Author : Shivam Shekhawat

Expert Speak Raisina Debates
Published on Apr 22, 2024 Updated 0 Hours ago

नेपाल में स्थापित नई गठबंधन की सरकार के साथ आर्थिक एवं सामाजिक मुद्दों पर राजनीतिक मामले संभवतः हावी हो जाएंगे.

नेपाल: नई गठबंधन सरकार के ज़रिये क्या नेपाल की राजनीतिक परेशानियों का अंत हो पायेगा?

4 मार्च 2024 को, नेपाली प्रधानमंत्री पुष्प कुमार दहल ‘प्रचंड’ ने नेपाली कांग्रेस (एनसी) के साथ अपने पार्टी की साल भर पुरानी गठबंधन की सरकार को भंग किए जाने की घोषणा की और साथ-साथ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत मार्कसिस्ट – लेनिनवादी), के साथ अपने पूर्व संबंधों को दोबारा जीवित कर लिया. इस गठबंधन में कुछ अन्य पार्टियों को भी शामिल किया गया जिनमें राष्ट्रीय स्वतंत्रता पार्टी (आरएसपी), द जनता समाजवादी पार्टी (जेएसपी) और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत सोशलिस्ट) समेत जैसे दल शामिल हैं. इन सभी दलों ने एक साथ मिलकर एक नई गठबंधन बनाए जाने की घोषणा की. 13 मार्च को विश्वास मत हासिल करने के बाद, देश के भीतर स्थिरता स्थापित करने के लिए एवं देश की आर्थिक स्थिति को प्रभावपूर्ण तरीके से सुधार की दिशा में लाने के लिए, समस्त पार्टियां आठ-सूत्री समझौते पर एकमत हुई.  

गठबंधन के बनने एवं उसके टूटने का चक्र 

चूंकि नेपाल ने वर्ष 2008 के बाद से एक लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश के तौर पर अपनी यात्रा की शुरुआत की थी, उसकी राजनैतिक प्रक्रिया सतत् गठबंधन के बनने, और टूटने की कहानी रही है. इन हालातों के लिये देश के सभी प्रमुख दल ज़िम्मेदार रहे हैं, क्योंकि कई बार ऐसा हुआ है कि उन्होंने चुनाव पूर्व किये गये गठबंधन को चुनाव के बाद तोड़ दिया है. इनमें द सीपीएन (एमसी), द यूएमएल, और नेपाली कांग्रेस जैसी सभी प्रमुख पार्टियां – सामूहिक रूप से शामिल रहे हैं. यहाँ तक कि देश के मतदाताओं के लिए एक बेहतर विकल्प के तौर पर उभरी, आरएसपी सरीखी सत्ता विरोधी दल भी ऐसे दांव पेंच में शामिल होते रहे हैं. कुछ आंतरिक एवं बाहरी कारकों का हवाला देते हुए, प्रधानमंत्री प्रचंड ने विवश होकर, NC से दूर होने एवं गठबंधन बदलने की घोषणा की.

चूंकि नेपाल ने वर्ष 2008 के बाद से एक लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश के तौर पर अपनी यात्रा की शुरुआत की थी, उसकी राजनैतिक प्रक्रिया सतत् गठबंधन के बनने, और टूटने की कहानी रही है.

उनके अनुसार, राजनीतिक एवं आर्थिक सुधारों एवं अन्य पॉलिसी संबंधी मुद्दों में एकता की कमी की वजह से उनके लिए, कांग्रेस के साथ काम कर पाना दुष्कर हो गया. प्रधानमंत्री के तौर पर, उन्हें उन मंत्रियों को बदलने के लिए उपयुक्त एजेंसी या अधिकार प्राप्त नहीं था जिनके प्रशासकीय प्रदर्शन से संतुष्ट न होने पर वे उन्हें पद से हटा पाने में असमर्थ थे. उनका प्रमुख मतभेद देश के वित्तमंत्री से था, जो कि एनसी से संबंधित थे और जिन पर प्रचंड ने कई मौकों पर उनके अधिकारों को नज़रअंदाज़ करने का आरोप लगाया था. दूसरा मुद्दा, राष्ट्रीय परिषद (नेशनल काउंसिल - अपर हाउस) के अध्यक्ष के चुनाव का मसला भी दोनों दलों के बीच के मतभेद का प्रमुख कारण रहा.       

हाल ही संपन्न,  नेशनल कॉन्फ्रेंस द्वारा आयोजित महासमिति और पार्टी की भविष्य की कार्यवाही को ध्यान में रखते हुए, उनमें हो रहे प्रतीकात्मक ‘वैचारिक बदलाव’ आदि जैसे कारक भी MC के द्वारा इस गठबंधन को तोड़ने की भावना के ट्रिगर पॉइंट के तौर पर देखा जा रहा है. किसी भी चुनाव पूर्व अपनी सुविधानुसार, गठबंधन तोड़ने और नये गठबंधन में जाने की प्रथा के खिलाफ़, नेपाली कांग्रेस के महासचिव गगन थापा ने मोर्चा संभाला हुआ था. सत्तारूढ़ सीपीएन (एमसी) के विश्वास के विपरीत एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में नेपाल की अवधारणा के बारे में हो रही चर्चा, कांग्रेस की देश के संविधान के प्रति प्रतिबद्धता के बारे में संदेह उत्पन्न कर रही थी. माओवादियों के नेतृत्व में हुए जन-संघर्ष के खिलाफ़ कुछ संदर्भ भी उभर कर सामने आए थे. इन सारे घटनाक्रमों के उपरांत, प्रधानमंत्री द्वारा ये कहना कि, “गठबंधन सहयोगियों के गैर-वाजिब एवं असामयिक असम्मान” की इस वक्त कोई आवश्यकता नहीं थी” इस नये गठबंधन के ताबूत में अंतिम कील साबित हुई है. 

