Author : Nilanjan Ghosh

Published on Feb 22, 2021 Updated 0 Hours ago

इंसानी आर्थिक महत्वाकांक्षाओं ने कुदरती पारिस्थितिकी तंत्र में इस तरह हस्तक्षेप किया है कि इससे पारिस्थितिकी प्रक्रिया और क्षमता पूरी तरह बाधित हो गई और नतीज़तन इसने प्रावधानिक सेवा - भोजन भी प्रभावित हुआ है.

दक्षिण एशिया में खाद्य सुरक्षा से संबंधित पारिस्थितिकी तंत्र (इको-सिस्टम) का प्रारूप

एसडीजी-2 के तहत जिस ज़िरो हंगर का ख़ाका तैयार किया गया है उसका निहितार्थ आशय अक्सर जिसे खाद्य सुरक्षा  जिसका संदर्भ केवल खाद्य उत्पादन के ज़रिए इसके न्यूनीकरण चित्रण के संदर्भ से जोड़ कर देखा जाता है, उससे कहीं ज़्यादा है. ऐसे न्यूनीकरण की अपर्याप्तता को पहली बार दक्षिण एशिया (उदाहरण स्वरूप 1943 में बंगाल का सूखा) में आए सूखे और पिछली शताब्दी में दुनिया के दूसरे अविकसित देशों में आई कुदरती आपदाओं ने रेखांकित किया. यही वज़ह है कि यूनाइटेड नेशन्स की कमेटी ऑन वर्ल्ड फूड सिक्युरिटी ने खाद्य सुरक्षा को ऐसी स्थिति के रूप में वर्णित किया कि  जहां सभी लोग, हर वक्त में, पर्याप्त, सुरक्षित और पोषक खाद्य पदार्थों को लेकर भौतिक, समाजिक और आर्थिक पहुंच सुनिश्चित हो सके और जो उनके स्वास्थ्य और सक्रिय ज़िंदगी के लिए खाद्य प्राथमिकताओं को पूरा कर सके. इस व्याख्य़ा से कई आयाम जुड़े हुए हैं. पहला तो ये कि यह खाद्य उत्पादन के बारे में यह सुनिश्चित करता है कि पर्याप्त खाद्य पदार्थ उपलब्ध है, दूसरा इसके अलग-अलग स्वरूपों में शेयर और आवंटन से जुड़ी चीजें शामिल हैं जिससे भोजन की अधिकता को सुनिश्चित की जा सके और तीसरा यह उत्पादन की निरंतरता और आवंटन प्रक्रिया को रेखांकित करता है जिससे खाद्य उपलब्धता और पहुंच सुनिश्चित हो सके.

दक्षिण एशिया में भूख

दक्षिण एशिया में पिछले दशक में आबादी 1.5 फ़ीसदी प्रति वर्ष के दर से बढ़ रही है जबकि कृषि उत्पादन 2.5 से 3 फ़ीसदी प्रति वर्ष की दर से बढ़ रहा है. ग़नीमत है कि कृषि उत्पादन आबादी की रफ़्तार के मुताबिक़ ही बढ़ रही है, जिससे की खाद्य जैसी ज़रूरी चीज के प्रावधानिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाई जा सके. इसके बावज़ूद दक्षिण एशिया का ग्लोबल हंगर इंडेक्स दुनिया के कई देशों के मुक़ाबले काफी ख़राब है. यह सब सहारा अफ्रीकन देशों की अपेक्षा में दूसरे नंबर पर आता है. पिछले दो दशकों में जो भी सुधार हुआ है वो हाशिये पर दिखता है. सहस्त्राब्दी की शुरुआत में दक्षिण एशिया में 38.2 ग्लोबल हंगर इंडेक्स (यह अलार्मिंग की कटेगरी में आता है जिसका 35 से 49.9 का दायरा है) घट कर 26 ( अभी भी यह गंभीर की श्रेणी में आता है जो 20 से 34.9 के बीच आता है) पहुंच गया. इसी दौरान सब सहारा अफ्रीका में ग्लोबल हंगर इंडेक्स 42.7 से घटकर 27.8 हो गया जबकि उसी दौरान यूरोप और सेंट्रल एशिया में यह आंकड़ा 13.5 ( मॉडरेड रेंज की कटेगरी में यह आता है जो 10 से 19.9 के बीच होता है) से घटकर 5.8 हो गया.

