जब एनालीना बेयरबॉक को जर्मनी का विदेश मंत्री बनाया गया था, तो सोशल मीडिया ख़ुशी से झूम उठा था: जर्मनी को आख़िरकार पहली महिला विदेश मंत्री मिल ही गई. [1]
विदेश मंत्री के तौर पर एनालीना ने निराश नहीं किया है. 2021 में (सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ़ जर्मनी-SPD, हरित पार्टी और फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी- FDP) के बीच हुए समझौते में कहा गया था कि,
>हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को नेतृत्व की भूमिका में भेजना चाहते हैं, ताकि वो संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव 1325 को लागू करने की राष्ट्रीय कार्य योजना को लागू करने के साथ साथ उसे और विकसित कर सकें.’
‘अपने साझीदारों के साथ मिलकर हम महिलावादी विदेश नीति के अधिकारों को बढ़ावा देना चाहते हैं. इस नीति के तहत हम दुनिया भर में महिलाओं और लड़कियों की नुमाइंदगी और संसाधनों के साथ साथ सामाजिक नुमाइंदगी में विविधता को बढ़ावा देना चाहते हैं. हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को नेतृत्व की भूमिका में भेजना चाहते हैं, ताकि वो संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव 1325 को लागू करने की राष्ट्रीय कार्य योजना को लागू करने के साथ साथ उसे और विकसित कर सकें.’
बेयरबॉक इस काम को प्राथमिकता देते हुए जर्मनी के लिए एक महिलावादी विदेश नीति (FFP) विकसित करने को बढ़ावा दे रही हैं. उनकी अगुवाई में जर्मनी के संघीय विदेश कार्यालय (FFO) ने 3R+D का सूत्र (महिलाओं और हाशिए पर पड़े तबक़ों के लिए अधिकार, प्रतिनिधित्व और संसाधनों के साथ साथ और विविधता को बढ़ावा देने का फॉर्मूला) विकसित किया है. इस काम में जुटने वाली जर्मनी की विदेश मंत्री अकेली नहीं हैं. स्वीडन, फ्रांस, कनाडा, मेक्सिको और स्पेन ने भी ऐसी ही ‘महिलावादी’ नीतियों को समर्थन देने का एलान किया है; भारत में भी महिलावादी विदेश नीति (FFP) को मिलने वाला समर्थन बढ़ रहा है. ख़ास तौर से भारत की आने वाली G20 अध्यक्षता को लेकर तो और भी; ट्विटर पर भी #WomenInDiplomacy और ऐसे कई हैशटैग अक्सर ट्रेंड करते रहते हैं. हमें एनालीना बेयरबॉक को इस बात का श्रेय देना होगा कि उन्होंने इस मौजूदा चलन को न सिर्फ़ बढ़ावा दिया है, बल्कि उसे आगे भी ले जा रही हैं.
इन सब बातों के बाद भी विद्वानों का काम मौजूदा चलनों को और मज़बूत बनाना नहीं है. ऐसा करना आसान भले हो, लेकिन प्रभावशाली इको चैंबर में अहम आवाज़ों को ज़ोर शोर से सुनाने का कोई मतलब नहीं है. [2] इसके बजाय अकादमिक क्षेत्र का काम सवाल उठाना, उकसाना और शायद ऐसे चलन के अहम किरदारों को अतिरिक्त और वैकल्पिक नज़रिया उपलब्ध कराना है. इस लेख को इसी भावना से लिखा गया है.
इस काम में जुटने वाली जर्मनी की विदेश मंत्री अकेली नहीं हैं. स्वीडन, फ्रांस, कनाडा, मेक्सिको और स्पेन ने भी ऐसी ही ‘महिलावादी’ नीतियों को समर्थन देने का एलान किया है; भारत में भी महिलावादी विदेश नीति (FFP) को मिलने वाला समर्थन बढ़ रहा है.
