Author : Arpan Tulsyan

Expert Speak Raisina Debates
Published on Aug 19, 2025 Updated 0 Hours ago

सफलता के पारंपरिक रास्तों को अब वैश्विक श्रम बाजार और तकनीक से चुनौती मिलने लगी है, ऐसे में, क्या भारत सुनिश्चित कर सकता है कि हर युवा 21वीं सदी के कौशल से सचमुच लाभान्वित हो?  

अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस 2025: कौशल विकास से सशक्त होगा भारत का युवा

Image Source: Getty Images

अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस दुनिया भर में नौजवानों की प्रतिभा और ऊर्जा का जश्न मनाने का एक अवसर होता है. साल 2025 में इस दिवस पर भारत एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है. विश्व की सबसे बड़ी युवा आबादी वाला देश है भारत और इसे जो जनसांख्यिकीय लाभांश मिल रहा है, वह देश के आर्थिक और सामाजिक बदलाव में बड़ी संभावनाएं पैदा कर रहा है. हालांकि, अवसर की यह खिड़की तंग भी है, क्योंकि माना जा रहा है कि भारत का जनसांख्यिकीय लाभांश केवल 33 वर्षों में ही सिकुड़ने लगेगा. इसलिए, अपने युवा कार्य-बल के बुजुर्ग होने से पहले उसका लाभ उठाने के लिए भारत को ‘प्रतिभा की कमी’ दूर करनी होगी और अपने युवाओं को मूल शैक्षणिक ज्ञान में सहायक माने जाने वाले ‘21वीं सदी के कौशल’ से दक्ष करना होगा. 21वीं सदी के इस कौशल में रोज़गार पाने की योग्यता ही नहीं, वे सभी क्षमताएं भी शामिल हैं, जिनका इस्तेमाल विभिन्न नौकरियों व उद्यमों को बनाए रखने में हो सकता है. इन क्षमताओं को अब प्रौद्योगिकी द्वारा संचालित, तेज़ी से बदलते और आपस में जुड़े विश्व में कार्य-बल को योग्य बनाने के ज़रूरी निवेश के रूप में दुनिया भर में मान्यता मिलने लगी है.

रोज़गार संबंधी योग्यता में विरोधाभास

भारत की चुनौती सिर्फ़ अधिक रोज़गार पैदा करने की नहीं है, बल्कि युवाओं को भविष्य की नौकरियों के लिए बेहतर ढंग से तैयार करने की भी है. 2025 की इंडिया स्किल्स रिपोर्ट से पता चलता है कि केवल 54.8 प्रतिशत युवा भारतीय ही रोज़गार के योग्य हैं, और उनमें से कई नौजवानों में कार्यस्थल पर सफल होने के लिए ज़रूरी डिजिटल साक्षरता, नई तकनीक अपनाने की क्षमता, और सॉफ्ट स्किल्स, यानी गैर-तकनीकी योग्यताओं का अभाव है. तकनीकी ज्ञान के अलावा, नियोक्ता अब किसी को काम पर रखने से पहले उसमें विश्लेषण संबंधी ज्ञान, स्व-प्रबंधन और नेतृत्व कौशल को परखना पसंद करते हैं. इन सभी को 21वीं सदी का कौशल माना जाता है.

2025 की इंडिया स्किल्स रिपोर्ट से पता चलता है कि केवल 54.8 प्रतिशत युवा भारतीय ही रोज़गार के योग्य हैं, और उनमें से कई नौजवानों में कार्यस्थल पर सफल होने के लिए ज़रूरी डिजिटल साक्षरता, नई तकनीक अपनाने की क्षमता, और सॉफ्ट स्किल्स, यानी गैर-तकनीकी योग्यताओं का अभाव है.

कृत्रिम बुद्धिमत्ता, यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI), ऑटोमेशन और डेटा विश्लेषण में हो रही तेज़ प्रगति से कई पारंपरिक कौशल अब इतिहास में दर्ज़ होने लगे हैं. ‘फ्यूचर ऑफ़ जॉब्स रिपोर्ट 2025’ के अनुसार, मौजूदा कार्य-बल के लगभग 39 प्रतिशत कौशल साल 2030 तक पुराने और बेकार हो जाएंगे. जैसे-जैसे ऑटोमेशन में तेज़ी आएगी, एआई व मशीन लर्निंग, डेटा विश्लेषण और पर्यावरण साक्षरता जैसे कौशल रोज़गार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगेंगे. भारत के नौजवानों को न केवल मौजूदा नौकरियों के लिए, बल्कि हरित ऊर्जा, वित्तीय प्रौद्योगिकी, स्वास्थ्य प्रौद्योगिकी और वैश्विक सेवाओं में उभरते रोज़गार के लिए भी तैयार रहना होगा.

