में मोदी ने घोषणा की कि 500 रुपये और 1,000 रुपये के करेंसी नोट आधी रात से वैध मुद्रा नहीं माने जाएंगे। उच्च पदों या स्थानों पर व्‍याप्‍त भ्रष्टाचार और अर्थव्यवस्था में व्यापक काले धन को देखते हुए मोदी ने ‘राष्ट्र विरोधी और असामाजिक तत्वों’ के खिलाफ राजनीतिक आक्रोश व्‍यक्‍त किया। इस योजना का एक अन्‍य उद्देश्य सीमा पार से नकली नोटों के आगमन और आतंक के वित्त पोषण पर अंकुश लगाना था। चूंकि इसके चलते देश भर से बड़ी संख्‍या में लोगों एवं छोटे कारोबारियों को हो रही भारी कठिनाइयों की खबरें आने लगीं और 98.96 फीसदी नोट बैंकिंग प्रणाली में वापस आ गए, इसलिए विमुद्रीकरण (नोटबंदी) ने अंतत: भयावह व्यक्तिगत संकट का रूप धारण कर लिया जिसे वित्त मंत्री ने ‘अवास्तविक’ करार दिया। इसके चलते अचल संपत्ति क्षेंत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ, कम मांग के कारण विकास की गति धीमी हो गई, आपूर्ति श्रृंखला बाधित हुई और अनिश्चितता बढ़ गई। यही नहीं, इसके चलते नकदी की दृष्टि से संवेदनशील माने जाने वाले शेयर बाजार के क्षेत्रवार इंडेक्स जैसे कि रियल्टी, फास्ट-मूविंग कंज्यूमर गुड्स और ऑटोमोबाइल में खासी गिरावट दर्ज की गई। इसके साथ ही विमुद्रीकरण ने अनौपचारिक, नकदी पर आधारित अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान पहुंचाया। इस दौरान बड़ी संख्‍या में लोगों को हुई भारी कठिनाई को यदि नजरअंदाज कर दें तो हम पाते हैं कि विमुद्रीकरण ने ‘बेहिसाब या बगैर लेखा-जोखा वाले धन’ को बैंकिंग क्षेत्र में प्रवाहित होने पर विवश कर दिया है, जिस पर करीबी नजर रखी जा सकती है और जिसके बारे में पता लगाया जा रहा है।

उच्च पदों या स्थानों पर व्‍याप्‍त भ्रष्टाचार और अर्थव्यवस्था में व्यापक काले धन को देखते हुए मोदी ने ‘राष्ट्र विरोधी और असामाजिक तत्वों’ के खिलाफ राजनीतिक आक्रोश व्‍यक्‍त किया।

रियल एस्टेट (विनियमन एवं विकास) अधिनियम

मोदी सरकार के 31वें महीने में एक और महत्वपूर्ण नीति लागू की गई जिसके तहत रियल एस्टेट (विनियमन एवं विकास) अधिनियम की शुरुआत हुई। भारत में नीति निर्माण के उल्‍लेखनीय और दुखद विरोधाभासों में से एक विरोधाभास अचल संपत्ति या रियल एस्टेट से जुड़ा हुआ है। मकानों की भारी किल्‍लत एवं विकसित भूमि की कमी से लेकर ‘बेहिसाब’ आमदनी की बदौलत सट्टेबाजों द्वारा संचालित बुलबुले जैसे परिसंपत्ति मूल्‍य और व्यक्तिगत, कॉरपोरेट एवं सरकारी भ्रष्टाचार के एक अधिभावी परितंत्र तक ने नागरिकों को ऐसी ताकतों के भरोसे छोड़ दिया है जो बाजारों में हेर-फेर करती हैं। इस जटिल उद्योग पर निगरानी रखने के लिए एक नियामक की आवश्यकता एक दशक से भी अधिक समय से अटकी पड़ी है। यह मुद्दा इसलिए जटिल बन गया है क्‍योंकि भूमि और उसका विकास एक ‘राज्य विषय’ है। वहीं, दूसरी ओर उपभोक्ता घुमंतू (मोबाइल) हैं, जो बड़ी आसानी से एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवास या पलायन (माइग्रेट) कर रहे हैं। इस कानून के तहत एक नियामक की स्थापना करके इन समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया गया है। नियामक को इस क्षेत्र की निगरानी करने के साथ-साथ एक निर्णयन तंत्र और अपीलीय न्यायाधिकरण के जरिए ‘रियल एस्टेट सेक्टर के उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा’ करने की जिम्‍मेदारी सौंपी गई है। दुर्भाग्यवश, इस कानून को राज्य सरकारों द्वारा लागू करने की आवश्यकता है, जिनमें से अधिकतर राज्‍य सरकारों ने इसे अधिसूचित तो कर दिया है, लेकिन वे उपभोक्ता हितों की रक्षा करने के मसले पर अपने पैर वापस खींच रहे हैं। यदि मोदी ने इसमें नई जान नहीं फूंकी, तो ‘रेरा’ मोदी की सबसे बड़ी नीतिगत विफलता साबित हो सकता है।

वस्तु एवं सेवा कर

मोदी के सबसे बड़े सुधार, सार्वजनिक वित्त पर सर्वाधिक प्रभाव डालने में सक्षम एवं कर चोरी के खिलाफ सबसे मजबूत साधन और स्वतंत्र भारत के इतिहास में यकीनन सबसे जटिल कानून ‘वस्‍तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को उनके कार्यकाल के 39वें महीने में लांच किया गया था। संविधान (101वां संशोधन) अधिनियम के अधिनियमन के जरिए इस नई व्‍यवस्‍था का शुभारंभ संभव हो पाया, जिसके बाद संसद ने चार केंद्रीय कानून बनाए। इसके अलावा, सभी 29 राज्यों ने अपनी-अपनी विधानसभा में संबंधित कानून पारित किए, जबकि केंद्र ने इसे सभी सातों केंद्र शासित प्रदेशों के लिए अधिसूचित किया। जीएसटी ने आठ केंद्रीय करों और नौ राज्य करों का स्‍थान लिया है, लेकिन पांच पेट्रोलियम उत्पादों और मानव उपभोग के काम आने वाली शराब (अल्कोहल) को इसके दायरे से बाहर रखा गया है। 140 अन्य देशों में लागू अप्रत्यक्ष करों के अनुरूप मोदी ने भारत के सबसे लंबे सुधारों में से एक जीएसटी को सफलतापूर्वक लागू कर दिया है। जीएसटी की कहानी तकरीबन तीन दशक पहले वर्ष 1985 में शुरू हुई थी। ढांचागत सुधार लागू हो चुका है, लेकिन इसमें मामूली फेरबदल का सिलसिला जारी रहेगा। हालांकि, इसके कार्यान्वयन, विशेष कर इसकी लांचिंग के शुरुआती चरण में छोटे उद्यमों पर भारी-भरकम अनुपालन बोझ को लेकर आलोचना अनावश्यक एवं नौकरशाही से जुड़ी थी और सोच-समझ कर ऐसा कुछ नहीं किया गया था।

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