इस संक्षिप्त परिचय के बाद मैं महिलाओं की इन क्षेत्रों से अलग थलग होने की स्थिति और ऐसे नेकनीयती से भरे प्रयासों से होने वाले फ़ायदों के बारे में बताना चाहूंगी. इसी हिस्से में मैं इस समस्या के कुछ आसान से समाधान भी सुझाऊंगी. आने वाले हिस्से में मैं उन मौजूदा प्रयासों की चर्चा करूंगी जिन्हें विदेश नीति के एक अधिक महत्वाकांक्षी एजेंडे के तौर पर विकसित किया जा सकता है और किया जाना भी चाहिए. ऐसे एजेंडे में आगे बढ़ने की काफ़ी संभावनाएं होंगी. ख़ास तौर से ग्रीन पार्टी के नेतृत्व में और जर्मनी ही नहीं पूरी दुनिया में इसके दूरगामी सकारात्मक नतीजे देखने को मिल सकते हैं.
अगर आधी आबादी अपनी बात बराबरी से नहीं कह सकती है तो…
…कोई भी समाज अपनी पूरी क्षमता को हासिल नहीं कर सकता था. विदेश मंत्री एनालीना बेयरबॉक ने यही कहा था. और हां, उन्होंने बिल्कुल सही कहा था. हालांकि, पुरुषों और महिलाओं के अलावा ऐसे और भी कई दर्जे हैं, जिनमें आबादी को बांटा जा सकता है.
नस्लें और जातीयता, वर्ग, लैंगिक पसंद, उम्र, दिव्यांगता और ऐसे ही कई और पैमाने हैं, जिनका इस्तेमाल आबादी के वर्गीकरण के लिए किया जा सकता है. कई मामलों में (जैसे कि आमदनी के वितरण और दर्जा), पचास फ़ीसद से भी कहीं ज़्यादा आबादी ख़ुद को नीतियों, कारोबार और अकादेमिक क्षेत्र में हाशिए पर खड़ा पाती है. ये मामला राष्ट्रीय आबादी में तुलनात्मक नुमाइंदगी का भी नहीं है. वैसे तो जर्मनी के अकादमिक क्षेत्र का ये दावा है कि वो सबसे काबिल लोगों को बढ़ावा देता है. लेकिन ये बात आपको हैरान करेगी कि नेतृत्व के सबसे ऊंचे तबक़े में न तो जातीय विविधता दिखती है और न ही अंतरराष्ट्रीयकरण. मिसाल के तौर पर लीबनिज़ एसोसिएशन (एक रिसर्च संगठन जिसका सूत्र वाक्य सिद्धांत और व्यवहार है और इसी वजह से इसका असर जर्मनी के नीतिगत मोर्चे पर भी पड़ता है) के 18 सामाजिक विज्ञान संस्थानों में से केवल एक लीबनिज़ संस्थान ऐसा है, जिसके अध्यक्ष एक अश्वेत जातीयता वाले हैं और विकसित देशों से नहीं आते हैं. जर्मनी के थिंक टैंक जो, जर्मनी की विदेश नीति के विकास और उसे लागू करने से नज़दीकी ताल्लुक़ रखते हैं, उनका हाल भी यही है; वैसे तो लैंगिक असमानता दूर करने के लिए सराहनीय प्रयास किए गए हैं, मगर अभी भी इनके नेतृत्व में ‘गोरों’ का दबदबा खुलकर दिखता है.
नस्लें और जातीयता, वर्ग, लैंगिक पसंद, उम्र, दिव्यांगता और ऐसे ही कई और पैमाने हैं, जिनका इस्तेमाल आबादी के वर्गीकरण के लिए किया जा सकता है. कई मामलों में , पचास फ़ीसद से भी कहीं ज़्यादा आबादी ख़ुद को नीतियों, कारोबार और अकादेमिक क्षेत्र में हाशिए पर खड़ा पाती है.
