यह चेतावनी हर जगह मौजूद है कि ज़्यादा सोडियम सेहत के लिए हानिकारक है. विज्ञापनों से लेकर डॉक्टर तक हमें कम सोडियम वाला नमक अपनाने की सलाह देते हैं. लेकिन यह सोडियम ही है जो हरित ऊर्जा परिवर्तन में पर्यावरण का तारणहार बनकर सामने आ सकता है. अभी तक, इलेक्ट्रिक वाहनों में इस्तेमाल हो रही बैटरियां लिथियम-आयन केमिस्ट्री पर आधारित हैं. लिथियम आधारित बैटरियों को लिथियम तत्व के कम वज़न का फ़ायदा मिलता है, लेकिन इनकी तापीय स्थिरता को लेकर कई अहम मसले हैं. और इससे भी ज़्यादा बड़े मसले संसाधनों को लेकर हैं, क्योंकि इन बैटरियों में लिथियम का इस्तेमाल अकेले नहीं, बल्कि दूसरी धातुओं और खनिजों के साथ किया जाता है जिनकी अपनी संसाधन संबंधी समस्याएं हैं.
वैश्विक वाहन उद्योग द्वारा इस्तेमाल की जा रही सबसे लोकप्रिय बैटरी केमिस्ट्री को लिथियम-निकल, मैंगनीज और कोबाल्ट (Li-NMC) के रूप में जाना जाता है. पूरी दुनिया में इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए मांग में हुई नाटकीय वृद्धि ने लिथियम की कमी पैदा कर दी है. हाल में हाजिर बाज़ार में इसकी क़ीमतों ने 60,000 अमेरिकी डॉलर प्रति टन और इससे ऊपर का स्तर छुआ है. क़ीमतें एक साल में चार गुना हो गयी हैं. कोबाल्ट, जिसका खनन मुख्य रूप से कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य में होता है, को नैतिक स्रोतों से हासिल करने के बारे में लगातार बरक़रार चिंताओं का भी निवारण नहीं हो पा रहा है. यूक्रेन में हालिया युद्ध ने कुछ दिनों के अंतराल में निकल की क़ीमतों में 10 गुना वृद्धि कर दी है, जिसके चलते लंदन मेटल एक्सचेंज में इस धातु में कारोबार को रोकना तक पड़ा है. इसने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए बैटरी पैक की क़ीमतों में वर्षों से आ रही गिरावट थम गयी और बीते कुछ महीनों में इसमें 10 से 20 फ़ीसद की बढ़ोतरी हुई है.
पूरी दुनिया में इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए मांग में हुई नाटकीय वृद्धि ने लिथियम की कमी पैदा कर दी है. हाल में हाजिर बाज़ार में इसकी क़ीमतों ने 60,000 अमेरिकी डॉलर प्रति टन और इससे ऊपर का स्तर छुआ है. क़ीमतें एक साल में चार गुना हो गयी हैं.
Li-NMC बैटरियों की लागत 2010 में 1200 अमेरिकी डॉलर प्रति किलोवाट घंटा (kWh) थी, जो 2021 में घटकर 132 डॉलर/kWh के निचले स्तर तक पहुंच गयी थी (और अनफिनिश्ड बैटरियों के लिए प्रति-सेल आधार पर क़ीमतें 100 डॉलर/kWh तक नीचे थीं). 2022 में वैश्विक बाज़ार में क़ीमतें 200 डॉलर/kWh के क़रीब पहुंच गयी हैं. लिथियम के साथ ही सेमीकंडक्टर की वैश्विक क़िल्लत का मतलब है 2024-2025 तक बैटरियों की कमी होना. इसके बाद 2027-2028 तक कच्चे माल का अभाव होगा.
