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नेपाल का नया संकट — न राजनीति, न महामारी बल्कि पिघलती बर्फ़ है जहां गाँव खाली हो रहे हैं, नौजवान परदेस में हैं और पहाड़ चुप हैं. जलवायु परिवर्तन वहाँ की अगली बड़ी पलायन कहानी लिख रहा है.
नेपाल में हुए विरोध प्रदर्शनों ने युवाओं की नाराज़गी साफ़ दिखा दी- महंगाई, बेरोज़गारी और सरकार पर घटते भरोसे के बीच लोगों का ग़ुस्सा फूटा लेकिन असली और बड़ा ख़तरा कुछ और है जो है जलवायु परिवर्तन. हिमालय का देश नेपाल, जिसने वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में बहुत कम योगदान दिया है, अब उसकी सबसे बड़ी मार झेल रहा है. पिघलते ग्लेशियर, बदलता मौसम और बढ़ती प्राकृतिक आपदाएँ वहाँ के पहाड़ी जीवन और रोज़गार के लिए खतरा बन गई हैं.
अगर दुनिया ने उत्सर्जन नहीं रोका तो वैज्ञानिकों का अनुमान है कि साल 2100 तक हिमालय के 80 प्रतिशत ग्लेशियर पिघल सकते हैं और अगर तापमान वृद्धि को 1.5 सेल्सियस तक सीमित करने की कोशिशें सफल भी हों तब भी करीब 30 प्रतिशत ग्लेशियर गायब हो जाएंगे.
अगर दुनिया ने उत्सर्जन नहीं रोका तो वैज्ञानिकों का अनुमान है कि साल 2100 तक हिमालय के 80 प्रतिशत ग्लेशियर पिघल सकते हैं और अगर तापमान वृद्धि को 1.5 सेल्सियस तक सीमित करने की कोशिशें सफल भी हों तब भी करीब 30 प्रतिशत ग्लेशियर गायब हो जाएंगे. पिछले 12 सालों में नेपाल ने बाढ़, भूस्खलन और तूफ़ान जैसी 44,000 से ज़्यादा आपदाएँ झेली हैं जिनमें 5,600 से अधिक लोगों की मौत हुई और करीब 367 मिलियन डॉलर का नुकसान हुआ.
यानी भ्रष्टाचार और राजनीतिक अस्थिरता से परेशान नेपाल को अब एक और मोर्चे पर लड़ना है वो है जलवायु संकट, जो उसके पहाड़ों, नदियों और आने वाली पीढ़ियों के लिए असली परीक्षा बन चुका है. कुछ मिलाकर इन बिंदुओं से नेपाल में जलवायु संकट का समीकरण समझ सकते हैः
नाज़ुक और अप्रत्याशित वातावरण के कारण कई लोग स्थिर और सुरक्षित जीवन की तलाश में पलायन कर जाते हैं. मिसाल के तौर पर, ढाई नाम के एक गांव में स्थानीय लोगों की संख्या घटती जा रही है क्योंकि पानी की दिक्कत की वजह से कई लोगों ने पलायन किया. 2001 और 2021 के बीच तेरहाथुम ज़िले के पंचकन्या गांव की आबादी में 40 प्रतिशत की कमी देखी गई जबकि थोकलुंग गांव की जनसंख्या 42 प्रतिशत घटी. एक अनुमान के मुताबिक घटते ग्लेशियर के कारण आने वाले समय में हिमालय के हिंदुकुश क्षेत्र में रहने वाले 25 करोड़ लोगों के लिए पानी की कमी की गंभीर समस्या हो सकती है. इसका असर निचले क्षेत्र में रहने वाले 1.6 अरब लोगों पर भी पड़ेगा. ये न केवल नेपाल बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के भविष्य पर असर डालता है. भारत और बांग्लादेश जैसे सघन आबादी वाले देशों में बड़ी संख्या में लोगों के पलायन का ख़तरा है और अरबों लोगों के जीवनयापन पर जोखिम है जो कई कारणों से ग्लेशियर की प्रणाली पर निर्भर हैं.
इस संदर्भ में ये लेख इस बात का पता लगाने का प्रयास करता है कि किस तरह जलवायु परिवर्तन नेपाल में पलायन के पैटर्न को प्रभावित करता है.
