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हाल ही में जर्मनी के चांसलर ओलाफ स्कोल्ज़ की यात्रा के दौरान भारत और जर्मनी के बीच सातवीं अंतर-सरकारी परामर्श बैठक आयोजित की गई थी. इस महत्वपूर्ण बैठक के मद्देनज़र इस लेख में भारत और जर्मनी के रिश्तों को लेकर तीन हिस्सों में चर्चा की गई है. इस लेख के पहले भाग में उन मसलों पर विस्तार से चर्चा की गई है, जिनकी वजह से हाल के वर्षों में भारत-जर्मनी संबंध कमज़ोर हुए. हालांकि, ऐसा नहीं होना चाहिए था, क्योंकि दोनों देशों के बीच कई ऐसे मुद्दे थे, जिनके चलते दोनों को स्वाभाविक रूप से एक दूसरे का नज़दीकी सहयोगी होना चाहिए था. इस लेख के दूसरे हिस्से में विस्तार से बताया गया है कि किस कारण से भारत और जर्मनी अब रणनीतिक साझेदारी सहयोग के एक नए युग में दाखिल हो रहे हैं. वहीं, लेख के तीसरे हिस्से में बताया गया है कि भारत और जर्मनी को अपने रिश्तों में क्या सतर्कता एवं सावधानियां बरतनी चाहिए.
भारत और जर्मनी के बीच वर्ष 2021 में राजनयिक संबंधों के 70 साल पूरे हुए थे और इस दौरान कई कार्यक्रम आयोजित किए गए थे. इस सबके बावज़ूद दोनों देशों के बीच इस दौरान विभिन्न वजहों से द्विपक्षीय साझेदारी में वो गर्मजोशी व तेज़ी नहीं दिखाई दी, जो दिखनी चाहिए थी.
I. रिश्तों की मज़बूती के लिए बहुत कुछ हुआ, लेकिन अभी “इसमें काफ़ी गुंजाइश”
ज़ाहिर है कि भारत और जर्मनी वर्ष 2000 से ही महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदार हैं. भारत उन देशों में शामिल है, जिसने फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी को सबसे पहले मान्यता दी थी. भारत और जर्मनी के बीच वर्ष 2021 में राजनयिक संबंधों के 70 साल पूरे हुए थे और इस दौरान कई कार्यक्रम आयोजित किए गए थे. इस सबके बावज़ूद दोनों देशों के बीच इस दौरान विभिन्न वजहों से द्विपक्षीय साझेदारी में वो गर्मजोशी व तेज़ी नहीं दिखाई दी, जो दिखनी चाहिए थी. जब इन दोनों लोकतांत्रिक देशों के बीच संबंधों का विश्लेषण किया जाता है, तो दिमाग में आम तौर पर इस्तेमाल किया जाने वाला जर्मन महावरा, “लुफ़्ट नाच ओबेन” दिमाग में आता है, जिसका अर्थ है अभी इसमें काफ़ी गुंजाइश है, यानी आपसी रिश्तों को प्रगाढ़ बनाने में काफ़ी कुछ किया गया है, लेकिन इसमें सुधार की अभी बहुत गुंजाइश है. अगर भारत और फ्रांस के बीच संबंधों की गर्माहट से इसकी तुलना की जाए, तो भारत-जर्मनी के बीच ठंडे रिश्ते हैरानी में डालने वाले हैं.
भारत और जर्मनी के बीच संबंधों में रुकावट पैदा करने की कई वजहें रही हैं, लेकिन हाल के वर्षो में तीन कारण प्रमुख रूप से उभरकर सामने आए हैं.