यह लिथियम-फेरो-फास्फेट (LFP) केमिस्ट्री बैटरियों की ओर धीरे-धीरे बढ़ने के बावजूद है. LFP बैटरियां हालांकि Li-NMC बैटरियों के मुक़ाबले वज़नी हैं और ‘बैटरी मेमोरी’ से जुड़े मसले भी इनके साथ हैं, लेकिन इनके लिए Li-NMC बैटरियों से कम संसाधनों की ज़रूरत है. लोहा और फास्फेट अपेक्षाकृत काफ़ी सस्ते हैं और इनका निष्कर्षण व शोधन उन धातुओं के मुक़ाबले पर्यावरण हितैषी है जिनका इस्तेमाल Li-NMC बैटरियों में होता है. इलेक्ट्रिक व्हीकल बैटरी मैनेजमेंट सॉफ्टवेयर (बीएमएस), जिसका अधिकांश भाग हैदराबाद और बेंगलुरू जैसे भारत के तकनीकी केंद्रों में लिखा गया है, ने LFP सेल के साथ पहले की समस्याओं को कम कर दिया है. यही वजह है कि टोयोटा मोटर कॉरपोरेशन, डेन्सो, पैनासोनिक और तोशिबा के साथ मिलकर भारत की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी मारुति-सुजुकी गुजरात में एक ऐसी सुविधा स्थापित कर रही है जो LFP सेलों का इस्तेमाल कर फिनिश्ड बैटरी पैक का निर्माण करेगी, हालांकि अभी के लिए ये सेल चीनी कंपनी बीवाईडी से आयात किये जायेंगे.
चीन का दबदबा
इलेक्ट्रिक गतिशीलता (मोबिलिटी) की ओर बढ़ने के बारे में विचार करते समय एक महत्वपूर्ण तथ्य, चीन का उन संसाधनों पर वर्चस्वकारी नियंत्रण है जिनकी ज़रूरत इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए है. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व ने इलेक्ट्रिक वाहनों की ओर बढ़ने को अपनी राज्य नीति का एक अहम औज़ार बनाया है. उसने देश भर में चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए अरबों डॉलर लगाये हैं. इलेक्ट्रिक दोपहिया से लेकर बड़े वाणिज्यिक वाहनों तक के चीनी विनिर्माताओं को विनिर्माण पर सब्सिडी दी है. और, इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए ज़रूरी संसाधनों का पूरी दुनिया से अधिग्रहण सुनिश्चित करना उसके विदेश नीति का एक अहम लक्ष्य है. चीन के पास दुनिया के सबसे बड़े लिथियम भंडारों में से एक है, इसके बावजूद चीनी कंपनियां ऑस्ट्रेलिया में लिथियम खानों को नियंत्रित करती हैं और दक्षिण अमेरिका में भी नियंत्रण बढ़ा रही हैं. चीन आज कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य में होने वाले ज़्यादातर कोबाल्ट खनन को भी नियंत्रित करता है. इलेक्ट्रॉनिक पुर्ज़ों के लिए ज़रूरी दुर्लभ मृदा धातुओं पर उसका वर्चस्वकारी नियंत्रण है. नतीजतन, सीएटीएल, बीवाईडी और गैंगफेंग लिथियम जैसी कंपनियों के साथ चीन का लिथियम-सेल विनिर्माण में दबदबा है, जो वैश्विक सेल उत्पादन का तीन-चौथाई है. हालांकि, फिनिश्ड बैटरी पैक अक्सर दूसरी जगहों पर बनते हैं. चार्जिंग सिस्टम के विनिर्माण में भी चीन का दबदबा है.
इलेक्ट्रिक गतिशीलता (मोबिलिटी) की ओर बढ़ने के बारे में विचार करते समय एक महत्वपूर्ण तथ्य, चीन का उन संसाधनों पर वर्चस्वकारी नियंत्रण है जिनकी ज़रूरत इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए है. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व ने इलेक्ट्रिक वाहनों की ओर बढ़ने को अपनी राज्य नीति का एक अहम औज़ार बनाया है. उसने देश भर में चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए अरबों डॉलर लगाये हैं.
