Author : Khalid Shah

Published on Jun 01, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्तों की बर्फ़ पिघलने से जम्मू-कश्मीर में एक नई यथास्थिति का माहौल औपचारिक शक्ल ले रहा है. 

कश्मीर पर बनती नई यथास्थिति

जम्मू-कश्मीर में भारत सरकार द्वारा 5 अगस्त 2019 को लाए गए संवैधानिक बदलावों को लेकर सन्नाटे वाला माहौल है. कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के बीच ये ख़ामोशी हैरान करने वाली है. राजनीतिक स्तर पर या जनता के बीच होने वाली बहसों में भी पिछले साल के इसी कालखंड के मुक़ाबले इस मुद्दे को लेकर विरोध के स्वर बेहद कम सुनाई दे रहे हैं. कश्मीर की मुख्यधारा की पार्टियों की सियासी बयानबाज़ियों से अनुच्छेद 370 और तमाम दूसरे बदलावों से जुड़े मुद्दे नदारद हैं. सिविल सोसाइटी के स्तर पर अब इनपर कोई चर्चा नहीं है. जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक गलियारों में छाई इस शांति की वजह पिछले साल से जारी महामारी की थकान या कोरोना की दूसरी ख़तरनाक लहर के चलते फैला डर कतई नहीं है. जम्मू-कश्मीर में 2019 में लाए गए भारी बदलावों को लेकर पूरे तौर पर न सही लेकिन काफ़ी हद तक सामान्य हालात बन गए हैं. 

आमतौर पर घाटी में वसंत ऋतु के आगमन के साथ ही सड़कों पर होने वाली हिंसक गतिविधियों और आतंकवादी वारदातों में बढ़ोतरी होने लगती है. हालांकि, पिछले तीन महीनों में सैनिक और असैनिक ठिकानों पर आतंकी हमलों के छिटपुट मामले ही सामने आए हैं. ये पिछले सालों के मुक़ाबले एक बड़ा बदलाव है. फ़रवरी में भारत और पाकिस्तान के डायरेक्टर जनरल ऑफ़ मिलिट्री ऑपरेशंस (डीजीएमओ) ने संघर्षविराम की घोषणा की थी. तबसे लेकर अब तक नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर शांति कायम है. हालांकि आतंकवादियों के ख़िलाफ़ मुठभेड़ बदस्तूर जारी हैं. आतंकी संगठनों के लिए नए रंगरूटों की भर्ती का काम अब पहले के मुक़ाबले ज़्यादा चुनौतीपूर्ण हो गया है. सुरक्षा बलों ने 2016 के बाद से पहली बार अपनी रणनीति में बदलाव का एलान किया है. अब उनका ज़ोर आतंकवादियों को मार गिराने की बजाए आतंकी संगठनों में उनकी भर्तियों पर लगाम लगाने पर है. 

सुरक्षा बलों ने 2016 के बाद से पहली बार अपनी रणनीति में बदलाव का एलान किया है. अब उनका ज़ोर आतंकवादियों को मार गिराने की बजाए आतंकी संगठनों में उनकी भर्तियों पर लगाम लगाने पर है. 

हालांकि सुरक्षा के मोर्चे पर हालात सामान्य होने की बात कहना अभी जल्दबाज़ी होगी. पिछले कुछ महीनों के रुझानों को अभी पक्के तौर पर इस तरह के नतीज़ो के सबूत के तौर पर नहीं देखा जा सकता. बहरहाल राजनीतिक मोर्चे पर सामान्य होती परिस्थितियों की बात शीशे की तरह साफ़ है. पर्दे के पीछे की अनौपचारिक वार्ताओं के चलते भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्तों पर जमी बर्फ़ कुछ हद तक पिघली है. इसने अनुच्छेद 370 के ख़ात्मे और जम्मू-कश्मीर के विभाजन से जुड़े मुद्दों पर अंतिम तौर पर कील ठोक दी.   

