Published on Oct 16, 2023 Updated 0 Hours ago
क्या भारत में मोटर गाड़ियों के ज़रिये आवाजाही करने से, लोगों को मिलने वाले अवसर बढ़ेंगे?

ये लेख, कॉम्प्रिहेंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया ऐंड दि वर्ल्ड सीरीज़ का एक भाग है


वैसे तो भारत में मोटर चालित  परिवहन ज़्यादातर ‘दो पहिया’ वाला हैमगर परिवहन अपने आप में ही ‘दो पैरों वाला’ हैक्योंकि अभी भी परिवहन का प्रमुख तरीक़ा ‘पैदल चलना’ ही हैसितंबर 2023 में कुल जिस्टर्ड 35.2 करोड़ गाड़ियों में से लगभग 73 प्रतिशतदोपहिया वाहन हैंअगर दोपहिया और तिपहिया वाहनों को अलग कर देंतो 2023 में भारत में हर एक हज़ार लोगों पर 58 गाड़ियां हैंवैसे तो ये 2012 की तुलना में चार गुना बढ़ोतरी  हैलेकिनबहुत से विकसित देशों की तुलना में ये अब भी बहुत कम हैजहां ये अनुपात 800 का हैएक मोटे अनुमान के मुताबिक़ भारत की लगभग आधी आबादी पैदल या फिर साइकिल से काम पर जाती हैये लोग सड़कों पर तमाम तरह के जोखिमों का सामना करते हैंइसकी एक वजह तो ये है कि भारत की सड़कें वाहनों पर केंद्रित हैंऔर दूसरी वजह ये भी है कि भारत में गाड़ी चलाने का चलन पैदल और साइकिल से चलने वालों के विरोध वाला हैभारत में नीतिगत स्तर पर मोटरगाड़ी से आवाजाही (यहां तक कि इलेक्ट्रिक गाड़ियां) को इसलिए अहमियत दी जाती हैक्योंकि ये माना जाता है कि प्रति व्यक्ति मोटरगाड़ी की उपलब्धता बढ़ने से निश्चित रूप से अवसरों और कुल मिलाकर विकास में वृद्धि होगी.

भारत में नीतिगत स्तर पर मोटरगाड़ी से आवाजाही को इसलिए अहमियत दी जाती है, क्योंकि ये माना जाता है कि प्रति व्यक्ति मोटरगाड़ी की उपलब्धता बढ़ने से निश्चित रूप से अवसरों और कुल मिलाकर विकास में वृद्धि होगी.

आवाजाही और पहुंच

परिवहन या आवाजाही आम तौर पर यात्री और माल ढोने का ज़रिया हैंलेकिनअक्सर सार्वजनिक नीति में आवाजाही को अपने आप में एक मक़सद या फिर पहुंच का एक विकल्प माना जाता हैमिसाल के तौर पर विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति परिवहन की खपत को भारत के विकास की एक अहम समस्या के तौर पर देखा जाता है (ठीक उसी तरह जैसे कि विकास की अन्य वस्तुएं मसलन ऊर्जा). इस चुनौती से निपटने के लिए नीतिगत क़दमों के तौर पर सड़केंकई लेन वाले हाईवे , शहरी और राष्ट्रीय रेल नेटवर्कहवाई अड्डे और बंदरगाहों का निर्माण किया जाता हैताकि मोटर वाहन पर आधारित आवाजाही के संसाधनों की उपलब्धता बढ़ाई जा सकेइसके अलावासीधी और अप्रत्यक्ष सब्सिडी के ज़रिए सरकारी नीति भी निजी वाहनों का मालिकाना हक़ बढ़ाने को प्रोत्साहन देती हैजबकि ये बात सबको पता है कि निजी मोटर गाड़ियां का चलन अपनी असली क़ीमत यानी ऊर्जा की क़ीमतोंप्रदूषण और जाम जैसी दिक़्क़तों के ज़रिए वसूल करता है.

