Author : Khalid Shah

Published on Jul 17, 2021 Updated 0 Hours ago

इस संवैधानिक बदलाव के  22 महीनों के बाद जम्मू-कश्मीर के हालात आज बिलकुल बदली हुई दिख रही है

जम्मू कश्मीर: सर्व-दलीय बैठकों और समझौतों का दौर!

6 अगस्त 2019 को,जम्मू और कश्मीर के बंटवारे और धारा 370 के निरस्तीकरण के आदेश के एक दिन पहले, अपने घर में नज़रबंद जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फार्रुख़ अब्दुल्ला ने किसी तरह से अपने घर में मौजूद घेरेबंदी से बाहर आकार कुछ टेलिविज़न क्रू मेम्बर्स के सामने आकर बात करने की कोशिश की. आनन-फानन मे दी गई इंटरव्यू में,अब्दुल्लाह के आँखों पानी से भर गई थी.  उनकी पहली प्रतिक्रिया थी,” मैं आपसे वो कहने आया हूँ जो हम भीतर से महसूस कर रहे हैं. पिछले 70 सालों तक हमने देश के साथ मिलकर लड़ाईयां लड़ीं और आज हमें गुनह़गार माना जा रहा है.“उस छोटे से साक्षात्कार के दौरान उन्होंने कहा, “शायद बीमारी की वजह से मेरी मौत भी हो जाए, पर मैं भारत के नागरिकों को ये संदेश देना चाहता हूँ कि: हम भारत के हर अच्छे और बुरे वक्त में साथ रहे हैं और आशा करते है कि उसी तरह भारत के लोग हमारे भी साथ खड़े रहेंगे.” 

फारूख़ अब्दुल्ला और उनके पार्टी के कुछ साथियों को कुछ अन्य राजनैतिक नेताओं के साथ पब्लिक सेफ्टी एक्ट यानी कि सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम के तहत उनके घरों में महीनों नज़रबंद रखा गया था – इनमें से कुछ की नज़रबंदी तो साल भर से भी ज्य़ादा रखी गई थी.  इस दरम्यान,भारतीय जनता पार्टी के साथ-साथ कई अन्य राष्ट्रीय दल और उनकी सहयोगी पार्टियां और मीडिया कश्मीर के राजनैतिक नेता, ख़ासकर तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों और “तीन राजनीतिक परिवारों ” को  राज्य में छायी अशान्ति के लिए हर तरीके से  ज़िम्मेदार बताते हुए उनका मज़ाक बनाया और उनकी निंदा की. अक्सरहां, इन नेताओं पर “राष्ट्रविरोधी ” होने का  आरोप भी लगाया, और  राज्य मे व्याप्त अलगाववाद और आतंकवाद की समस्या को बढ़ावा देने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया. मीडिया और राजनैतिक वर्ग से जुड़े कुछ शरारती तत्वों ने तो इन्हें “जिहादी”तक कह दिया. इस सब के पीछे का संदेश स्पष्ट था – और वो ये कि राजनीति के पुराने धुरंदारों का वक्त ख़त्म हो चुका है और प्रयास यही है की “नया कश्मीर” के निर्माण के लिए जम्मू और कश्मीर में एक नई राजनैतिक नेतृत्व की संरचना की जाए.  

फारूख़ अब्दुल्ला और उनके पार्टी के कुछ साथियों को कुछ अन्य राजनैतिक नेताओं के साथ पब्लिक सेफ्टी एक्ट यानी कि सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम के तहत उनके घरों में महीनों नज़रबंद रखा गया था – इनमें से कुछ की नज़रबंदी तो साल भर से भी ज्य़ादा रखी गई थी.

