Author : Sushant Sareen

Published on Jul 11, 2022 Updated 0 Hours ago

बदलाव की दहलीज़ पर खड़ा है जम्मू और कश्मीर; लेकिन चुनौतियां आगे भी रहेंगी बरक़रार !

हाल ही में अल्पसंख्यक समुदाय, अप्रवासी मजदूरों और स्थानीय पुलिस अधिकारियों की कश्मीर घाटी में हुई हत्याओं के बाद ऐसा महसूस होने लगा है कि जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा को लेकर स्थिति एक बार फिर नियंत्रण से बाहर होने लगी है. हालांकि, ज़मीन पर स्थितियां केंद्र सरकार के नियंत्रण में ही होने की खबरें हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि आतंकवाद का खात्मा हो गया है क्योंकि छोटे-छोटे आतंकी समूह वहां अभी भी काम कर रहे हैं और सॉफ्ट टार्गेट्‌स को निशाना बनाकर स्थानीय नागरिकों, अप्रवासी मजदूरों और निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का भय बढ़ा रहे हैं. इसके साथ ही कश्मीर में अभी राजनीतिक प्रक्रिया शुरू नहीं हो सकी है. अत: वहां 2020 में हुए स्थानीय निकाय चुनाव के बाद भी एक राजनीतिक शून्यता ही दिखाई देती है. प्रशासन से अलगाववादी ताकतों का सफाया किया जा रहा है बावजूद इसके वहां एजुकेशन सिस्टम में सुधारों और युवाओं को कट्टरपंथ के रास्ते से वापस लाने की कोई गंभीर कोशिश होती नहीं दिखती. विकास कार्य कागजों पर तो प्रभावी दिखाई देते हैं, लेकिन जमीन पर यह नदारद हैं. इसके बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर मुख्यत: सुरक्षा को लेकर ही चर्चा होती है. सरकार उन मुद्दों की ओर ध्यान नहीं दे रही है, जहां उसे ध्यान देने की ज़रूरत है. ओआरएफ़ की टीम के स्कॉलर्स को भारतीय सेना ने एक दौरे के लिए आमंत्रित किया था. इस दौरान सरकारी अधिकारियों से मिली जानकारी का ही इस आलेख में उपयोग किया गया है. यह जानकारी नाम गुप्त रखने की शर्त पर ही उपलब्ध करवाई गई थी.


एट्रीब्यूशन: सुशांत सरीन, ‘जम्मू एंड कश्मीर : ऑन द कस्प ऑफ़ चेंज, बट चैलेंजेस्‌ रिमेन’, ओआरएफ़ स्पेशल रिपोर्ट नं. 192, जून 2022, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन.


प्रस्तावना

कश्मीर घाटी में हाल की घटनाओं ने लोगों का ध्यान व्यापक रूप से अपनी ओर आकर्षित किया है. 5 मई 2022 को परिसीमन आयोग[1] की अंतिम रिपोर्ट सौंपे जाने के बाद उम्मीद के मुताबिक राजनीतिक स्तर पर काफ़ी गहमा-गहमी[2] देखी गई. सुरक्षा के मोर्चे पर सरकारी कर्मचारी कश्मीरी पंडित की टार्गेटेड हत्या[3], स्पेशल पुलिस ऑफिसर[4] की हत्या, शराब की दुकान पर हमले[5] में अल्पसंख्यक समुदाय के एक और व्यक्ति की मौत ने यह स्वाभाविक सवाल फिर खड़ा कर दिया है, कि अब भी घाटी में आतंकवादी नेटवर्क ऑपरेट कर रहा है. इन घटनाओं ने संकेत दिया है कि केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर में स्थिति अब भी नाज़ुक बनी हुई है. इसके बावजूद घाटी परिवर्तन की दहलीज़ पर खड़ी है.

सच तो यह है कि यह घटनाक्रम नया नहीं है[6]. लेकिन नीति निर्माताओं की अकड़ और सुरक्षा एजेंसियों से जुड़े महारथियों में लापरवाह होने की प्रवृत्ति ने ही कश्मीर घाटी को दोबारा पुराने दिनों की ओर धकेलने में अहम भूमिका अदा की है. आज एक बार फिर मौका मिला है जब हम केंद्र शासित प्रदेश की राजनीतिक और सुरक्षा संबंधी गतिविधियों को पूर्ण रूप से बदल सकते हैं. लेकिन नई दिल्ली और श्रीनगर इस मौके का लाभ उठा पाते हैं या नहीं यह इस बात पर निर्भर करेगा कि राजनीतिक स्थिति से कैसे निपटा जाता है. और यह तय होगा इस बात से कि आख़िर जम्मू-कश्मीर के लोगों के दिलो दिमाग में क्या चल रहा है.

आज एक बार फिर मौका मिला है जब हम केंद्र शासित प्रदेश की राजनीतिक और सुरक्षा संबंधी गतिविधियों को पूर्ण रूप से बदल सकते हैं. लेकिन नई दिल्ली और श्रीनगर इस मौके का लाभ उठा पाते हैं या नहीं यह इस बात पर निर्भर करेगा कि राजनीतिक स्थिति से कैसे निपटा जाता है.

इस रिपोर्ट में कश्मीर की स्थिति पर एक व्यापक नज़र डाली गई है. इस प्रयास में सुरक्षा अधिकारियों और अन्य स्टेकहोल्डर्स (हिस्सेदारों) मसलन स्थानीय निकाय के जनप्रतिनिधि, समाज के प्रतिष्ठित लोग, छात्र, आंदोलनकारी, महिलाओं समेत अन्य नागरिकों के साथ कश्मीर घाटी की यात्रा के दौरान लेखक के साथ हुई बातचीत को आधार बनाया गया है. a[7]

आज कश्मीर घाटी कहां खड़ी है..

घाटी में सुरक्षा की स्थिति पिछले कुछ वर्षों के मुकाबले में काफी बेहतर कही जा सकती है. सुरक्षा की स्थिति के आकलन का एक पैमाना हम मार्च/अप्रैल 2022 में यहां पहुंचे पर्यटकों की संख्या को मान सकते हैं. यह वक्त आम तौर पर पर्यटकों के आने का पीक सीज़न नहीं होता है. इसके अलावा भी अन्य पैमाने हैं, जिनके आधार पर हम इस सकारात्मक आकलन की पुष्टि कर सकते हैं. उदाहरण के तौर पर सुरक्षा अधिकारियों का दावा है कि पिछले दस वर्षों में यहां आतंकी गतिविधियों का ढांचा इस वक्त सबसे कम हो गया है. जहां तक भौगोलिक स्थिति का सवाल है तो उत्तर कश्मीर, जो एक वक्त में आतंकवादी घटनाओं का केंद्र था, में हालिया वर्षों में काफी कम हिंसा देखने को मिली है. अब आतंकी गतिविधियों का केंद्र दक्षिण कश्मीर हो गया है. श्रीनगर में भी आतंकी गतिविधियां बढ़ी हैं, लेकिन क्वॉनटिटेटिव और क्वॉलीटेटिव मायनों में हिंसा का स्तर काफी कम हुआ है. श्रीनगर और उसके आसपास सुरक्षा बलों की मौजूदगी है, लेकिन राजधानी के शहर के बाहर यह काफी कम हो गई है. इसका एक कारण यह भी है कि हाई वैल्यू टार्गेट, फिज़ीकल और पर्सेप्चुअल रूप से श्रीनगर में ही मौजूद है न कि राजधानी के बाहरी और दूरस्थ जिलों में.