इलेक्ट्रिक गतिशीलता को लेकर चीन के रवैये को सबसे बढ़िया ढंग से इलॉन मस्क की टेस्ला मोटर्स के साथ उसके व्यवहार में देखा जा सकता है. चीनी राजतंत्र के उच्च स्तरों पर यह एहसास है कि इलेक्ट्रिक वाहन विनिर्माण और सॉफ्टवेयर में आधुनिकतम तकनीकें हासिल करने के लिए कुछ रियायतें देनी होंगी. लिहाज़ा, टेस्ला को चीन में पूर्ण स्वामित्व वाली सब्सिडरी कंपनी स्थापित करने की विशेष अनुमति दी गयी, जबकि दूसरे अन्य ऑटोमोबाइल विनिर्माताओं के लिए चीनी साझेदारों के साथ ज्वाइंट वेंचर का गठन ज़रूरी था. टेस्ला की ‘गीगाफैक्ट्री’ ने 484,130 वाहन उत्पादित किये, जो इस कार निर्माता के वार्षिक उत्पादन का आधा है. टेस्ला की चीनी बाज़ार में भी मज़बूत स्थिति है और उसने चीन में इलेक्ट्रिक कारों को लोकप्रिय बनाने में एक बड़ी भूमिका निभायी है. हालांकि, अब शंघाई ऑटोमोबाइल इंडस्ट्रियल कॉरपोरेशन (एसएआईसी), जो भारत में एमजी ब्रांड के तहत कार बेचता है, और बीवाईडी जैसे चीन के अपने कार-निर्माता ख़ुद के दम पर बड़े वैश्विक खिलाड़ी बन रहे हैं और दोनों कंपनियां भारत में भी काम कर रही हैं. बीवाईडी की पूर्ण-एकीकृत मैन्युफैक्चरिंग चेन है जो लिथियम-आयन सेल से लेकर फिनिश्ड कार, ट्रक, बस तक सबकुछ बनाती है. बाइडेन प्रशासन लिथियम और दूसरी महत्वपूर्ण धातुओं और खनिजों का खनन शुरू करने के लिए क़दम उठा रहा है, लेकिन पर्यावरणीय चिंताओं के चलते प्रगति धीमी है. भारत लिथियम और दूसरे पदार्थों के भंडार की खोज में बहुत धीमा रहा है, ख़ासकर राष्ट्रीय हित के दृष्टिकोण से, गाड़ियों से शून्य उत्सर्जन की ओर बढ़ने की इच्छा की बात तो जाने ही दीजिए. नीतिगत मामलों ने मांग-पक्ष को पर्याप्त रूप से प्रोत्साहित नहीं किया है, ख़ासकर यात्री कारों के मामले में, जो चाहे अच्छा हो या बुरा, परिवहन क्षेत्र में स्वर्ण मानदंड बनी हुई हैं. भारत में कारख़ाना स्थापित करने के लिए ईलॉन मस्क और टेस्ला की बेढंगी कोशिश इसका सबूत है. फिर भी, फेम-1 और फेम-2 प्रोत्साहनों ने अपनी भूमिका अदा की है और भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों की संख्या बढ़ रही है, ख़ासकर सार्वजनिक परिवहन और दोपहिया क्षेत्र में.
दिल्ली और महाराष्ट्र जैसी राज्य सरकारों ने भी उदार प्रोत्साहन पैकेज दिये हैं. हालांकि, सब्सिडी एक स्तर तक सीमित है, इसलिए बड़े वाहनों की बिक्री पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है या बहुत कम पड़ा है. लेकिन इसने इलेक्ट्रिक दोपहिया की बिक्री को बढ़ावा देने में मदद की है. हालांकि, कुछ लोगों को संदेह है कि हाल में आग लगने की घटनाओं की बाढ़ की वजह इलेक्ट्रिक दोपहिया क्षेत्र में ऐसे कई ‘नये’ खिलाड़ियों का आना है जो घटिया उत्पाद असेंबल करने वाले व्यापारियों से ज़्यादा कुछ नहीं हैं. चीन और कई अन्य देशों के उलट, भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री पर आंतरिक दहन इंजन वाले आम वाहनों के मुक़ाबले निम्न कराधान दर लागू नहीं है. वित्त मंत्रालय को पूरी तरह बने इलेक्ट्रिक वाहनों पर आयात शुल्क में कटौती करना क़तई नापसंद रहा है, जिसके चलते जो ‘किआ ईवी6’ अमेरिका में 54,000 डॉलर (वर्तमान विनिमय दर पर 42 लाख रुपये के क़रीब) की पड़ती है वह भारत में 60 लाख रुपये से शुरू होती है. हालांकि, इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा कुछ विनिर्माताओं, जिनमें यात्री कारों में मारुति सुजुकी, हुंडई, किआ, महिंद्रा, टाटा तथा दोपहिया में हीरो मोटोकॉर्प, बजाज, टीवीएस, पिआजिओ शामिल हैं, को पेश किये गये ‘परफॉर्मेंस लिंक्ड इन्सेंटिव्स’ (पीएलआई) को भारत के बाहर ज़्यादा विनिर्माण को प्रोत्साहित करना चाहिए.