इस संदर्भ में ये लेख इस बात का पता लगाने का प्रयास करता है कि किस तरह जलवायु परिवर्तन नेपाल में पलायन के पैटर्न को प्रभावित करता है. साथ ही ये लेख इस बात का भी विश्लेषण करता है कि कैसे हिमालय में जलवायु परिवर्तन स्थानीय लोगों को प्रभावित करता है. जलवायु से प्रेरित विस्थापन पर व्यापक चर्चा में जलवायु परिवर्तन को रखते हुए ये लेख क्षेत्रीय स्तर पर तालमेल की तुरंत आवश्यकता पर ज़ोर देता है ताकि ख़तरे में आ चुके समुदायों को बचाया जा सके और हिमालय की जलवायु प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाया जा सके.
उन तरीकों को समझना महत्वपूर्ण है जहां जलवायु परिवर्तन आम लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में रुकावट डालता है और जिसकी वजह से उन्हें पलायन के लिए मजबूर होना पड़ता है. नेपाल के 60 प्रतिशत से ज़्यादा लोग आमदनी के साधन के रूप में खेती पर निर्भर हैं. नेपाल का तराई क्षेत्र कृषि उत्पादन के मामले में सबसे आगे है. मॉनसून के देर से आने के कारण बार-बार सूखा पड़ने लगा है, विशेष रूप से सर्दियों के महीनों में और पश्चिमी तराई के मैदान में. 1960 से हर दशक में औसत सालाना बारिश में हर महीने 3.7 मिमी की कमी हुई है. आने वाले वर्षों में बारिश वाले दिनों की संख्या कम होने की आशंका है जबकि बारिश की तीव्रता में बढ़ोतरी हो सकती है. इसका असर पानी, कृषि, स्वास्थ्य, आजीविका, ऊर्जा, जैव विविधता, आपदा प्रबंधन और शहरी नियोजन पर पड़ेगा. 2015 के एक अनुमान से पता चलता है कि कृषि पर जलवायु परिवर्तन के असर की वजह से 2050 तक नेपाल के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में हर साल 0.8 प्रतिशत की दर से कमी आएगी. इस अध्ययन ने बारिश के पैटर्न में बदलाव की वजह से फसल के उत्पादन में कमी के बारे में भी बताया जिससे नेपाल में संसाधनों की उपलब्धता और विविधता पर प्रभाव पड़ेगा. कम बारिश से धान और मक्के की खेती में कमी आएगी जो कि नेपाल के ज़्यादातर लोगों के लिए प्रमुख खाद्यान्न हैं. वहीं तीव्र बारिश फसलों को बर्बाद करेगी और मिट्टी के कटाव में बढ़ोतरी करेगी.
नेपाल में जलवायु परिवर्तन, खेती और पलायन के बीच सीधा संबंध है. ऊपरी हिमालय में रहने वाले तिब्बती समुदाय के लोग (जिन्होंने लंबे समय से ख़ुद को दुनिया के सबसे कठिन वातावरण के अनुसार ढाल लिया है) अब मजबूर होकर पलायन कर रहे हैं. ऊपरी मस्तांग के लोग पारंपरिक तिब्बती आध्यात्मिक संस्कृति के अवशेषों को संरक्षित करने वाली गिनी-चुनी जनसंख्या में से हैं. ऊपरी मस्तांग की अर्थव्यवस्था बर्बाद हो चुकी है क्योंकि चारागाह की ज़मीन नष्ट हो गई है और नदियां सूख गई हैं. पिछले 30 वर्षों के दौरान पेड़-पौधों के क्षेत्र में 4.3 प्रतिशत की कमी आई है जिसकी वजह से मिट्टी के कटाव में तेज़ी आई है. सैमज़ोंग जैसे गांव (जहां एक समय उपजाऊ ज़मीन थी) अब सूखा, अनियमित पानी की आपूर्ति और पलायन का सामना कर रहे हैं. उत्सर्जन में कमी के बावजूद ग्लेशियर का पिघलना जारी है. इसकी वजह से नेपाल में ऊपरी इलाकों में रहने वाले लोगों के सामने विस्थापन और नुकसान का ख़तरा है.
