तालिबान के एक के बाद एक, प्रांतों और शहरों पर कब्ज़ा करने के साथ अफ़ग़ान संकट का एक नया चेहरा सामने आया. काबुल पर नियंत्रण के बाद यह प्रचार की एक बड़ी जंग में तब्दील हो गया. इस सिलसिले में यह जानना दिलचस्प है कि इस्लामिक स्टेट (आईएस), अलकायदा और दूसरे जिहादी संगठनों की तरह तालिबान पारंपरिक और सोशल मीडिया का इस्तेमाल नहीं करता. इसकी वजह यह है कि वह इन संगठनों की तरह चोरी-छिपे ऑपरेट नहीं करता. तालिबान तो हर उस माध्यम का इस्तेमाल करता है, जिससे उसकी बात अफ़ग़ानों के साथ दुनिया तक पहुंचे.
तालिबान की दुंदुभी का अर्थ
अफ़ग़ानिस्तान में एक बड़ा वर्ग ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है. लोग कबीलों में बंटे हुए हैं. आबादी का बड़ा हिस्सा पढ़ा-लिखा भी नहीं है. ना ही इंटरनेट से ज़्यादा लोग जुड़े हैं (वैसे साल 2000 की शुरुआत से इस मामले में स्थिति बदली है). इसलिए तालिबान अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए एक साथ आज के दौर की और पुरानी रणनीति दोनों पर चल रहा है. तालिबान वर्षों से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए ‘रात की चिट्ठियों’ या शबनामा का इस्तेमाल करता आया है. इसमें संदेश कागज़ पर लिखा होता है. उसे कोई तालिबान प्रतिनिधि रात को किसी गांव में ले जाता है या किसी समूह तक उसे पहुंचाया जाता है या स्थानीय मस्जिद की दीवारों पर उसे चिपकाया जाता है. अमूमन उसमें लिखा होता है कि अमुक शख्स या लोग अगर उसकी बात नहीं मानते तो अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहें. सोवियत संघ के ख़िलाफ मुजाहिदीनों के युद्ध के दौरान इन चिट्ठियों का चलन बढ़ा था. इनमें लोककथाओं, कविताओं और कई बार संगीत को थीम बनाकर संदेश पहुंचाए जाते हैं. मकसद होता है स्थानीय समुदायों को डराकर उन पर अपना नियंत्रण स्थापित करना.\
सोवियत संघ के ख़िलाफ मुजाहिदीनों के युद्ध के दौरान इन चिट्ठियों का चलन बढ़ा था. इनमें लोककथाओं, कविताओं और कई बार संगीत को थीम बनाकर संदेश पहुंचाए जाते हैं. मकसद होता है स्थानीय समुदायों को डराकर उन पर अपना नियंत्रण स्थापित करना.
शोधकर्ता टॉमस एच जॉनसन ने बताया है कि अफ़ग़ानिस्तान में ऐतिहासिक तौर पर यह तरीका लोगों को गोलबंद करने का महत्वपूर्ण ज़रिया रहा है. चाहे यह गोलबंदी शांति की खातिर करनी हो या हिंसक मकसद के लिए. याद रखिए कि 2021 इंटरनेट और हाइपर-कम्युनिकेशन का साल है. फिर भी कबीलाई और ग्रामीण इलाकों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए तालिबान की खातिर शबनामा आजमाया हुआ और असरदार माध्यम बना हुआ है. खासतौर पर अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद जिस तेजी से उसने वहां कई इलाकों को अपने नियंत्रण में लिया है, उसे देखते हुए.
आधुनिक विद्रोही और आतंकवादी संगठनों की तरह ही तालिबान के लिए हथियार के बाद संवाद और प्रचार दूसरा महत्वपूर्ण अस्त्र है. यह बात सच है कि अफ़ग़ानिस्तान में आबादी का बड़ा हिस्सा स्मार्टफोन के जरिये इंटरनेट तक पहुंच नहीं रखता, लेकिन वहां काफी लोग हैं, जो व्हाट्सएप, टेलीग्राम जैसी मेसेजिंग सेवाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं. इसलिए ऑनलाइन माध्यमों से उसे प्रोपेगेंडा करने में बहुत मदद नहीं मिलेगी. विश्व बैंक के मुताबिक साल 2000 में अफ़ग़ानिस्तान में शून्य फीसदी लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे थे, जबकि 2018 में यहां 11.5 प्रतिशत लोगों की पहुंच इंटरनेट तक हो गई थी. दक्षिण अफ़ग़ानिस्तान के शहर कंधार पर जब तालिबान ने नियंत्रण किया, तब लोकल लोगों के लिए फेसबुक स्थानीय सूचनाओं को हासिल करने के लिए अहम ज़रिया बन गया. ये लोग लड़ाई के दौरान घरों में छिपे हुए थे और उसके ख़त्म होने का इंतज़ार कर रहे थे. आईएस, अलकायदा और तालिबान जिस तरह से इंटरनेट और दूसरे ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों का इस्तेमाल कर सकते हैं, उसमें भी काफी फर्क़है.
