हवा की गुणवत्ता में आ रही गिरावट और स्वास्थ्य के मोर्चे पर इसके प्रतिकूल प्रभावों ने सिविल सोसाइटी, ग़ैर-सरकारी संगठनों और नीति निर्माताओं के बीच गहरी चिंता ला दी है. वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन में क़रीबी घालमेल है, इनके कारण समान हैं, और ये अक्सर एक-दूसरे को गंभीर बना देते हैं. वैसे तो जलवायु परिवर्तन एक दीर्घकालिक घटना है, लेकिन वायु प्रदूषण इसे विकराल बना देता है. इससे विशाल पैमाने पर तुरंत और तात्कालिक अहमियत वाले परिणाम सामने आते हैं. इस सहसंबंध (correlation) को देखते हुए, हवा की गुणवत्ता (विशेष रूप से शहरी वायु प्रदूषण) में सुधार के उपाय, जलवायु कार्रवाई की ओर क़वायदों में रफ़्तार भरेंगे.
प्रभाव का आकलन
दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक के रूप में दिल्ली आम तौर पर सुर्खियों में छाई रहती है. IQAir ने अपनी विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट में दिल्ली को चौथे पायदान पर रखा है. हालांकि, वायु प्रदूषण, अनिवार्य रूप से अखिल भारतीय स्तर पर मौजूद शहरी संकट है, और विश्व स्तर के 50 सबसे प्रदूषित शहरों में भारत के 39 शहर शामिल हैं.
2016 में दिल्ली में वायु प्रदूषण के ख़तरनाक स्तरों के कारण अधिकारियों ने कई अस्थायी उपाय लागू किए थे. इनमें स्कूलों, कॉलेजों और उद्योगों को बंद करने और डीज़ल जनरेटर्स पर प्रतिबंध लगाने जैसे फ़ैसले शामिल थे.
2016 में दिल्ली में वायु प्रदूषण के ख़तरनाक स्तरों के कारण अधिकारियों ने कई अस्थायी उपाय लागू किए थे. इनमें स्कूलों, कॉलेजों और उद्योगों को बंद करने और डीज़ल जनरेटर्स पर प्रतिबंध लगाने जैसे फ़ैसले शामिल थे. दिल्ली सरकार और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) ने वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) पर आधारित ग्रेडेड रिस्पांस एक्सेस प्लान (GRAP) विकसित किया है. GRAP वायु गुणवत्ता के स्तरों (अच्छे से लेकर गंभीर+ प्रदूषण) के अनुसार इस दिशा में ज़रूरी कार्रवाई और लागू किए जाने वाले उपायों में सामंजस्य बिठाता है. विशिष्ट कालखंड और अंतराल पर प्रदूषणकारी तत्वों की केंद्रीयता के औसत से इस क़वायद का निर्धारण होता है. इसी तरह, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान की राज्य सरकारों ने पराली जलाने से होने वाले वायु प्रदूषण से निपटने के लिए कार्रवाई योग्य (actionable) योजनाएं तैयार की हैं. हालांकि इन तमाम राज्यों के प्रयास फ़ौरी तौर पर सिर्फ़ संकट से निपटने तक सीमित रहे हैं. दरअसल, वायु गुणवत्ता में चरम अस्थिरता, रुझानों की पहचान करने और उसके रोकथाम से जुड़े टिकाऊ तौर-तरीक़ों के क्रियान्वयन को मुश्किल बना देती हैं. ख़ासतौर से व्यापक स्वरूप वाले लक्षित डेटा विश्लेषण के अभाव के चलते ऐसे हालात बन जाते हैं.