पलायन अक्सर बड़े शहरों की ओर होता है जिसकी वजह से कई लोगों के लिए जीवन कठिन हो जाता है. सामाजिक मेलजोल और रोज़गार योग्य हुनर की कमी के कारण लोगों को कम वेतन वाला अस्थिर काम मिलता है. ये उन्हें शोषण और गरीबी के कभी न ख़त्म होने वाले दुष्चक्र में बार-बार फंसने के लिए मजबूर करता है. विदेशों की ओर श्रमिकों का पलायन बढ़ रहा है, विशेष रूप से युवाओं के बीच ये रुझान दिख रहा है. वैसे तो विदेश से आने वाला पैसा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मज़बूत करता है लेकिन प्रवासी श्रमिक अक्सर काम-काज की ख़तरनाक स्थितियों का सामना करते हैं, लंबे समय तक परिवार से दूर रहते हैं और उनकी सामाजिक सुरक्षा अपर्याप्त होती है. महिलाओं और स्थानीय समुदायों को और ज़्यादा चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और ये समाज के वो समूह हैं जिन्हें अक्सर निर्णय लेने की प्रक्रिया में अनदेखा किया जाता है. ये समूह अपने घरों में खाद्य और पानी की सुरक्षा बहाल करने के लिए इंतज़ार करने का बोझ भी उठाते हैं. इसका नतीजा साफ तौर पर इशारा करता है कि जलवायु से जुड़े पलायन के असर को न केवल पर्यावरण के नज़रिए से बल्कि सामाजिक पहलू से भी संभालना चाहिए. अगर प्रभावित परिवारों को जलवायु के मुताबिक ख़ुद को ढालने के लिए उचित सहायता नहीं मिलती है तो वो कष्ट सहते रहेंगे. टिकाऊ आजीविका पैदा करना और विस्थापित परिवारों की मदद करना आवश्यक है. इन प्रयासों के बिना नेपाल के हिमालय से आने वाले प्रवासी धीरे-धीरे अपना आत्मसम्मान और पहचान की भावना खो देंगे क्योंकि उन्हें अपने पहाड़ी घरों से दूर ख़ुद को बचाने के लिए जूझना पड़ेगा.
वैसे तो नेपाल ने अब जलवायु से प्रेरित आवागमन को मान्यता देना और उसे अपने राष्ट्रीय ढांचे में शामिल करना शुरू कर दिया है लेकिन उसकी एकीकृत गतिशीलता की प्रतिक्रिया को अभी भी नीतिगत कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण खामियों का सामना करना पड़ रहा है. दक्षिण एशियाई क्षेत्र में सीमा पार सहयोग में कमी की वजह से ये खामियां और भी बढ़ जाती हैं. वैसे तो नेपाल की राष्ट्रीय अनुकूलन योजना जलवायु प्रेरित पलायन, आजीविका के नुकसान और अनुकूलन पर नज़र रखने वाले डेटा सिस्टम की आवश्यकता पर ध्यान देती है लेकिन फंडिंग से जुड़े मुद्दे, सरकार में अलग-अलग स्तरों पर बंटा हुआ जनादेश और पलायन को लेकर विशेष कानूनों की कमी (जैसे कि सामाजिक सुरक्षा और नियोजित पुनर्वास के ढांचे) इस तरह के प्रस्तावों के कार्यान्वयन को बेअसर बना देती है.
ग्लेशियर सिस्टम, जलवायु परिवर्तन और लोगों का आवागमन अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे हैं और इसलिए इनका समाधान क्षेत्रीय स्तर पर किया जाना चाहिए. लेकिन दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (SAARC) में शामिल देशों के बीच तालमेल छिटपुट स्तर पर है. विशेषज्ञ रुकी हुई परियोजनाओं, अपर्याप्त फंड वाली साझा परियोजनाओं और जलवायु की चुनौतियों के प्रति “चिंतामुक्त” होने की प्रवृत्ति का हवाला देते हैं जो साझा नदी बेसिन, जलवायु सेवाओं और जल्द चेतावनी देने वाली प्रणाली को लेकर सहयोग में रुकावट डालती हैं.