जम्मू-कश्मीर को दिया गया विशेष दर्जा 2019 में वापस लेने के बाद स्थिति जिस तरह खराब होने की उम्मीद की जा रही थी वैसा नहीं हुआ, लेकिन घाटी से न तो आतंकवाद पूर्णत: समाप्त हुआ है और न ही आतंकी नेटवर्क को ध्वस्त किया जा सका है. हां, इस वजह से यह कहा जा सकता है कि अब यहां आतकंवादियों के लिए ज्य़ादा जगह नहीं बची है.

घुसपैठ

2019 के बाद से लाइन ऑफ़ कंट्रोल (एलओसी) से होने वाली घुसपैठ में काफी तेज़ी से कमी आयी है. (देखें टेबल-1). साल 2022 में अप्रैल तक घुसपैठ की केवल दो कोशिशें की गईं, जिन्हें विफल कर दिया गया. भारतीय सेना के अनुसार पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर में अब भी 100 से ज्यादा आतंकी लॉन्च पैड्स सक्रिय हैं. इसके बाद भी सीमा पार से एलओसी पर घुसपैठ की गतिविधियों में वृद्धि नहीं हुई है. इसका कारण यह है कि कश्मीर में सुरक्षा कवच बेहद मजबूत है. इस सुरक्षा कवच में एलओसी पर लगाई गई फेन्सिंग भी शामिल है.

हालांकि, यह भी चर्चा का ही विषय है कि एलओसी पर सीज़फायर की वजह से घुसपैठ में कितनी कमी आयी है क्योंकि सीमा पार आतंकी ढांचा जस का तस बना हुआ है.

टेबल-1 : एलओसी पर होने वाली घुसपैठ के प्रयास

स्रोत: भारतीय सुरक्षा बल (नाम गुप्त रखने की शर्त पर जानकारी उपलब्ध करवाई गई)

सेना के आकलन के अनुसार घुसपैठ के अधिकांश प्रयास पीर पंजाल रेंज के दक्षिण से और कुछ जम्मू क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय सीमा से किए जाते हैं. नेपाल के रास्ते भी आतंकवादियों ने घुसपैठ के कुछ प्रयास किए, लेकिन इस रास्ते का उपयोग अधिकांश मामलों में आतंकी नेता करते हैं, सैनिक नहीं. इसका कारण यह है कि यह रास्ता खर्चीला है और इससे हथियार नहीं लाए जा सकते. इसके अलावा यहां से अपने गंतव्य स्थान तक पहुंचने में काफी वक्त भी लगता है. (वक्त लगने की वजह से काफी कुछ गड़बड़ हो सकता है)

भर्ती

अप्रैल 2022 तक 51 व्यक्तियों को आतंकी सेल में भर्ती किए जाने की जानकारी है. ऐसे में साफ़ है कि पिछले कुछ वर्षों में इसमें काफी कमी आयी है. (देखें टेबल-2) सबसे ज्य़ादा भर्ती दक्षिण कश्मीर के इलाके से हुई है. इसमें भी शोपियां और पुलवामा ज़िले इस तरह की गतिविधियों का केंद्र बिंदु बन गए हैं. (देखें टेबल-3)

  टेबल-2 : आंतकवादी के रूप में भर्ती होने वाले लोगों की संख्या

स्रोत: भारतीय सुरक्षा बल (नाम गुप्त रखने की शर्त पर जानकारी उपलब्ध करवाई गई)

 टेबल 3 : 2021/22 में ज़िलों और आतंकी संगठनों की गई भर्ती

नोट: 2021 और 2022 के आंकड़ों को / से विभाजित किया गया है. अर्थात 08/05 का मतलब 2021 में 08 और 2022 में 05 होता है.

स्रोत: भारतीय सुरक्षा बल (नाम गुप्त रखने की शर्त पर जानकारी उपलब्ध करवाई गई)

भारतीय सुरक्षा बलों के अनुसार कश्मीर में इस वक्त 160 आतंकी सक्रिय हैं, जिसमें आधे पाकिस्तानी और आधे स्थानीय आतंकवादियों का समावेश है. मज़ेदार बात यह है कि आतंकवादियों में उत्तर और दक्षिण कश्मीर के बीच रोचक बंटवारा देखने को मिलता है. (देखें टेबल-4) उत्तर कश्मीर में सक्रिय आतंकवादियों में 75 प्रतिशत पाकिस्तानी आतंकवादी हैं. इसके विपरीत दक्षिण कश्मीर में सक्रिय आतंकवादियों में 75 प्रतिशत स्थानीय हैं. इनके प्रोफाइल में पहले के मुक़ाबले ज्य़ादा अंतर नहीं आया है. अधिकांश नए रंगरूट गरीब परिवारों से और बेहद कम शिक्षा (हाईस्कूल या उससे कम) पाने वाले होते हैं. हालांकि, नए आतंकवादियों में 25 प्रतिशत ने हाईस्कूल तक की शिक्षा ली हुई है.

टेबल – 4: क्षेत्रानुसार आतंकवादियों की संख्या

नोट: एलटी का अर्थ लोकल टेररिस्ट; पीटी यानि पाकिस्तानी टेररिस्ट; यूआई मतलब अनआइडेंटिफाइड टेररिस्ट

स्रोत: भारतीय सुरक्षा बल (नाम गुप्त रखने की शर्त पर जानकारी उपलब्ध करवाई गई )

लक्षित (टार्गेटेड) हत्याएं

हिंदू, सिख नागरिकों और ऑफ़ डयूटी पुलिसकर्मी और सेना कर्मी की लक्षित हत्या के अनेक मामले हुए हैं, लेकिन अधिकांश मामलों में सुरक्षा बलों ने इन हत्यारों को या तो गिरफ्त़ार कर लिया है या फिर मार गिराया है. 2019 में हुए संवैधानिक सुधारों के बाद अनेक आतंकी संगठन धर्मनिरपेक्ष सदृश्य नामों की आड़ लेकर उभरे हैं. इसमें रेसिस्टंस फ्रंट, एंटी-फासिस्ट फोर्स और कश्मीर टाइगर्स शामिल हैं. इसके अलावा कुछ इस्लामिक नामधारी मसलन अल क़िसास, अल जेहाद, मुस्लिम जंगबाज फोर्स और मरकजुल वाल अरशद का भी समावेश है. यहां यह उल्लेखनीय है कि यह सब पहले से मौजूद आतंकवादी संगठन जैसे लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और हिजबुल मुजाहिदीन जैसे संगठनों के ही मुखौटा (फ्रंट) हैं. इसके बावजूद भारतीय सुरक्षा बलों को इनमें से कुछ संगठनों की पहचान कर उनके आतंकवादियों का खात्मा करने में सफलता मिली है. उदाहरण के तौर पर रेसिस्टंस फोर्स के कुल 31 आतंकी, जिसमें पांच कमांडर्स शामिल हैं, को सुरक्षा बलों ने अब तक मौत के घाट उतार दिया है. यह संगठन हालांकि अभी मौजूद हैं और सक्रिय भी, लेकिन अब यह सॉफ्ट टार्गेट्स के खिलाफ छुटपुट हिंसा ही कर पाता है.

.2019 में हुए संवैधानिक सुधारों के बाद अनेक आतंकी संगठन धर्मनिरपेक्ष सदृश्य नामों की आड़ लेकर उभरे हैं. इसमें रेसिस्टंस फ्रंट, एंटी-फासिस्ट फोर्स और कश्मीर टाइगर्स शामिल हैं. इसके अलावा कुछ इस्लामिक नामधारी मसलन अल क़िसास, अल जेहाद, मुस्लिम जंगबाज फोर्स और मरकजुल वाल अरशद का भी समावेश है.