माओवादियों के साथ पैदा हुए दरार को ठीक करने से पहले, UML ने कांग्रेस से भी संपर्क साधने की चेष्टा की थी. इस तरह का राजनैतिक षड्यंत्र एवं अवसरवाद किस हद तक व्यवहार में है, इसका पता इसी बात से चलता है कि  गठबंधन से बाहर कर दिए जाने के बाद किस तरह से कांग्रेस ने यूएमएल का पक्ष सुनने की इच्छा व्यक्त की. एक रिपोर्ट के अनुसार, इस उम्मीद के साथ की एकीकृत कम्युनिस्ट धड़ा, उन्हें उनके लक्ष्य तक पहुंचने में मदद करेगा, पार्टी के कुछ सदस्यों में यूएमएल के साथ हाथ जाने की इच्छा तेज़ हो रही थी.  

कुछ माओवादियों की नज़र में, इस गठबंधन के पीछे का मक़सद, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के टूटने के बाद के अधूरे बचे कामों के रूप में भी देखा जा रहा है. एक प्रयोग के तौर पर जहां, इसे कम्युनिस्ट एकता के उदाहरण के तौर पर देखा जा रहा है, क्योंकि 2018 में दो प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियों नें आपस में विलय कर के नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी बनाया था, जिसे वर्ष 2022 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद भंग करना पड़ा. नवंबर 2022 में देश के भीतर आयोजित पिछले आम चुनाव में, नेपाल कांग्रेस को सबसे ज्य़ादा वोट मिलने के बावजूद सरकार में उन्हें एक भी सीट नहीं मिली थी. वहीं NC एवं CPN (MC) ने मतदान-पूर्व गठबंधन बनाने के बावजूद, सत्ता में भागेदारी को लेकर किसी प्रकार की सहमति नहीं बन पाने की वजह से, सीपीएन (एमसी) को फिर से यूएमएल के साथ समझौता करने को मजबूर किया था, जिसने प्रचंड के लिये सत्ता के केंद्र में आने की राह को प्रशस्त किया. कुछ ही महीनों के बाद फरवरी 2023 में, संपन्न हुए राष्ट्रपति चुनाव के दौरान – सीपीएन (एमसी) ने सीपीएन (यूएमएल) के साथ अपने गठबंधन को तोड़ते हुए, एवं उन्हे विपक्ष में धकेलते हुए, राष्ट्रपति पद के लिए एनसी के उम्मीदवार को समर्थन देने का निर्णय लिया. लेकिन, भले ही अभी एनसी को सत्तारूढ़ गठबंधन से बाहर कर दिया गया हो, लेकिन ये साफ है कि अभी भी एनसी इस कोशिश में है कि वो अन्य किसी दल के साथ गठबंधन करे या फिर वापिस यूएमएल के साथ ही गठबंधन कर ले, ये  संभावना अभी भी बनी हुई है. 

गठबंधन को भंग किए जाने के अपने निर्णय को सही ठहराते हुए, प्रधानमंत्री प्रचंड ने इसके लिये अपने सहयोगी दल यूएमएल की ‘वामपंथी एकता’ के प्रति प्रतिबद्धता को ज़िम्मेदार ठहराते हुए कहा कि, इस वजह से वे गठबंधन बदलने के लिये प्रेरित हुए.  

गठबंधन को भंग किए जाने के अपने निर्णय को सही ठहराते हुए, प्रधानमंत्री प्रचंड ने इसके लिये अपने सहयोगी दल यूएमएल की ‘वामपंथी एकता’ के प्रति प्रतिबद्धता को ज़िम्मेदार ठहराते हुए कहा कि, इस वजह से वे गठबंधन बदलने के लिये प्रेरित हुए. लेकिन पहले के अनुभवों से ये साफ है कि, ये नेतागण वैचारिक एकता के टूटने के चाहे जितने   दावे कर लें, सच्चाई ये है कि इन राजनैतिक दलों के अध्यक्षों की सत्ता की भूख सबसे प्रबल है, जिसके सामने बाकी हर चीज़ छोटी पड़ जाती है.  