चूंकि ये बात भी सच है कि लोगों को आवाजाही की कोई ज़रूरत होती नहीं हैबल्कि उन्हें पहुंच के उस स्तर की आवश्यकता होती हैजिससे वो उन गतिविधियों में भाग ले सकेंजो आपस में स्थान की दृष्टि से जुड़ी हुई नहीं होतींजैसे कि नौकरियांख़रीदारी और स्कूल जानाभारत में निजी मोटरवाहन से आवाजाही में विकास की दर ये बताती है कि अवसरों तक पहुंच मांग और आपूर्ति में अंतर हैजैसे किसी एक जगह की तुलना में दूसरे स्थान पर नौकरी की उपलब्धता में अंतरऔर इसके अलावा सार्वजनिक परिवहन के साधन भी अपर्याप्त रूप से उपलब्ध होते हैं.

स्थान के अनुपात का असंतुलन

शहरी क्षेत्रों में आवाजाही आम तौर पर श्रम बाज़ार की उपलब्धता  में स्थान के असंतुलन की समस्याओं का समाधान होती हैजो रोज़गार के अवसरों के बरक्स श्रम के असमान वितरण के रूप में दिखाई देती हैअप्रवास की तरह बाहरी इलाक़ों की तरफ़ आवाजाही भी उपलब्ध रोज़गार और कामगारों के आवास के बीच स्थान के अंतर को पाटने का ज़रिया होती हैअप्रवास के उलटये उन इलाक़ों में निजी और सामुदायिक निवेश का लाभ उठाने का माध्यम भी होती हैजहां ‘विकास’ का अभाव होता हैपिछले दो दशकों में भारत के बड़े शहरों के आसपास विकसित हुए उपनगरीय  इलाक़े इस बात की गवाही देते हैंइन उपनगरीय इलाक़ों से बाहर के इलाक़ों की आवाजाही बची खुची संपत्ति की उपलब्धता पर बहुत अधिक निर्भर होते हैंजो किसी शहर के अहम कारोबारी इलाक़ों तक काम के लिए आनेजाने के बोझ की तुलना में बहुत कम क़ीमत पर उपलब्ध होते हैं.

कामगारों के रोज़ के सफ़र से किसी बड़े शहर के अविकसित इलाक़ों को अधिक समृद्ध कारोबारी स्थानों से जोड़ते हैं, और इस तरह अधिक विकसित इलाक़ों की समृद्धि एक बड़ा हिस्सा उन उप-नगरीय स्थानों की ओर स्थानांतरित करते हैं

वैसे तो दूरगामी संतुलन में बाहर को आवाजाही बहुत कम होती हैलेकिनये इस बात के अनुरूप नहीं है कि बाहरी इलाक़ों की तरफ़ आनाजाना केवल फ़ौरी हितों वाला अस्थायी चलन होता हैये नौकरी के अवसरों में स्थान के अंतर को पाटने का एक अहम ज़रिया बना रहेगा और जैसे जैसे आर्थिक बदलाव रफ़्तार पकड़ रहे हैं,और रोज़मर्रा की आवाजाही का दायरा बढ़ रहा हैवैसे वैसे इस आवाजाही की महत्ता भी बढ़ती जाएगी. बाहरी इलाक़ों की तरफ़ आवाजाही ने समुचित स्थान पर रोज़गार की अनुपलब्धता की समस्या का समाधानआवाजाही का बोझ श्रमिक पर डालकर निकाला हैऐसे कामगारों के रोज़ के सफ़र से किसी बड़े शहर के अविकसित इलाक़ों को अधिक समृद्ध कारोबारी स्थानों से जोड़ते हैंऔर इस तरह अधिक विकसित इलाक़ों की समृद्धि एक बड़ा हिस्सा उन उप-नगरीय स्थानों की ओर स्थानांतरित करते हैं, जहां अभी कुछ दिनों पहले तक या तो खेती होती थी या वो अनुपजाऊ इलाक़े थे.

उपनगरीय  इलाक़ों का विकासयानी बड़े शहरों के इर्दगिर्द छोटे उपनगरों का विकास असल में सरकार द्वारा स्थान के स्तर पर संस्थागत योजना के अभाव के कारण बाज़ार द्वारा हालात को अपने हाथ में लेने से होता हैस्थान संबंधी योजना से मोटर वाहनों से आवाजाही घटाने में जो संभावित योगदान होता हैऔर फिर इससे पर्यावरण पर जो प्रभाव पड़ता हैवो बात बहुत से ज़मीनी अध्ययनों से साबित हो चुकी हैये अध्ययन इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत में अंतर का एक तिहाई हिस्सा तोज़मीन के इस्तेमाल का नतीजा होता है.