सबसे पहला कारण तो यह है कि आपसी संबंधों में जर्मनी ने भारत के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने की बात कही थी, लेकिन हक़ीक़त में ऐसा कुछ भी नज़र नहीं आया. हाल के वर्षों में देखा गया है कि जर्मनी ने न केवल भारत की किसी न किसी मुद्दे पर लगातर आलोचना की, बल्कि भारत में लोकतंत्र को लेकर भी सवाल उठाने का काम किया है. उदाहरण के तौर पर कुछ महीने पहले ही केजरीवाल की गिरफ्तारी के मामले पर भी जर्मनी की ओर से बयान दिया गया था और इसकी आलोचना की गई थी. इन बातों ने दोनों देशों के रिश्तों में कहीं न कहीं अवरोध पैदा करने का ही काम किया.
दूसरा कारण है कि भारत ने यूक्रेन पर रूस द्वारा किए गए हमले के मुद्दे पर चुप्पी साधे रखी और इस मामले में कोई बयान नहीं दिया. जर्मनी को भारत से इस रुख की उम्मीद नहीं थी और उसने इसके लिए भारत की आलोचना भी की. वहीं जर्मनी के इस रवैये ने भारत का गुस्सा बढ़ाने का काम किया.
तीसरा कारण है कि जहां भारत और फ्रांस के पारस्परिक संबंधों में रक्षा सहयोग की बेहद अहम भूमिका है, वहीं जर्मनी ने हमेशा ही भारत के साथ रक्षा संबंधों पर बातचीत करने में एहतियात बरती है, या कहें कि इससे दूरी बनाए रखी है. इस वजह से भी दोनों देशों के आपसी रिश्ते परवान नहीं चढ़ पाए. जर्मनी की ओर से रक्षा सहयोग के मामले में दूरी बनाना भारत के लिए बहुत बड़ा मसला था, क्योंकि भारत की भौगोलिक स्थित स्थिति ऐसी है कि उसकी बड़ी सीमा ऐसे पड़ोसी देशों से जुड़ी है, जहां सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा है.
लेकिन अब ये परिस्थितियां बहुत ज़ल्द बदलने वाली हैं.
II. बदलाव का दौर?
जर्मनी की सरकार ने कुछ दिन पहले ही “फोकस ऑन इंडिया” यानी “भारत पर ध्यान केंद्रित करें” नाम से एक दस्तावेज़ जारी किया था. इस दस्तावेज़ में साफ तौर बताया गया है कि जर्मनी में इन दिनों क्या अहम परिवर्तन हो रहे हैं, साथ ही इसमें भारत को लेकर जर्मनी के नज़रिए में आए बदलाव का भी विस्तार से बखान किया गया है.
सबसे पहली बात तो यह है कि जर्मनी सरकार के इस दस्तावेज़ में भारतीय लोकतंत्र की तारीफ़ के पुल बांधे गए हैं. इस दस्तावेज़ के पहले चैप्टर का शीर्षक ही “भारत - स्थिरता एवं सुरक्षा के लिए जर्मनी का एक लोकतांत्रिक साझेदार” है. इस अध्याय में 2024 के भारतीय लोकसभा चुनावों की प्रशंसा की गई है और साफ-साफ कहा गया है कि “भारत में 2024 के संसदीय चुनावों ने प्रभावी तरीक़े से यह प्रदर्शित किया है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कितना जीवंत हैं.” इसके अतिरिक्त, भारत मूल्यों और नैतिकता के मुद्दे पर ज्ञान देने के बजाए, इस दस्तावेज़ में कहा गया है कि भारत और जर्मनी दोनों ही देशों के मूल्य एक समान है और दोनों को इन्हें सहेज कर रखना चाहते हैं.
दूसरी अहम बात यह है कि जर्मनी के इस दस्तावेज़ में रूस के मुद्दे पर भारत एवं जर्मनी के बीच पैदा हुए मतभेदों को छिपाने की कोशिश नहीं की गई है. इसके बजाए इसमें भारत को रूस के मुद्दे पर अपने रुख के बारे में फिर से विचार करने के लिए पहले जो सलाह दी गई थी, उससे आगे की बात कही गई है. वास्तविकता में जर्मनी अब इससे आगे बढ़कर भारत से ऐसी बात कह रहा है, जिसको लेकर कुछ लोग (इस लेखक समेत) पिछले कई वर्षों से मशविरा दे रहे हैं. ज़ाहिर है कि कई वर्षों से यह कहा जा रहा है कि जर्मनी सभी बातों को भुलाकर भारत के लिए एक भरोसेमंद सुरक्षा साझेदार बन जाए. गौरतलब है कि ऐसा होने से सैन्य साज़ो-सामान की आपूर्ति के लिए भारत की रूस पर निर्भरता में भी कमी आएगी.
