6 जुलाई 2023 का दिन विश्व व्यापार संगठन (WTO) के लिए बहुत अहम था, क्योंकि उस दिन WTO के सदस्य देशों ने ‘विकास के लिए निवेश (IFD) को सुगम बनाने’ के समझौते से जुड़ी वार्ताएं पूरी कर ली थीं. इस मामले में तारीफ़ के लिए आम तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले जुमले जैसे कि ‘ऐतिहासिक उपलब्धि’, ‘मील का पत्थर’, और ‘निर्णायक मोड़’ वग़ैरह सब लागू हो सकते हैं.
मात्र आम सहमति का इशारा मिलने पर ये उत्साह दिखाकर WTO और इस व्यवस्था के समर्थकों ने अनजाने में कुछ ज़्यादा ही दावे कर दिए हैं. क्योंकि, IFD भले ही आम सहमति की बात करे, मगर इन वार्ताओं में केवल 110 सदस्य देश शामिल हुए हैं. इसके अलावा, ये वार्ताएं न केवल मानक प्रक्रिया के बाहर हुई हैं, बल्कि इनमें WTO के अहम सदस्य देश जैसे कि अमेरिका, वियतनाम, थाईलैंड, दक्षिण अफ्रीका और भारत शामिल नहीं हुए थे.
इस समझौते का बचाव करने वाले दावा करेंगे कि इन वार्ताओं में किसी भी देश के शामिल होने पर रोक नहीं थी. लेकिन, इन समझौतों में इतना कुछ दांव पर लगा है कि वैश्विक व्यापार को प्रभावित करने वाले इन अहम देशों का अगली पीढ़ी की व्यापार वार्ताओं से अलग रहने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता है.
इस समझौते का बचाव करने वाले दावा करेंगे कि इन वार्ताओं में किसी भी देश के शामिल होने पर रोक नहीं थी. लेकिन, इन समझौतों में इतना कुछ दांव पर लगा है कि वैश्विक व्यापार को प्रभावित करने वाले इन अहम देशों का अगली पीढ़ी की व्यापार वार्ताओं से अलग रहने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता है. तो, ये देश किस वजह से IFD वार्ताओं में शामिल नहीं हुए? मतभेद किन बातों को लेकर है? क्या भारत को इस मामले में अपने जैसी हिचक रखने वाले दूसरे साझीदारों के साथ मिलकर सक्रियता से काम करना चाहिए? जिससे वो साझा समाधान निकाल सकें.
चमत्कार का इंतज़ार
आगे बढ़ने का सिलसिला जारी रखने की बेक़रारी में, तमाम साझा बयानों की पहलों (JSIs) के सदस्य देश, सर्विस डोमेस्टिक रेग्यूलेशन, ई-कॉमर्स, इन्वेस्टमेंट फैसिलिटेशन और दूसरे उभरते हुए मुद्दों पर वार्ताएं करते रहे हैं. जो अनौपचारिक संवाद व्यवस्था 2017 में शुरू की गई थी, वो व्यापार के उन नए क्षेत्रों में समान विचारधारा वाले सदस्यों को वार्ता की मेज़ पर बिठाती रही है, जो दोहा दौर के आधिकारिक एजेंडे का हिस्सा नहीं हैं. अगर ये विषय दोहा दौर के एजेंडे का हिस्सा हैं भी, तो उनका स्वरूप और संरचना अलग है, क्योंकि वो WTO के मौजूदा समझौतों से जुड़े हुए हैं.
हालांकि, जैसा कि कहावत है कि नर्क का रास्ता नेकनीयती से होकर जाता है. JSI शुरू से ही एक समस्या रही है, क्योंकि वो ट्रेड नेगोशिएटिंग कमेटियों (TNCs) के दायरे से बाहर काम करती रही हैं, और इस तरह उस संस्थागत व्यवस्था का हिस्सा नहीं है, जिस पर विश्व व्यापार संगठन के सभी देश सहमत हुए थे. वैसे तो JSI अपनी तरफ से व्यापार के मुख्य मुद्दों पर वार्ता करने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन, सच्चाई ये है कि ये बातचीत, WTO के अंतर्गत उपलब्ध संस्थागत रूप-रेखा के दायरे से बाहर हो रही है. इससे इनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होते हैं. यही नहीं, अगर कोई संगठन अपने ही नियम क़ायदों का पालन नहीं करता, तो फिर उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठेंगे. क्योंकि, जिस तरह चीज़ें चल रही हैं, वो सबसे ताक़तवर सदस्य देशों को पसंद नहीं आ रही है. इस प्रयास से पाखंड और ज़बरदस्ती थोपने की बू आ रही है.