 टेबल –5: आतंकवादी हमले में मारे गए नागरिक

स्रोत: भारतीय सुरक्षा बल (नाम गुप्त रखने की शर्त पर जानकारी उपलब्ध करवाई गई)

हाइब्रिड आतंकी

भारतीय सुरक्षा बलों के समक्ष जो चुनौतियां मौजूद हैं उसमें आतंकवाद का बदलता चेहरा और ढांचा सबसे अहम है. नवगठित मुखौटा आतंकी संगठन न केवल काफी हद तक आकारहीन है, बल्कि यह संगठनात्मक रूप से अनौपचारिक भी है. यह छोटे सेल में ऑपरेट करते हैं और अपने मूल पैतृक संगठन की तरह बड़ा संगठन नहीं रखते. इसी तरह अब यह पहले की तरह सोशल मीडिया पर गुरिल्ला पोशाकों में आकर हाथ में बंदूक लेकर अपने विद्रोह को सार्वजनिक नहीं करते, बल्कि अब यह नए रंगरूट गुपचुप तरीके से गुमनामी में रहकर अपने काम को अंजाम देते हैं. इनका पता उसी वक्त चलता है जब कोई इनकी सूचना देता है या फिर तकनीक के सहारे इनके बारे में पता लगाया जाता है. अधिकांश नए रंगरूटों को अच्छा प्रशिक्षण नहीं दिया जाता. इन्हें केवल हैंडगन से फायरिंग कर भाग जाने का गुर सिखाया जाता है. आमतौर पर यह ‘सॉफ्ट’ टार्गेट को निशाना बनाते हैं (निहत्थे नागरिक या ऑफ ड्यूटी सुरक्षाकर्मी). इनके पास कठिन हमले करने की क्षमता नहीं होती है.

जम्मू-कश्मीर पुलिस (जेकेपी) इस नई व्यवस्था को ‘हाइब्रिड’ टेररिज्म़ कहती है. इसमें शामिल लोग आमतौर पर नॉर्मल जिंदगी जीने वाले होते हैं, ये छात्र, नौकरीपेशा या अपने परिवार के साथ रहने वाले हो सकते हैं, और अधिकांशत: इनका कोई पुलिस रिकार्ड भी नहीं होता. इन्हें ऑपरेशन विशेष के लिए ‘एक्टिव’ किया जाता है. इससे निपटने के बाद ये आम जिंदगी में लौट जाते हैं. चूंकि ये सुरक्षा बलों के रडार पर नहीं होते, अत: उनकी शिनाख्त़ करना बेहद मुश्किल हो जाता है. एक वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारी के अनुसार इस नए हाइब्रिड टेररिस्ट मॉड्यूल को ग्राउंड के ऊपर के कार्यकर्ता मसलन शिक्षा, सिविल सव्रेंट्स, अधिवक्ता, प्रोफेशनल्स, पत्रकार और व्यापारी सहायता करते हैं. ग्राउंड के ऊपर रहने वाले सहायक इन्हें नैतिक समर्थन, वित्तीय समर्थन देकर इनकी ओर से सूचना का युद्ध लड़ने का काम करते हैं.

टेबल – 6: ओवरग्राउंड वर्कर्स (ग्राउंड के ऊपर) की गिरफ्त़ारी की संख्या

स्रोत: भारतीय सुरक्षा बल (नाम गुप्त रखने की शर्त पर जानकारी उपलब्ध करवाई गई)

2019 के संवैधानिक सुधारों के बाद ओवरग्राउंड वर्कर्स के खिलाफ़ एक नियोजित अभियान छेड़ा गया है, जिसकी वजह से सरकार को राज्य पर अपनी पकड़ मज़बूत बनाने में सहायता मिली है. जेकेपी के अनुसार अब तक 1100 लोगों को ‘गैरकानूनी गतिविधियों’ में संलिप्त होने के लिए गिरफ्त़ार किया गया है, जबकि 500 के आसपास लोगों को पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) के तहत हिरासत में लिया गया है. इसके साथ ही जेकेपी, सेना और केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल के संयुक्त प्रयासों से 53 आतंकवादियों का खात्मा किया गया है, जबकि 48 ओवरग्राउंड वर्कर्स को अप्रैल 2022 तक गिरफ्तार किया गया है. 2021 में यह संख्या क्रमश: 171 और 184 थी. सुरक्षा बलों का दावा है कि कुछ नीतियों की वजह से आतंकवादियों की नई भर्ती प्रभावित हुई है. इसमें मारे गए आतंकियों के शव परिवार को न सौंपना, उनकी दफ़नविधि को सार्वजनिक तमाशा नहीं बनाने देना और उन्हें उनके मूल निवास से काफी दूर ले जाकर दफ़न करना शामिल है. इसके साथ ही आतंकवादियों की सहायता करने वाले लोगों की संपत्ति जब्त़ कर कुर्क करने की नीति भी काफी प्रभावशाली साबित हो रही है. इससे लोगों में अब एक हिचक देखी जा रही है.

टेरर फाइनैंसिंग और नार्कोटिक्स

आतंकवादियों को उपलब्ध वित्तीय सहायता के खिलाफ़ ठोस कार्रवाई से भी सुरक्षा बलों को काफी बल और सहायता मिली है. अधिकारियों का मानना है कि पत्थरबाज़ी की घटनाएं अब इसलिए लगभग बंद हो गई हैं, क्योंकि इसे बढ़ावा देने के लिए जो पैसा उपलब्ध होता था अब वह लगभग बंद हो गया है. लेकिन पत्थरबाजी पर अंकुश इसलिए भी लग पाया है क्योंकि अब इसे बढ़ावा देने वाले मुख्य भड़काऊ लोगों की पहचान कर उनके खिलाफ़ कड़ी पुलिसिया कार्रवाई की जा रही है. टेरर फाइनैंसिंग को लेकर नेशनल इनवेस्टिगेटिंग एजेंसी (एनआईए) की जांच भी लोकिप्रय और प्रभावी हो रही है. लोकिप्रय इसलिए क्योंकि कानून का पालन करने वाले आम लोगों की कीमत पर फायदा उठाने वाले ‘संघर्ष उद्योजक’ (कॉनिफ्लक्ट आंत्नप्रेन्योर्स) के खिलाफ़ दशकों में पहली बार जांच एजेंसियां कार्रवाई कर रही हैं. प्रभावी इसलिए क्योंकि इसकी वजह से निधि अटक गई है, परिणामस्वरूप अशांति फैलाने का काम प्रायोजित करना बेहद मुश्किल हो गया है. आयकर विभाग (आईटी), प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), सीबीआई, जेकेपी, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) और इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के समावेश वाले टेरर मॉनिटरिंग ग्रुप के गठन की वजह से इन एजेंसियों को टेरर फाइनैंसिंग नेटवर्क के खिलाफ़ ज्य़ादा समन्वय के साथ काम करने को मिल रहा है. भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (एसीबी) भी आतंकी वित्तपोषण (सीएफटी) ऑपरेशन्स के खिलाफ़ ज्य़ादा सक्रिय होकर काम करने लगा है. ऐसा लगता है कि अब अधिकारियों की समझ में आ गया है कि आतंकवाद को नैतिक और वित्तीय सहायता देने वाली व्यवस्था को खत्म करना कितना महत्वपूर्ण हो गया है. मनी लॉन्ड्रिंग एवं टेरर फाइनांस के खिलाफ कार्रवाई भले ही चल रही हो, लेकिन इनके खिलाफ़ दंडात्मक कार्रवाई को भी काफी तेज़ किया जाना बेहद आवश्यक हो गया है.

