21वीं सदी के तीसरे दशक ने दुनिया को अब-तक की सबसे प्रचंड चुनौती का सामना करने पर मजबूर कर दिया है. ये चुनौती है कोविड-19 महामारी के ख़िलाफ़ साझा, समान और स्पष्ट रुख़ पेश करना. इस भीषण संकट ने अंतर-राष्ट्रीयवाद के विचार पर उसके मुखर समर्थकों के भरोसे का इम्तिहान लिया है. हालांकि 2019 में वुहान में कोविड-19 का पहला मामला सामने आने के पहले से ही वैश्विक व्यवस्था में बदलावों को लेकर मंथन का दौर शुरू हो चुका था. मौजूदा क़वायद उसी मंथन का हिस्सा है.
विश्व व्यवस्था में अमेरिका की प्रधानता काफ़ी हद तक ख़त्म हो चुकी है. बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था ने विश्व मंच पर सत्ता और शक्ति का पुनर्वितरण कर दिया है. विश्व व्यवस्था में अगर अब भी अमेरिका की प्रधानता होती तो महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई में सामूहिक प्रयासों के पीछे वही मुख्य उत्प्रेरक का काम करता. जबकि हक़ीक़त ये है कि अमेरिका ने महामारी से बचने के लिए ख़ुद को दुनिया से अलग-थलग कर लेने की प्रवृति का ही प्रदर्शन किया. अमेरिकी रुतबे में ये गिरावट और अमेरिका का ये बर्ताव पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप के “अमेरिका फर्स्ट” अभियान के काफ़ी पहले से ही शुरू हो चुका था. पारस्परिक निर्भरता और वैश्विक सहयोग के काल्पनिक और आदर्शवादी विचार को यूरोप में पहले ही झटका लग चुका था. ब्रेक्सिट ने यूरोपीय संघ की वैचारिक और संस्थागत बुनियादों को धराशायी कर दिया था. दूसरी ओर दुनिया की एक और बड़ी ताक़त चीन अपने प्रोजेक्ट ‘पैक्स सिनिका’ को आगे बढ़ा रहा था. इसके तहत चीन वैश्वीकरण को अपनी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए फ़ायदे का सौदा बनाने की जुगत करता रहा है.
हक़ीक़त ये है कि अमेरिका ने महामारी से बचने के लिए ख़ुद को दुनिया से अलग-थलग कर लेने की प्रवृति का ही प्रदर्शन किया. अमेरिकी रुतबे में ये गिरावट और अमेरिका का ये बर्ताव पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप के “अमेरिका फर्स्ट” अभियान के काफ़ी पहले से ही शुरू हो चुका था.
वैश्विक संस्थाएं कमज़ोर पड़ गई हैं. उनकी व्यवस्थाओं में राजनीतिक इच्छाशक्ति के निवेश से होने वाले फ़ायदे पहले की अपेक्षा काफ़ी सिकुड़ गए हैं. कोरोना वायरस संकट ने इस रुझान को और बड़ा बना दिया है. तेज़ी से फैलती इस बीमारी से निपटने के लिए देशों में आपाधापी मच गई. हालांकि उनकी तात्कालिक प्रतिक्रिया ख़ुद को सिकोड़ने वाली, सिर्फ़ अपने भीतर झांककर अपनी फ़िक़्र करने वाली या फिर केवल कुछ मुट्ठीभर सहयोगियों का साथ लेने या अकेले चलने वाली रही. अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के साथ देशों का जुड़ाव सिर्फ़ अपना भला करने के मकसद से ही हुआ है. आख़िरकार हरेक देश का रुख ‘डार्विनवादी’ ही साबित हुआ है. उन्होंने दूसरों की चिंता किए बिना केवल अपने अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद को ही सबसे ऊपर रखा है. ‘वैक्सीन तक पहुंच‘ के मामले में दुनिया का जो विकृत नक्शा सामने आया है, वो इस प्रवृति की सटीक मिसाल है.