जून 2025 में आपदा जोखिम में कमी के लिए वैश्विक मंच के आठवें संस्करण के दौरान संयुक्त राष्ट्र आपदा जोखिम न्यूनीकरण कार्यालय (UNDRR) और बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी पहल (BIMSTEC) ने एक उच्च-स्तरीय कार्यक्रम का आयोजन किया. इस दौरान नेपाल के गृह सचिव गोकर्ण मणि दुवादी ने एक सामंजस्यपूर्ण BIMSTEC आपदा तंत्र की स्थापना की अपील की जो जोखिम का मूल्यांकन करेगा, सेंडाई फ्रेमवर्क के कार्यान्वयन की निगरानी करेगा और क्षेत्रीय स्तर पर आपदा जोखिम में कमी के लिए एक विशेष फंड बनाएगा. जलवायु पर कदम उठाना BIMSTEC के लिए प्राथमिकता है और उसने काठमांडू में एक वर्कशॉप की मेज़बानी की. इसके माध्यम से लैंगिक समानता और सामाजिक समावेशन के सिद्धांतों पर आधारित जलवायु नीतियों की आवश्यकता को उजागर किया गया.
वैसे तो विदेश से आने वाला पैसा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मज़बूत करता है लेकिन प्रवासी श्रमिक अक्सर काम-काज की ख़तरनाक स्थितियों का सामना करते हैं, लंबे समय तक परिवार से दूर रहते हैं और उनकी सामाजिक सुरक्षा अपर्याप्त होती है.
जल सुरक्षा और सीमा पार विस्थापन पर सीधे प्रभाव की वजह से ग्लेशियर के प्रवाह और बर्फ में बदलाव के लिए हिमालय के हिंदुकुश क्षेत्र में मिले-जुले उपायों की आवश्यकता होगी. हिमालय के हिंदुकुश क्षेत्र में ग्लेशियर और बर्फ के आकलन में खुले आंकड़े, समन्वित जोखिम की निगरानी और पूरे बेसिन में योजना के माध्यम से पूरे हिंदुकुश क्षेत्र में सहयोग की आवश्यकता बताई गई है. हाल की रिपोर्ट बाढ़ और बुनियादी ढांचे के नुकसान से निपटने की आवश्यकता को उजागर करती हैं जो व्यापार और ऊर्जा के नेटवर्क में इस ढंग से रुकावट डाल रहे हैं जिसका मुकाबला कोई एक देश नहीं कर सकता है.
इन मुद्दों का समाधान करने के लिए जलवायु से प्रेरित विस्थापन को राष्ट्रीय और स्थानीय- दोनों बजट के साथ-साथ सामाजिक सुरक्षा की रणनीतियों में भी शामिल किया जाना चाहिए. इस तरह राष्ट्रीय अनुकूलन योजना (NAP) के उपायों को निर्धारित फंडिंग और स्वैच्छिक, अधिकार आधारित पुनर्वास के दिशानिर्देशों के साथ जोड़ा जाना चाहिए. योजना सार्थक नीतियों, खुले जलवायु जोखिम एवं पलायन के आंकड़े पर आधारित होनी चाहिए और क्षेत्रीय मंचों को समय-समय पर डेटा के आदान-प्रदान के समझौतों तथा साझा सूखा प्रबंधन, शुरुआती चेतावनी और GLOF (ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड) जोखिम में कमी के लिए फंड के साथ मज़बूत किया जाना चाहिए. चूंकि अंतर्राष्ट्रीय समझौते अभी भी बाध्यकारी नहीं हैं, ऐसे में सीमा पार करके जाने वाले पर्यावरण प्रवासियों की रक्षा के लिए क्षेत्रीय स्तर पर एक दिशानिर्देश (या प्रोटोकॉल) लागू किया जाना चाहिए जिसमें विस्थापित लोगों के लिए सहायता, रोज़गार और प्रवेश के अधिकार स्पष्ट हों. अगर इन कदमों को नज़रअंदाज़ किया गया तो नेपाल में जिस जलवायु पलायन की भविष्यवाणी की गई है, वो दक्षिण एशिया के श्रम बाज़ारों, जलमार्गों और शहरी केंद्रों को प्रभावित करने वाले संकट की शुरुआत करेगा. इसका नतीजा इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था और जीवनयापन की अपूरणीय क्षति के रूप में निकलेगा.
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Anasua Basu Ray Chaudhury is Senior Fellow with ORF’s Neighbourhood Initiative. She is the Editor, ORF Bangla. She specialises in regional and sub-regional cooperation in ...
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