सुरक्षा बलों के साथ नागरिकों को भी लगता है कि आतंकवादी और मादक पदार्थ के बीच का गठजोड़ एक गंभीर मामला है. कुछ मामलों में नशेड़ियों द्वारा आतंकवादियों की सहायता करना अथवा स्वयं आतंकी घटनाओं में शामिल होने की बात सामने आने पर विश्लेषकों और सुरक्षा अधिकारियों को विश्वास है कि कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने में नार्कोटिक्स अहम भूमिका अदा कर रहा है. 

सीएफटी की वजह से घाटी में आसन्न मादक पदार्थों की महामारी भी अधिकारियों की चिंता का विषय बनी हुई है. लेकिन इससे जुड़े अधिकांश सबूत उपाख्यानात्मक अर्थात किस्सा संबंधी ही हैं. इससे जुड़ा डेटा 21 गिरफ्तारियां, 74 किलो ड्रग्स की बरामदगी, 22 लाख रुपए की जब्ती[8] इस बात का संकेत नहीं देते हैं कि यह मादक पदार्थो की महामारी है. इसके बावजूद सुरक्षा बलों के साथ नागरिकों को भी लगता है कि आतंकवादी और मादक पदार्थ के बीच का गठजोड़ एक गंभीर मामला है. कुछ मामलों में नशेड़ियों द्वारा आतंकवादियों की सहायता करना अथवा स्वयं आतंकी घटनाओं में शामिल होने की बात सामने आने पर विश्लेषकों और सुरक्षा अधिकारियों को विश्वास है कि कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने में नार्कोटिक्स अहम भूमिका अदा कर रहा है. हालांकि, इस विश्लेषण की पुष्टि करने के लिए अब तक कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है. कुछ ड्रग्स तो घाटी के घने जंगली इलाके में स्थानीय स्तर पर ही तैयार किए जाते हैं. नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पार से व्यापार निलंबित किए जाने के बाद से ही ड्रग्स की तस्करी ज्यादा मात्रा में नहीं हो रही है. यहां मिलने वाले अधिकांश ड्रग्स, हेरोइन, हशिश और अफ़ीम को पंजाब सीमा से तस्करी कर लाया गया और फिर वहां से इसे घाटी तक पहुंचाया गया है. इसके अलावा ओपीओईड्स (मेथाएम्प्फेटामाइन) की तस्करी भारत के अन्य हिस्सों से की जा रही है.

ख़ुफ़िया तंत्र अर्थार्त इंटेलिजेंस नेटवर्क

आतंकवादरोधी ऑपरेशन्स में सुरक्षा बलों के दबदबे और सफ़लता का मुख्य कारण यह है कि उन्होंने वर्षो से यहां अपना मजबूत खुफ़िया तंत्र विकसित कर उसे लगातार मजबूत बनाया है. घाटी में खुफिया तंत्र की सबसे अहम बात यह है कि इसमें अंतर एजेंसी और अंतर सेना के बीच बेहद अच्छा सहयोग और समन्वय है.

कुछ सुरक्षा अधिकारियों के अनुसार घाटी में होने वाले ऑपरेशन्स में 70 प्रतिशत के आसपास गैर-गतिशील होते हैं. जेकेपी का दावा है कि 70 से 80 प्रतिशत ऑपरेशन्स उसके द्वारा जुटाई गई खुफिया जानकारी पर आधारित होते हैं. इसमें टेक्नॉलजी इंटेलिजेंस (टेकइंट) का व्यापक उपयोग होता है, लेकिन सुरक्षा बलों को असल धार ह्यूमन इंटेलिजेंस (ह्यूमिंट) की वजह से ही मिलती है. जेकेपी के अनुसार, वह जो खुफिया जानकारी एकत्रित करती है उसमें 60 प्रतिशत ह्यूमिंट होता है, जबकि टेकइंट की हिस्सेदारी 30 प्रतिशत के आसपास रहती है. सटीक और पुख्त़ा खुफ़िया जानकारी ने यह सुनिश्चित किया है कि अब आतंकवादी की उम्र काफी कम हो गई है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसकी वजह से ऑपरेशन्स के दौरान कोलैटरल डैमेज को न्यूनतम कर दिया गया है. नैरेटिव (आभास) का जो समानांतर युद्ध अलगाववादियों और उनके आतंकी फूट सोल्जर्स (पैदल सैनिक) के साथ लड़ा जा रहा है उसमें यह बात अहम मानी जाती है.

सुरक्षा बलों का आकलन है कि प्रभावी आतंकवाद-रोधी सुरक्षा ग्रीड को बनाए रखने की दृष्टि से संपूर्ण घाटी को एक ईकाई के रूप में देखा जाना आवश्यक है क्योंकि जब घाटी को टुकड़ो में बांटकर देखा जाता है तो ऐसा होने पर इसमें दिखने वाली दरार का लाभ आतंकवादी उठाने में सफल रहते है.

राष्ट्रीय राइफल्स (आरआर) का खुफिया तंत्र भी काफी अहम है. घाटी में तैनाती के अपने लंबे इतिहास के दौरान आरआर यूनिट्स ने अपने एरिया ऑफ रिस्पॉन्सिबिलिटी (एओआर) का वस्तुत: वर्चुअल चित्रण  तैयार कर लिया है. वे जानते हैं कि कौन कहां रहता है, कौन क्या करता है, एक घर विशेष में कितने लोग रहते हैं, कौन किसका रिश्तेदार है और कौन किससे मिल रहा है. वे अपने एओआर में होने वाली छोटी से छोटी गतिविधि पर बारीक नजर रखते हैं और इतने वर्षों के दौरान वे अपने डेटाबेस को बिल्ड, मेंटेन और अपडेट करने में सफल हुए हैं. यह डेटाबेस उनके यूनिट के रिकार्ड्स में हमेशा उपलब्ध रहता है. इसके बावजूद आतंकवाद की कुछ घटनाएं हुई हैं, लेकिन आरआर ने अपने पास मौजूद जानकारी की सहायता लेकर अतिरिक्त जानकारी एकत्रित कर इसके लिए जिम्मेदार आतंकवादियों को महज़ कुछ ही दिनों के भीतर ख़त्म करने में सफलता हासिल की है. सुरक्षा के उच्चाधिकारियों का कहना है कि भविष्य में भी शांति बनाए रखने और आतंकवाद विरोधी प्रयासों में आरआर की भूमिका नि:संदेह अपरिहार्य रूप से अहम है. अधिकारियों की ओर से संकेत दिया गया कि कैसे उत्तर कश्मीर के बांदीपोर और गंडेरबल से आरआर के यूनिट्स को हटाने के बाद वहां हिंसा में थोड़ी वृद्धि देखने को मिली थी. सुरक्षा बलों का आकलन है कि प्रभावी आतंकवाद-रोधी सुरक्षा ग्रीड को बनाए रखने की दृष्टि से संपूर्ण घाटी को एक ईकाई के रूप में देखा जाना आवश्यक है क्योंकि जब घाटी को टुकड़ो में बांटकर देखा जाता है तो ऐसा होने पर इसमें दिखने वाली दरार का लाभ आतंकवादी उठाने में सफल रहते है.

कट्टरता

घाटी की सुरक्षा और स्थिरता के लिए सबसे बड़ी और एकमात्र चुनौती है – कट्टरता. दरअसल सुरक्षा बलों ने यह स्वीकार भी किया है कि वे इससे निपटने में सफल नहीं हो सके हैं.

