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भारत में अपराध बदल रहे हैं लेकिन उन्हें दर्ज करने और जनता तक पहुंचाने का तरीका अभी भी पुराना है. एनसीआरबी की सालाना रिपोर्टें देर से आती हैं, कई अपराधों की गिनती अधूरी रह जाती है. ऐसे में सवाल ये है कि क्या हमारी अपराध रिपोर्टिंग नए सच को पकड़ पा रही है?
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने 29 सितंबर 2025 को ‘भारत में अपराध’ पर अपनी सालाना रिपोर्ट प्रकाशित की. ये रिपोर्ट कैलेंडर वर्ष 2023 की थी यानी 1 जनवरी से 31 दिसंबर 2023 के बीच देश में हुए अपराधों का लेखा-जोखा. हालांकि, ओआरएफ का ये लेख एनसीआरबी की रिपोर्ट में दिए गए अपराध के आंकड़ों का विश्लेषण पेश नहीं करता है लेकिन इसका उद्देश्य इन रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों को पेश करने का तरीकों और उनकी गुणवत्ता पर बात करना है. एनसीआरबी की रिपोर्ट्स से जागरूक नागरिकों और अपराध विश्लेषकों को काफ़ी अपेक्षाओं होती हैं लेकिन एनसीआरबी इन उम्मीदों पर खरा नहीं उतर रहा है. इस लेख के ज़रिए एनसीआरबी की कार्यप्रणाली में सुधार और बदलते तौर के साथ उसमें उभरी कमियों को दूर करने का सुझाव दिए गए हैं. इन पर तुरंत ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है. समाज के दूसरे क्षेत्रों की तरह भारत में अपराध के भी नए तरीके विकसित हो रहे हैं. देश की जनसंख्या में बढ़ोत्तरी और लोगों के व्यवहार में बदलाव के साथ ही नए तरह के अपराध सामने आ रहे हैं इसलिए, एनसीआरबी द्वारा पेश किए जाने वाले आंकड़ों को भी अपराध की आवृत्ति और प्रकृति, दोनों में बदलाव के साथ तालमेल बिठाना होगा.
एनसीआरबी के प्रमुख वार्षिक प्रकाशन, 'भारत में अपराध' के साथ पहली और एक प्रमुख समस्या तो इसके छपने का समय ही है. इसमें काफ़ी देर हो जाती है. पिछले कई साल से, एनसीआरबी आमतौर पर ये रिपोर्ट अगले वर्ष जारी करता रहा है. हालांकि, 2023 की वार्षिक रिपोर्ट जारी होने में बहुत लंबा समय लग गया. 2023 की रिपोर्ट सितंबर 2025 में रिलीज़ की गई. रिपोर्ट जारी करने में हुई 20 महीने की देरी की वजह बताते हुए सरकार ने संसद में कहा कि एनसीआरबी द्वारा आंकड़ों का सत्यापन करने में बहुत समय लगता है. हालांकि, एनसीआरबी ने खुद स्वीकार किया है कि वो सिर्फ आंकड़ों के संग्रह और मिलान का काम करता है. रिपोर्ट की शुरूआत में दिए गए स्पष्टीकरण (डिस्क्लेमर) में एनसीआरबी ने कहा कि वो इन आंकड़ों की सत्यता की गारंटी नहीं लेता. उसने कहा कि रिपोर्ट में पेश किए गए अपराध संबंधी सभी आंकड़े 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की पुलिस, केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (सीएपीएफ) और केंद्रीय पुलिस संगठनों (सीपीओ) द्वारा दी गई रिपोर्ट्स का संग्रह मात्र है. ये रिपोर्ट एनसीआरबी द्वारा निर्धारित प्रपत्रों में, उसी के द्वारा विकसित