शहरीकरण और केंद्रीयकरण

औद्योगिक देशों के आंकड़ों पर आधारित अध्ययनों ने ये बात साबित की है कि ज़मीन के इस्तेमाल का तरीक़ा ही प्रति व्यक्ति द्वारा आनेजाने में तय की जाने वाली दूरी में 27 प्रतिशत के अंतर की वजह होता हैहालांकिपरिवहन की दूरी में प्रति व्यक्ति अंतर की आधी वजह तो सामाजिक आर्थिक कारण होते हैंशहरों के बाहरी हिस्सों में ज़मीन के सघन विकास जैसे कि घनी आबादीरोज़गार और आवास का उच्च स्तरीय संतुलन और पासपास स्थित मूलभूत ढांचे जैसी ख़ूबियां होने पर देखा गया है कि इससे लोगों की सुविधाओं और सेवाओं तक पहुंच बढ़ती है और इनसे मोटर गाड़ियों से किए जाने वाले सफर के समय और दूरी की आवश्यकता भी कम होती है. नीदरलैंड्स में आवासीय सर्वेक्षण के आंकड़ों के आधार पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया था कि शहरों का घनत्व का आवाजाही (यानी सफर की दूरी और उसके साधनऔर इस तरह कार्बन डाइऑक्साइड  के उत्सर्जन के बीच सीधा संबंध होता हैइस स्टडी में पाया गया था कि ज़्यादा घनी आबादी (प्रति हेक्टेयर 25 से ज़्यादा मकानोंवाले इलाक़ों में रहने वाले कामगार आम तौर पर कम घनी बस्तियों में रहने वाले श्रमिकों की तुलना में 11.9 किलोमीटर कम सफर करते हैंज़्यादा घनी आबादी वाले इलाक़ों में रहने वाले कामगार आम तौर पर कार को छोड़कर दूसरे माध्यमोंऔर ख़ास तौर से सार्वजनिक परिवहन (मेट्रो और ट्रामसे सफर करते हैंइसी वजह से घनी आबादी वाले इलाक़ों में प्रति यात्री कार्बन डाई ऑक्साइड का अनुमानित उत्सर्जन कम पाया गया थाजब कोई कामगार कम से अधिक घनी आबादी वाले स्तर की ओर प्रवास करता हैतो प्रति यात्री CO2 का उत्सर्जन लगभग 47 फ़ीसद घट जाता हैप्रति हेक्टेयर 10 व्यक्तियों की आबादी बढ़ने से आवाजाही में 0.764 मिनट का ख़र्च कम हो जाता है.

एक अध्ययन में पेट्रोलियम की खपत और पूरी दुनिया में बड़े शहरों के इर्द-गिर्द घनी आबादी का आकलन करने वाली एक स्टडी में दोनों के बीच स्पष्ट नकारात्मक संबंध पाया था: जैसे ही आबादी और सुविधाओं की सघनता बढ़ती है, ईंधन की खपत नाटकीय रूप से कम होती जाती है.

एक अध्ययन में पेट्रोलियम की खपत और पूरी दुनिया में बड़े शहरों के इर्द-गिर्द घनी आबादी का आकलन करने वाली एक स्टडी में दोनों के बीच स्पष्ट नकारात्मक संबंध पाया था: जैसे ही आबादी और सुविधाओं की सघनता बढ़ती है, ईंधन की खपत नाटकीय रूप से कम होती जाती है. ऑस्ट्रेलिया की तुलना में अमेरिकी शहरों में खपत की दर दोगुनी  और यूरोपीय देशों की तुलना में चार गुना अधिक पायी गयी थीजिन शहरों में साधन सबसे ज़्यादा पासपास थेवहां कार का इस्तेमाल सबसे कम और सार्वजनिक परिवहन की सुविधाओं का उच्च स्तर पाया गया थाइस अध्ययन से जो स्पष्ट निष्कर्ष निकलता हैवो ये है कि शहरों के बेहिसाब विस्तार को नियंत्रित किया जाए और सार्वजनिक परिवहन व्यवस्थाओं में निवेश किया जाए.