कट्टरपंथी जमात इस्लामी [9] पर लगाया गया प्रतिबंध कारगर साबित हुआ है, लेकिन इस वजह से घाटी में मौजूद कट्टरता का स्तर कम नहीं हुआ है और न ही इसे नष्ट और ध्वस्त किया जा सका है. दूसरे शब्दों में जमात के खिलाफ़ की गई कार्रवाई आवश्यक शर्त साबित हुई है, लेकिन यह कट्टरता का मुकाबला करने के लिए पर्याप्त शर्त नहीं है. जमात के खिलाफ़ कार्रवाई आवश्यक हो गई थी, क्योंकि जमात ने कश्मीर के जीवन के हर पहलू में अपनी पैठ बना ली थी. कहा जाता है कि उसके कार्यकर्ता और वफ़ादार समर्थक लगभग 500 स्कूल चला रहे हैं (इसमें से अधिकांश अब भी चल रहे हैं, हालांकि किसी अन्य नाम से), विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहे हैं और निजी तथा सरकारी स्कूलों में भी शिक्षा दे रहे हैं. इस संगठन के ब्यूरोक्रेसी, पुलिस, जिला प्रशासन और यहां तक कि न्यायपालिका में भी मौजूद होने की बात की जाती है. जमात के संगठन ने न केवल सरकार की स्थिति को सामान्य बनाने की कोशिशों में रोड़े अटकाए, बल्कि उसके पास टेरर फाइनैंसिंग नेटवर्क भी था, जिसके सहयोग से सड़कों पर भीड़ को जमा कर विरोध प्रदर्शन करवाए गए[10].

कश्मीर के हिंदी भाषी क्षेत्रों से आने वाले कट्टरपंथी प्रचारक जो सुन्नी इस्लाम की तीनों धाराओं, देवबंदी, बरेलवी और अहले हदित से जुड़े हैं, समस्या को और बढ़ाने का काम कर रहे हैं. कट्टरपंथी विचारधारा फैलाने और आतंकवादियों को पनाह देने के लिए मस्जिदों का दुरुपयोग एक गंभीर चुनौती है. 

जमात और अन्य अलगाववादी संगठनों के साथ संबंध रखने वाले सरकारी कर्मचारियों को बर्खास्त करने का फैसला कुछ हद तक प्रभावशाली साबित हुआ है. लेकिन सरकार, अपने ही इकोसिस्टम से अलगाववादी तत्वों को संपूर्ण रूप से साफ़ करने को लेकर संकोच में दिखाई देती है. आम धारणा यह है कि जमात के कुछ लोगों की सरकारी नौकरी से सांकेतिक बर्खास्तगी का असर होगा और ऐसे ही अन्य लोग जमात के साथ अपने संबंध को तोड़कर नियमों से काम करने लग जाएंगे. संदिग्ध संबंधों वाले सरकारी कर्मचारियों को बड़े पैमाने पर बर्खास्त करने से हंगामा मच जाएगा. इस वजह से भले ही जमात को अपना काम बंद करना पड़ा हो, लेकिन वह आज भी सक्रिय ही है, भले ही कमज़ोर तरीके से हो. वह अपने खिलाफ़ लगे प्रतिबंध को चुनौती दे रहा है. लेकिन इन कार्रवाइयों की वजह से जमात के अपने समर्थकों को सरकारी ठेके और नौकरी दिलवाने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित हुई है.

बाहरी प्रभाव और सायबर स्पेस पर चल रहे दुष्प्रचार की वजह से घाटी का समन्वयात्मक प्रकृति विकृत हो गई है. अधिकारी अक्सर ‘कश्मीरियत’ के पतन का राग आलापते हैं, जिसका स्थान अब इस्लाम का साहित्यिक और कट्टरपंथी प्रस्तुतिकरण ले रहा है. कश्मीर के हिंदी भाषी क्षेत्रों से आने वाले कट्टरपंथी प्रचारक जो सुन्नी इस्लाम की तीनों धाराओं, देवबंदी, बरेलवी और अहले हदित से जुड़े हैं, समस्या को और बढ़ाने का काम कर रहे हैं. कट्टरपंथी विचारधारा फैलाने और आतंकवादियों को पनाह देने के लिए मस्जिदों का दुरुपयोग एक गंभीर चुनौती है. अनेक मस्जिदों का निर्माण हो रहा है, जिसकी वजह से सुरक्षा बलों के लिए सभी को निगरानी में रखना संभव नहीं हो पाता.

कट्टरता की वजह से पेश आने वाली चुनौती के बावजूद अधिकारियों के पास डी-रैडिकलाइज़ेशन (आतंकवाद मुक्ति) का कोई ठोस कार्यक्रम नहीं है. अपने स्तर पर सेना पीएसए के तहत हिरासत में लिए गए लोगों के लिए एक कार्यक्रम चला रही है या फिर उनकी सहायता कर रही है जो आतंकवाद की ओर झुकते दिखाई देते हैं. लेकिन यह अस्थायी ही कहा जाएगा. इसे डी- रैडिकलाइज़ेशन की दिशा में उठाया गया ठोस कदम नहीं माना जा सकता. खैर, वैसे भी यह सेना का काम नहीं है कि डी-रैडिकलाइज़ेशन प्रोग्राम चलाए. दूसरी ओर नागरी प्रशासन भी डी-रैडिकलाइज़ेशन को प्राथमिकता बनाने की दिशा में ज्य़ादा ध्यान देता दिखाई नहीं देता है. सेना सार्वजनिक जीवन में खेल, उद्यमिता, आंदोलन और ऐसी अन्य गतिविधियों में महिलाओं की बढ़ती हिस्सेदारी को लेकर उत्साहित दिखती है. उच्चाधिकारियों को विश्वास है कि महिलाओं की महत्वाकांक्षा को बढ़ावा दिया ही जाना चाहिए. महिलाओं को कौशल विकास के माध्यम से सशक्त कर उन्हें मुखर बनने का मौका देना ही नैरेटिव की लड़ाई में भारत सरकार के लिए संभावित गेम चेंजर साबित हो सकता है. ऐसा होने पर ही महिलाओं को बढ़ावा देकर उनकी महत्वाकांक्षा बढ़ाकर उन्हें अलगाववादी/जिहादी समूहों की पितृस्त्तात्मक, स्त्री विरोधी, तालिबानी मानिसकता को चुनौती देने के लिए तैयार किया जा सकता है.

हाल ही के महीनों में पाकिस्तान स्थित जिहादी आतंकी संगठनों के मुखौटों ने सोशल मीडिया के माध्यम से बयान जारी कर, ऑनलाइन पत्रिका और पैम्पलेट्स को हिंदी और अन्य भाषाओं में जारी करते हुए अपनी पहुंच को बढ़ा लिया है . सूचना युद्ध किसी छोटी-सी घटना को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर उसे लेकर हंगामा खड़ा करने की नीति पर आधारित होता है, ताकि एक विशेष धारणा को बढ़ावा दिया जा सके. 

इस मामले में दूसरा गेम चेंजर है शिक्षा के क्षेत्रों में होने वाले सुधार. दशकों से छोटे और युवा बच्चों के दिलो दिमाग पर स्कूलों में होने वाला दुष्प्रचार हावी रहा है. इसके साथ ही सेना का दावा है कि इस बात का कोई उदाहरण नहीं है कि सेना की ओर से संचालित स्कूल का एक भी बच्चा कभी आतंकवादी अथवा देश विरोधी गतिविधियों में शामिल रहा हो. उनका कहना है कि यह इस बात का सबूत है कि यदि शिक्षा प्रणाली को साफ़ किया जाए तो इससे कट्टरता को रोकने में काफी मदद हो सकेगी. लेकिन यह एक दीर्घकालीन योजना है, जिसके साथ समाज की ओर से भी कट्टरपंथी प्रचारकों से बच्चों को दूर रखने की आवाज़ उठनी चाहिए.