दक्षिण एशिया का ग्लोबल हंगर इंडेक्स दुनिया के कई देशों के मुक़ाबले काफी ख़राब है. यह सब सहारा अफ्रीकन देशों की अपेक्षा में दूसरे नंबर पर आता है.

इसका मतलब यह हुआ कि आवंटन से जुड़ी वर्षों पुरानी यह समस्या दक्षिण एशिया में निरंतर बनी हुई है. हालांकि, भारत का नेशनल फूड सिक्युरिटी एक्ट 2013 कुछ ख़ास टारगेट ग्रुप की व्याख्य़ा पर ज़ोर डालता है और आवंटन की अहमियत को दर्शाता है. भारत की मौज़ूदा हालत दक्षिण एशिया के दूसरे देशों से कहीं ज़्यादा ख़राब है. बढ़ती आबादी की ज़रूरतों के लिए भोजन की व्यवस्था करने में भारत का रैंक 94 वां है, जबकि श्रीलंका (64), नेपाल (73), बांग्लादेश (75), और पाकिस्तान (88) से भी पीछे है. और तो और कोरोना महामारी की वज़ह से लॉकडाउन की घोषणा के बाद भारत में स्थितियां और ख़राब हुईं. लॉकडाउन के बाद बाज़ार की तमाम ताक़तें असहाय हो गई और देश के अंदर आवंटन व्यवस्था की कमियों की पोल खुल गई. सामान्य स्थिति में जो बाज़ार की ताक़तें आवंटन व्यवस्था की ख़ामियों को दूर करने का प्रयास करती थीं वो लॉकडाउन के दौरान बिल्कुल कमज़ोर दिखीं.

खाद्य उत्पादन के लिए प्राकृतिक तौर पर पूंजी का आधार

ज़्यादातर दक्षिण एशियाई देशों की खाद्य सुरक्षा संबंधी नीतियों में जो तत्व नहीं पाई जाती है वो पारिस्थितिकी तंत्र और भोजन के बीच की पेचीदा कड़ी है. इस बात को लेकर बेहद कम जागरूकता देखी जाती है कि पारिस्थितिकी तंत्र, खाद्य प्रावधानों की बेहद अहम भूमिका है. खाद्य के उत्पादन पहलू का संबंध कृषि व्यवस्था के पारिस्थितिकी तंत्र की प्रक्रिया और गतिविधियों से पूरी तरह जुड़ा होता है. दरअसल, यह प्राकृतिक पूंजी का आधार ही होता है जो खाद्य उत्पादन व्यवस्था पर निर्धारित होती है. पारिस्थितिकी तंत्र पानी, मिट्टी का निर्माण, मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाना, पेस्ट कंट्रोल में ऑर्गेनिक तरीके से मदद पहुंचाना जैसे अहम कार्य को संपादित करता है. बड़ी बात यह है कि कम समय में आर्थिक रूप से जो नुक़सान नज़र आता है वह पारिस्थितिकी सेवाओं के लिहाज़ से तेज़ी दिखती है. गंगा नदी में बाढ़ आने से बने मैदानी इलाक़े इसके उदाहरण है. जिसे साफ़-तौर पर बाढ़ से हुई बर्बादी बताई जाती है वह बाढ़ का पानी जब कम होता है तो अपने पीछे बेहद उपजाऊ गाद और माइक्रोन्यूट्रिएन्ट्स छोड़ जाता है जो खेती के लिए सबसे उपजाऊ ज़मीन तैयार करने में मदद करता है जिसे दक्षिण एशिया में चावल का कटोरा कहा जाता है.

पारिस्थितिकी तंत्र पानी, मिट्टी का निर्माण, मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाना, पेस्ट कंट्रोल में ऑर्गेनिक तरीके से मदद पहुंचाना जैसे अहम कार्य को संपादित करता है.