शबनामा जैसे ज़रियों के साथ ऑनलाइन प्रोपेगेंडा की ओर तालिबान बढ़ा है, लेकिन इस मामले में उसे आम लोगों के विरोध का भी सामना करना पड़ रहा है. तालिबान का जैसे-जैसे अफ़ग़ानिस्तान में नए इलाकों पर कब्ज़ा बढ़ा, उसने सोशल मीडिया और सड़कों पर अल्ला-हू-अकबर यानी अल्लाह महान हैं का नारा लगाया. हजारों की संख्या में अफ़ग़ानियों ने इसका विरोध किया. उनका विरोध ट्विटर, फेसबुक, टेलीग्राम और यहां तक इंस्टाग्राम (इसमें खासतौर पर दूसरे देशों में रहने वाले अफ़ग़ानियों की भूमिका रही) पर ट्रेंड करने लगा. आम अफ़ग़ानियों के इस विरोध को तालिबान के ख़िलाफ प्रतिरोध बताया जा रहा है, लेकिन जहां तक तालिबान के इतिहास की बात है, इसका अलग ही मतलब है.
बताया जाता है कि सोवियत संघ के सैनिकों से जब मुजाहिदीनों का युद्ध चल रहा था, तब काबुल सहित गांवों और शहरों तक लड़ाके अपनी बात पहुंचाने के लिए शबनामा का इस्तेमाल करते थे. उस वक्त उन चिट्ठियों को लेने के लिए लोग रात को अपने घरों की छतों पर खड़े होकर ‘अल्लाह-हू-अकबर’ का नारा लगाते. इस तरह से वे धर्मनिरपेक्ष कम्युनिस्टों के ख़िलाफ अपने विरोध की अभिव्यक्ति करते थे. 2021 में इस नारे का इस्तेमाल अफ़ग़ानिस्तान में वे भी कर रहे हैं, जो तालिबान के ख़िलाफ हैं. वे सोशल मीडिया पर तालिबान के ख़िलाफ विरोध जताने के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं. यह बात तालिबान को नागवार गुजरी. वह इस कदर भड़का कि उसने ट्विटर पर अपने आधिकारिक प्रवक्ता के जरिये एक बयान जारी किया. इस बयान में कहा गया कि ‘अल्लाह-हू-अकबर’ का मुजाहिदीनों ने नारे के तौर पर इस्तेमाल किया था, यह नारा ‘अमेरिकी गुलामों और धर्मनिरेपक्षतावादियों’ के लिए नहीं है.
शबनामा जैसे ज़रियों के साथ ऑनलाइन प्रोपेगेंडा की ओर तालिबान बढ़ा है, लेकिन इस मामले में उसे आम लोगों के विरोध का भी सामना करना पड़ रहा है. तालिबान का जैसे-जैसे अफ़ग़ानिस्तान में नए इलाकों पर कब्ज़ा बढ़ा, उसने सोशल मीडिया और सड़कों पर अल्ला-हू-अकबर यानी अल्लाह महान हैं का नारा लगाया.
1980 के दशक में जब मुजाहिदीन इस नारे का प्रयोग करते थे, तब दुनिया में इंटरनेट का विस्तार नहीं हुआ था. इसलिए उसके बारे में बाहरी लोगों को बहुत पता नहीं था. वहीं, आज सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के कारण इस नारे का इस्तेमाल जब तालिबान के ख़िलाफ किया गया तो वह दुनिया भर में सुर्खियां बना. तालिबान ने 2005-06 में पहली बार डिजिटल माध्यम का इस्तेमाल शुरू किया था. तब उसकी वेबसाइट अलेमारा का एक हिस्सा ऑनलाइन हुआ था. आज इस वेबसाइट और इस पर मौजूद कंटेंट दारी, पश्तो और अंग्रेजी भाषाओं में हैं. तालिबान के ज्यादातर आधिकारिक और अर्ध-आधिकारिक सोशल मीडिया हैंडलों से पोस्ट भी इन्हीं भाषाओं में किए जाते हैं.