कई वर्षों से यह कहा जा रहा है कि जर्मनी सभी बातों को भुलाकर भारत के लिए एक भरोसेमंद सुरक्षा साझेदार बन जाए. गौरतलब है कि ऐसा होने से सैन्य साज़ो-सामान की आपूर्ति के लिए भारत की रूस पर निर्भरता में भी कमी आएगी.
इस दस्तावेज़ में जहां रूस के साथ भारत के संबंधों का ख्याल रखा गया है, वहीं हिंद-प्रशांत क्षेत्र की परिस्थितियों एवं भारत के पड़ोसी देशों से संबंधों के बारे में ध्यान दिया गया है. यही वजह है कि इस दस्तावेज़ में भारत और जर्मनी के संबंधों में रुकावट बनने वाले तीसरे मुद्दे यानी रक्षा सहयोग के मसले पर स्पष्ट रुख अपनाया गया है. इसमें कहा गया है कि "हालातों को देखते हुए जर्मनी की सरकार भारत के साथ न केवल अपने हथियार सहयोग को आगे बढ़ाएगी, बल्कि हथियार निर्यात से संबंधित प्रक्रिया को विश्वसनीय बनाएगी, साथ ही जर्मन और भारतीय हथियार कंपनियों के बीच सहयोग को बढ़ावा देगी और उनकी मदद करेगी. इस संबंध में जर्मनी की सरकार जो भी राष्ट्रीय और यूरोपियन दिशानिर्देश या नीतियां हैं, उनके आधार पर उचित क़दम उठाएगी." ज़ाहिर है कि इस दस्तावेज़ में भारत के साथ सैन्य सहयोग बढ़ाने को लेकर जो बात कही गई है, वो वर्तमान समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है.
भारत के साथ जर्मनी का जिन क्षेत्रों में पहले से ही बेहतर सहयोग है, जैसे कि बहुपक्षवाद, ग्रीन एनर्जी, जलवायु, विकास सहयोग, व्यापार, आप्रवासन तथा अनुसंधान एवं शिक्षा, इन सबके बारे में इस दस्तावेज़ में काफ़ी कुछ कहा गया है. इस दस्तावेज़ में विभिन्न क्षेत्रों में भारत की उपलब्धियों की खुलकर तारीफ़ की गई है, जैसे कि जी20 सम्मेलन के सफल आयोजन एवं सोलर एलायंस जैसी उपलब्धियों की सराहना की गई है. साथ ही यह भी कहा गया है कि भारत की इन उपलब्धियों से जर्मनी बहुत कुछ सीख सकता है. इसमें ऐसा नहीं कहा गया है कि भारत की इन उपलब्धियों से जर्मनी को सीखना चाहिए, बल्कि इसमें सीखेगा जैसा भाव प्रकट किया गया है, जो जर्मनी की गंभीरता को दिखाता है.