सूचना युद्ध यानी इंफॉर्मेशन वॉरफेयर

कट्टरता की चुनौती को कश्मीर के भीतर और बाहर से चलाए जा रहे इंफॉर्मेशन वॉरफेयर ने और भी जटिल बना दिया है. उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान, जो भारत के खिलाफ़ इस युद्ध में सक्रिय है, उसको तुर्की से इस मामले में काफी सहायता मिलने की बात कही जा रही है. तुर्की अपनी राष्ट्रीय नीति के तहत पाकिस्तान की इस मामले में आधुनिक तकनीक और सूचना तकनीक का उपयोग करते हुए भारत के खिलाफ सूचना युद्ध में भरपूर सहायता कर रहा है [11]. सुरक्षा बल अब इस बात को लेकर सजग हो गए हैं कि पाकिस्तान और उसके जिहादी सहायक सोशल मीडिया का उपयोग कश्मीरी लोगों के मन में जहर भरने के लिए हथियार के रूप में कर रहे हैं. लेकिन वे इसके खिलाफ़ ठोस रणनीति बनाने को लेकर अब भी संघर्ष करते दिख रहे हैं. पाकिस्तानी आतंकवादी तंत्र ऐसे कश्मीरी को खत्म कर देता है, जो पाकिस्तान और अलगाववादियों की विचारधारा को खुले तौर पर चुनौती देता दिखता है. ऐसा कर वह इस समस्या को और भी मुश्किल बना देता है [12].

हाल ही के महीनों में पाकिस्तान स्थित जिहादी आतंकी संगठनों के मुखौटों ने सोशल मीडिया के माध्यम से बयान जारी कर, ऑनलाइन पत्रिका और पैम्पलेट्स को हिंदी और अन्य भाषाओं में जारी करते हुए अपनी पहुंच को बढ़ा लिया है[13]. सूचना युद्ध किसी छोटी-सी घटना को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर उसे लेकर हंगामा खड़ा करने की नीति पर आधारित होता है, ताकि एक विशेष धारणा को बढ़ावा दिया जा सके. यह दो उद्देश्यों को लेकर काम करता है. पहला यह कि विचारों की लड़ाई के हिस्से के रूप में उत्पीड़न की भावना पैदा कर उसका पोषण करना तथा दूसरा कश्मीर मसले पर आधे सच और मनगढ़ंत कहानियों के आधार पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहानुभूति पाकर मीडिया का ध्यान आकर्षित करना.

जब से घाटी में ज़मीनी स्तर की स्थानीय निकाय संस्थाओं को बहाल किया गया है तब से आतंकवादियों के हाथों लगभग दो दर्जन पंचायत सदस्यों की हत्या हो चुकी है . सुरक्षा बलों के लिए प्रत्येक डीडीसी और पंचायत सदस्य को सुरक्षा मुहैया करवाना संभव नहीं है. और उन्हें सुरक्षित स्थानों पर रखने से इन चुनाव को करवाने का उद्देश्य ही पराजित हो जाता है.

संपूर्ण सूचना युद्ध घाटी समेत भारत के अन्य हिस्सों में धार्मिक आजादी पर लगे तथाकथित प्रतिबंध को लेकर मनगढ़ंत और बढ़ा-चढ़ाकर तैयार की गई कहानियों पर आधारित है. इसके अलावा बाहरी लोगों को भूमि संबंधी अधिकार देने और जनसांख्यिकीय परिवर्तन को लेकर भय फैलाना भी इसमें शामिल है. राजनीतिक अधिकारों में कटौती और लोकतंत्र की गैरमौजूदगी भी ऐसे मुद्दे हैं, जिनको लेकर मनगढ़ंत शिकायतें गढ़ी जाती हैं. इसके साथ ही रोज़गार के अवसरों में कमी और आर्थिक अभाव (यह कि जम्मू-कश्मीर भारत के अन्य राज्यों के मुकाबले मानव विकास निर्देशांक[14] में काफी ऊपर हैं, को आसानी से भुला दिया जाता है) को लेकर भी कहानियां गढ़ी जाती हैं. लॉकडाउन में विस्तार, सुरक्षा चेक पोस्ट्स और आतंकवाद रोधी ऑपरेशन्स में आम नागरिकों की मौत को लेकर भी एक धारणा तैयार करने की कोशिश होती है. सुरक्षा अधिकारियों का कहना है कि सूचना युद्ध के माध्यम से कश्मीर के लोगों को यह कहकर प्रभावित करने की कोशिश होती है कि मुस्लिम देशों अफ़ग़ानिस्तान अथवा पश्चिमी एशिया या शेष भारत में कैसे कश्मीर के मुकाबले तेज़ी से विकास हो रहा है. पहले मुद्दे पर नई दिल्ली में बैठी सरकार कुछ नहीं कर सकती है, लेकिन केंद्र सरकार को देश के अन्य हिस्सों में होने वाले ध्रुवीकरण के प्रभाव पर विचार करना चाहिए. उसे सोचना चाहिए कि कैसे यह प्रचार जम्मू और कश्मीर में अलगाववादियों के प्रचार की चक्की को लाभ पहुंचा रहा है.

सुरक्षा बलों की ओर से सूचना युद्ध से निपटने की कोशिश हो रही है, लेकिन यह व्यक्तिगत दिखाई देती है, संगठनात्मक नहीं. नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों में सूचना युद्ध की अनिवार्यता की प्रशंसा कर कुछ प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन इसमें ज्यादा ध्यान देकर पेशेवराना रुख़ अपनाने की आवश्यकता है. सरकार में सूचना युद्ध को लेकर जो कुछ हो रहा है वह नीरस, बेहद धीमा, असंबद्ध और बहुत ज्य़ादा सतर्कता से होता है. पाकिस्तानी सेना के आईएसआई की ओर से चलाए जा रहे सूचना युद्ध से निपटने वाले अफ़सरों को यह पता है कि यह एक निरंतर चलने वाला काम है. इसके बावजूद भारतीय पक्ष की ओर से चौबीसों घंटे सक्रिय रहकर सूचना युद्ध का मुकाबला करने के लिए कोई ढांचागत अथवा संस्थागत व्यवस्था नहीं है.

महत्वपूर्ण बात यह है कि अब यह बात समझ में आ रही है कि विचारों के इस युद्ध में शामिल होना ही होगा, क्योंकि इसे केवल इंटरनेट बंद करने या प्रतिबंध लगाने जैसे कदम उठाकर नहीं जीता जा सकता. संपूर्ण प्रतिबंध लगाने की वजह से धारणाओं के युद्ध में हावी होने के प्रयासों पर विपरीत असर तो दिखाई देता है साथ ही समस्या यह भी होती है कि सूचना अथवा ग़लत सूचना के प्रवाह को पूर्ण रूप से नियंत्रित भी नहीं किया जा सकता. अनधिकृत एप्प को इंटरसेप्ट करने में तकनीकी रूप से भी काफी परेशानी पेश आती है. ऐसा करने के लिए आपको संपूर्ण साइबर ट्रैफिक को सरकारी नियंत्रित सर्वर्स से गुजारना होता है. यह काम एक अलग ही चुनौती पेश करता है.