भारत लिथियम और दूसरे पदार्थों के भंडार की खोज में बहुत धीमा रहा है, ख़ासकर राष्ट्रीय हित के दृष्टिकोण से, गाड़ियों से शून्य उत्सर्जन की ओर बढ़ने की इच्छा की बात तो जाने ही दीजिए. नीतिगत मामलों ने मांग-पक्ष को पर्याप्त रूप से प्रोत्साहित नहीं किया है, ख़ासकर यात्री कारों के मामले में, जो चाहे अच्छा हो या बुरा, परिवहन क्षेत्र में स्वर्ण मानदंड बनी हुई हैं.
यहां एक अहम मसला है. भले ही भारत इलेक्ट्रिक वाहन बनायेगा, लेकिन भारत में सेल बनना शुरू होने से पहले इसमें बहुत सारा समय लग सकता है. भले ही ऑस्ट्रेलिया अपने खनिज संसाधनों को भारतीय कंपनियों द्वारा दोहन के लिए खोल रहा है (ख़ासकर पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के लिथियम-समृद्ध क्षेत्रों में), पर भारत इलेक्ट्रिक सप्लाई चेन के बेहद अहम तत्वों के लिए चीन पर बहुत ज़्यादा निर्भर रहेगा. यह तेल एवं प्राकृतिक गैस के लिए अरबी प्रायद्वीप के देशों पर भारत की निर्भरता से अलग नहीं होगा, लेकिन भारत और अरब देशों के बीच गहरे सभ्यतागत संबंधों के उलट, भारत और चीन दोस्त नहीं हैं. मज़बूत व्यापार संबंध के बावजूद, 2020 में पूर्वी लद्दाख में हुए घातक सीमाई संघर्ष, साथ ही ऑस्ट्रेलिया, जापान, भारत और अमेरिका के बीच क्वॉड जैसी साझेदारियों के ज़रिये भारत के पश्चिम की ओर बढ़ते फोकस ने चीन के साथ रिश्ते को और मुश्किल बना दिया है.
क्या भारत के लिए इसका कोई समाधान मौजूद है?
इसका एक दिलचस्प हल हो सकता है और वह है सोडियम-आयन बैटरी तकनीक का लगातार विकास. भले हम अभी सोडियम-आयन (Na-ion) बैटरी केमिस्ट्री के विकास के शुरुआती चरणों में हैं, लेकिन यह नोट करना अहम है कि बीते कुछ सालों में इस क्षेत्र में ठीक-ठाक प्रगति हुई है. 2021 के आख़िरी दिन, रिलायंस न्यू एनर्जी सोलर ने 10 करोड़ ब्रिटिश पाउंड में ब्रिटिश सोडियम-आयन तकनीक कंपनी ‘फैरेडियन’ की ख़रीद का एलान किया. साथ ही, इस दिशा में और विकास तथा भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों की तेज बढ़ती मांग पर फोकस करते हुए वाणिज्यिक उत्पादन शुरू करने के लिए 2.5 करोड़ पाउंड के निवेश का एलान भी किया. लिथियम-आयन सेल की दुनिया की सबसे बड़ी निर्माता चीनी फर्म सीएटीएल, जो लिथियम-आयन तकनीकों के विकास को लगातार तेज़ कर रही है और ऐसी बैटरियों की पहली पीढ़ी को पहले ही वाणिज्यिक रूप से उतार चुकी है तथा 2023 तक न सिर्फ़ Na-ion सेल के लिए एक औद्योगिक सप्लाई चेन विकसित करने की प्रक्रिया में है, बल्कि अगर पेटेंट फाइलिंग पर भरोसा करें तो वह कुछ महीनों के भीतर Na-ion तकनीक की दूसरी पीढ़ी के साथ आ रही है.