आगे बढ़ते हुए

भले ही हम राजनीतिक स्तर पर जो भी हो रहा है, उससे परे देखते हैं, तो नेपाल में आर्थिक एवं सामाजिक – आर्थिक विकास के विषय में स्थिति कुछ खास आशाजनक नहीं है. पिछले कुछ वर्षों से, देश ने महज़ औसत दर्जे का विकास दर्ज किया है, जो कि उसके युवाओं के लिए अधिक उत्पादक एवं माकूल नौकरियों के अवसर में बदल पाने में असफल रहा है. बदले में, इसके परिणाम स्वरूप, देश का युवा वर्ग भारी संख्या में देश से पलायन करने को विवश हो गए है. संघर्षरत अर्थव्यवस्था के पृष्टभूमि में, सरकार में होते लगातार बदलाव एवं राजनीतिक नेतृत्व में, येन-केन तरीके से राजनीतिक बढ़त हासिल करने की जुगत में लगे  नेताओं की व्यस्तता के कारण आम लोगों की आकांक्षाओं एवं उनकी चिंताओं को हाशिये पर धकेल दिया गया है. 

कुछ विश्लेषकों ने पुष्प दहल के नेतृत्व वाली सरकार की ओर, ध्यान दिलाते हुए बताया है कि, इस कदम से पिछले गुज़रे समय में किसी भी तरह का प्रभावशाली प्रदर्शन न कर पाने में मिली असफलता के लिए गठबंधन की औचित्यहीनता को दोषी ठहराया जा सकेगा, न कि किसी नेता को - इससे सरकार में हो रहे इन बदलावों से उनके फैसलों को लेकर जनता द्वारा जो सार्वजनिक जांच की जा सकती है, उससे बचने का समय मिल जायेगा. क्योंकि नए गठबंधन के सत्ता संभालते ही, नई प्रांतीय सरकारों की नियुक्ति एवं संभावित मुख्यमंत्री पद के लिए किस पार्टी को अपना उम्मीदवार उतारने का मौका दिया जाए, जैसे नए मुद्दे छा जायेंगे, जो सभी पार्टियों और जनता के दिमाग में छायी रहेगा और उनका ध्यान पूर्व के मुद्दों से भटक जायेगा.    

हालांकि, आने वाले महीनों में ये कयास लगा पाना काफी कठिन होगा कि गठबंधन कैसे चलेगा, परंतु इसमें भी कुछ उतार-चढ़ाव तो आएंगे ही. 275 सदस्यीय सदन में, वर्तमान गठबंधन के पास कुल सीटों का 51 प्रतिशत सीट यानी  142 सीटें हैं. जिस पार्टी को सबसे ज्य़ादा 60 सीटें प्राप्त हुई है वो अब विपक्ष में है. दहल एवं ओली दोनों ने ही इस गठबंधन को आगामी 2027 में होने वाले आम चुनाव तक चलाते रहने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर की है, परंतु पुनः किसी नए गठबंधन के निर्माण की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है. 

एनसीपी के अनुभव ये दिखाने के लिए काफी हैं कि दोनों दलों के संग किसी एक साम्यवादी ताकत को साथ रखने का इरादा बिलकुल ही ऐच्छिक सोच है क्योंकि यहां सत्ता में साझेदारी से जुड़े मुद्दों को वरीयता दी जाती है.

एनसीपी के अनुभव ये दिखाने के लिए काफी हैं कि दोनों दलों के संग किसी एक साम्यवादी ताकत को साथ रखने का इरादा बिलकुल ही ऐच्छिक सोच है क्योंकि यहां सत्ता में साझेदारी से जुड़े मुद्दों को वरीयता दी जाती है. वैचारिक तौर पर दलों के बीच भी मतभेद है. यहाँ तक की नए उदय होते दल भी इस चक्र को भेद पाने में असफल है, और इस तरह से, वे भी इन सभी विचारों में एक मामूली हिस्सा मात्र बनकर रह जाते हैं. 

विदेशी नीति के सवाल पर, नव गठित गठबंधन ने “संतुलित, तटस्थ एवं गुटनिरपेक्ष विदेश  नीति” की वकालत की है, परंतु नेपाल में भू-राजनीतिक विचारों एवं राजनीतिक परिवर्तनों को नजरंदाज़ नहीं किया जा सकता है. जहां भारत ने इस देश में होने वाले परिवर्तनों को उनका आंतरिक मामला माना है, और सरकार में किसी भी व्यक्ति अथवा दल के होने के बावजूद, साथ मिलकर काम करने की अपनी इच्छा व्यक्त की है, वहीं चीन नें दोनों देशों के बीच के द्विपक्षीय रणनीतिक साझेदारी को सुदृढ़ करने को उत्सुक नई सरकार के साथ काम करने की बात कही है. 

देश के नये नवेले उप-प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री ने 24 मार्च से 1 अप्रैल तक की अपनी चीन यात्रा के दौरान बेल्ट और रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) को लागू करने की योजना को अंतिम रूप देने वाले द्विपक्षीय रिपोर्ट के बारे में बात करने के लिए की है. परंतु इस गठबंधन का झुकाव चीन के प्रति अधिक होने के बावजूद, सत्ता में किसी भी पक्ष या दल अथवा गठबंधन के काबिज रहने के बावजूद, काठमांडू एवं नई दिल्ली के बीच द्विपक्षीय संबंध लगातार मज़बूत बने रहने की आशा बनी रहेगी.  

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