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पुराना शहरी कुलीन वर्ग नेहरूवादी संरक्षण प्रणाली का फायदा उठाता था, इस वर्ग में ज्य़ादातर लोग सामाजिक और आर्थिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों से जुड़े हुए थे.
भविष्य में भारत की दिशा पर प्रभाव डालने वाले चार बड़े मंथन साफ दिखाई पड़ रहे हैं.
17वीं लोकसभा के लिए हुआ चुनाव दुनिया की बड़ी लोकतांत्रिक प्रक्रिया थी जिसमें 90 करोड़ मतदाताओं, 2293 राजनीतिक दलों और 8000 से ज्यादा प्रत्याशियों ने लोकसभा की 543 सीटों के लिए निर्वाचन प्रक्रिया में हिस्सा लिया. चुनाव बीत जाने के बाद अब – वो समय सामने है जब हम देश, ख़ासतौर पर हिंदू समाज, और शासन व्यवस्था में खलबली मचा रहे प्रमुख़ सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर विचार-विमर्श करें. आने वाले समय में भारत – जो दुनिया का सबसे अधिक विविधता वाला देश है और जहां हजारों जातियों, समुदायों और जनजातियों की अपनी अलग-अलग चिंताएं तथा अपेक्षाएं हैं – उनपर दीर्घकालिक प्रभाव डालने वाले चार प्रमुख मंथन साफ दिखाई पड़ रहे हैं. सफल राजनीतिक दल वही माना जा सकता है जो इस विविधतापूर्ण आबादी को एक साथ संयोजित कर सके. सामान्यतः उसी पार्टी को सरकार बनाने के लिए संसद में सर्वाधिक सीटें मिलती हैं जो समाज के विभिन्न वर्गों को अपने साथ जोड़ने में सफल रहती है.
सामाजिक परिस्थितियों के आधार पर किसी समाज में राजनीतिक शक्ति में भागीदारी की कई समानताएं हो सकती हैं.
स्वतंत्रता के बाद केवल कांग्रेस पार्टी ही ऐसी थी जिसने सबको एक साथ जोड़ने की भूमिका का सफलतापूर्वक निर्वाह किया था. कांग्रेस ने एक ऐसी व्यवस्था का विकास किया था जिसमें विभिन्न जातियों के लोगों के साथ ही कमजोर वर्गों के लोगों को भी सांकेतिक प्रतिनिधित्व मिल जाता था. सत्ता की सामाजिक संरचना सरल थी; नौकरशाही और संस्थागत सत्ता शहरी सवर्णों के कब्ज़े में रही और कृषि प्रधान ग्रामीण इलाकों में स्थानीय प्रमुख़ जातियों के सामंती तत्वों के साथ गठबंधन के सहारे लंबे समय तक उसका शासन चलता रहा. इसी के साथ पूरक रूप में गरीबों के लिए कल्याण योजनाएं और आरक्षण नीति के माध्यम से दलित और आदिवासी आबादी को सांकेतिक प्रतिनिधित्व मिलता रहा. धर्मनिरपेक्षता की घोषित प्रतिबद्धता के साथ आजादी के बाद के हालात में कम से कम सुरक्षा के आश्वासन के कारण उसे मुस्लिम वोट भी मिलते रहे. सबको साथ लेकर चलने या लोक सहयोजन के इस मॉडल ने दशकों तक अच्छा काम किया, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह सामाजिक रूप से उपलब्ध सर्वोत्तम मॉडल भी है. सामाजिक परिस्थितियों के आधार पर किसी समाज में राजनीतिक शक्ति में भागीदारी के लिए कई समानाताएं ज़िम्मेदार हो सकती हैं.
सत्ता के सामाजिक संतुलन के इस कांग्रेसी नमूने को कई चुनौतियां भी मिलीं – ख़ासतौर पर हिंदी हृदय प्रदेशों में समाजवादी विचारधारा के प्रसार से, अंबेडकरवादियों या बहुजन के आख़्यान के साथ दलितों के राजनीतिक उभार से, दक्षिण में द्रविड़ राजनीति तथा बंगाल और केरल में वाम राजनीति के प्रभावी होने से. लेकिन ये सभी अखिल-भारतीय स्तर पर मुख्य सहयोजक के रूप में नहीं उभर सके. वे बस अपने लिए क्षेत्रीय स्तर पर एक सुरक्षित स्थान बनाने में सफल हुईं या फिर एक या दो जातियों अथवा समुदायों की पार्टी के रूप में सीमित रह गईं.
