इतिहास में पहली बार 2023 की शुरुआत तक जर्मनी की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति (NSS) तैयार होगी. ये रणनीति सभी मंत्रालयों में सुरक्षा की धारणा को परिभाषित करेगी और विदेश एवं सुरक्षा नीति के लिए केंद्र बिंदु के रूप में काम करेगी. व्यापक और समग्र ढंग से सुरक्षा के बारे में सोचने का विचार सामरिक कार्रवाई की तरफ़ जर्मनी की वापसी के रास्ते में एक महत्वपूर्ण क़दम है. इसके अलावा NSS इस तथ्य पर विचार करेगी कि जर्मनी रूस के संसाधनों पर बहुत ज़्यादा निर्भर था और कई अलग-अलग आर्थिक दौर को लेकर बहुत कमज़ोर है. यूक्रेन के ख़िलाफ़ युद्ध की शुरुआत के समय रूस पर निर्भरता ये सुनिश्चित करने के लिए एक बड़े सबक़ के तौर पर काम करेगी कि ऐसी स्थिति फिर से कभी नहीं आएगी. इससे भी बढ़कर NSS इस बात की गारंटी देने की कोशिश करेगी कि ये दूसरे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी लागू होने जा रही है.
इतिहास में पहली बार 2023 की शुरुआत तक जर्मनी की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति (NSS) तैयार होगी. ये रणनीति सभी मंत्रालयों में सुरक्षा की धारणा को परिभाषित करेगी और विदेश एवं सुरक्षा नीति के लिए केंद्र बिंदु के रूप में काम करेगी.
विविधता लाने के इस प्रयास में कई वर्ष लगेंगे; लेकिन सबसे आवश्यक है एक प्रगतिशील रणनीति और एक विधायी कार्यकाल से अधिक समय के लिए डटे रहने की इच्छा. ये विशेष दृष्टिकोण और निर्भरता का मूल्यांकन चीन को ख़ुश नहीं करेगा लेकिन ये संभवत: एक नये तरह के संबंध को आकार देगा. NSS के लिए एक बड़ी चुनौती होगी उन संकटों का सामना करना जिनमें बढ़ोतरी हो रही है जैसे कि रूस-यूक्रेन युद्ध, जलवायु परिवर्तन और कोविड-19 महामारी. NSS में इन चुनौतियों का ज़रूर ध्यान रखा जाना चाहिए और ये EU के सामरिक विस्तार के साथ-साथ नेटो की सामरिक धारणा के अनुसार भी होनी चाहिए. ये एक बड़ा काम होगा क्योंकि एक स्पष्ट और व्यापक रणनीति बनाते समय कई तरह की परिस्थितियों पर विचार करना होगा.
सैन्य क्षमता बढ़ाने पर खर्च
NSS के साथ-साथ जर्मनी की सरकार ने बुंडेस्वेहर (जर्मन संघीय गणराज्य का सशस्त्र बल) के लिए 100 अरब यूरो का एक विशेष फंड भी शुरू किया है. इसका उद्देश्य कई वर्षों तक कम खर्च करने के बाद जर्मनी की सैन्य क्षमता को बहाल करना है. खर्च में कमी करके शांति का लाभ लेने के प्रयास ने पूरे सशस्त्र बल को प्रभावित किया है. इसके कारण सैनिकों की संख्या में कमी आई और हर जगह अभियान के लिए कम तैयारी दिखी. ये कमी विशेष तौर पर परमाणु युद्ध रोकने के लिए सेना में शामिल विमानों के पुराने होने में दिख रही है. इसके अलावा ट्रांसपोर्ट हेलीकॉप्टर, एयर डिफेंस और कमांड एवं कंट्रोल (C2) संरचना के क्षेत्र में कम या ख़राब हुनर के रूप में भी दिखी. एफ-35 जेट और सीएच-47 हेलीकॉप्टर की ख़रीद के साथ दो परियोजनाओं की पहले ही शुरुआत की जा चुकी है. लेकिन इस काम में तब तक का समय लगेगा जब तक कि रक्षा उद्योग सभी ज़रूरी हथियार और उपकरण नहीं देता है.