सोशल मीडिया पर तालिबान की व्यापक मौजूदगी
इन हैंडलों को या तो तालिबान चलाता है या ये उसके समर्थन में चलाए जा रहे हैं. सोशल मीडिया पर तालिबान की व्यापक मौजूदगी है. वह सबसे अधिक ट्विटर का इस्तेमाल करता है. यहां यह बात याद रखनी ज़रूरी है कि अमेरिका ने आधिकारिक रूप से तालिबान को आतंकवादी संगठन घोषित नहीं किया है. इसलिए वह बिना किसी डर के पश्चिमी सोशल मीडिया माध्यमों का इस्तेमाल कर सकता है. इसीलिए तालिबान अपनी वेबसाइट अलेमारा को सैन फ्रांसिस्को की ऑनलाइन सर्विस प्रोवाइडर क्लाउडफ्लेयर के ज़रिये होस्ट कर पाया है.
सोशल मीडिया पर तालिबान की मौजूदगी तीन लोगों के ज़रिये है. इनमें पहला है जैबुल्लाह मुजाहिद, जो ‘इस्लामिक अमीरात’ का प्रवक्ता है. ट्विटर पर मुजाहिद के 2.55 लाख से अधिक फॉलोअर्स हैं. दूसरे शख्स का नाम डॉ. एम नईम है, जो कतर के दोहा में तालिबान के पॉलिटिकल ऑफिस का प्रवक्ता है. ट्विटर पर उसके 1.78 लाख फॉलोअर्स हैं. तीसरे शख्स का नाम है सुहैल शाहीन, जो विदेशी मीडिया के लिए तालिबान का प्रभारी है. शाहीन के करीब 3 लाख फॉलोअर्स हैं. तीनों के करीब 8 लाख फॉलोअर्स हैं और वे तालिबान का आधिकारिक रुख ट्विटर के जरिये दुनिया तक पहुंचाते हैं.
तालिबान ने अमेरिका और दूसरे देशों के साथ अफ़ग़ानिस्तान में राजनीतिक सुलह के लिए वार्ता की. इसलिए ट्विटर ने एक प्लेटफॉर्म के रूप में क़ानूनन तालिबान को अपनी बात कहने का अधिकार दिया है तो उसमें कुछ अवैध नहीं है. इस मामले को लेकर उस पर कोई रोक नहीं है. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि तालिबान ने बड़े पैमाने पर ज़ुल्फ और हत्याएं की हैं. ऐसे में क्या एक प्लेटफॉर्म के रूप में ट्विटर की यह नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह तालिबान को अपनी बात दुनिया तक पहुंचाने से रोके. आख़िर यह संगठन ज़मीन पर हिंसक गतिविधियों में शामिल है. ऐसे में क्या ट्विटर को उसे प्रतिबंधित नहीं करना चाहिए?
पिछले एक महीने में तालिबान ने सोशल मीडिया पर जो प्रचार किया है, मुख्यधारा के मीडिया ने उसकी स्वतंत्र रूप से पुष्टि किए बिना अपनाया और आगे बढ़ाया है. आमतौर पर खबरों की सच्चाई को लेकर जिस तरह की पड़ताल की जाती है, वह इन मामलों में नहीं की गई. इस दौरान अफ़ग़ानिस्तान सरकार के आधिकारिक हैंडल से तालिबान के दावों पर जो सवाल उठाए जा रहे थे, उन्हें मीडिया ने उतनी प्रमुखता नहीं दी. इसके बजाय तालिबान समर्थक रुख और दावों का अधिक प्रचार किया गया. पहले जैबुल्लाह मुजाहिद एक दिन में दो से तीन ट्वीट करता था. अब तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान के बड़े हिस्से पर कब्जा होने के बाद इन एकाउंट्स से रोज करीब 50 ट्वीट हो रहे हैं. इन सूचनाओं को मुख्यधारा का मीडिया हाथोंहाथ ले रहा है.