लेकिन, नरेंद्र मोदी के उदय ने बीजेपी को सोशल इंजीनियरिंग के नए युग में पहुंचा दिया, जहां बीजेपी ने भारतीय राजनीति में मुख्य़ सहयोजक शक्ति के रूप में कांग्रेस का स्थान ले लिया. पहले 2014 में और अब 2019 में बीजेपी विभिन्न हिंदू जातियों के साथ गठबंधन करने में सफल रही, जिसे अब हिंदू मतों का संयुक्त जाति फ़लक (यूनाइटेड स्पेक्ट्रम ऑफ हिंदू वोट्स या यूएसएचवी) नाम से जाना जाता है. पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने एक-एक ज़िले में सूक्ष्म जातीय गठबंधनों के लिए जितनी मेहनत की है, वैसा भारत के राजनीतिक इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया. और, जब कांग्रेस अपने धर्म-निरपेक्षतावाद और गरीबी से लड़ने वाली नीतियों के व्यापक आख्य़ान के तहत काम कर रही थी, उसी समय भारतीय जनता पार्टी यह सिद्ध कर रही थी कि चुनाव हिंदुत्व की छत्रछाया और विकास के आंकाक्षावादी एजेंडे के साथ भी लड़े और जीते जा सकते हैं. साल 2014 का चुनाव ऐसा पहला चुनाव था जिसमें भारत को राजनीति और शासन के कांग्रेसी मिसाल का विकल्प मिला और ऐसा लगता है कि यह भारत के लिए नया सामान्य बनने जा रहा है.
नरेंद्र मोदी के उदय ने बीजेपी को सोशल इंजीनियरिंग के नए युग में पहुंचा दिया जहां भाजपा ने भारतीय राजनीति में मुख्य सहयोजक शक्ति के रूप में कांग्रेस का स्थान ले लिया. पहले 2014 में और अब 2019 में भाजपा उन विभिन्न हिंदू जातियों के साथ गठबंधन करने में सफल रही जिसे अब हिंदू मतों का संयुक्त वर्णफलक (यूनाइटेड स्पेक्ट्रम ऑफ हिंदू वोट्स या यूएसएचवी) के नाम से जाना जाता है.
दूसरी बात यह है कि पुराने और नए शहरी वर्ग के बीच संघर्ष तेज़ हो रहा है. पुराना शहरी कुलीन वर्ग नेहरूवादी संरक्षण प्रणाली का फायदा उठाता था और सार्वजनिक विमर्श और नीति निर्माण पर असंगत प्रभाव डालता था. इस वर्ग में ज्य़ादातर लोग सामाजिक और आर्थिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों से सम्बद्ध थे. दूसरी ओर, नया या नव शहरी वर्ग ज्य़ादातर आर्थिक सुधारों का उत्पाद है, जो छोटे शहरों और गांवों की मध्यम वर्गीय आबादी से आया है. इस वर्ग को मुख्यतः धर्म, राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता के मुद्दों पर पुराने शहरी कुलीन वर्गों के साथ तीव्र मतभेदों के कारण शिक्षा जगत, संस्थानों, मीडिया और नीति-निर्माण में उनकी दख़ल से नाराज़गी रही है. नए शहरी वर्ग की चिंताएं एवं आकांक्षाएं विश्व नागरिक बनने से ज्य़ादा स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित रही हैं. वे किसी निश्चित जगह से जुड़ना चाहते हैं न कि विश्व भर में कहीं से.