गंभीर मसला 

इस संवैधानिक बदलाव के  22 महीनों के बाद, आज परिस्थिति बिलकुल बदली हुई दिख रही है. वही नेता जिन्हें पहले जम्मू और कश्मीर  के ख़राब हालात के लिए  ठहराया जा रहा था उनसे आज इस केंद्र शासित प्रदेश को  आगे ले जाने के लिए उठाये जाने वाले कदमों और नीतियों के बारे में विचार-विमर्श करने के लिये बातचीत के बुलाया जा रहा है. नई दिल्ली की नीतियों मे आये इस अचानक से बदलाव के पीछे कई वजहें हैं, और जिस तरह से देश की राजनैतिक व्यवस्था में इस समय कुछ भी साफ़-साफ़ दिखायी नहीं दे रहा है, वैसे में केंद्र की नीति मे आए इस बदलाव की वजह के बारे शायद कभी भी पता नहीं चल पायेगा.  प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह से जम्मू कश्मीर के पूर्व राजनीतिकों को बातचीत के लिए न्योता दिया है, उसने ज़ाहिर है घाटी में चहल-पहल बढ़ा दी है.   

इस मुद्दे की अहमियत इसी बात से लगाई जा सकती है कि, ये मीटिंग ख़ुद प्रधानमंत्री ने आयोजित की थी. और  बजाये इसके कि वे इन कश्मीरी नेताओं को एक-एक करके बुलाकर मिलते,और उनके मन में उलझन पैदा करते, सरकार ने तय किया है कि वो जम्मू और कश्मीर के सभी भूतपूर्व मुख्यमंत्री,उपमुख्यमंत्री और सभी प्रमुख राजनैतिक दलों के प्रमुखों को, इस ज्वाइंट राउंड टेबल मीटिंग में इकट्टे एक साथ बुलाया जाये. बैठक में बुलाये गए सभी नेताओं की लिस्ट देखरकर ये बात साफ़ होती है कि प्रधानमंत्री के लिये इस बैठक का मक़सद पूरी तरह से राजनीतिक है. अगर इससे ज्य़ादा लोगों की उपस्थिति इस बैठक में होती तो, वो समस्या का निदान ढूँढने के बजाय सिर्फ़ अराजकता और गतिरोध ही पैदा करते. हालांकि, परदे के पीछे से,अपने विश्वसनीय नौकरशाहों और मध्यस्थों के ज़रिए सरकार ने बैठक में शामिल होने वाले नेताओं को इतना संदेश तो दे ही दिया है कि वे सरकार द्वारा उठाये गए इस कदम को, मौजूदा गतिरोध का राजनैतिक हल निकालने की दिशा में, उठाये गये एक सार्थक कदम की शुरुआत के तौर पर देखें.  

जम्मू और कश्मीर राज्य के बीच होने वाला शक्ति असंतुलन, उसे बदल डालने की सरकार की इच्छा यहां रहने वाले स्थानीय लोगों के वोट-बेस के कारण हो पाना मुश्किल है; राज्य के बंटवारे के बाद बनीं तमाम नई पॉलिटिकल पार्टियां पूरी तरह से असफ़ल साबित हुई हैं

हालांकि, उस बैठक का क्या मुद्दा या एजेंडा था इस बारे में अब तक कोई जानकारी नहीं मिली है. लेकिन ख़बरों से मिली जानकारी के अनुसार ऐसे क्यास लगाये जा रहे हैं कि, सरकार जम्मू और कश्मीर में होने वाले आगामी चुनाव और परिसीमन प्रक्रिया पूरी होने के बाद, उसे पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मंशा के साथ आगे बढ़ रही है. ऐसा कयास लगाया गया था कि इस बैठक के ज़रिए पीएम मोदी राज्य में दोबारा राजनैतिक प्रक्रिया को स्थापित करने के उद्देश्य से बनाई गई योजना के बारे में बात करेंगे, ताकि उसके बाद विधानसभा चुनाव की तैयारी की जा सके.  लेकिन अगर हम जम्मू-कश्मीर की मौजूदा जनसंख्या की दृष्टि से इस सीमा-विभाजन को देखने की कोशिश करें तो पायेंगे कि- मुमकिन है कि सरकारी शोर-शराबे के साथ शुरू की गई ये क़वायद शायद ही सफ़ल हो पाये.  जम्मू और कश्मीर राज्य के बीच होने वाला शक्ति असंतुलन, उसे बदल डालने की सरकार की इच्छा यहां रहने वाले स्थानीय लोगों के वोट-बेस के कारण हो पाना मुश्किल है; राज्य के बंटवारे के बाद बनीं तमाम नई पॉलिटिकल पार्टियां पूरी तरह से असफ़ल साबित हुई हैं, इसलिए, अब उनके पास राज्य में राजनीतिक प्रक्रिया को आगे ले जाने के लिए दूसरे राजनैतिक दलों के साथ, हाथ मिलाकर काम करने के अलावा कोई चारा नहीं है. 