इस दस्तावेज़ में जिन मुद्दों को उठाया गया है और जिस प्रकार के दृष्टिकोण को ज़ाहिर किया गया है, उससे साफ संकेत मिलता है कि भारत को लेकर जर्मनी की विदेश नीति बदली है. निश्चित तौर पर जर्मनी की विदेश नीति को आकार देने वाले राजनेताओं और नीति निर्माताओं द्वारा विभिन्न मसलों पर गंभीरता से चिंतन करने का ही नतीज़ा है, जो इसमें सकारात्मक बदलाव देखने को मिला है. यह भी कहा जा सकता है कि जर्मनी में चीन के बढ़ते उभार को लेकर काफ़ी चिंता है और वांडेल डर्च हैंडल यानी व्यापार के ज़रिए बदलाव की उम्मीद पाले बैठे राजनेताओं को निराशा हाथ लगने की वजह से भी जर्मनी की विदेश नीति में परिवर्तन देखने को मिला है. चाहे कुछ भी हो, लेकिन इस बदलाव के लिए कहीं न कहीं भारत को भी श्रेय दिया जाना चाहिए. भारत ने खुद को न केवल सही मायनों में लोकतांत्रिक मूल्यों का अनुकरण करने वाले देश के रूप में, बल्कि एक आर्थिक महाशक्ति के तौर पर स्थापित किया है, साथ ही वैश्विक स्तर पर खुद को एक ज़िम्मेदार राष्ट्र के रूप में भी साबित किया है (उदाहरण के तौर पर कोरोना संकट के दौरान भारत ने अपनी वैक्सीन मैत्री पहल के ज़रिए उन देशों की मदद के लिए हाथ बढ़ाए, जो वैक्सीन नहीं ख़रीद सकते थे). इतना ही नहीं, तमाम वैश्विक संकटों के दौरान भारत ने प्रभावशाली कूटनीति का प्रदर्शन किया है और उनके समाधान में अपना योगदान दिया है. यानी भारत दुनिया में एक ऐसी ताक़त के रूप में उभरा है, जिसकी किसी भी लिहाज़ से अनदेखी नहीं की जा सकती है. ख़ास तौर पर पश्चिमी देशों के लिए भारत से संबंधों को मज़बूत करना बेहद आवश्यक हो गया है. जर्मनी की सरकार द्वारा जारी किया गया यह दस्तावेज़ भी साफ कहता हुआ नज़र आता है कि अब भारत को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है. अगर आने वाले दिनों में भारत के साथ विभिन्न क्षेत्रों में रिश्ते प्रगाढ़ करने के लिए जर्मनी इस दस्तावेज़ के मुताबिक़ क़दम आगे बढ़ाता है, तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जर्मनी की ओर से कुछ ऐसा निर्णय लिए जा सकते हैं, जिनसे दोनों देशों की न सिर्फ़ नज़दीकी बढ़ेगी, बल्कि आपसी संबंध भी तेज़ रफ़्तार पकड़ेंगे.
भारत दुनिया में एक ऐसी ताक़त के रूप में उभरा है, जिसकी किसी भी लिहाज़ से अनदेखी नहीं की जा सकती है. ख़ास तौर पर पश्चिमी देशों के लिए भारत से संबंधों को मज़बूत करना बेहद आवश्यक हो गया है.
III. भारत-जर्मनी संबंधों की सीमाएं और सावधानियां
निसंदेह तौर पर जर्मनी द्वारा भारत के साथ रिश्तों के बारे में तैयार किया गया यह दस्तावेज़ उसके नज़रिए में उल्लेखनीय एवं सकारात्मक परिवर्तन ज़ाहिर करता है, लेकिन इसमें कही गई बातों को अमल में कैसे लाया जाएगा और जर्मनी इन बातों पर कितना टिका रहेगा, इसको लेकर सवाल बने हुए हैं. ऐसा इसलिए है, क्योंकि जर्मनी की सरकार के हाथों में ही सबकुछ नहीं है. वास्तवकिता में जर्मनी का संघीय ढांचा काफ़ी जटिल है. जर्मनी में सत्तारूढ़ चांसलर ओलाफ स्कोल्ज की सरकार में तीन राजनीतिक दल शामिल हैं. सरकार में शामिल दलों के बीच हर मुद्दे पर आम सहमति नहीं होती है, बल्कि उनमें मतभेद भी होते हैं. मान लेते हैं कि भारत को लेकर जारी किए गए जर्मन दस्तावेज़ को अमली जामा पहनाने की राह में ये सारी मुश्किलें फिलहाल नहीं है, लेकिन इसमें शामिल मुद्दों को हक़ीक़त बनाने के लिए व्यापक जन समर्थन हासिल करना बहुत ज़रूरी है. फिलहाल सच्चाई यह कि जर्मनी का भारत की तुलना में चीन की तरफ अधिक झुकाव है. अकादमिक पदों और शोध संस्थानों की फंडिंग में यह साफ तौर पर दिखाई भी देता है. साथ ही जर्मन मीडिया में भारत और चीन को लेकर जो कवरेज होता है, उसमें भी यह दिखता है कि वहां चीन के प्रति झुकाव कितना अधिक है. अब यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि जर्मनी अपने बदले हुए नज़रिए के मुताबिक़ क्या आम जनमानस में भारत के प्रति सोच को बदल पाएगा और अगर ऐसा होता भी है, तो वो यह सब कैसे करेगा. क्योंकि परंपरागत रूप से जर्मनी की जनता के दिलो-दिमाग पर चीन ही छाया हुआ है. यानी यह देखना दिलचस्प होगा कि वह भारतीय विशेषज्ञता को किस प्रकार आकर्षित करेगा और लोगों के विचारों को परिवर्तित करेगा.