काफ़ी प्रयासों के साथ बाक़ी विशेष फंड को अब सैन्य क्षमता बढ़ाने में इस्तेमाल किया जाना है. गोला-बारूद के उत्पादन के क्षेत्र में ये साफ़ होता जा रहा है कि हाल के वर्षों में उद्योग ने अपनी उत्पादन क्षमता में कमी की है. ऐसे में आवश्यक सामानों की आपूर्ति करने में थोड़ा समय लगेगा. इस बात पर ज़ोर देना ज़रूरी है कि जर्मनी के सशस्त्र बलों को ज़रूरत से ज़्यादा लैस नहीं किया जाएगा लेकिन जर्मनी और यूरोप की प्रभावशाली ढंग से रक्षा करने के लिए ज़रूरी सामग्री दी जाएगी. इसका मुख्य उद्देश्य सशस्त्र बलों की तेज़ी से जवाब देने की क्षमता को स्थापित करना और साझेदारों एवं नेटो के साथ मिल-जुल कर काम करना है. सशस्त्र बलों को वास्तव में असरदार और टिकाऊ बनाने के लिए नियमित रक्षा बजट को भी बढ़ाते रहना होगा. सशस्त्र बलों पर मौजूदा खर्च के बावजूद अगले साल जर्मनी अपनी GDP का 2 प्रतिशत भी रक्षा पर निवेश नहीं करेगा. 2014 में नेटो के दूसरे देशों की तरह जर्मनी ने भी वेल्स की बैठक में वादा किया था कि सशस्त्र बलों के लिए सालाना 20 प्रतिशत के निवेश के अलावा हर साल अपनी GDP का 2 प्रतिशत खर्च करना उसका लक्ष्य होगा. लेकिन उसकी सीमा से सटे देश में युद्ध के बाद भी जर्मनी के हालात में कोई बदलाव नहीं आया. पड़ोस में स्थित कई यूरोपीय देशों ने हालात की गंभीरता को समझा है और वो देश रूस से ख़तरे का आकलन जर्मनी से हटकर कर रहे हैं.
सशस्त्र बलों पर मौजूदा खर्च के बावजूद अगले साल जर्मनी अपनी GDP का 2 प्रतिशत भी रक्षा पर निवेश नहीं करेगा. 2014 में नेटो के दूसरे देशों की तरह जर्मनी ने भी वेल्स की बैठक में वादा किया था कि सशस्त्र बलों के लिए सालाना 20 प्रतिशत के निवेश के अलावा हर साल अपनी GDP का 2 प्रतिशत खर्च करना उसका लक्ष्य होगा.
इस बात की काफ़ी संभावना है कि इस रणनीति की स्थापना और नई सैन्य क्षमता का निर्माण एक साथ होगा. अगर इन दोनों बातों के साथ राजनीतिक इच्छाशक्ति होगी तो जर्मनी एक अलग स्तर पर किरदार बन जाएगा. जर्मनी ने पिछले दिनों एक युद्ध पोत की तैनाती की और कम समय के भीतर इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में वायु सेना के एक युद्ध अभ्यास में भाग लिया. इस क्षेत्र में साझेदारों के लिए समर्थन के और संकेत कुछ दिनों में मिलेंगे. जर्मनी की सेना ऑस्ट्रेलिया के सैन्य अभ्यास टैलिस्मैन सैबर 2023 में भी भाग लेगी. अगर जर्मनी लगातार ये साबित करेगा कि वो इंडो-पैसिफिक में एक क़ीमती और भरोसेमंद साझेदार है तो और ज़्यादा संबंध स्थापित किए जा सकते हैं. इस तरह इंडो-पैसिफिक में शांति और स्थायित्व को मज़बूत किया जा सकता है. हालांकि ये बात तय है कि जर्मनी ये सुनिश्चित करने की हर संभव कोशिश करेगा कि नियम आधारित व्यवस्था यूरोप महादेश से दूर-दराज़ की जगहों में भी अपना महत्व नहीं खोए.