अलग अलग जातीयताओं, समुदायों और दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों और बौद्धिक प्रशिक्षण के परिवेशों और अलग सांस्कृतिक परंपराओं से आने वाली अलग अलग आवाज़ों को जर्मनी की विदेश नीति निर्माण की मुख्यधारा में शामिल करना ही होगा. ऐसा सिर्फ़ इसलिए करने की ज़रूरत नहीं कि इससे मंज़र में विविधता देखने को मिलेगी और ये राजनीतिक रूप से भी दुरुस्त होगा. जर्मनी की विदेश नीति के कुछ स्याह साए इसलिए पैदा हो जाते हैं कि हम दुनिया के अलग अलग क्षेत्रों के नज़रियों को अपने विचारों का हिस्सा नहीं बनाते हैं. अगर हम ऐसा करते, तो शायद हम ‘व्यापार के ज़रिए बदलाव’ के मिथक को अपनाने का जोखिम नहीं उठाते. क्योंकि तब हम चीन के पड़ोसी देशों के उन विचारों और तजुर्बों में भी दिलचस्पी लेते, जो चीन के पड़ोसी के तौर पर अपने लंबे कड़वे ऐतिहासिक तजुर्बे के शिकार रहे हैं. जिन्होंने चीन द्वारा अपनी सीमा में घुसपैठ और समुद्री क्षेत्र में दख़लंदाज़ी को झेला है. अगर हम अलग अलग क्षेत्रों के नज़रियों को अपनी नीतियों का हिस्सा बनाते, तो शायद हम ये समझ पाते कि आख़िर यूक्रेन पर रूस के हमले की आलोचना करने में (भारत समेत) बहुत से विकासशील देश क्यों हिचक रहे हैं. तब शायद हमें अंदाज़ा होता कि आख़िर उनकी क्या मजबूरियां हैं. नेतृत्व की भूमिकाओं में और अधिक गोरी महिलाओं को नियुक्त करने और एक से जुड़ी दूसरी कड़ी वाले कई मॉडल अपनाने से इन समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला है.
ऐसी आलोचनाओं का आधिकारिक जवाब 3R+D का फॉर्मूला होता है: जर्मनी की महिलावादी विदेश नीति से ये अपेक्षा की जाती है कि वो हाशिए पर पड़े तबक़ों तक पहुंचेगी और विविधता को बढ़ाएगी. लेकिन ‘महिलावादी’ विदेश नीति के साथ दिक़्क़त ये है कि ये अपने नाम के मुताबिक़ उन्हीं नीतियों से पहले से ही कमज़ोर पड़ी अन्य आवाज़ों (जो जर्मनी के अकादमिक क्षेत्र और नीति में तो सक्रिय हैं मगर अफ़सोस की बात ये है कि ये अक्सर नज़र नहीं आती हैं) को दबा देती है, जो पहले से ही हाशिए पर पड़ी हैं और हक़ीक़त ये है कि ये समुदाय जर्मनी के नीति निर्माण में बड़ा योगदान देने में सक्षम हैं. दोनों को मिलाकर देखें, तो ये एक बड़ी समस्या का महज़ एक हिस्सा है. नामों की अहमियत तो है ही, नज़रियों की भी है. माहौल की भी है. सबको शामिल करने के विचार को सिर्फ़ महिलावाद तक सीमित रखना एक अहम और प्रतिक्रियावादी संदेश है, जो देश के भीतर और बाहर दिया जा रहा है. अगर महिलावादी विदेश नीति सबको शामिल करने वाले फॉर्मूले के ‘+D’ हिस्से को लेकर वाक़ई गंभीर है और नाम भर का काम करने से आगे जाना चाहती है, तो इस नज़रिए से भी समस्या को देखना होगा.