ग्लोबल साउथ के लिए तथाकथित शब्द का उपयोग करना केवल भाषा का मुद्दा नहीं है, यानी ऐसा नहीं है कि ग्लोबल साउथ से पहले तथाकथित शब्द को ऐसे ही लगा दिया गया है, बल्कि यह ग्लोबल साउथ के बारे में एक मानसिकता है और यह नीतियों में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है.
दूसरी रुकावट, जिसकी किसी भी लिहाज़ से अनदेखी नहीं की जा सकती है, वो है जर्मनी की वर्चस्व स्थापित करने की मानसिकता. यहां तक कि फोकस ऑन इंडिया नाम के इस प्रभावशाली दस्तावेज़ में भी कुछ-कुछ जगहों पर जर्मनी की यह मानसिकता दिखाई देती है. उदाहरण के तौर पर इस दस्तावेज़ में ग्लोबाल साउथ को लेकर जर्मनी ने कुछ इसी प्रकार के नज़रिए को ज़ाहिर किया है. इस दस्तावेज़ में तीन मौक़ों पर ग्लोबल साउथ का उल्लेख करने से पहले “तथाकथित” शब्द का उपयोग किया गया है. ज़ाहिर है कि हाल के वर्षों में पश्चिमी देशों की ओर से ग्लोबल साउथ को एक शब्द या समूह के तौर पर दरकिनार कर देना या उसे कोई तवज्जो नहीं देना सामान्य सी बात हो गई है. मतलब पश्चिम अक्सर ग्लोबल साउथ के अस्तित्व को ही नकार देता है. लेकिन भारत के साथ ही अगस्त 2024 में आयोजित हुए तीसरे वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट में हिस्सा लेने वाले 123 देशों के लिए ग्लोबल साउथ और उसके मसले बेहद महत्वपूर्ण हैं. यानी इन देशों के लिए ग्लोबल साउथ किसी भी तरीक़े से "तथाकथित" नहीं है. इसके अलावा, ग्लोबल साउथ के लिए तथाकथित शब्द का उपयोग करना केवल भाषा का मुद्दा नहीं है, यानी ऐसा नहीं है कि ग्लोबल साउथ से पहले तथाकथित शब्द को ऐसे ही लगा दिया गया है, बल्कि यह ग्लोबल साउथ के बारे में एक मानसिकता है और यह नीतियों में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है. कुल मिलाकर भारत द्वारा बातचीत के दौरान उठाए गए मुद्दों को लेकर जर्मनी जितनी अधिक गंभीरता दिखाएगा और उनके महत्व को जितना अधिक समझेगा, साथ ही समर्थन और सराहना करेगा, दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय सहयोग भी उतना अधिक प्रगाढ़ होगा और तेज़ी से नई ऊंचाई पर जाएगा.
अमृता नार्लीकर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में डिस्टिंग्विश्ड फेलो हैं.
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