ऐसा नहीं है कि सोडियम-आयन सेल में ख़ामियां नहीं हैं. तात्विक भार ही यह बताता है कि लिथियम के मुक़ाबले सोडियम भारी है, जो Na-ion सेल को ज़्यादा वज़नी बनाता है. यह भी तथ्य है कि Li-ion के मुक़ाबले Na-ion सेल कम ऊर्जा-सघन होते हैं. Li-NMC सेल की नवीनतम पीढ़ी 250Wh/kg तक स्टोर कर सकती है, साथ ही उच्च वोल्टेज पर काम करती है जो तेज़ी से चार्जिंग और डिस्चार्जिंग (परफॉरमेंस के लिए) को संभव बनाती है. यहां तक कि LFP सेल 220Wh/kg तक स्टोर कर सकते हैं. वहीं Na-ion सेल की पहली पीढ़ी अभी महज़ 160Wh/kg पर ही है और निम्न वोल्टेज पर काम करती है.
सोडियम बैटरियों का अकेला सबसे बड़ा फ़ायदा ऐसे सेलों के लिए आवश्यक संसाधनों की आसान उपलब्धता होगी. सोडियम सहज उपलब्ध नमक का एक प्रमुख घटक है जिससे उसे आसानी से निकाला जा सकता है. इसके अलावा आम भाषा में वॉशिंग सोडा कहलाने वाला सोडा ऐश भी है, जिसका खनन अवसादी (सेडिमेंट्री) चट्टानों से आसानी से किया जा सकता है और जो लगभग पूरी दुनिया में उपलब्ध है. सीएटीएल और दूसरे अनुसंधानकर्ताओं के मुताबिक़, Na-ion सेल का एक अन्य मुख्य हिस्सा ‘प्रशियन व्हाइट’ है, जिसकी व्युत्पत्ति ‘प्रशियन ब्लू’ कहलाने वाले एक आम फेरोसायनाइड पिगमेंट से हुई है. इसके अलावा, अभी सेलों में इस्तेमाल होने वाली लिथियम की किस्मों के मुक़ाबले सोडियम कम संक्षारक (कोरोसिव) है, जो इलेक्ट्रोलाइट और बैटरी फ्रेम के लिए तांबे की जगह एल्युमिनियम जैसे अपेक्षाकृत सस्ते पदार्थों का उपयोग संभव बनायेगा. इन सस्ते और हल्के पदार्थों का इस्तेमाल लिथियम के मुक़ाबले सोडियम की वज़न संबंधी ख़ामी की कुछ हद तक भरपाई करेगा.
इसका एक दिलचस्प हल हो सकता है और वह है सोडियम-आयन बैटरी तकनीक का लगातार विकास. भले हम अभी सोडियम-आयन (Na-ion) बैटरी केमिस्ट्री के विकास के शुरुआती चरणों में हैं, लेकिन यह नोट करना अहम है कि बीते कुछ सालों में इस क्षेत्र में ठीक-ठाक प्रगति हुई है.
इसके अलावा, कोबाल्ट का इस्तेमाल न करके ‘नैतिक खनन’ के मुद्दे का भी ख्याल रखा जाता है. दरअसल, सोडा ऐश का निष्कर्षण और शोधन लिथियम के मुक़ाबले दूर-दूर तक पर्यावरणीय रूप से चिंताजनक नहीं है. जैसा कि ऊपर ज़िक्र है, निकल की क़ीमतें हालिया युद्ध के चलते आसमान पर पहुंच गयी हैं और Na-ion सेल को इस धातु की ज़्यादा मात्रा में ज़रूरत नहीं होती, फिर भी निकल की वाहन उद्योग में एक बड़ी भूमिका बनी रहेगी क्योंकि इसका इस्तेमाल कार और मोटरसाइकिलों के उच्च-मज़बूती वाले स्टील फ्रेम बनाने में होता है. और सबसे बढ़कर यह कि, Li-ion सेल के मुक़ाबले सोडियम सेल कहीं ज़्यादा तापीय स्थिर हैं. भारत में भी इलेक्ट्रिक वाहनों में आग लगने की घटनाएं बड़ी संख्या में हो चुकी हैं.