पाकिस्तानी सेना प्रमुख के साथ वहां के दो दर्ज़न से ज़्यादा शीर्ष पत्रकारों की 7 घंटे तक चली चर्चा से निकली ख़बरों से इस बात की पुष्टि होती है. इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक पाकिस्तानी सेना प्रमुख ने दो टूक कह दिया है कि अनुच्छेद 370 का मुद्दा पाकिस्तान की चिंता का सबब नहीं है. हालांकि, उन्होंने जम्मू-कश्मीर के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने पर ज़ोर दिया. इसके साथ ही उन्होंने ये सुनिश्चित करने पर भी बल दिया कि वहां की जनसंख्या की बनावट में किसी भी तरह का बदलाव न हो. पाकिस्तान अख़बार डॉन में छपे एक लेख से भी इन बातों की पुष्टि हुई है. पाकिस्तानी सेना प्रमुख के बयान में जम्मू-कश्मीर राज्य के दो टुकड़े किए जाने के मुद्दे की कोई चर्चा नहीं थी. इस मामले में शायद यही सबसे अहम बदलाव है.

पाकिस्तान के बड़े पत्रकारों के साथ इफ़्तार पर हुई सेना प्रमुख की इस बातचीत के चंद दिनों बाद पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि अनुच्छेद 370 “भारत का आंतरिक मामला है और पाकिस्तान के लिए इसकी कोई अहमियत नहीं है”. निजी बातचीत में सेना प्रमुख ने जो बातें कहीं थी उन्हीं को दोहराते हुए विदेश मंत्री ने भी धारा 35ए पर ज़ोर दिया. हालांकि दो दिन बाद विपक्ष के दबाव में विदेश मंत्री को झुकना पड़ा. उन्होंने अपने बयान से यू-टर्न ले लिया. पाकिस्तानी राजनेताओं का ये मूल स्वभाव है. 

जम्मू-कश्मीर में स्थायी निवास या अधिवास से जुड़े कानूनों को और मज़बूत किए जाने को भारत की जनता या मोदी के समर्थक विचारधारा के साथ किए गए किसी समझौते के तौर पर नहीं देखेंगे.

इसी तरह प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने भी एक बयान जारी कर कहा कि “भारत के साथ तबतक कोई वार्ता नहीं हो सकती जबतक वो 5 अगस्त का फ़ैसला वापस न ले ले”. हालांकि इसमें एक पेच है. ये साफ़ नहीं है कि 5 अगस्त को लिए गए अनेक निर्णयों में से इमरान ख़ान कौन-कौन से फ़ैसलों की वापसी चाहते हैं- जम्मू-कश्मीर को केंद्र-शासित प्रदेश का दर्जा, अनुच्छेद 370, धारा 35ए या फिर पूर्ववर्ती राज्य को दो हिस्सों में विभाजित करने से जुड़ा फ़ैसला?

संघर्षविराम की घोषणा के बाद से ही पाकिस्तान मानो किसी भ्रम का शिकार हो गया है. ग़ौरतलब है कि पाकिस्तानी हुक्मरान अब जिस तरह के समझौते चाह रहे हैं उनको जायज़ और तर्कसंगत साबित करने में पाकिस्तान की सरकार को बेहद मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. 5 अगस्त के फ़ैसलों के बाद इमरान ख़ान और उनकी कैबिनेट ने गला फाड़ फाड़कर अपना विरोध जताया था. उन्होंने उस वक़्त ज़हरीली बयानबाज़ियों में कोई कोताही नहीं बरती थी. ऐसे में अब अपने रुख़ में नरमी लाना उनके लिए बेहद कठिन साबित हो रहा है.

बहरहाल इमरान ख़ान की अगुवाई वाली पाकिस्तानी हुकूमत के तमाम हास्यास्पद कारनामों के बावजूद ऐसा लगता है कि पर्दे के पीछे संचालित होने वाली अनौपचारिक वार्ता प्रक्रिया पटरी पर टिकी हुई है. इस बात का पहला इशारा तब मिला जब पाकिस्तान की कैबिनेट ने आर्थिक समन्वय समिति (ईसीसी) के उस फ़ैसले को पलट दिया जिसमें भारत से कपास के आयात की बात कही गई थी. पाकिस्तान से आई ख़बरों के मुताबिक इस यू-टर्न को इस्लामाबाद में अधिकारियों ने “अस्थायी या मामूली रुकावट” की तरह देखा. इसके चलते व्यापारिक रिश्तों की बहाली से जुड़े प्रयासों को कोई ख़ास झटका नहीं लगा.