एक सॉफ्टवेयर एप्लिकेशन के माध्यम से आंकड़े पेश करती है. आंकड़ों को जुटाने की प्रक्रिया हर कैलेंडर वर्ष ख़त्म होने के तुरंत बाद शुरू होती है. एक बार डेटा इकट्ठा हो जाने के बाद, एनसीआरबी अपराध के आंकड़ों को ऐसे प्रारूप में प्रस्तुत करता है जिससे जनता को इसे समझने में आसानी हो. एनसीआरबी अपनी रिपोर्ट में पेश आंकड़ों की प्रामाणिकता की कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेता. वो ये मानकर चलता है कि विभिन्न पुलिस संगठनों ने इस डेटा को कुशलतापूर्वक और उचित सटीकता के साथ संकलित किया होगा. देश भर के पुलिस संगठनों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले आंतरिक सॉफ़्टवेयर और पहले से ही स्थापित प्रारूप की उपलब्धता को देखते हुए, एनसीआरबी को अपने रिपोर्ट आसान शब्दों में और बिना देर किए प्रकाशित करनी चाहिए. अगर रिपोर्ट समय पर रिलीज़ होगी, तभी ये सुनिश्चित किए जा सकेगा कि आंकड़ों की प्रासंगिकता बनी रहे. आदर्श स्थिति तो ये होगी कि एनसीआरबी खुद ही इस पर विचार करे. अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी करने के लिए एक तारीख तय कर ले और उस दिन तक हर हाल में रिपोर्ट प्रकाशित कर दे.
“2023 की रिपोर्ट सितंबर 2025 में रिलीज़ की गई… 20 महीने की देरी.”
ध्यान देने योग्य दूसरी बात ये है कि एनसीआरबी को 'प्रमुख अपराध नियम' (पीओआर) से बचना चाहिए. पीओआर का अर्थ ये है कि जिन मामलों में एक ही प्राथमिकी (एफआईआर) में कई अपराध एक साथ दर्ज किए जाते हैं, एनसीआरबी सिर्फ सबसे जघन्य अपराधों को ही गिनेगा. उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि एक एफआईआर में हत्या, बलात्कार और घर में डकैती का मामला शामिल है तो रिपोर्ट में बाद के दो मामलों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाएगा और सिर्फ हत्या को ही शामिल किया जाएगा. अब यहां तीन अपराधों को एक ही अपराध माना गया, इससे अपराध की कुल घटनाओं में तो काफ़ी कमी आ जाएगी, लेकिन सच या सही तस्वीर सामने नहीं आ पाएगी. अगर विशुद्ध नैतिक दृष्टि से देखें तो इसे 'अपराध की असली संख्या छिपाने' के रूप में परिभाषित किया जा सकता है. जटिल और गंभीर अपराधों का अति-सरलीकरण करने से कई नुकसान हो सकते हैं. अगर नीति निर्माता किसी विशिष्ट अपराध के ख़िलाफ़ कानून बनाना चाहें, जांच एजेंसियों के अधिकारी क्राइम का ट्रेंड समझना चाहें तो गलत आंकड़े उन्हें गुमराह कर सकते हैं. इससे अपराध की रोकथाम के लिए बनाई जाने वाली नीतियों पर असर पड़ सकता है. पीओआर की वजह से होने वाले नुकसानों की बात करें, तो इसमें अपराध के आंकड़ों की कमी, डेटा का अति-सरलीकरण, अपराध विश्लेषण में सामाजिक और कानूनी गलतियां हो सकती हैं. इसका परिणाम ये होता है कि इन आंकड़ों से निकलने वाले नतीजे भी गलत हो सकते हैं. जानबूझकर अपनाई गई पीओआर की प्रथा आंकड़ों की सटीकता में एक गंभीर कमी पैदा करती है.