क्या एक प्लेटफॉर्म के रूप में ट्विटर की यह नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह तालिबान को अपनी बात दुनिया तक पहुंचाने से रोके. आख़िर यह संगठन ज़मीन पर हिंसक गतिविधियों में शामिल है. ऐसे में क्या ट्विटर को उसे प्रतिबंधित नहीं करना चाहिए?
अब ज़रा एक शोध पर नज़र डालते हैं, जिसे सितंबर 2020 में हजरत एम बहार ने इस संकट से महीनों पहले प्रकाशित किया था. इसमें बताया गया था कि जैबुल्लाह मुजाहिद के ट्विटर एकाउंट और अफ़ग़ान के रक्षा मंत्रालय के ट्विटर एकाउंट से रोज औसतन 13-15 ट्वीट किए जाते हैं. जुलाई 2021 की तुलना में कम से कम तालिबान के लिए यह संख्या बहुत कम थी. अफ़ग़ानिस्तान में जिस तेजी से तालिबान ने अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों को बढ़ाया है, उससे लोग हैरान हैं. इस वजह से उसके विमर्श को पारंपरिक माध्यमों से जितना प्रचार मिल रहा है, उसी तरह से ऑनलाइन माध्यमों में भी हो रहा है. जिस देश में संघर्ष चल रहा हो, वहां ऑनलाइन माध्यमों से किए जा रहे दुष्प्रचार का रियल टाइम बेसिस पर जवाब देना आधिकारिक सरकारी हैंडलों और फैक्ट चेक करने वालों के लिए मुश्किल होता है.
वैधता का प्रश्न
इस बात को समझने के लिए एक और घटना की तरफ आपका ध्यान दिलाते हैं. जब काबुल में राष्ट्रपति भवन पर कब्जे के बाद उसके अंदर तालिबानों की मौजूदगी की पहली तस्वीरें सामने आईं, तो उसमें जितने लोग हथियार लिए दिख रहे थे, उतने ही तालिबान लड़ाके स्मार्टफोन और वीडियो कैमरे के साथ वहां मौजूद थे. तालिबान के फिर से उभार के वक्त अफ़ग़ानिस्तान में हर किसी के हाथ में स्मार्टफोन है, भले ही इंटरनेट कनेक्टिविटी यहां कम है. आप इसे आज के दौर का एक सच मान सकते हैं. ऐसे में क्लाश्निकोव के साथ क्लिक भी आधुनिक युद्ध, आतंकवाद, हिंसक गतिविधियां भी भविष्य के युद्ध का हिस्सा बन चुके हैं. इस सिलसिले में मार्टिन वान बिजर्ट कहते हैं कि, ‘ऐसा लगता है कि जहां भी तालिबान नए इलाकों पर कब्ज़ा कर रहे थे, उनके साथ उनकी मीडिया टीम भी चल रही थी.\
ऐसा लगता है कि जहां भी तालिबान नए इलाकों पर कब्ज़ा कर रहे थे, उनके साथ उनकी मीडिया टीम भी चल रही थी. यह काम सोच-समझकर किया जा रहा था और यह उनकी मीडिया इंगेजमेंट स्ट्रैटिजी का हिस्सा था.
यह काम सोच-समझकर किया जा रहा था और यह उनकी मीडिया इंगेजमेंट स्ट्रैटिजी का हिस्सा था.’ तालिबान की तरफ से जो फुटेज जारी किए जा रहे हैं, उनमें एक संदेश छिपा है. संदेश क़ानून-व्यवस्था को लेकर है लेकिन इसका मकसद लोगों को आश्वस्त करने के साथ आतंकित करना भी है.’ दोहा शांति वार्ता के कारण ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों पर तालिबान को एक वैधता मिली. लेकिन इसकी हिंसक गतिविधियां सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को लेकर कई सवाल खड़े करती हैं, जिनके पास अपनी आतंकवाद विरोधी नीतियां हैं. आख़िर ये इन नीतियों का इस्तेमाल तालिबान के ख़िलाफ क्यों नहीं कर रहे? कई बार राजनीतिक रणनीति या किसी देश की विदेश नीति के तहत किसी विद्रोही या आतंकवादी संगठन को वैधता देनी पड़ती है, लेकिन क्या इस आधार पर उसे डिजिटल वैधता भी दी जा सकती है? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिस पर बहस होनी चाहिए.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.