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की उदारवादी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिम ने ही तय किया. हालांकि इस सदी की शुरुआत से ही ये व्यवस्था अपने वज़ूद की लड़ाई लड़ रही है. दक्षिण और पश्चिम एशिया में युद्धों और वित्तीय संकटों ने पुरानी व्यवस्था के सामने कड़ी चुनौतियां पेश की हैं. एक ‘संशोधनवादी ताक़त के तौर पर चीन के उभार’ में भी इसका बड़ा हाथ रहा है. इस कड़ी में आगे चलकर विश्व मंच पर वुहान वायरस का विस्फोट हुआ. आधुनिक भूराजनीति को प्रभावित करने वाली प्रक्रियाओं में इसने और तेज़ी ला दी. यहां इनमें से कुछ की चर्चा नीचे की गई है.
आधुनिक भू-राजनीति के तीन कारक
आज दुनिया के देश विश्व मंच पर नए क्षेत्रीय और वैश्विक किरदारों के उभार के प्रभावों का सामना कर रहे हैं. ऐसे में आधुनिक भूराजनीति का पहला कारक है अपनी गोटियां फिर से बिठाना. अमेरिका के नेतृत्व वाली सदी ढल चुकी है. आज एशिया दुनिया की उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं का केंद्र है. लिहाज़ा एशियाई सदी का उभार काफ़ी हद तक क्षितिज पर नज़र आ रहा है. विश्व स्तर पर सत्ता के संतुलन को सबसे बड़ी चुनौती चीन की तरफ़ से मिलती दिखाई दे रही है. महामारी के बाद पटरी पर आने वाली सबसे पहली अर्थव्यवस्था चीन की ही रहने वाली है. इसमें कोई शक़ नहीं कि चीन का अंतरराष्ट्रीय बर्ताव कई देशों (ख़ासतौर से अमेरिका और उसके साथी देशों) के मन में अविश्वास की भावना पैदा करता है. इसके बावजूद बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के लॉन्च होने, वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के साथ चीन के क़रीबी जुड़ाव और सैनिक और असैनिक प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उसकी तरक्की के मद्देनज़र विश्व मंच पर चीन का उभार एक न टलने वाली हक़ीक़त बन गया है.
इन तमाम परिस्थितियों के बीच टकराव जैसे हालात टालना नामुमकिन हो जाता है. राष्ट्रपति बाइडेन के अंतरिम राष्ट्रीय सुरक्षा और सामरिक नीति दिशानिर्देशों में चीन और रूस- दोनों के उभार को स्थिर और मुक्त अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के सामने पेश चुनौती के तौर पर देखे जाने की बात कही गई है. उधर राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हाल ही में ये घोषणा की है कि चीन किसी भी विदेशी ताक़त को धौंस जमाने, दमन करने या चीन को ग़ुलाम बनाने की कभी भी छूट नहीं देगा. उन्होंने साफ़ किया कि कम्युनिस्ट पार्टी का ज़ोर “चीनी राष्ट्र का बड़े पैमाने पर कायाकल्प करने” पर ही रहेगा. क्या विश्व की दोनों महाशक्तियां टकराव का रास्ता चुनेंगी या फिर वो कुछ मामलों में सीमित प्रभावों वाले मतभेदों के साथ शांतिपूर्ण ढंग से साथ-साथ जीने का विकल्प चुनेंगी? अमेरिका और चीन की प्रतिद्वंदिता का नतीजा क्या निकलता है, ये देखना अभी बाक़ी है. दोनों महाशक्तियों की इस प्रतिस्पर्धा के बीच फंसे देशों को ये ध्यान रखना होगा कि उभरती भूराजनीति के इस नए दौर में वो अपनी गोटियां किस तरह से बिठाते हैं. रूस से भी न केवल कुछ कड़े और परेशान करने वाले सवाल पूछे जाएंगे, बल्कि उसे कुछ कठिन विकल्प भी अपनाने होंगे. क्या बाइडेन और पुतिन के बीच सकारात्मक जुड़ावों की 21वीं सदी में स्थिरता लाने में कोई भूमिका रहेगी? या चीन और रूस के बीच साठगांठ या गठजोड़ तय है?
अमेरिका और चीन की प्रतिद्वंदिता का नतीजा क्या निकलता है, ये देखना अभी बाक़ी है. दोनों महाशक्तियों की इस प्रतिस्पर्धा के बीच फंसे देशों को ये ध्यान रखना होगा कि उभरती भूराजनीति के इस नए दौर में वो अपनी गोटियां किस तरह से बिठाते हैं. रूस से भी न केवल कुछ कड़े और परेशान करने वाले सवाल पूछे जाएंगे, बल्कि उसे कुछ कठिन विकल्प भी अपनाने होंगे.