हालांकि, इंसानी आर्थिक महत्वाकांक्षाओं ने कुदरती पारिस्थितिकी तंत्र में इस तरह हस्तक्षेप किया है कि इससे पारिस्थितिकी प्रक्रिया और क्षमता पूरी तरह बाधित हो गई और नतीज़तन इसने प्रावधानिक सेवा – भोजन भी प्रभावित हुआ है. दक्षिण एशिया में ऐसे कई उदाहरण है. गंगा नदी पर बने फरक्का बराज से तलछटी के प्रवाह को रोकने से गंगा नदी पर डेल्टा तैयार हो गया है. इसके अलावा यह मछली पालन की गति को भी रोकता है जिससे पारिस्थितिकी तंत्र के बेहद अहम प्रावधानिक सेवाएं प्रभावित होती हैं जिससे मछुआरों की आजीविका पर असर पड़ता है. पिछली शताब्दी में खेती का गैर-संधारणीय विस्तार लैंड कवर, नदियों के बहाव के रास्ते, जलीय जीव में बहुत ज़्यादा बदलाव को देखा है जिसके चलते पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा है जिसका नतीज़ा ये हुआ कि इससे उनकी भोजन की प्रोविज़निंग समेत  कई सेवाओं की क्षमता प्रभावित हुई है. दक्षिण भारत में कावेरी बेसिन और भारत और बांग्लादेश में ट्रांस-बाउंड्री तीस्ता बेसिन इलाक़े में धान के सपोर्ट प्राइस में बढ़ोतरी के मुक़ाबले सिंचित धान के क्षेत्रफल में कई गुना बढ़ोतरी ने यहां पानी से जुड़ा विवाद शुरू कर दिया है. इसके अलावा खाद और कीटनाशकों के गैर-संधारणीय इस्तेमाल के चलते भारत , पाकिस्तान और बांग्लादेश के कई हिस्सों में कुदरती तौर पर मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बाधित हुई है, जो दीर्घकालिक उत्पादन क्षमता को प्रभावित करती है. हरित क्रांति की विरासत जिसके तहत ऐसे संसाधन आधारित प्रक्रिया, गैर-संधारणीय ज़मीन के इस्तेमाल के चलते जंगल की कटाई और क्लाइमेट चेंज के कारकों के चलते समस्या और बढ़ी है.

गैर-संधारणीय ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव पारिस्थितिकी तंत्र की दृढ़ता को कम करने के साथ खाद्य प्रावधानों के संधारण को भी बाधित करता है.

दरअसल, समस्या का केंद्र इस बात में निहित है कि ज़्यादातर ज़मीन के साथ कृषि संबंधी पारिस्थितिकी तंत्र के संबंध ख़त्म हो गए हैं. गैर-संधारणीय ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव पारिस्थितिकी तंत्र की दृढ़ता को कम करने के साथ खाद्य प्रावधानों के संधारण को भी बाधित करता है. पानी और भोजन के बीच के अहम संबंध में पड़ने वाले दरार की ओर ये जानकारी इशारा करती है. अब तक खाद्य सुरक्षा को पानी की उपलब्धता के लीनियर और बढ़ती गतिविधियों के आलोक में देखा जा रहा है. हालांकि, अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के अनुभवों ने ऐसे दावों को ख़ारिज़ किया है. पश्चिमी देशों में डैम पर पाबंदियां लगा दी गई है, जिससे खाद्य सुरक्षा और दूसरे प्रोविज़निंग सेवाओं जो पारिस्थितिकी तंत्र के बुनियाद से जुड़े हैं उसके लिए कुदरती पूंजी आधार को वापस लौटाया जा सके.

खाद्य सुरक्षा को लेकर तैयारी

दक्षिण एशिया में खाद्य सुरक्षा को लेकर की गई चर्चाओं में कई बार खाद्य आवंटन (जो लॉकडाउन के दौरान और भी अहम तौर पर सामने आया) के विषय पर चिंता ज़ाहिर की गई है, लेकिन इस दौरान भी खाद्य सुरक्षा की निरंतरता को लेकर सवाल जवाब नहीं किया गया. यहां तक कि भारत में भी हरित क्रांति ने इस विषय को पूरी तरह छोड़ दिया, और आज तक दक्षिण एशिया में खाद्य सुरक्षा को लेकर इसी विरासत के साथ आगे बढ़ने की परंपरा जारी है. बेहतर मिट्टी और पानी के प्रबंधन द्वारा पानी और ज़मीन की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाकर इस समस्या का समाधान निकाला जा सकता है. वर्चुअल वॉटर’ (या कृषि आयात) के कारोबार में हस्तक्षेप करना इस दिशा में अहम भूमिका निभा सकती है. इसी तरह लैंड-वॉटर-इको सिस्टम प्रबंधन का ख़ाका भी दक्षिण एशिया के लिए ज़रूरी माना जा सकता है जिससे महामारी के बाद विकास की प्राथमिकताओं को एसडीजी 2 के तहत पूरा किया जा सके.

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