नए शहरी वर्ग का उस अंतर्राष्ट्रीय वामपंथ से भी कोई सरोकार नहीं है, जिसकी मंज़ूरी पुराना शहरी कुलीन वर्ग हमेशा चाहता था. भारत के भविष्य को लेकर दोनों के नज़रिये में बुनियादी अंतर था, पर दोनों के बीच टकराव होना ही था. लेकिन, बदलाव की असली वजह सोशल मीडिया बना, जिसने नए शहरी वर्ग को आवाज़ देने के साथ-साथ समान विचारधारा वाले लोगों से जुड़ने और खुद को व्यवस्थित करने का साधन उपलब्ध कराया. सोशल मीडिया की प्रभावशाली मौजूदगी और संचार के नए साधनों पर भरोसा करते हुए नए शहरी वर्ग ने पुराने आख्यान को बदल दिया. इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के रक्षकों और विद्वानों को पता भी नहीं चल पाया कि कब उनके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई. नोएडा और लोधी रोड के बीच के इस आख्यान-युद्ध में ऐसा लगता है कि नोएडा बढ़त ले चुका है.
तीसरी, बात यह है कि देश के हिंदू समाज के भीतर परिवर्तन का लालच और विकास और आधुनिकता की इच्छा तो भरपूर है, लेकिन यह सब कुछ उसे भारतीय सभ्यता के लोकाचार या जिसे हम “हिंदू आधुनिकता” कह सकते हैं के भीतर चाहिए. हर जगह लोग पुराने सामाजिक ढांचों को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि वे अपने वर्तमान से असंतुष्ट हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि उन्हें किस चीज की तलाश है. लोगों में आधुनिक दुनिया जैसा बनने की इच्छा है. किंतु, ज्यादा से ज्यादा लोग पश्चिमी संस्कृति की श्रेष्ठता के विचार को अस्वीकार करते हुए भी स्पष्ट रूप से नहीं जानते कि यह नई आधुनिकता किन-किन उच्च बिंदुओं से होकर गुज़रेगी. हमारे पास पश्चिमी जगत और जापान के अलावा आधुनिकता का कोई दूसरा मॉडल नहीं है. और, भारत अपने आप में दीपांकर गुप्ता के सुझाए ‘आधुनिकता के भ्रम’ का शास्त्रीय उदाहरण है. लोगों को इस बात का अहसास कम ही है कि आधुनिकता का अर्थ स्मार्टफोन, फेसबुक या नवीनतम कारें चलाना नहीं है. आधुनिकता का संदर्भ अनिवार्य रूप से लोग हैं; सामाजिक संरचनाएं, लैंगिक संबंध और राजनीतिक व्यवस्था जैसी बातें हैं. हिंदू राष्ट्रवादियों के बीच भी ‘हिंदू आधुनिकता’ बहुत ही विवादित मुद्दा है और वे इस सवाल से जूझ रहे हैं कि अंततः पूरे सामाजिक ढांचे को बदल देने वाले तेज आर्थिक रूपांतरण का सामना करते हुए वे परंपराओं और पुरानी संस्कृति तथा रीति-रिवाजों को बचाना कैसे सुनिश्चित करें.
लोगों में आधुनिक दुनिया जैसा बनने की इच्छा है. किंतु, ज्यादा से ज्यादा लोग पश्चिमी संस्कृति की श्रेष्ठता के विचार को अस्वीकार करते हुए भी स्पष्ट रूप से नहीं जानते कि इस नई आधुनिकता के उच्चबिंदु क्या होंगे.
और, चौथी बात यह है कि सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के खिलाफ़ रूढ़िवाद की प्रतिक्रिया बिलकुल नई भले हो लेकिन निश्चित रूप से सामने आ रही है. आज़ादी के बाद से बढ़ती सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता के बीच पुरानी वर्ण-जाति व्यवस्था टूटने के कारण समाज के प्रतिगामी वर्ग सामंती-जाति व्यवस्था की वकालत करते हुए महिलाओं की स्वतंत्रता छीनने के प्रयास भी कर रहे हैं. ध्यान दिया जाना चाहिए कि एक सदी से भी अधिक समय से हिंदू समाज की गति की दिशा सुधारोन्मुख है. यहां तक कि विधवा पुनर्विवाह, अंतर-जातीय खानपान से जुड़े संबंधों, जाति व्यवस्था और छुआ-छूत विरोध के हिंदू विचारों में नया हिंदुत्व भी एक कट्टरपंथी अवरोध है. हिंदू समाज में सुधारों की गति धीमी रही है, क्योंकि ये परिवर्तन आर्थिक संरचनाओं के रूपांतरण के पूरक नहीं बन सके थे. किंतु, आर्थिक सुधारों के बाद पुराने सामंती-जाति क्रम के विघटन की गति तेज हुई है.