दूसरा, बहुपक्षवाद और वैश्वीकरण को ठोस आधार देने वाले ढांचे को लेकर कड़ी मेहनत से हासिल की गई आम राय इन दिनों नाटकीय बदलावों का सामना कर रही है. 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट और कोविड-19 महामारी ने वैश्विक आर्थिक पारस्परिकता की ख़ामियों को बेपर्दा कर दिया है. अत्यंत मुखर-राष्ट्रवाद और लोकप्रियतावादी राजनीति को बढ़ावा मिलने के चलते अब वैश्वीकरण और बहुपक्षवाद को किसी राज्यसत्ता द्वारा लिए जाने वाले संप्रभु फ़ैसलों में दख़लंदाज़ी समझा जाने लगा है. ऐसे में ‘फाटक वाले वैश्वीकरण’ के उभार की संभावना बन गई है. ये वैश्वीकरण का ऐसा विचार है जो पहले के मुक़ाबले अपेक्षाकृत कम आज़ाद और कम मुक्त है. आर्थिक नीतियां अब सिर्फ़ आर्थिक सिद्धांतों से ही प्रभावित नहीं होतीं. आज आर्थिक नीतियों पर सामरिक विचारों, राजनीतिक विश्वासों, जलवायु, स्वास्थ्य और तकनीकी ख़तरों का भी प्रभाव पड़ने लगा है. यूनाइटेड किंगडम, अमेरिका और भारत जैसे देशों ने व्यापार के रास्ते में रुकावटों, निवेश की पड़ताल करने वाले तंत्रों और कई तरह की पाबंदियों के साथ-साथ ऐसी मौद्रिक नीतियां सामने रखी हैं जिनसे ये नए विचार उभरकर सामने आते हैं. चीन ने तो पहले ही विकृत और भ्रष्ट स्वभाव वाले वैश्विक एकीकरण के अपने मॉडल में महारत हासिल कर ली है.
आज बहुपक्षवाद से लोगों का मोह भंग होता दिख रहा है. सीधे तौर पर उसके लिए कई कारक ज़िम्मेदार हैं. इनमें संस्थागत निष्क्रियता, सुधारों का अभाव और निहित स्वार्थों द्वारा उनपर कब्ज़ा करने की प्रवृति शामिल हैं. बहुपक्षीय संस्थाओं द्वारा फ़ैसला लेने की प्रक्रिया में ये तत्व बाधक बनते रहते हैं. यही वजह है कि आज दुनिया के देश छोटे-छोटे समूह बनाने की नीति की ओर बढ़ रहे हैं. ये समूह गतिशील, मुद्दा-आधारित भागीदारी सुनिश्चित करते हैं. इनके ज़रिए समान-सोच वाले देशों के बीच सहयोग में तेज़ी आ सकती है. बहुपक्षवाद की ख़ामियों से पार पाने का ये एक तरीक़ा हो सकता है. हालांकि ये रणनीति कोविड-19 से लेकर जलवायु परिवर्तन जैसी ‘वैश्विक बुराइयों या समस्याओं’ से निपटने में व्यापक और जुड़ाव वाली रणनीतियों के निर्माण में बाधक बन सकते हैं. इनसे पार पाने के लिए सबकी भागीदारी और वचनबद्धता ज़रूरी है. जब तक सब लोगों को टीका लगाकर सुरक्षित नहीं कर दिया जाता तबतक महामारी का अंत नहीं हो सकेगा. इसी प्रकार जलवायु परिवर्तन से जुड़े ख़तरे को किसी एक राज्यसत्ता द्वारा उठाए गए एकतरफ़ा क़दमों के ज़रिए कम नहीं किया जा सकता. मौजूदा समय में जारी बदलावों के चलते बहुपक्षवाद और वैश्वीकरण की ख़ामियों के निपटने के लिए उनके व्यापक फ़ायदों को कम किए बिना नई व्यवस्थाएं बनाने की ज़रूरत आ पड़ी है. आज आर्थिक और रक्षा संबंधी चिंताओं के समाधान के लिए अपना-अपना गुट बनाने की प्रवृति ज़ोर पकड़ रही है. ऐसे में क्या ‘बहुपक्षीय गुटों का समूह’ हम सबके सामने खड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए एक साझा न्यूनतम ढांचे पर रज़ामंद हो सकता है?