भारत लगातार JSI की व्यवस्था की समस्याओं का हवाला देता रहा है, और उसका इशारा इसी कमी की तरफ़ है. हालांकि, इससे इस बात की ज़रूरत भी महसूस हो रही है कि भारत को फ़ौरन समान विचारधारा वाले देशों को एकजुट करके व्यापार के इन मुद्दों पर चर्चा करनी चाहिए, या फिर ज्वाइंट स्टेटमेंट इनिशिएटिव (JSI) एक नियम बन जाएंगे.
Figure 1: विश्व व्यापार संगठन की संरचना
जैसा कि हम Figure 1 में देख सकते हैं कि WTO में बहुपक्षीय वार्ताओं की एक मिसाल पहले से मौजूद है. हालांकि, ये सारे बहुपक्षीय समझौते आम सहमति पर आधारित व्यवस्था का नतीजा थे. JSI इस वर्ग में नहीं आते हैं, जिससे वो एक विश लिस्ट से ज़्यादा नहीं रह जाते कि ऐसा होना चाहिए.
JSI में वैधानिकता का विशुद्ध रूप से अभाव इसलिए है, क्योंकि वो दोहा दौर की औपचारिक बातचीत के एजेंडे का हिस्सा नहीं बनाए गए हैं. वैसे तो आम तौर पर यही माना जा रहा है कि दोहा दौर में कुछ नहीं बचा है, समाप्त हो गया है. लेकिन, WTO की वार्ता करने की व्यवस्था में सुधार लाने के कोई गंभीर प्रयास नहीं किए जा रहे हैं. उचित प्रक्रिया की अनदेखी करके, उन लोगों ने उसी व्यवस्था की बेइज़्ज़ती कर दी है, जिसे संरक्षित करने की वो कोशिश कर रहे हैं.
विश्व व्यापार संगठन में सुधार के ज़्यादा परेशान करने वाले मुद्दों पर वाजिब रूप से ध्यान देने के बजाय नए मुद्दों पर समझौतों का दबाव बनाया जा रहा है.
इससे भी ज़्यादा परेशानी की बात तो ये है कि विश्व व्यापार संगठन में सुधार के ज़्यादा परेशान करने वाले मुद्दों पर वाजिब रूप से ध्यान देने के बजाय नए मुद्दों पर समझौतों का दबाव बनाया जा रहा है. अगर कोई व्यवस्था पूरी कुशलता से काम नहीं कर रही है, और वार्ता प्रक्रिया के विकल्प WTO के भीतर ही तलाशे जा रहे हैं, तो फिर यही ताक़त मौजूदा व्यवस्था को सुधारने में क्यों नहीं इस्तेमाल की जा रही है?
सुधार का सवाल मोक्ष प्राप्त करने के अंतहीन इंतज़ार में तब्दील हो गया है, जो कभी पूरा नहीं होता और समय का चक्र अपनी गति से चलता रहता है.
श्रोडिंगर का समझौता
IFD के दायरे में रखे गए वादे, ऑफिशियल फैक्टशीट पर आधारित हैं और ये सभी विषय, घरेलू सुधार की ज़रूरत के ‘बेहतरीन प्रयास’ हैं. इसका अर्थ ये है कि देशों के लिए कोई वादा पूरा करने की बाध्यता नहीं होगी. लेकिन, वो बातों पर सहमत हुए हैं उन्हें पूरा करने के लिए अपनी तरफ से ‘पुरज़ोर कोशिश’ ज़रूर करेंगे. हो सकता है कि इन समझौतों का बाध्यकारी न होना, शायद उन तमाम देशों के बीच आम सहमति बनाने की कोशिश हो, जो इन समूहों का हिस्सा हैं.