इंडो-पैसिफिक रणनीति
जर्मनी की इंडो-पैसिफिक रणनीति के लिए NSS के आधार के साथ जर्मनी एक स्वतंत्र और खुले दिमाग़ वाले विश्व के लिए अपने आदर्शों को दूसरी जगह भेजने की महत्वाकांक्षा पर ज़ोर देता है. उम्मीदों को वास्तविक बनाए रखने के लिए ये कहना होगा कि इंडो-पैसिफिक में जर्मनी की ताक़त की सीमाएं हैं. इस समय ध्यान देने के क्षेत्र पूर्वी यूरोप और उत्तरी अफ्रीका हैं. लेकिन ज़रूरी नहीं है कि इंडो-पैसिफिक में अपने प्रभाव को दृढ़ता के साथ कहने के लिए सैन्य ताक़त दिखाई जाए. नियम आधारित विश्व व्यवस्था के लिए जिन अलग-अलग क्षेत्रों पर ध्यान देने की ज़रूरत है वो हैं आर्थिक शक्ति, तकनीक का आदान-प्रदान और एक गारंटीकर्ता के साथ जुड़ी लगातार एवं अच्छी आपूर्ति. आर्थिक अंतर निर्भरता का चीन के लिए भी बहुत प्रासंगिकता है. इसके अलावा ये महत्वपूर्ण है कि जर्मनी चीन के साथ प्रतिस्पर्धा पर बहुत ज़्यादा ध्यान नहीं दे क्योंकि जर्मनी चीन के साथ केवल प्रतिस्पर्धा के अलावा भी बहुत कुछ कर सकता है. जर्मनी को निश्चित रूप से क्षेत्र में संभावित साझेदारों के साथ आंख मिलाकर मिलना चाहिए और उनकी आवश्यकताओं को अच्छी तरह से समझते हुए उसी के अनुसार काम करना चाहिए.
इन सभी बिंदुओं पर विचार करने और गंभीर समस्याओं का समाधान करने के उद्देश्य के साथ जर्मनी से एक बहुत महत्वपूर्ण उम्मीद की जाती है. यूरोप के कई साझेदार इस बात पर क़रीब से नज़र रख रहे हैं कि जर्मनी कैसे काम करता है और उसी के अनुसार वो अपनी आगे की रणनीति को नियंत्रित कर रहे हैं. संक्षेप में, ये ज़रूर कहना चाहिए कि जर्मनी केवल अपने गठबंधनों और साझेदारियों के संदर्भ में ही प्रभावशाली ढंग से काम कर सकता है. इसके बावजूद दो बड़े सवाल इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में जर्मनी की सफलता के लिए निर्णायक रूप से महत्वपूर्ण होंगे. पहला सवाल ये कि जर्मनी अपनी आर्थिक उलझनों के बावजूद चीन को रोकने के लिए कितना आगे बढ़ेगा और दूसरा सवाल ये कि यूक्रेन का समर्थन करने के अलावा उसकी प्रतिबद्धताओं के लिए कितना फंड दिया जाएगा? पहले सवाल के जवाब के लिए जर्मनी जैसे औद्योगिक देश को एक बड़ा सामंजस्य और संभवत: अपनी ख़ुशहाली को प्रभावित करना होगा. दूसरे सवाल के जवाब का भी दूरगामी आर्थिक आयाम होगा लेकिन ये अंत में इस बात को निर्धारित करेगा कि क्या जर्मनी वास्तव में एक नियम आधारित और स्वतंत्र विश्व व्यवस्था के लिए खड़ा होने को तैयार है.
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