गुपकार गैंग की तरफ से..

नवंबर 2019 मे होने वाले ज़िला विकास प्राधिकरण(DDC)के चुनाव से पहले, घाटी स्थित सभी स्थानीय नेता बीजेपी विरोधी धड़े के रूप मे एक साथ मंच पर आये थे, ऐसा माना गया था कि ये सभी नेता बीजेपी का विरोध करते हैं और उनकी राजनैतकि सोच एक जैसी है. इन लोगों ने  जम्मू कश्मीर के स्पेशल स्टेट्स की दोबारा बहाली की मांग की थी. इसी गठबंधन को “गुपकार गैंग” का नाम दिया गया था और जिनसे उम्मीद की गई थी की, “वे या तो देश के मूड के अनुरूप बर्ताव करें वरना जनता उन्हें डुबोने का काम कर देगी.”

डीडीसी चुनाव के बाद के परिणाम के बाद ये बात तो साफ़ हो गई थी कि, इस प्रांत में, गुपकार गठबंधन चुनाव के स्तर पर उतने ही प्रासंगिक हैं जितने की बीजेपी और उनके सहयोगी गठबंधन. इस चुनाव मे फारूख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेश्नल कॉन्फ्रेंस को जम्मू और उसके इर्द-गिर्द के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अच्छी-खासी जीत मिली.    उसी तरह, गठबंधन को बदनाम करने के कुत्सित प्रयासों पर आधारित चुनावी रैलियों के बाद भी महबूबा मुफ्त़ी की पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, और सज्जाद लोन की पीपल्स कॉन्फ्रेंस व अन्य छोटे-छोटे पार्टियों पर वहां के स्थानीय लोगों ने विश्वास जताया. इसके उलट साल 2020 में गठित ‘अपनी पार्टी’लोगों को भरोसा पाने में असफ़ल रही. ये बात साफ़ हो चुकी है कि बग़ैर इन राजनैतिक दलों को साथ लिए हुए,घाटी में किसी भी प्रकार की राजनैतिक प्रक्रिया को शुरू करना बिल्कुल ही बेमानी होगा.  

नया कश्मीर, पुराने शासक 

सबसे दिलचस्प बात तो ये है कि- पंच, सरपंच, ब्लॉक डेवलपमेंट काउंसिल (BDCs)और DDCs या फिर इन सब का प्रथिनिधित्व करने के लिए गठित संगठन का कोई भी सदस्य आगामी बैठकों में भाग नहीं लेगा. उसी तरह से ‘अपनी पार्टी’ के अलावा किसी भी अन्य नवगठित राजनैतिक दलों को इन बैठकों में निमंत्रित नहीं किया गया है. ऐसा लगता है  5 अगस्त 2019 के बाद जिन छोटे-छोटे राजनैतिक दलों ने अचानक से  प्रसिद्धि पायी थी उन सभी नवगठित दलों को इस पूरी वार्ता प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया है. ये नए राजनैतिक रंगरूट मानो स्वयंघोषित नए कश्मीर के शिल्पकार बन गए थे, और इन्हें राष्ट्रीय टेलीविज़न और राष्ट्रीय राजनीति के गलियारों में इस तरह से परेड कराया गया कि मानो वे अब्दुल्ला और मुफ्त़ी परिवार के विकल्प हैं. जैसे कि कश्मीर में विवाविद उद्यमियों की पहले से कोई कमी है. लेकिन जिस तरह से ये नये-नवेले नेता कुछ सौ लोगों को भी अपने साथ लाने में असफ़ल साबित हुए, उसने कहीं न कहीं जम्मू-कश्मीर में नॉर्मलसी लाने की योजना पर पानी फेर दिया.   