सबको शामिल करने के विचार को सिर्फ़ महिलावाद तक सीमित रखना एक अहम और प्रतिक्रियावादी संदेश है, जो देश के भीतर और बाहर दिया जा रहा है
सुधार का पहला क़दम तो यही हो सकता है कि इस नीति का नाम बदला जाए और शायद इसे ‘समावेशी विदेश नीति’ का नाम दिया जा सकता है और फिर इसके साथ अलग अलग समूहों तक पहुंचने का प्रयास किया जाए. दूसरा समूहों और वर्गों की बढ़ती संख्या और उनके बीच आपस में संवाद- भले ही वो मौजूदा नज़रिए से थोड़ा सुधार ही क्यों न हो- मगर ये समस्या का जवाब नहीं हो सकता: इसके बजाय अलग अलग ख़ूबियों वाले विविधता भरे समूहों की बातें सुनने को लेकर वास्तविक रूप से खुला नज़रिया बनाने से ही मुख्यधारा और बर्लिन के घेरे से बाहर जाया जा सकेगा. लेकिन, महिलावादी विदेश नीति की पहल, जो नेकनीयती से लाई गई है, वो अपने सीमित दायरे से आगे भी ले जाई जा सकती है.
एक वास्तविक समावेशी विदेश नीति का विकास करना
महिलावादी विदेश नीति अपने आप में और इससे पहले के हिस्से में की गई आलोचना और सुझाव, लोगों को एक संदर्भ के तौर पर देखते हैं. मगर ख़ास तौर से ग्रीन पार्टी के एक ऐसे नेता के हाथ में कमान है, जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने को प्राथमिकता देते हैं, उनकी अगुवाई में महिलावादी विदेश नीति और बेहतर नतीजे हासिल कर सकती है: हम एक ऐसी समावेशी विदेश नीति बना सकते हैं, जो इंसान पर कम आधारित हो और जलवायु के ज़्यादा मुफ़ीद हो.
जलवायु परिवर्तन को लेकर पश्चिमी देशों का नज़रिया मोटे तौर पर इस आधार पर बना है कि हमें इस धरती को ‘अपने बच्चों और उनके भी बच्चों के लिए बचाना है’. लेकिन, ये धरती सिर्फ़ हमारी और हमारी आने वाली पीढ़ियों की बपौती नहीं है; ये उन सभी जीवों का घर है, जो यहां आबाद हैं. जिस तरह कोई विदेश नीति तब तक निष्पक्ष नहीं कही जा सकती, जब तक वो केवल लैंगिक इंसाफ़ की बात करती है. इसी तरह जलवायु संबंधी नीति भी सिर्फ़ हमारी पीढ़ियों के लिए बचाने पर केंद्रित नहीं हो सकती. हमें तमाम जीवों की प्रजातियों को भी ध्यान में रखना होगा, जिससे उन बेआवाज़ जीवों के हितों का भी ख़याल रखा जा सकेगा, जिन्हें बहुत शोषण का शिकार होना पड़ा है, बल्कि इससे जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के सामने खड़ी चुनौतियों का भी समाधान निकाला जा सकेगा.
एक ऐसी समावेशी नीति जो जानवरों और जंगलों के अधिकारों को भी तवज्जो देती है, उस पर चलना नैतिक रूप से भी उपयोगी है. नॉर्वे के अधिकारियों ने जिस निर्ममता से #FreyaTheWalrus को मार डाला, वो इस बात की मिसाल है कि किस तरह इंसान इस धरती पर अपने साथ रहने वालों के साथ बेरहमी करते हैं; हमें जानवरों के कारोबारी पालन, ज़िंदा जानवरों के बाज़ार और ट्रॉफी के लिए शिकार करने जैसे उन ख़ामोश और जानवरों पर ज़ुल्म वाले मुद्दों पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है, जिनकी अक्सर अनदेखी की जाती है. जानवरों के ऐसे शोषण को व्यक्तिगत स्तर पर रोकने की नैतिक सोच (और जो तकलीफ़ और तनाव जानवर झेलते हैं) के अलावा और भी कई कारण हैं कि समझदार सरकारों को इन मामलों में तेज़ी से दख़ल देना चाहिए. एनिमल फार्म और ज़िंदा जानवरों के बाज़ार पर कार्रवाई करके हम जलवायु परिवर्तन के असर को कम कर सकेंगे और जानवरों से इंसानों को होने वाली महामारी पर भी शिकंजा कस सकेंगे. वास्तविक रूप से ऐसी समावेशी नीतियों (न केवल महिलावादी विदेश नीति) पर चलना बहुत फ़ायदेमंद है जो जानवरों और पर्यावरण के कल्याण को भी गंभीरता से लेती हैं. जो नीतियां इंसानों के साथ साथ इस धरती के अन्य जीवों और ख़ुद धरती को लेकर संवेदनशीलता को बढ़ावा देती हैं.