भारत का आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25 बताता है कि सामाजिक और भावनात्मक ज्ञान में निवेश किए गए हर रुपये से 11 रुपये के बराबर आर्थिक लाभ मिलता है. इसका फ़ायदा मानसिक स्वास्थ्य, शैक्षणिक उपलब्धि और रोज़गार पाने की क्षमता तक में मिलता है. विश्व बैंक और OECD (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन) द्वारा किए गए वैश्विक अध्ययनों से पता चलता है कि 21वीं सदी के कौशल से जो व्यक्ति जितना मज़बूत होता है, उसका जीवन उतना बेहतर बनता है. उसमें रोज़गार दर अधिक होती है, उसका प्रदर्शन अच्छा होता है, उसकी आमदनी बढ़ती है और वह कार्यस्थल के अधिक उपयुक्त माना जाता है. इसके अलावा, एक मज़बूत कौशल वाला पारिस्थितिकी तंत्र, जो रचनात्मकता, सोच और मानव-केंद्रित समस्या समाधान को विकसित करता है, जमीनी स्तर पर नवाचार और क्षेत्रीय समता बढ़ाने में सहायक होता है. इन कौशलों से दक्ष नौजवान भारत के विकास से जुड़ी चुनौतियों का सुविधाजनक व संदर्भ के अनुकूल समाधान निकाल सकते हैं.

भविष्य के लिए युवाओं को तैयार कराता भारत

समग्र और विभिन्न विषयों के ज्ञान की ज़रूरत को देखते हुए, राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 में ‘21वीं सदी के ज़रूरी लक्ष्यों’ के अनुरूप एक शिक्षा तंत्र की कल्पना की गई है. इसके अलावा, राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा (NCF) 2023, प्रधानमंत्री श्री स्कूल, अटल टिंकरिंग प्रयोगशाला (ATL) और डिजिटल इंडिया (विवरण के लिए चित्र 1 देखें) जैसे पहल भी किए गए हैं.

यहां चित्र है ...

 

स्कूल स्तर की बात करें, तो केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) छात्रों में भविष्य की तैयारी के लिए मज़बूत आधार बनाने का प्रयास कर रहा है. इसके लिए 21वीं सदी के कौशल बढ़ाने की कोशिश हो रही है, जो छात्रों में निम्नलिखित गुण विकसित करते हैं- 

  • संज्ञात्मक कौशल- आलोचनात्मक सोच, रचनात्मकता, समस्या-समाधान, वैज्ञानिक सोच, फ़ैसले लेने की क्षमता.

  • सामाजिक और पारस्परिक संवाद संबंधी कौशल- संचार, सहयोग, टीम वर्क, सहानुभूति, संघर्ष समाधान, व्यवहार

  • अंतर्वैयक्तिक कौशल- अनुकूलनशीलता, लचीलापन, विकास की मानसिकता, जागरूकता, आत्म-नियमन

  • करियर और जीवन कौशल- नेतृत्व, वित्तीय साक्षरता, समय प्रबंधन, वैश्विक नागरिकता, और

  • भविष्य की तैयारी वाले कौशल- तकनीकी और पर्यावरणीय कौशल, जैसे- एआई, डेटा विज्ञान, और साइबर सुरक्षा, जलवायु लचीलापन और हरित कौशल

छात्रों में इन कौशलों का तेज़ विकास ज़रूरी है, क्योंकि सामाजिक और तकनीकी प्रगति के कारण इनकी प्रासंगिकता व प्रसार लगातार महत्वपूर्ण बनता जा रहा है. इसके अलावा, 21वीं सदी के कौशल स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं- प्रत्येक कौशल एक-दूसरे को सहारा देता है और कुछ हद तक एक-दूसरे का साथ लेकर आगे बढ़ता है. इसलिए, ये एक विविध और परस्पर मज़बूत कौशल-क्षमता पैदा करते हैं, जिससे विद्यार्थियों को लगातार अपडेट रहना चाहिए, उसे निखारना चाहिए और विविधता को समेटे वास्तविक दुनिया में लागू करना चाहिए.

रुकावटें भी कम नहीं

नई शिक्षा नीति के बाद भले ही हम आगे बढ़े हैं, लेकिन कम से कम सात प्रमुख चुनौतियां अब भी बनी हुई हैं.

  • भारत के पास अभी तक 21वीं सदी के कौशल-विकास के लिए ज़रूरी एकीकृत और व्यापक राष्ट्रीय ढांचा नहीं है, जो विभिन्न कौशलों को शामिल करने और उनके क्रियान्वयन के लिए आवश्यक है. ऐसा नहीं होने के कारण ही विभिन्न हितधारकों का नज़रिया अलग-अलग रहा है और राज्यों व स्कूलों में इनका क्रियान्वयन एक समान नहीं दिख रहा है.

  • डिजिटल विभाजन और बुनियादी ढांचे की कमियां 21वीं सदी के कौशलों के प्रभावी क्रियान्वयन में रुकावट बन रही हैं. ‘शिक्षा के लिए एकीकृत जिला सूचना प्रणाली’ (UDISE+) के हालिया आंकड़े बताते हैं कि केवल 57.2 प्रतिशत स्कूलों में कंप्यूटर है और 53.9 प्रतिशत स्कूलों में इंटरनेट, जबकि सरकारी स्कूलों में इन आंकड़ों में क्रमशः 25 प्रतिशत और 28 प्रतिशत की और कमी ही दिखती है.