विचारमंथनों से भरे इस दौर में भूराजनीति एक नया आकार ले रही है, ताकि उसमें नए किरदारों, उभरते कारकों और विचारों के लिए जगह बन सके. आधुनिक भूराजनीति पर दिन ब दिन भूअर्थशास्त्र और भू-प्रौद्योगिकी का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा है. आज कई अहम कार्य जैसे वैकल्पिक साधनों या हथियारों के ज़रिए युद्ध और भूराजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए व्यवस्थित तौर पर आर्थिक औज़ारों का इस्तेमाल नज़र आ रहे हैं. ये शासन कला की ऐसी मिसालें हैं जो मार्शल प्लान के दौर में भी मौजूद थे. आज भी चीन की ‘चेकबुक कूटनीति’ के रूप में ये मौजूद है. आम अर्थों में बीआरआई इसका सबसे सटीक उदाहरण है.
आज दुनिया के देश छोटे-छोटे समूह बनाने की नीति की ओर बढ़ रहे हैं. ये समूह गतिशील, मुद्दा-आधारित भागीदारी सुनिश्चित करते हैं. इनके ज़रिए समान-सोच वाले देशों के बीच सहयोग में तेज़ी आ सकती है. बहुपक्षवाद की ख़ामियों से पार पाने का ये एक तरीक़ा हो सकता है.
अगर सचमुच माध्यम ही संदेश है तो तकनीक या प्रौद्योगिकी हमारी राजनीति का भविष्य है. चौथी औद्योगिक क्रांति (4IR) के उभार के नतीजे के तौर पर तकनीक का विकास सामने आया है. ये मानव जाति के लिए वरदान और अभिशाप दोनों हो सकते हैं. हाल तक अमेरिका इस तकनीकी उन्नति की अगुवाई करता रहा है. हालांकि अब अमेरिका को इस मोर्चे पर चीन से कड़ी चुनौती मिल रही है. चीन ने उभरती और दोहरे इस्तेमाल वाली तकनीक जैसे आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, क्वॉन्टम कम्प्यूटिंग और बायोटेक्नोलॉजी में भारी-भरकम निवेश किया है. इन क्षेत्रों में सबसे पहले क़दम रखने वाले को न सिर्फ़ तकनीकी मोर्चे पर अगुवाई का तमगा मिलता है बल्कि वो दूसरे देशों के लिए ऐसी सेवाओं का निर्यातक या प्रदाता भी बन जाता है. इससे वैश्विक स्तर पर कुछ मुट्ठीभर देशों पर बाक़ी देशों की निर्भरता बढ़ जाती है. ‘भू-तकनीकी’ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा का एक नया आयाम पेश करती है. इसके तहत राष्ट्रीय सुरक्षा और सामरिक स्वायत्तता से जुड़ी चिंताएं तकनीकी विकल्पों और व्यवस्थाओं को उलझा देती हैं. दुनिया तेज़ी से डिजिटल संसार का रूप लेती जा रही है. ऐसे में भूक्षेत्र की बजाए डेटा पर काबिज़ होना ज़्यादा बड़ी चुनौती साबित होने जा रही है. इसी तरह देशों की सरहदों की बजाए सूचनाओं से जुड़े बेहद अहम बुनियादी ढांचे का बचाव ही अब देशों के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर सबसे बड़ा चैलेंज बनता जा रहा है. जैसे-जैसे किसी व्यक्ति का ध्यान और उसकी नज़रों को अपनी ओर आकर्षित करने से जुड़ी क्षमता और निजी डेटा का राजनीतिक तौर पर महत्व बढ़ता जा रहा है, तो क्या टकराव का अगला मोर्चा मानव रूप में सामने आने वाला है? और अगर ऐसा होता है तो हम इसका बचाव कैसे करेंगे?