इसी प्रकार, 2019 में लागू राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP) का लक्ष्य भारत के 131 शहरों में हवा की गुणवत्ता में सुधार करना है, जिसकी तत्काल और वास्तविक समय पर निगरानी की जाती है. इस कार्यक्रम का मक़सद प्रदूषक केंद्रीकरण में 40 प्रतिशत की कमी हासिल करना है. इस तरह 2026 तक PM 10 केंद्रीकरणों से संबंधित राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानकों (NAAQS) की अनुपालना सुनिश्चित हो सकेगी. PM 2.5 और PM 10 ऐसे सूक्ष्म कण हैं जो तरल पदार्थों की छोटी-छोटी बूंदों, शुष्क ठोस खंडों, और तरल लेप वाले ठोस सत्वों (fragments) से बने होते हैं, सांसों के ज़रिए शरीर में जाने के बाद ये स्वास्थ्य से जुड़े हानिकारक प्रभाव पैदा कर सकते हैं. इसके अलावा राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता निगरानी कार्यक्रम (NAMP), वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग, और टर्बो हैप्पी सीडर मशीनों (THS) के लिए सब्सिडी जैसी पहल, पराली जलाने की प्रक्रिया को हतोत्साहित करके हवा की गुणवत्ता में सुधार लाने का उद्देश्य रखती हैं.
अमेरिका के अनुभव दिखाते हैं कि कैसे डेटा विश्लेषण, प्रबंधन और संग्रह के बेहतर उपयोगों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की रोकथाम से जुड़ी रणनीतियों को प्रभावी ढंग से तैयार करने में भी प्रयोग किया जा सकता है.
बहरहाल, ऐसे उपायों के बावजूद, सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वॉयरमेंट के एक विश्लेषण से पता चला कि NCAP में शामिल शहरों और इसके दायरे से बाहर के शहरों के बीच PM2.5 के स्तरों में बहुत मामूली सा अंतर है. इससे संकेत मिलते हैं कि वायु प्रदूषण कहीं ज़्यादा व्यापक शहरी समस्या है. डेटा निगरानी इस निष्कर्ष की व्याख्या करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. NCAP मानकों के हिसाब से अनुपालना का आकलन करने के लिए CPCB स्थानिक (spatial) औसत का उपयोग करता है. इसकी वजह ये है कि NCAP में शामिल शहरों में से सिर्फ़ तक़रीबन आधे शहरों में ही तत्काल और वास्तविक समय में निगरानी रखने वाले केंद्र मौजूद हैं. ज़्यादातर शहरों के निगरानी केंद्र, डेटा से जुड़ी न्यूनतम आवश्यकता को पूरा नहीं करते. CPCB एक मज़बूत प्रोटोकॉल लागू करने पर विचार कर सकता है, जो ठोस और प्रभावी नीतिगत प्रतिक्रिया सुनिश्चित करने के लिए वास्तविक समय पर हासिल वायु गुणवत्ता डेटा का नियमित रूप से विश्लेषण करता हो! अमेरिका में ओक्लाहोमा गैस एंड इलेक्ट्रिक और ऑस्टिन एनर्जी ने ऐसे कार्यक्रम लागू किए हैं जो एयर कंडीशनिंग के लिए बिजली की मांग को 30 प्रतिशत तक घटाने के लिए डेटा एनालिटिक्स का उपयोग करते हैं. अंतिम उपयोगकर्ताओं को तो ऐसे बदलाव का एहसास तक नहीं होता. इस तरह बिजली संयंत्रों की अतिरिक्त क्षमताओं के निर्माण से बचा जाता है. मासिक बिजली बिलों की तुलना में खपत की जांच-पड़ताल करके, डेटा विश्लेषण उपकरणों की तैनाती से अमेरिका को ऊर्जा की चोरी से निपटने में भी मदद मिली है. अमेरिका के अनुभव दिखाते हैं कि कैसे डेटा विश्लेषण, प्रबंधन और संग्रह के बेहतर उपयोगों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की रोकथाम से जुड़ी रणनीतियों को प्रभावी ढंग से तैयार करने में भी प्रयोग किया जा सकता है.