जहां तक बात विकासशील देशों की है तोअक्सर ये माना जाता है कि ज़मीन के इस्तेमाल के तरीक़े का असर आवाजाही के चलन पर पड़ता हैहालांकिइस मामले में अनुभवों पर आधारित रिसर्च का अभाव है. एशिया के विशाल शहरों जैसे कि नई दिल्लीमुंबईशंघाईकुआला लम्पुरजकार्ता और मनीला में हर के बाहरी हिस्सों में बड़े पैमाने पर उपनगरीय विस्तार होते देखा गया हैजिसकी वजह से शहर के बीचोबीच ट्रैफिक जाम और लोगों को लंबी दूरी का सफर करते देखा जा रहा है. एशिया के विशाल शहरों में लंबी दूरी के सफर की मांग और कार के ज़्यादा इस्तेमाल के पीछे मुहल्लों के स्तर पर ज़मीन के नए तरह के विकास को वजह पाया गया हैमतलब ये कि ऐसा विकास जो पैदल या फिर साइकिल से चलने के लिए मुफ़ीद नहीं हैये विकास 1990 के दशक से होना शुरू हुआ है.

उपनगरीकरण और आबादी का दूर दूर बसाव

वैसे तो सघन शहरों की परिकल्पना बहुत प्रभावी रही हैलेकिनवैचारिक और तकनीकी आधार पर इसकी काफ़ी आलोचना भी की जाती रही हैवैचारिक रूप से सरकार के हस्तक्षेप के भरोसे रहने पर कई अध्ययनों में सवाल उठाए गए हैइन अध्ययनों में मोटे तौर पर ये तर्क दिया जाता है कि ये मसले बाज़ार उसी तरह ख़ुद हल करेगाजैसे कि ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में हुआजहां हाल के वर्षों में आवाजाही की दूरी और वक़्त में गिरावट आई हैक्योंकि रोज़गार के मौक़ों का विकेंद्रीकरण हुआ है और इस तरह काम करने के लिए उपनगरों से उपनगरों के बीच आनाजाना बढ़ा है और जहां यातायात में विकास की प्रमुख वजह गैर कामकाजी सफर रहा हैइसके पीछे मुख्य तर्क ये है कि बाज़ार के दबाव के ज़रिए विकसित हुए ‘बहुकेंद्रीय शहर’ परिवहन में ऊर्जा की खपत और प्रदूषण की समस्या से निपटने का सबसे अच्छा विकल्प हैंआशंका इस बात की जताई जाती है कि आबादी को दूर दूर बसाने की वकालत करने से अपने आप ही वो भविष्यवाणी सही साबित होगी और भविष्य के शहरी स्वरूपों का विकास करेगीजो अपने आप में अकुशल और सामाजिक असमानता वाले होंगे. सार्वजनिक परिवहन में भारी मात्रा में निवेश के फ़ायदों को लेकर भी आशंकाएं जताई जाती रही हैं.

पिछले कई वर्षों से भूगोलविद् इन मानवीय और रोज़गार संबंधी आवाजाही की प्रकृति पर प्रश्न उठाते रहे हैंकुछ लोगों का तर्क है कि विकास लगातार हो रहे उपनगरीकरण का नतीजा हैजो कई बार अनियमित होता हैजैसे कि विकास में ग्रीन बेल्ट से बाधा आती हैकुछ अन्य विद्वानों का तर्क है कि असल प्रक्रिया ‘उल्टे शहरीकरण’ की रही हैये सोच रखने वालों का कहना है कि विकास असल में मौजूदा शहरी क्षेत्रों के आस-पास के इलाक़ों की बनिस्बत बेहद कम शहरी इलाक़ों पर केंद्रित रहा है. इसीलिएकंपनियां और आम परिवार सोच समझकर छोटे क़स्बों की ओर जा रहे हैंजो शहरीकरण के ठीक उलट है.