इसमें कोई शक नहीं कि पाकिस्तान के रुख़ में इस तरह के घुमाव और मोड़ भारत के लिए राहत की बात हैं. पाकिस्तान का यू-टर्न वाला रवैया मोदी सरकार के लिए फ़ायदे का सौदा है. अनुच्छेद 370 में आमूलचूल बदलावों और राज्य को दो टुकड़ों में बांटे जाने को लेकर जारी विरोध अब कमज़ोर पड़ गया है. जम्मू-कश्मीर को फिर से पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने का वादा 5 अगस्त को लाए गए बदलावों के समय ही कर दिया गया था. ये बात भी पक्के तौर पर कही जा सकती है कि जम्मू-कश्मीर में स्थायी निवास या अधिवास से जुड़े कानूनों को और मज़बूत किए जाने को भारत की जनता या मोदी के समर्थक विचारधारा के साथ किए गए किसी समझौते के तौर पर नहीं देखेंगे.

ये बात भी दीगर है कि पाकिस्तान द्वारा अनुच्छेद 370 पर अपने रुख़ में लाई गई नरमी के चलते पीडीपी को भी अपने समर्थकों के बीच अपने बदले हुए रुख़ को उचित ठहराना आसान हो गया है

जम्मू-कश्मीर की मुख्य धारा के राजनीतिक दलों- ख़ासकर नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) को भी इस नए यथार्थ का एहसास हो गया है. ग़ौरतलब है कि ये दोनों दल अपने नेताओं की रिहाई के बाद विरोध-प्रदर्शन के रास्ते पर चल निकले थे. मुख्य धारा की इन पार्टियों की मौजूदा ख़ामोशी कुछ हद तक मुक़दमों, जांच बिठाने या कुछ मामलों में बिना किसी आरोप के भी हिरासत में लिए जाने की धमकियों का नतीजा हैं. कश्मीर की तमाम पार्टियों को ये समझ में आ गया है कि पूर्ण राज्य के दर्जे की बहाली और स्थायी निवास से जुड़े कानूनों की मज़बूती- सिर्फ़ इन्हीं दो रियायतों की वो नई दिल्ली से उम्मीद कर सकते हैं. भारत सरकार की नीतियों से तालमेल खाते ऐसे संदेश इन कश्मीरी पार्टियों की अगुवाई करने वाले नेताओं तक पहुंचा दिए गए हैं. 

इन तमाम कश्मीरी पार्टियों में से शायद महबूबा मुफ़्ती की पीडीपी अपनी मांगों को लेकर सबसे ज़्यादा मुखर और झगड़ालू रुख अख्तियार किए हुए थी. सबसे ज़्यादा सियासी शिगूफ़े भी पीडीपी की ओर से ही छोड़े जा रहे थे. अब अचानक से उनकी पार्टी अनुच्छेद 370 और 5 अगस्त को लिए गए दूसरे फ़ैसलों के ख़िलाफ़ शांत पड़ गई है. इसके पीछे की वजह शायद दिल्ली द्वारा पीडीपी के राजनीतिक भविष्य और अस्तित्व को लेकर खड़ा किया गया संकट है. ये बात भी दीगर है कि पाकिस्तान द्वारा अनुच्छेद 370 पर अपने रुख़ में लाई गई नरमी के चलते पीडीपी को भी अपने समर्थकों के बीच अपने बदले हुए रुख़ को उचित ठहराना आसान हो गया है. वैसे भी कश्मीर में सारे फ़साद की जड़ (पाकिस्तान) अगर किसी मुद्दे पर अपने रुख़ में नरमी लाने का फ़ैसला करता है तो ये कोई सियासी पार्टी विरोध-प्रदर्शन कर अपने निजी और राजनीतिक हितों को ख़तरे में डालने की ज़हमत क्यों उठाएगी? ख़ासतौर से तब जब उन्हें ये अच्छे से मालूम है कि भारत की मौजूदा हुकूमत से वो अपनी मांगें कतई नहीं मनवा सकते. 

भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्तों की बर्फ़ पिघलने से जम्मू-कश्मीर में एक नई यथास्थिति का माहौल औपचारिक शक्ल ले रहा है. वहां के हालात एक सामान्य रूप अख्तियार कर रहे हैं. विरोध प्रदर्शनों और कलह के बीच यथास्थिति का बरकरार रहना भारत-पाकिस्तान और कश्मीर के इतिहास में हमेशा से ही होता रहा है. कश्मीर मसले के यथास्थितिवादी हल के ख़िलाफ़ पाकिस्तानी चरमपंथियों की घुड़कियों के बावजूद आज एक हक़ीक़त शीशे की तरह साफ़ है: भारत ने 5 अगस्त 2019 के फ़ैसलों पर कश्मीर और अंतरराष्ट्रीय जगत में बाज़ी पलट दी है. 

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