डेटा-संचालित विकास
जलवायु परिवर्तन से निपटने की क़वायद में डेटा का उपयोग महत्वपूर्ण है. सूचनाओं से लैस निर्णय-प्रक्रिया के लिए व्यापक और नियमित रूप से अपडेट किए जाने वाले वायु गुणवत्ता डेटा भंडार स्थापित करना अहम हो जाता है. G20 अध्यक्ष के रूप में भारत ने अपने एजेंडे में “विकास के लिए डेटा” (D4D) की अहमियत पर ज़ोर दिया है. भारत के G20 शेरपा अमिताभ कांत ने संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को हासिल करने के लिए सुलभ और सूक्ष्म डेटा के महत्व को रेखांकित किया है. इस कड़ी में उन्होंने डेटा पहुंच को सीमित करने वालों की निंदा करते हुए शैक्षणिक और शोध उद्देश्यों के लिए इसके मोल पर ज़ोर दिया है.
भारत सरकार ने 36 महत्वपूर्ण क्षेत्रों के विशाल डेटासेट्स सार्वजनिक किए हैं. एनालिटिक्स और विज़ुअलाइज़ेशन टूल इनके साथ जुड़े हैं. इतने विशाल डेटासेट्स को सार्वजनिक करके भारत ने वास्तविक विकास के लिए डेटा के उपयोग से जुड़ी दौड़ में कमान संभाल ली है. डेटा-संचालित नीति ढांचा लागू किए जाने से अन्य विकासशील देशों को इस क्षेत्र में क्षमता निर्माण के लिए प्रोत्साहन मिलता है. यह SDG 3.9 हासिल करने के लिए भविष्य के वैश्विक सहयोग का रास्ता साफ़ करता है. SDG 3.9 का उद्देश्य हवा, पानी और मिट्टी के प्रदूषण के कारण होने वाली मौतों और बीमारियों में कमी लाना है. टिकाऊ भविष्य के लिए कुछ मसलों पर विमर्श आवश्यक है. इनमें डेटा निजता मानदंड, सीमा के आर-पार डेटा साझा किए जाने से जुड़े मुद्दे, राष्ट्रीय महत्व के संवेदनशील डेटा के स्थानीयकरण और सभी स्टेकहोल्डर्स को एक ही मंच पर लाने से जुड़े मामले शामिल हैं.
डेटा से लेकर आंतरिक दृष्टि तक
उपलब्ध डेटा की प्रचुरता के मद्देनज़र बहुमूल्य आंतरिक दृष्टि निकालने के लिए उसका उपयोग महत्वपूर्ण है. डेटा एनालिटिक्स, सरकार को समस्याओं की पहचान करने और अनुकूलनीय नीतियों को सक्रियता से लागू करने में सक्षम बना सकता है. इसके विपरीत NCAP में प्रदूषण में कमी के लिए कोई समयबद्ध लक्ष्य नहीं है.
स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में प्रेडिक्टिव एनालिटिक्स के आशाजनक प्रयोगों का पता चला है. भावी उपयोग को लेकर इसकी अपार क्षमता एक मिसाल बन गई है. ऑस्ट्रेलियन इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ एंड वेलफेयर, देखरेख से जुड़े ख़र्चों और जनसंख्या वृद्धि जैसे कारकों पर आंतरिक दृष्टि हासिल करने के लिए प्रेडिक्टिव एनालिटिक्स का उपयोग करता है.