तीसरा सवाल आंकड़ों की प्रामाणिकता का है. एनसीआरबी के आंकड़े, देश के सबसे व्यापक अपराध आंकड़ों का संग्रह होने के बावजूद, ये रिपोर्ट पूरी तरह से गौण हैं. ये देशव्यापी पुलिस संगठनों द्वारा उपलब्ध कराए गए अपराध के आंकड़ों का एक संकलन मात्र है. एनसीआरबी भी इन आंकड़ों के प्रति आगाह करता है, और इनकी प्रामाणिकता की किसी भी ज़िम्मेदारी से इनकार करता है. इसकी तुलना अमेरिका के न्याय सांख्यिकी ब्यूरो से करके देखिए. ये अमेरिका की प्राथमिक सांख्यिकीय एजेंसी है और वार्षिक 'राष्ट्रीय अपराध पीड़ित सर्वेक्षण' (एनसीवीएस) जारी करती है. ये अपने आंकड़ों की प्रमाणिकता की जिम्मेदारी लेती है, इसके विपरीत, एनसीआरबी स्वतंत्र रूप से अपना प्राथमिक शोध करके किसी भी आंकड़े को प्रमाणित नहीं करता है. एनसीवीएस लगभग 2,40,000 व्यक्तियों के राष्ट्रीय स्तर के प्रतिनिधि नमूने से आंकड़े एकत्र करता है, जिसमें लगभग 1,50,000 परिवार शामिल होते हैं. एनसीआरबी ऐसा कोई सर्वेक्षण नहीं करता. इसी का नतीजा है कि एनसीआरबी के आंकड़ों की विश्वसनीयता एक गंभीर मुद्दा है. भारत में ये भी व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि कई पुलिस थानों के प्रभारी 'बर्किंग ऑफ़ क्राइम' यानी अपराध को छुपाने का काम करते हैं. अपराध की पीड़ित रिपोर्ट करने आते हैं, लेकिन पुलिस अधिकारी रिपोर्ट दर्ज करने से इनकार कर देते हैं. पुलिस के अफसर आम तौर पर ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि इससे उन्हें अपने अधिकार क्षेत्र में अपराध की मात्रा और अपराध की दर को कम दिखाने में मदद मिलती है. वो ये पेश करने की कोशिश करते हैं कि उनके इलाके में कानून-व्यवस्था की स्थिति दुरुस्त है. यही वजह है कि अपराध के आंकड़ों को लेकर स्वतंत्र नमूना सर्वेक्षणों के लिए एक समानांतर तंत्र स्थापित करने की आवश्यकता है.
चौथा, एनसीआरबी की रिपोर्ट में एक कमी ये होती है, कि इसमें अपराध की गंभीरता या प्रकृति को कोई महत्व नहीं दिया जाता और सभी अपराधों को एक जैसा माना जाता है. इससे किसी राज्य या शहर में अपराध का बहुत ज़्यादा सरलीकरण हो सकता है. इससे ये नुकसान होता है, कि उन क्षेत्रों के बारे में गलत निष्कर्ष निकल सकते हैं, जहां छोटे-मोटे अपराधों की संख्या किसी अन्य राज्य या शहर की तुलना में अधिक हो सकती है. ऐसा हो सकता है कि उस राज्य या शहर में कुल अपराध दर अपेक्षाकृत कम है, लेकिन गंभीर अपराधों की संख्या ज्यादा है. इसे एक उदाहरण से समझिए. एक शहर में चोरी की दस घटनाएं रिपोर्ट होती हैं और दूसरे शहर में हत्या के दो मामले सामने आते हैं. एनसीआरबी का आंकड़ा पहले शहर में ज्यादा अपराध बताएगी, जबकि गंभीर अपराध दूसरे शहर में हुए हैं. अगर एनसीआरबी के आंकड़ों में अपराध की गंभीरता का ध्यान रखा जाए, तो इससे क्राइम डेटा को समझने में ज्यादा मदद मिलेगी. अपराधों को उनकी गंभीरता के हिसाब से वर्गीकृत किया जा सकता है, और उनकी गंभीरता के आधार पर अपराधों को अधिक संख्यात्मक भार दिया जा सकता है. इससे विभिन्न अपराधों की अधिक सटीक और निष्पक्ष तुलना संभव होगी.