ऐसे में अब यह प्रयास होना चाहिए कि हम भारत के पक्ष को बेहतर तरीके से बताने और बेचने की कोशिश करें और साथ ही फेक न्यूज और झूठे प्रचार को खारिज करने की दिशा में तेजी से काम करें. एक बात जिसने अधिकारियों के पक्ष में काम कर  अलगाववादी/आतंकवादियों को झूठी कहानियां गढ़ने से रोका है वह यह कि किसी भी हालत में नागरिकों की मौत को रोका जाए.

स्थायी चुनौतियां

हालांकि, हाल के महीनों में भारतीय सुरक्षा बलों ने काफी सफलता हासिल की है, लेकिन उच्चाधिकारियों को यह अनुभव है कि स्थितियां जल्दी ही विपरीत हो सकती है. हकीकत में सामान्य स्थिति काफी नाज़ुक है और सुरक्षा की स्थिति में किसी भी सुधार को कुछ देर के लिए देखना चाहिए और फिर निश्चित रूप से यह दावा किया जाना चाहिए कि अब स्थिति वापस पहले जैसी नहीं होगी.

जम्मू और कश्मीर में सुरक्षा की स्थिति में सुधार का सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि यहां 2018 से ही केंद्र सरकार का शासन है. 2019 में किए गए संवैधानिक सुधार ने सुरक्षा बलों को और अतिरिक्त बल प्रदान किया है.

इस वक्त भले ही घाटी में आतंकवाद की एकाध घटना को छोड़कर स्थिति सामान्य दिख रही हो, लेकिन सुरक्षा बल इस स्थिति का आकलन करने में काफी सतर्कता और रुढ़ीवादी रवैया ही अपनाते दिखते है. उन्होंने लगभग दो दर्जन पैमाने तय किए है, जिसके आधार पर वे यह मानेंगे कि स्थिति अब काबू में है. इसमें लक्षित हमलों में आम नागरिकों की होने वाली मौतों की संख्या, मस्जिदों से होने वाले भड़काऊ भाषण, अलगाववादी नेताओं की अंतिम यात्रा, नारेबाजी और उसमें होने वाली हिस्सेदारी, देश को लेकर प्रतिबद्धता का सार्वजनिक प्रदर्शन, राष्ट्रीय  ध्वज एवं प्रतीक चिन्हों का प्रदर्शन, सुन्नी धार्मिक स्थलों से वहाबी/देवबंदी प्रभाव को खत्म करना, पर्यटन, आर्थिक गतिविधि, बढ़ा हुआ निवेश और नागरिकों को सेना के शिविर में जाते वक्त लक्षित होने का भय न लगना शामिल है.

सुरक्षा बल राजनीतिक प्रक्रिया की वापसी को उम्मीद मिश्रित भय के साथ देखते है. वे यह बात समझते है कि चुनाव का महत्व क्या है और चुनी हुई सरकार का काम संभालना कितना महत्वपूर्ण है, लेकिन उन्हें डर है कि कुछ स्थानीय राजनेता राजनीतिक प्रक्रिया को बाधित कर राज्य को कमज़ोर करते हुए उसके लिए चुनौती पेश करेंगे. जेकेपी को भी यह डर है कि उसे कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जो खुली छूट मिली थी वह भी गुजरे जमाने की बात हो जाएगी. एक और चिंता यह भी है कि राजनेता उन अफ़सरों को परेशान करेंगे, जिन्होंने राज्य के खिलाफ़ काम करने वाले तंत्र को चुनौती देकर काम करना मुश्किल कर दिया था. इसी तरह अंतर एजेंसी के बीच सहयोग और समन्वय की वजह से जो प्रगति हुई थी वह भी रुक जाएगी.

कुछ अफ़सरों का मानना है कि वर्तमान में चल रही प्रशासनिक व्यवस्था को एक और दो साल तक और चलाया जाए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आने वाली राजनीतिक सरकार को संवैधानिक सुधार के पहले वाली स्थिति में जाने के बारे में न तो कोई प्रोत्साहन मिले और न ही मौका. आज की स्थिति में भी यहां जमे हुए राजनेताओं के उस प्रशासनिक और संविदात्मक ढांचे को ध्वस्त नहीं किया जा सका है, जिसका उपयोग वे अपने फायदे के लिए किया करते थे. ऐसी स्थिति में राजनीतिक सरकार यदि लौटी तो वह फिर वहीं काम करेगी जो वह हमेशा से करती आयी है, अर्थात पुराने दिनों की ओर लौटना.

राजनीतिक योजना का अभाव

2019 में हुए संवैधानिक सुधारों के बाद घाटी में जो कुछ अच्छा हुआ है उस पर कश्मीर की राजनीति को दुरुस्त करने में नई दिल्ली की विफलता पानी फेर सकती है. हालांकि, 2020 में केंद्र ने जिला विकास परिषदों (डीडीसी) और पंचायत के चुनाव करवाए, लेकिन यह निकाय फिलहाल काफ़ी कमज़ोर है, जिन्हें काफी ज्य़ादा सशक्त बनाने और मार्गदर्शन की आवश्यकता है, लेकिन यह नदारद दिखता है. यदि इन लोकतांत्रिक संस्थाओं का उद्देश्य नए राजनीतिक नेतृत्व को तैयार करना था तो उसमें सफलता नहीं मिल सकी है. अधिकांश डीडीसी और पंचायत सदस्य अनुभवहीन है और उन्हें यह भी नहीं पता कि प्रशासन से कैसे निपटा जाता है और काम कैसे किया जाता है. इसका परिणाम यह हुआ है कि अनुभवी और घाघ अफसर ही अब इन सदस्यों के इर्द-गिर्द घुमकर अपने जिलों और उपविभाग में शक्तिशाली बन गए है. इसके अलावा डीडीसी और पंचायत सदस्यों को अपनी जान पर मंडरा रहे ख़तरे का भी सामना करना है. जब से घाटी में ज़मीनी स्तर की स्थानीय निकाय संस्थाओं को बहाल किया गया है तब से आतंकवादियों के हाथों लगभग दो दर्जन पंचायत सदस्यों की हत्या हो चुकी है[15]. सुरक्षा बलों के लिए प्रत्येक डीडीसी और पंचायत सदस्य को सुरक्षा मुहैया करवाना संभव नहीं है. और उन्हें सुरक्षित स्थानों पर रखने से इन चुनाव को करवाने का उद्देश्य ही पराजित हो जाता है. ऐसे में इस प्रयोग के विफल होने की संभावना ज्य़ादा दिखाई देती है. ऐसा हुआ तो नया राजनीतिक नेतृत्व खड़ा करने की कोशिशों के लिए यह तगड़ा झटका होगा.

डीडीसी और पंचायत संस्थाओं को प्रभावी बनाने से जुड़ी समस्या के साथ ही घाटी की राजनीति को दोबारा ठीक करने में मिली विफलता भी एक बड़ी समस्या है. हुर्रियत को लगभग ख़त्म कर दिया गया है, लेकिन जमात इस्लामी अब भी सक्रिय है, भले ही वह ओझल हो. उसका प्रभाव कम हुआ है, लेकिन उसका स्तर गिरा नहीं है. इसके अलावा अन्य प्रमुख राजनीतिक दल के भी अपने -अपने समर्थन के प्रभाव क्षेत्र हैं. समस्या यह है कि भले ही इन राजनीतिक दलों का प्रभाव घट गया है, लेकिन डीडीसी और पंचायत संस्थाओं के माध्यम से जिस नए नेतृत्व के आगे आकर इनका स्थान लेने की उम्मीद थी वह भी होता दिखाई नहीं दे रहा है.