इस फैक्टशीट के दायरे से ‘बाज़ार तक पहुंच, निवेश के संरक्षण और निवेशक व देश के बीच विवाद के निपटारे (ISDS)’ जैसे मुद्दों को अलग रखा गया है. वैसे तो कोई भी ये सवाल उठा सकता है कि क्या इन मुद्दों पर किसी बहुपक्षीय मंच में चर्चा हो भी सकती है या नहीं? लेकिन, इन मुद्दों को अलग रखकर IFD की तरह का समझौता क्यों किया गया, इस बात पर समझौता करने वालों को सफाई देनी चाहिए. एक ऐसा ही मसला सर्विसेज़ डोमेस्टिक रेग्यूलेशन (SDR) के मामले में पूरे किए गए ज्वाइंट स्टेट एग्रीमेंट का भी है. वैसे तो SDR के रेफरेंस पेपर में शामिल किए गए नियम अहम हैं. लेकिन, सदस्यों के पास इनसे दूरी बनाने का विकल्प भी इसके पहले हिस्से (point 5) में दिया गया है, जिससे ये दस्तावेज़ भी बाध्यकारी नहीं रह जाता है.
क्या ये मुमकिन है कि व्यवस्था में भरोसा और सुधार की उम्मीद लगाए रखी जाए, या फिर अब समय आ गया है कि हम सच्चाई को स्वीकार करें, ताकि बातचीत की मेज़ पर भारत, अपनी जगह और अपनी बात रखने का हक़ न गवां दे?
वैसे तो इस समझौते का असली दस्तावेज़ अभी भी सबके लिए उपलब्ध नहीं है. लेकिन, सार्वजनिक की गई फैक्टशीट में ISD से जुड़ा एक और मसला भी नज़र आता है. फैक्टशीट अपने आप में ये बात साफ़ कर देती है कि, व्यापार के उदारीकरण को बढ़ावा देने वाली कोई भी बात इसमें शामिल नहीं की गई है. अब पारदर्शिता और स्पेशल एंड डिफरेंशियल ट्रीटमेंट के मुद्दे, एग्रीमेंट ऑन ट्रेड रिलेटेड इन्वेस्टमेंट मेज़र्स (TRIMS) के दायरे से बहुत आगे जाते हैं या नहीं, ये देखने वाली बात होगी. हालांकि, इसकी संभावना कम ही है. क्योंकि, TRIMS का समझौता ये सुनिश्चित करने के लिए था कि वस्तुओं के व्यापार के मामले में व्यापार को सीमित करने वाली निवेश की नीतियां लागू न की जाएं. ऐसा लगता है कि इस मामले में IFD कुछ ज़्यादा ही दुविधा में है, क्योंकि उसका मक़सद नियमों के वैश्विक मानक बनाने और सबसे कम विकसित देशों (LDCs) में क्षमता के निर्माण पर ज़ोर देना है.
वैसे, विश्व व्यापार संगठन में ऐसी कई व्यवस्थाएं हैं, जिनका इस्तेमाल इन दोनों कामों के लिए किया जा सकता है. सवाल ये पैदा होता है कि अगर IFD बहुत बड़े मक़सद नहीं पूरे करता, तो समझौते करने के लिए मानक प्रक्रिया को दरकिनार करना कहां तक सही है?
तर्क से ज़्यादा ज़ोर जीत हासिल करने पर
अंतिम विश्लेषण में हमेशा बना रहने वाला सवाल ये है कि संस्थागत रूप से जायज़ न होने के बावजूद क्या वार्ताओं के JSI और दूसरे अनाधिकारिक तरीक़े ही विश्व व्यापार संगठन में वार्ता करने का भविष्य हैं?
कम अवधि में देखें, तो सुधार के गंभीर प्रयासों के बग़ैर यही लगता है. अगर हम इसे नयी सामान्य प्रक्रिया मान लें, तो भारत के सामने प्राथमिकता बनाम सिद्धांतों का गंभीर प्रश्न खड़ा होता है. क्या ये मुमकिन है कि व्यवस्था में भरोसा और सुधार की उम्मीद लगाए रखी जाए, या फिर अब समय आ गया है कि हम सच्चाई को स्वीकार करें, ताकि बातचीत की मेज़ पर भारत, अपनी जगह और अपनी बात रखने का हक़ न गवां दे?
संभावना ये है कि इन सभी सवालों के जवाब अगले साल होने वाले मंत्रि-स्तरीय सम्मेलन (MC13) में दिया जाएगा. भारत और उसके जैसी सोच रखने वाले साझीदारों को सोच-समझकर योजनाएं बनानी चाहिए और WTO की व्यवस्था को बचाने के लिए सुधार के प्रस्ताव रखने चाहिए. वरना हमारे पास ख़ुद को नई व्यवस्था के हिसाब से ढालने के सिवा कोई और विकल्प नहीं बचेगा.
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