विकास की गति चकित करने वाली है और जैसा कि ऊपर ज़िक्र है, Li-ion बैटरी पैक की लागत बीते 12 सालों में नाटकीय ढंग से गिरी है. दुनिया भर में Na-ion सेल पर महत्वपूर्ण रिसर्च चल रही है, इलेक्ट्रोकेमिकल स्तर के साथ ही उन बैटरी मैनेजमेंट सॉफ्टवेयर को लेकर भी, जो सेलों को प्रबंधित कर सकते हैं. जो लोग वाहन उद्योग में हैं उन्हें लगता है कि सोडियम सेल उन जगहों पर लिथियम-आयन सेल की जगह ले सकते हैं जहां तेज़ी से पॉवर डिस्चार्जिंग के ज़रिये रफ़्तार बहुत अहम नहीं है, उदाहरण के लिए – भारी वाणिज्यिक वाहन (माल और यात्रियों दोनों के लिए), सभी तरह के कम गति वाले वाहन जैसे लोकल डिलीवरी के लिए दोपहिया व तिपहिया और यहां तक कि छोटी हैचबैक कारें. सोडियम-आयन बैटरी की कम लागत का संभावित अर्थ है, भारत में 6-8 लाख रुपये के आसपास की क़ीमत पर इलेक्ट्रिक कार का उपलब्ध होना (अगर हम 2022 के मूल्य मानदंड का इस्तेमाल करें.)
लेकिन किसी को बहुत ज़्यादा उत्साहित नहीं होना चाहिए. वैज्ञानिकों को लिथियम को क़ाबू करने व इसे एनर्जी स्टोरेज के माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने में दशकों लगे और अब भी तापमान बेक़ाबू होने की घटनाएं होती हैं. हम सोडियम सेल की ख़ामियों से अभी वाकिफ़ नहीं हैं, निस्तारण जैस मुद्दों और साथ ही उनकी उम्र के विषय के बारे में अभी सोचा नहीं गया है. बेकार होने से पहले उन्हें कितनी बार चार्ज किया जा सकता है? क्या उन्हें फास्ट चार्ज किया जा सकता है और उनके दूसरे इलेक्ट्रोकेमिकल गुण क्या हैं? Li-NMC और LFP सेलों की आठ साल से ज़्यादा की गारंटी है और चूंकि वर्तमान पीढ़ी की सबसे पुरानी इलेक्ट्रिक कारें आठ साल के इस निशान के साथ-साथ चार्जिंग व डिस्चार्जिंग के उच्च चक्रों को छू चुकी हैं, वास्तविक जीवन के इन उदाहरणों से मिली सीख दिलचस्प रही है. बैटरियों ने कुछ मामलों में चार्ज की अपनी स्थिति पूर्वानुमान से बेहतर बनाये रखी है और अन्य को जलवायु परिस्थितियों के चलते नष्ट होना पड़ा है.
अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ग्लासगो में किये गये वादे के अनुरूप भारत को नेट-जीरो का लक्ष्य हासिल करना है, तो आगामी दशकों में भारत के प्रमुख ऊर्जा हितों की रक्षा के वास्ते ऐसी वैकल्पिक इलेक्ट्रोकेमिकल तकनीकों के अनुसंधान एवं विकास के वित्तपोषण के लिए सरकार और भारत के निजी क्षेत्र को निवेश करना होगा
इस उद्योग में शामिल वाहन और सेल दोनों के निर्माता अभी सीख रहे हैं, लेकिन यह अनिवार्य है कि भारत सारा दांव केवल लिथियम पर न लगाये, क्योंकि उसके पास लिथियम संसाधन एकदम नहीं हैं. अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ग्लासगो में किये गये वादे के अनुरूप भारत को नेट-जीरो का लक्ष्य हासिल करना है, तो आगामी दशकों में भारत के प्रमुख ऊर्जा हितों की रक्षा के वास्ते ऐसी वैकल्पिक इलेक्ट्रोकेमिकल तकनीकों के अनुसंधान एवं विकास के वित्तपोषण के लिए सरकार और भारत के निजी क्षेत्र को निवेश करना होगा.
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