पिछले तीन दशकों की सबसे बड़ी कथाओं में से एक है दलितों और गाँवों की निचली जातियों की और उनके पुश्तैनी पेशों का समापन जिसके साथ उन पर हावी रही प्रमुख जातियों का प्रभुत्व भी घटा है. इन बदलावों ने पुरानी सामाजिक संरचना को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है, जिससे प्रभुत्वशाली जातियां को लग रहा है कि उनकी सामाजिक और आर्थिक शक्ति तेजी से घट रही है. इसके साथ ही, सभी जातियों और लिंगों के लिए शिक्षा और आर्थिक अवसरों का प्रसार होने से सामाजिक और लिंग संबंधों में एक कम मुख़र किंतु दूरगामी पुनर्गठन की प्रक्रिया चल रही है. इससे समाज के कुछ वर्गों में गुस्सा है, जो मनुस्मृति और इसी तरह के प्राचीन ग्रंथों में दी गई व्यवस्थाओं के पक्षधर रहे हैं. उनके अनुसार, वर्ण-व्यवस्था को फिर से लागू किया जाना चाहिए और किसी को जन्म से निर्धारित पेशे को बदलने का अधिकार नहीं होना चाहिए. साथ ही, महिलाओं को पर्दे में और घरों तक सीमित किया जाना चाहिए. ये बातें बहुत शहरी युवाओं को भी आकर्षित कर रही हैं और फेसबुक और ट्विटर जैसे विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर दिखाई देती रहती हैं. ‘(भारतवंशी) इंडिक मॉडल’ और भारत को तोड़ने में लगी ताकतों से लड़ने के लिए मिशनरी-मार्क्सवादी चिंतन को चुनौती देने के नाम पर इन लोगों ने हिंदू समाज की हर सामाजिक समस्या को उचित ठहराना शुरू कर दिया है. इनमें से अधिकांश बातें धुंधले अतीत के श्रेष्ठ समाज के भ्रम के अलावा गांवों तथा छोटे शहरों के ऊंची जाति के युवाओं के बीच नई सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं में व्यक्ति-परक श्रेष्ठता की धारणाओं से तालमेल न बिठा सकने का नतीजा हैं. देखने वाली बात यह होगी कि भविष्य में ये शक्तियां कैसे काम करती हैं. क्या बीजेपी खुद को मुख्य़ सहयोजक के रूप में बनाए रख सकेगी ख़ास कर तब जबकि कांग्रेस के विपरीत उसे ऐसे नए परिदृश्य का मुकाबला करना होगा जिसमें लगभग हर जाति – राज्य के संसाधनों और सत्ता में ज्यादा हिस्सेदारी पाने का जतन कर रही है? पुराने और नए शहरी वर्ग के बीच टकराव और तीव्र होगा. लेकिन, क्या नया शहरी वर्ग अपने ही भार से दब जाएगा क्योंकि पुराने अभिजात वर्ग के विपरीत यह सामाजिक रूप से एक समान नहीं है. इस वर्ग से होकर गहरी सामाजिक भ्रम की रेखाएं गुजर रही हैं. जब भारत मुख्यतः कृषि समाज से शहरी-औद्योगिक समाज में बदलने के मुख़्य बिंदु तक पहुंचने की ओर बढ़ रहा होगा उसी बीच हिंदू आधुनिकता और रूढ़िवादिता की पुनर्स्थापना की इच्छाओं के बीच जारी संघर्ष जल्द ही किसी असंतुलनकारी बिंदु तक पहुंच सकता है.
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Abhinav Prakash Singh is an assistant professor of economics at the Shri Ram College of Commerce University of Delhi. He is also a bilingual columnist ...
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