राज्य का आम आदमी, मतदाता और बहिष्कार करने वाले लोग, दर्शक और हर कोई अब इस राजनैतिक पहल को, इस गतिरोध से आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी समझ रहे हैं जो कि 5 अगस्त 2019 मे लायी गई वैद्यानिक बदलाव के बाद पैदा हो गया

नया कश्मीर’ का नारा पहली बार शेख़ अब्दुल्लाह ने तब दिया था, जब भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर और उनके लोगों को समान अधिकार और विकास के समान अवसर दिये जाने का वादा किया था और इस वादे के तहत उन्होंने जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय किया था. शेख़ अब्दुल्ला और जम्मू-कश्मीर के लोगों को किये गये वादे को पूरा करने के मक़सद से एक प्रगतिशील विज़न डॉक्यूमेंट तैयार किया गया था. उसके बाद से ही इस नारे का इस्तेमाल विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा समय-समय पर किया जाता रहा है. एक तरफ़ इतिहासकार जहां शेख़ अब्दुल्ला की छोड़ी विरासत पर आज भी बहस कर रहे है, ये भी मुमकिन हो कि ‘नया कश्मीर’ नाम के सपने को पूरा करने की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं पुराने नेताओं पर आ जाएगी, जिन्हें कुछ दिन पहले तक पूरी अस्थिरता के लिए दोषी और बहिष्कृत माना जाता था.

ज़मीनी गूंज 

प्रचार अपने पूर्ण ठाट और चरम पर दिखाई देता है, ख़ासकर तब जब उसे एग्ज़क्यूटिव पेपर पर  हाई- रिज़ोल्यूशन तस्वीरों वाले प्रभावशाली पुस्तिकाओं के ज़रिए लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाता है. ज़मीनी हक़ीकत भी अक्सरहां टीवी के प्राइम टाइम पर होने वाले चिल्लमपों और कोलाहल भरे बहसों मे दर्शाये गए हालात से छिप जाते हैं. और जब कोई उच्च पदस्थ नौकरशाह अपना पद छोड़ने की अनिच्छा ज़ाहिर करता है,तो ये वाक़ई लोगों और प्रजातन्त्र दोनों के लिए चिंता का विषय बन जाता है, जो ऐसे स्वार्थी लोगों के अधीन होते हैं. इस बात में कोई दो-राय नहीं है कि, निस्संदेह केंद्र द्वारा जम्मू और कश्मीर में शुरू की गई इस राजनीतिक पहल ने माहौल को गरम ज़रूर कर दिया है. 

राज्य का आम आदमी, मतदाता और बहिष्कार करने वाले लोग, दर्शक और हर कोई अब इस राजनैतिक पहल को, इस गतिरोध से आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी समझ रहे हैं जो कि 5 अगस्त 2019 मे लायी गई वैद्यानिक बदलाव के बाद पैदा हो गया. लेकिन घाटी के नेताओं के लिए, ये मौजूदा हालात पहले से कहीं ज़्यादा संवेदनशील और जटिल है. इन राजनीतिक दलों को अपने सामने एक ऐसा अजेय प्रतिद्वंद्वी दिख रहा है, जो प्रतिपक्ष को अपनी बात मनवाने के लिए उनपर की किसी भी प्रकार की ज़ोर-जबरदस्ती कर सकता है. दूसरी तरफ, घाटी के वाशिंदों का दोबारा विश्वास जीत पाना, पूरी तरह से इन राजनीतिक धड़ों का केंद्र सरकार से की गई बातचीत और नीतिगत समझौतों पर निर्भर करेगा. आने वाले वक्त़ में, हो सकता है कि नई दिल्ली, जम्मू कश्मीर के संदर्भ मे विभिन्न राजनैतिक दृष्टिकोणों के मद्देनज़र, अपनी नीतियों मे थोड़ी नरमी बरते. लेकिन, यह तय है की केंद्र आर्टिकल 370 और जम्मू और कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने के मुद्दे पर कोई रियायत नहीं देगी. बातचीत की इस प्रक्रिया ने जम्मू और कश्मीर में बदलाव की एक नई शुरुआत कर दी है और इस प्रांत का भविष्य सिर्फ़ इसी बात पर निर्भर करेगा कि केंद्र की नीतियों, उसकी कट्टर वैचारिकता हावी होगी या वो बेहतर व्यावहारिकता पर आधारित होगी.  

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