प्रशासनिक उपेक्षा

2019 में किए गए संवैधानिक सुधारों के बाद नवगठित केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासनिक ढांचे में आमूलचूल सुधार करने का सुनहरा अवसर मिला था, लेकिन इस अवसर को भुनाया नहीं गया. इस समस्या का एक हिस्सा यह भी था कि सुधारों के तुरंत बाद लंबा लॉकडाउन लगा, जिसकी वजह से विकास की गतिविधियां शुरू कर योजना पर अमल करने में कुछ वक्त लग गया. इसके बाद जैसे ही यह लॉकडाउन हटाया गया, उसके कुछ सप्ताह बाद ही कोविड-19 से जुड़े प्रतिबंध लागू करने पड़े.

कोविड-19 के संकट ने सुरक्षा बलों को अपना प्रभाव जमाने का तो मौका दे दिया, लेकिन इसने कुछ नियोजित विकास पहल पर अमल को रोक दिया. भले ही वर्तमान उपराज्यपाल मनोज सिन्हा प्रशासनिक मामलों में तत्काल फैसला ले रहे हैं, लेकिन अब व्यापक तौर पर प्रशासनिक ढांचे को अधिक सक्रिय और उत्तरदायी बनाने पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है. समस्या यह है कि नौकरशाही अब भी सुस्त, अक्षम और अनुत्तरदायी बनी हुई है.

हालांकि, प्रशासन से अलगाववादी समर्थकों की सफाई के प्रयास हो रहे हैं, लेकिन इन तत्वों का सफाया नहीं हुआ है, क्योंकि सरकार ने चुनिंदा लोगों के खिलाफ ही कार्रवाई की है. इसके बावजूद प्रशासनिक ढांचे में कुछ हद तक पारदर्शिता अपनी पैठ बनाती दिखाई दे रही है. अब यह प्रयास होता दिख रहा है कि रोजगार के अवसर जम्मू और कश्मीर क्षेत्र में बराबर बांटे जाएं. विकास योजनाओं का भी दोनों क्षेत्रों में पहले के मुकाबले अब संतुलित बंटवारा होता दिखाई दे रहा है. घाटी में बिजली की स्थिति में सुधार का प्रयास भी किया जा रहा है. लेकिन भ्रष्टाचार और अन्य मामलों को लेकर काफी शिकायतें हैं, जिनका निपटारा किया जाना आवश्यक है.

2019 के संवैधानिक सुधारों की वजह से शेष भारत से आजाद होने अथवा स्वायत्तता के गुब्बारे में छेद हो गया है. एक ओर जहां जनता नई स्थिति से सामंजस्य बैठा रही है, वहीं राजनेता अब भी भूतकाल में ही अटके हुए हैं. इसी वजह से नई दिल्ली की घाटी की राजनीति को एक नया रंग देने की विफलता काफी बड़ी दिखाई देती है. 

जन संवाद

जम्मू और कश्मीर के लोगों [16]  से बात करने पर यह साफ हो जाता है कि उनकी महत्वकांक्षा, मांग और समस्याएं देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले लोगों से ज्यादा अलग नहीं हैं. सड़कों पर ‘आजादी’ को लेकर होने वाले प्रदर्शन दरअसल देश से आजादी के नहीं, बल्कि बेहतर स्कूल की इमारत और अन्य नागरी सुविधाओं की आजादी से जुड़े हैं. कहने का अर्थ यह नहीं है कि यहां से अलगाववादी तत्व गायब हो गए हैं, बस उन्हें अब पर्दे के पीछे धकेल दिया गया है. धारा 370 को कमज़ोर करने का मुद्दा केवल राजनेताओं के वर्ग का ही मुद्दा है. हालांकि, जनता को उनसे राज्य का दर्जा छिन जाना और अब केंद्र शासित प्रदेश बना दिए जाने का मुद्दा परेशान करता है. हालांकि उनको उम्मीद है कि यह अस्थायी व्यवस्था है और चुनाव के बाद राज्य का दर्जा पुन: बहाल कर दिया जाएगा.

2019 के संवैधानिक सुधारों की वजह से शेष भारत से आजाद होने अथवा स्वायत्तता के गुब्बारे में छेद हो गया है. एक ओर जहां जनता नई स्थिति से सामंजस्य बैठा रही है, वहीं राजनेता अब भी भूतकाल में ही अटके हुए हैं. इसी वजह से नई दिल्ली की घाटी की राजनीति को एक नया रंग देने की विफलता काफी बड़ी दिखाई देती है. हालांकि, प्रशासन राज्य की सुरक्षा व्यवस्था पर अपनी पकड़ मजबूत बनाने में सफल रहा है तथा यह जम्मू और कश्मीर की स्थिति को सामान्य करने के लिए एक आवश्यक शर्त भी थी. यहां की राजनीति को सही किए बगैर सुरक्षा की स्थिति कभी भी बिगड़ने की संभावना बनी रहेगी.

निष्कर्ष

जम्मू और कश्मीर इस वक्त आमूलचूल परिवर्तन की दहलीज़ पर खड़ा दिखाई दे रहा है. लेकिन स्थितियों को मज़बूत और अपरिवर्तनीय बनाने के लिए भारत सरकार को उन बड़ी चुनौतियों पर ध्यान देना होगा जो यहां स्थिति सामान्य होने से रोकने के लिए बाधा डालने वाली हैं. यह चुनौतियां सतही नहीं, बल्कि वास्तविक हैं. जम्मू और कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को हटाकर उसे देश की मुख्यधारा में शामिल करने को लेकर जो गतिरोध बना हुआ था, उसे तोड़ने के लिए किया गया व्यापक संवैधानिक सुधार एक अवसर लेकर आया है. इस अवसर को गंवा देना दुर्भाग्यपूर्ण होगा, क्योंकि ऐसा मौका दोबारा पाने और स्वत: उपलब्ध होने में वर्षों का वक्त लग जाएगा.


[1] “Delimitation of Constituencies in Union Territory of Jammu & Kashmir – Final Notification – Regarding.” Election Commission of India, ECI, May 5, 2022.

[2]Opposition in Jammu & Kashmir Plans Protest Over Delimitation Commission Report.” Hindustan Times, May 9, 2022.

[3] Bashaarat Masood, “Grief, Anger as Kashmiri Pandit Govt Staffer Is Killed by Militants in Valley,” The Indian Express, May 12, 2022.

[4] Shabir Ibn Yusuf, “Cop Killed in Pulwama Terror Attack.” Greater Kashmir, May 13, 2022.

[5] Bashaarat Masood, “Kashmir: One Killed, 3 Injured in Grenade Attack at Baramulla Liquor Shop,” The Indian Express, May 18, 2022.

[6] David Devadas, The Generation of Rage in Kashmir (New Delhi: Oxford University Press, 2018), page 1

[7] The visit was facilitated by the Indian Army but financed by the author.

7 Jammu and Kashmir Police official, in conversation with the author, April 19, 2022

8“Govt Bans Jamaat-e-Islami Jammu and Kashmir for 5 Years.” India Today, March 1, 2019.

9Senior Indian Army official, in conversation with the author, April 23, 2022

10 Senior security official monitoring information warfare in Jammu and Kashmir, in conversation with the author, April 19, 2022

11 Senior security official monitoring information warfare in Jammu and Kashmir, in conversation with the author, April 19, 2022

12 Praveen Swami, “Aqis Goes Vernacular with Tamil, Hindi, Bengali Texts Online,” The Indian Express, November 17, 2017.

13 State Bank of India, ECOWRAP, March 8, 2022.

14“Fear Grips Panchayat Members in South Kashmir after Militant Attacks,” Moneycontrol, March 18, 2022.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.