ठोस रूप से कोई इंसानों से परे और समावेशी विदेश नीति में ये बातें शामिल होंगी: विकसित और विकासशील देशों द्वारा गठबंधन बनाकर वन्य जीवों और समुद्रों के संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों को सख़्त बनाना. इसके लिए ऐसे व्यापारिक क़ानूनों को भी कठोर बनाना होगा, जिनमें न केवल मानव अधिकारों और पर्यावरण से जुड़े मानक शामिल होंगे, बल्कि जानवरों के अधिकारों को भी तवज्जो दी जाएगी. महिलावादी विदेश नीति ऐसी पहल की अगुवाई कर सकती है. इसके ज़रिए संबंधित मंत्रियों (जैसे कि कृषि और पोषण के साथ साथ जलवायु परिवर्तन और आर्थिक मामलों के मंत्री) को ठीक उसी तरह साथ लाया जा सकता है, जैसे संघीय सरकार ने बहुपक्षीयवाद पर श्वेत पत्र जारी किया था. [3]
समावेशी नज़रिया अपनाने के लिए मूल्यों पर बेबाकी से बहस की ज़रूरत होगी- ये ऐसी बात है जो हाल के वर्षों में जर्मनी की विदेश नीति में अधिक से अधिक हो रही है- लेकिन ये परिचर्चाएं अभी भी संस्थागत तरीक़े से नहीं की जा रही हैं. लेकिन, ऐसी परिचर्चाओं से वास्तविक साथियों और नक़ली तौर पर हामी भरने वालों की पहचान ज़रूर स्पष्ट हो जाएगी. ये काम रातों-रात नहीं होने वाला. लेकिन, ज़रूरी कोशिशों और संसाधनों से ताक़तवर गठबंधन बनाए जा सकते हैं, ताकि हम भरोसेमंद, टिकाऊ और ‘मानवीय’ आपूर्ति श्रृंखलाओं का निर्माण कर सकें.
इस परिचर्चा को सही दिशा में ले जाकर हम एक व्यापक रणनीति उभरते देख सकेंगे, जिसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने के मौजूदा प्रयास और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दे शामिल होंगे. ऐसी रणनीति की बेहद सख़्त ज़रूरत है- फिर चाहे वो धरती को बचाने का नज़रिया हो या जर्मनी की विदेश नीति को लेकर सोच. एक वास्तविक निर्णायक मोड़ लाने का वक़्त बिल्कुल मुफ़ीद है. क्या विदेश मंत्री एनालीना बेयरबॉक इस मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए देश को नए रास्ते पर ले जाने के लिए तैयार हैं?
[1] My thanks go to the German Federal Foreign Office, which is developing a Feminist Foreign Policy and invited me to share my insights. This article is based on the ideas that I shared with colleagues there. I am grateful to Thorsten Benner, who first invited me to write an article for GPPi using this inside-outside perspective in 2020. I should add that this invitation was somewhat unusual in its embrace of both my identities in Germany as an insider (I lead a major research institute in Germany, and often engage closely with the German policy-making community, media, and interested public at large) and an outsider (I am originally from India where I received my formative education, and was further trained as a scholar and educator at the universities of Oxford and Cambridge).
[2] See Daniel Drezner and Amrita Narlikar (guest-edited), International Relations: The ‘How Not To’ Guide, Centenary Special Issue, International Affairs, 98:5, September 2022.
[3] My team and I had the pleasure to contribute to this initiative.
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