“एनसीआरबी अपनी रिपोर्ट में पेश आंकड़ों की प्रामाणिकता की कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेता.”
पांचवां क्षेत्र, जिस पर और ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है, वो ये कि देश के सभी शहरी क्षेत्रों के अलग-अलग आंकड़े इकट्ठे करने चाहिए. 1963 में, एनसीआरबी के पास 80 लाख से ज़्यादा आबादी वाले शहरों के अलग-अलग आंकड़े थे. 1993 में, एनसीआरबी ने 20 लाख से अधिक आबादी वाले 19 शहरी समूहों में शहरी अपराध रिपोर्टिंग पर एक अध्याय जारी किया. अपनी नवीनतम रिपोर्ट में, एनसीआरबी महानगरीय शहरों पर आधारित अध्याय में 19 शहरी समूहों की रिपोर्टिंग जारी है. हालांकि, रिपोर्ट में अतिरिक्त तालिकाओं में 34 महानगरीय शहरों के अपराध के आंकड़े हैं. इसके अलावा, 'विविध महानगरों' शीर्षक वाली अतिरिक्त तालिकाओं का एक और सेट 53 बड़े शहरों के अपराध के आंकड़े सामने लाता है. फिर भी, ये अपर्याप्त लगते हैं, क्योंकि वर्तमान में देश भर में 77 पुलिस कमिश्नरेट हैं, और जिनके बड़े शहरी बस्तियों में स्वतंत्र प्रशासनिक अधिकार क्षेत्र हैं.
शहरों पर ध्यान केंद्रित करना इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि शहरी आबादी अब राष्ट्रीय जनसंख्या के 36 प्रतिशत से ज़्यादा है. आने वाले दशकों में शहरीकरण की रफ्तार बढ़ेगी. शहरी क्षेत्रों में तेज़ी से वृद्धि होगी तो उसकी अनुपात में अपराध की घटनाएं भी बढ़ेंगी. इनकी रोकथाम के लिए एनसीआरबी की रिपोर्ट में शहरी अपराध के सटीक आंकड़े होने चाहिए. इससे हमें शहरों में होने वाले अपराधों की मात्रा और अपराध की प्रकृति का आकलन करने में मदद मिलेगी. इसके साथ ही, ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी बस्तियों में अपराध की तुलना करने का अवसर भी मिलेगा.
“प्रमुख अपराध नियम (पीओआर) अपराध की असली संख्या छिपाने जैसा है.”
एनसीआरबी के निदेशक ने रिपोर्ट की प्रस्तावना में अपराध के संबंध में वर्तमान राष्ट्रीय परिदृश्य और व्यापक क्राइम डेटा उपलब्ध कराने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है. उनका भी मानना है कि इससे जांच एजेंसियों को अपराध की प्रवृत्तियों, पैटर्न और कारणों का विश्लेषण करने में मदद मिलेगी. अपराध पर नियंत्रण के लिए प्रभावी रणनीतियां बनाने में मदद मिलेगी. वे आगे लिखते हैं कि इस रिपोर्ट का मुख्य उद्देश्य देश में अपराध के आंकड़ों के लिए प्रमुख संदर्भ दस्तावेज़ पेश करना है. इससे समाजशास्त्रियों, अपराधशास्त्रियों और आपराधिक न्याय प्रणाली के अधिकारियों को अपराध से संबंधित विश्लेषणात्मक शोध करने में मदद मिलेगी. एक प्रमुख पुलिस संगठन होने के नाते, एनसीआरबी को ये करना चाहिए कि वो सिर्फ अपराध के आंकड़ों को इकट्ठा करने तक ही सीमित रहने के बजाय इस डेटा की कुछ ज़िम्मेदारी भी ले.
रामनाथ झा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में डिस्टिंग्विश्ड फेलो हैं.
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Dr. Ramanath Jha is Distinguished Fellow at Observer Research Foundation, Mumbai. He works on urbanisation — urban sustainability, urban governance and urban planning. Dr. Jha belongs ...
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