इन मुद्दों पर विचार हो

मोटर चालित परिवहन अपनी असली क़ीमत का बोझ दूसरे पर डालने की क़ीमत पर विकसित होता हैजैसे कि ऊर्जा की क़ीमतें, (ध्वनि और हवा काप्रदूषण और जाम की समस्यामोटरगाड़ी के परिवहन को लगभग मुफ़्त में सार्वजनिक स्थान की उपलब्धता के रूप में काफ़ी सब्सिडी मिलती हैभारत में निजी मोटर गाड़ियों को सार्वजनिक स्थानोंयहां तक कि पैदल चलने वालों के लिए सड़कों के किनारे बनी जगहों पर भी खड़ा किया जाता है और इसकी क़ीमत भी गाड़ी मालिकों को  के बराबर चुकानी पड़ती हैये बात उन इलाक़ों के लिए भी सही है जहां ज़मीन की क़ीमत दुनिया के सबसे महंगे इलाक़ों के बराबर हैरिक्शासाइकिलपैदल चलने वालों और मोटर गाड़ी से चलने वालों को बराबरी का मौक़ा देने के लिए पार्किंग शुल्क में बढ़ोतरी  से लेकर ज़मीन की क़ीमत जैसे सूचकांक का इस्तेमाल होना चाहिएऔर इसमें गाड़ी खड़ी करने में इस्तेमाल होने वाली जगह का भी ख़याल रखा जाना चाहिएइसमें जाम लगने पर शुल्क की व्यवस्था (इलेक्ट्रिक गाड़ियों की चार्जिंग से ग्रिड पर पड़ने वाले असर), प्रदूषण और दूसरे प्रभावों की क़ीमत वसूलने का प्रावधान भी होना चाहिए.

आवाजाही के रूमानीकरण की जगह अब इलेक्ट्रिक गाड़ियों से आवाजाही को बढ़ावा देना ले रही है. अब बेहतर नतीजों के लिए आवाजाही पर गहराई से विचार करने की ज़रूरत है.

आवाजाही के रूमानीकरण की जगह अब इलेक्ट्रिक गाड़ियों से आवाजाही को बढ़ावा देना ले रही है. अब बेहतर नतीजों के लिए आवाजाही पर गहराई से विचार करने की ज़रूरत है. परिवहन व्यवस्था के व्यवहार के नज़रिए से ऐसी ‘मोबिलिटी के विकास’ की ज़रूरत नहीं हैअगर मोबिलिटी को उसके मक़सद के हिसाब से  परिभाषित किया जाए. मक़सद पर आधारित आवाजाही को इस बात से आंकें कि कोई व्यक्ति हर दिन किस ख़ास काम से कहां और कितना सफर करता हैतो उपयोग आधारित आवाजाही में वृद्धि होगीदूसराआनेजाने के लिए चुनाव की आज़ादी तब नहीं बढ़ती जब आवाजाही के साधनों का विकल्प बढ़ता हैचुनाव की आज़ादी अर्थशास्त्र का मसला हैजो लोग किसी ख़ास तरह के परिवहन का ख़र्च नहीं उठा सकते हैंउनके पास आनेजाने का विकल्प चुनने की आज़ादी नहीं होती.

तीसराकिसी भी परिवहन व्यवस्था में गति में वृद्धि से समय बचेऐसा ज़रूरी नहीं हैऐसा क्यों है इसे समझने के लिए हम ‘हर बार के सफर’ को उसकी शुरुआत और मंज़िल के स्तर पर समझना होगाइतिहास ने दिखाया है कि परिवहन की गति में बढ़ोत्तरी या तो इसकी शुरुआत के ठिकाने (जैसे कि रिहाइशया फिर मंज़िल (जैसे कि काम की जगहपर आधारित होती हैजिसमें आनेजाने में लगने वाला समय बराबर ही रहता हैदूसरे शब्दों में परिवहन की गति में बढ़ोत्तरी से मकान और दफ़्तर के ठिकाने बदलते हैं कि सफर का समयदूसरे विश्व युद्ध के बाद के दशक में औद्योगिक देशों में पैदल चालकों की तुलना में मोटर वाहनों से चलने वालों को बढ़त की वजह उसकी गति का एक ऐसे माहौल में परिचालन होता थाजो मोटे तौर पर पैदल चालक के लिए तैयार किया गया था. 1970 का दशक आते आते, पैदल चलने वालों पर मोटर से चलने वालों की तुलनात्मक बढ़त मोटरगाड़ियों के लिए विकसित किए गए इलाक़ों की दूरी पर निर्भर हो गईउस माहौल में मोटरगाड़ी से चलने का पूरा फ़ायदा कम हो गयाक्योंकि मोटर से चलने वालों की आवाजाही की क्षमता के हिसाब से औद्योगिक गतिविधियों की दूरी बढ़ गई.

Source: Ministry of Road Transport & Highways
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.

Authors

Lydia Powell

Lydia Powell

Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

Read More +
Akhilesh Sati

Akhilesh Sati

Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

Read More +
Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

Read More +