हवा की गुणवत्ता पर नज़र रखने वाले मॉनिटर्स हर घंटे प्रदूषक डेटा इकट्ठा करते हैं. इस तरह वो डेटा का एक सघन भंडार बनाते हैं जो अपनी ऊंची रफ़्तार, विविधता, मूल्य और सत्यता के कारण बिग डेटा बनने के क़ाबिल हो जाता है. ऐसे डेटासेट्स पर स्थानिक औसतों के उपयोग की क़वायद, एक अल्प-विकसित दृष्टिकोण बन जाता है. दरअसल ये वायु प्रदूषण जैसी पेचीदा समस्या का अत्यधिक सरल रूप प्रस्तुत करता है. ये किसी दिए गए क्षेत्र के भीतर प्रदूषकों की सूक्ष्म विविधताओं, वायु प्रदूषकों के संपर्क में आने वाली आबादी और उनके स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव, प्रदूषण के स्रोत की पहचान और मौसम विज्ञान से जुड़े अन्य भौगोलिक कारकों की उपेक्षा करता है. इसकी तुलना में ट्रांसफर इनकम मॉडल (जो एक माइक्रोसिमुलेशन मॉडल है) अमेरिका में टैक्स, हस्तांतरण और स्वास्थ्य कार्यक्रमों के प्रभाव का विश्लेषण करने वाला बेहतर दृष्टिकोण है. यह नमूने (sample) के भीतर भिन्नताओं की जांच करने के साथ-साथ समय और भूगोल के आधार पर नीतिगत बदलावों की पड़ताल के लिए कारणों के अनुमानात्मक आंकड़ों (causal inferential statistics) का उपयोग करता है. भारत में NCAP और GRAP के हाइब्रिड ढांचे के ज़रिए इस तरह के मॉडल का उपयोग किया जा सकता है. इसके अलावा हवा की गुणवत्ता की गतिशील प्रकृति का निपटारा करने वाली नीतियों के निर्माण, विश्लेषण और नीतियों को आगे बढ़ाने की मौजूदा क़वायद के लिए मशीन लर्निंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को काम में लाया जा सकता है.
स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में प्रेडिक्टिव एनालिटिक्स के आशाजनक प्रयोगों का पता चला है. भावी उपयोग को लेकर इसकी अपार क्षमता एक मिसाल बन गई है. ऑस्ट्रेलियन इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ एंड वेलफेयर, देखरेख से जुड़े ख़र्चों और जनसंख्या वृद्धि जैसे कारकों पर आंतरिक दृष्टि हासिल करने के लिए प्रेडिक्टिव एनालिटिक्स का उपयोग करता है. इसी प्रकार, पास्ट टाइम सीरीज़ डेटा का इस्तेमाल करके वायु गुणवत्ता के तमाम मॉनिटरों से एक प्रेडिक्टिव मॉडल तैयार किया जा सकता है, जो AQI का पूर्वानुमान लगाने में मदद करेगा. मिसाल के तौर पर अगर सल्फर गंभीर AQI का प्राथमिक कारण है, तो सरकार को पूर्व-निर्धारित कार्रवाइयों के समूह को अमल में लाने की बजाए सल्फर प्रदूषण में योगदान देने वाली विशिष्ट गतिविधियों को निशाना बनाना चाहिए. AQI के निर्धारण में प्रेडिक्टिव एनालिटिक्स, नीतियों की प्रभावशीलता का आकलन कर सकता है. साथ ही अर्थव्यवस्था पर न्यूनतम असर छोड़ते हुए, हवा की बेहतर गुणवत्ता सुनिश्चित करने वाले अनुकूलतम मापदंडों की पहचान भी कर सकता है.
आगे की राह
डेटा की मदद से भविष्य-सूचक नीति निर्माण को शामिल करने वाला गतिशील ढांचा, भारत में वायु गुणवत्ता के मुद्दों से प्रभावी ढंग से और पूर्व-सक्रियता से निपटने की क़वायद का अगला चरण हो सकता है. जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक चुनौतियों से निपटने में डेटा का उपयोग सर्वोपरि है. लिहाज़ा इन मसलों पर ध्यान बढ़ाने की ज़रूरत है, जिसमें एनालिटिक्स बेशक़ीमती मदद मुहैया करा सकता है. जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सहभागितापूर्ण वैश्विक योजना की दरकार है. हिंदुस्तान के पास इस क्षेत्र में अग्रणी शक्ति के रूप में उभरने की क्षमता मौजूद है. वैचारिक नेतृत्व और प्रभावपूर्ण कार्रवाई का प्रदर्शन करके भारत ऐसी कामयाबी हासिल कर सकता है.
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