नए किरदार, नए भू-क्षेत्र
निश्चित तौर पर ऊपर बताए गए कारक इस बदलाव के केंद्र में हैं, लेकिन भूराजनीति के व्यवहार को नए किरदार और नए भूक्षेत्र प्रभावित कर रहे हैं. वैसे तो कोरोना वायरस संकट में ‘राष्ट्र-राज्य’ की वापसी की आहट सुनाई दी है. सरहदों के आर-पार निवास करने वाले समुदाय पश्चिमी प्रारूप वाली संप्रभुता के सामने तगड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं. ट्विटर से लेकर टेंसेंट जैसी वैश्विक तकनीकी कंपनियों में आर्थिक संसाधनों और ताक़त के केंद्रीकरण ने ये बात जता दी है कि राज्यसत्ताएं अब इस संसार के प्राथमिक किरदार नहीं रह गए हैं. डिजिटल तकनीक की पहुंच और फैलाव के बूते नफ़रत, कट्टरता, असहिष्णुता और अतार्किक विचारधारा ने एक नए जोश के साथ वापसी की है. बड़ी तकनीकी कंपनियां आर्थिक और राजनीतिक विकल्पों की नई मध्यस्थ बन गई हैं. वो पुरानी राजनीतिक व्यवस्था के नियम-क़ायदों को चुनौती दे रहे हैं.
चीन ने उभरती और दोहरे इस्तेमाल वाली तकनीक जैसे आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, क्वॉन्टम कम्प्यूटिंग और बायोटेक्नोलॉजी में भारी-भरकम निवेश किया है. इन क्षेत्रों में सबसे पहले क़दम रखने वाले को न सिर्फ़ तकनीकी मोर्चे पर अगुवाई का तमगा मिलता है बल्कि वो दूसरे देशों के लिए ऐसी सेवाओं का निर्यातक या प्रदाता भी बन जाता है.
हिंद-प्रशांत, यूरेशिया और आर्कटिक जैसे नए भूक्षेत्रों के उभार से नए नियम-क़ायदों, संस्थाओं और भागीदारियों के निर्माण की ज़रूरत आ पड़ी है. इन भूक्षेत्रों में तमाम क्षेत्रीय और वैश्विक शक्तियों ने अपने दांव लगा रखे हैं. चौतरफ़ा रूप से संकुचित दुनिया में इनका निर्माण करने और आकार देने के लिए बेहद सीमित रुचि या नेतृत्व मौजूद है. कुल मिलाकर महामारी ने एक महाशक्ति के तौर पर अमेरिका के रुतबे में आई गिरावट की पुष्टि कर दी है. इसके साथ ही कोरोना संकट की इस घड़ी में उस खाली स्थान को भरने में चीन की नैतिक और राजनीतिक क़ाबिलियत पर भी तीख़े सवाल खड़े हुए हैं. रूस, भारत और चीन की त्रिपक्षीय व्यवस्था के ज़रिए ‘बहुध्रुवीय व्यवस्था’ का विचार सबसे पहले प्रीमाकोव ने सामने रखा था. इस व्यवस्था के साथ निश्चित तौर पर समता और कार्यकुशलता से संबंधित नुकसान जुड़े होते हैं. इसके बावजूद मौजूदा समय में इस विचार में अंतर्निहित भावनाओं की ठोस तरीक़े से पुष्टि हुई है. इसके मुताबिक हमें वैश्विक और घरेलू मामलों के बदलते स्वभाव को समझना होगा, ताकि हम लगातार जटिल होती जा रही दुनिया के हिसाब से अपने तौर-तरीक़ों को ढाल सकें. आज की विश्व व्यवस्था भूराजनीति की परंपरागत समझ के खूंटे से बंधी नहीं रह गई है.
भले ही वैश्विक रूप से शक्ति का प्रदर्शन कर पाने की काबिलियत आज भी अमेरिका के पास ही है. इसके बावजूद आज की दुनिया निरंतर राजनीतिक, आर्थिक, तकनीकी और मापदंडों के स्तर पर बहुध्रुवीय व्यवस्था की ओर बढ़ रही है. मौजूदा भूराजनीति की उभरती हुई रूपरेखा अब भी परिवर्तनशील है. ऐसे में इस धारणा को स्वीकार करने में ही बुद्धिमानी है कि इस प्रक्रिया का अंतिम परिणाम शायद दुविधाओं से भरा हुआ या बिना किसी नतीजे वाला साबित हो. आज का समय अवरोधों या ख़लल से भरा है. दुनिया के वैसे राष्ट्र जो अव्यवस्थाओं में फलते-फूलते हैं वो अल्पकाल में अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं. वहीं दूसरी ओर वैसे देश जो स्थिरता भरी व्यवस्थाओं पर दांव लगाते हैं, शायद वैश्वीकरण का भविष्य और नई विश्व व्यवस्था वही तय करेंगे.
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