  • शिक्षण प्रशिक्षण के ज़्यादातर कार्यक्रमों में 21वीं सदी के कौशलों के सिद्धांतों, विधियों और आकलनों की ढांचागत जानकारी नहीं दी जाती, जिससे शिक्षक पूरी तरह तैयार नहीं हो पाते. इसके अलावा, कक्षाओं का बड़ा आकार और पाठ्यक्रम पूरा करने का शैक्षणिक दबाव भी उन पर होता है, जिससे 21वीं सदी के कौशलों को बढ़ावा देने की गुंजाइश कम हो जाती है.

  • 21वीं सदी के कौशल ज्ञान की पहुंच और गुणवत्ता को लेकर विभिन्न लिंग, भूगोल और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि में महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक असमानताएं मौजूद हैं. यह कौशल सीखने और समग्र शिक्षा के अवसरों को सीमित कर देता है. उदाहरण के लिए, नौजवानों में स्मार्टफोन और इंटरनेट के उपयोग को लेकर लैंगिक असमानता दिखती है, जिस कारण, विशेष रूप से गांवों व वंचित समुदायों के किशोर लड़कियों तक डिजिटल कौशल पहुंचाना और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है.

  • भारत में आज भी जब शैक्षिक मूल्यांकन किया जाता है, तो रटने और विषय वस्तु को याद करने को महत्व दिया जाता है. प्राथमिक स्तर पर ‘समग्र प्रगति कार्ड’ तो बस शुरुआत है, इसे शिक्षा के अन्य चरणों तक बढ़ाने की ज़रूरत है. भारत में उम्र के अनुसार और सांस्कृतिक रूप से ऐसे प्रासंगिक प्रयोगों का अभाव है, जो अलग-अलग कक्षाओं में 21वीं सदी के कौशलों को सार्थक रूप से अपनाने में मदद कर सके.

  • 21वीं सदी के कौशलों को लेकर माता-पिता और समुदायों में जागरूकता भी कम है, जिसके कारण सहभागी, परियोजना-आधारित या सामाजिक-भावनात्मक शिक्षण के प्रति अविश्वास पैदा हो सकता है. हालांकि, कुछ सर्वेक्षणों में बताया गया है कि नए युग के कौशलों (जैसे डिजिटल साक्षरता, सार्वजनिक उद्बोधन या उद्यमशीलता की मानसिकता) के प्रति माता-पिता में सकारात्मक बदलाव आया है, फिर भी कई कौशलों को लेकर अभी लंबा रास्ता तय करना बाकी है.

सच यह भी है कि भारत में शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का छह प्रतिशत भी ख़र्च नहीं किया जाता, जबकि कम से कम छह प्रतिशत ख़र्च करने का सुझाव कई बार दिया गया है.

सच यह भी है कि भारत में शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का छह प्रतिशत भी ख़र्च नहीं किया जाता, जबकि कम से कम छह प्रतिशत ख़र्च करने का सुझाव कई बार दिया गया है. हालांकि, स्कूलों में इंटरनेट कनेक्टिविटी बढ़ाने, ATL स्थापित करने और एआई-संचालित उत्कृष्टता केंद्रों में हो रहे निवेश बताते हैं कि शैक्षणिक ढांचे में 21वीं सदी के कौशल को भी शामिल करने पर ज़ोर दिया जा रहा है, फिर भी बजट कम रहने के कारण इनके क्रियान्वयन में रुकावटें आ सकती हैं.

सिफारिशें

भारत के जनसांख्यिकीय लाभांश को एक समावेशी और टिकाऊ लाभ में बदलने के लिए, भारत को मौजूदा विषयों में 21वीं सदी के कौशलों को शामिल करना होगा और पूरे पाठ्यक्रम को प्रासंगिक बनाना होगा. छात्रों के कौशल-विकास को परखने और उनको बढ़ावा देने के लिए एक स्पष्ट, कक्षा आधारित ढांचा बनाया जाना चाहिए, ताकि छात्रों के सीखने में निरंतरता और एकरूपता बनी रहे. हालांकि, CBSE और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) जैसे राष्ट्रीय संस्थान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त ढांचों (CASEL, यानी सामाजिक-भावनात्मक ज्ञान के लिए सहयोग या संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन सामाजिक और भावनात्मक शिक्षा, यानी UNESCO SEL जैसी व्यवस्थाओं) को अपनाने और 21वीं सदी की दक्षताओं का आकलन करने के लिए आयु के अनुसार पाठ्यक्रम व मूल्यांकन व्यवस्था विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे हैं.

निष्ठा, पीएम ई-विद्या और स्वयं जैसे मंचों के माध्यम से शिक्षकों के लिए उच्च-गुणवत्ता वाले प्रशिक्षण कार्यक्रम अधिक से अधिक कराने की आवश्यकता है. ये प्रशिक्षण अलग-अलग शैक्षणिक माहौल में आयोजित किए जाने चाहिए. इनके सत्र न सिर्फ़ बार-बार होने चाहिए, बल्कि कक्षाओं में 21वीं सदी के कौशल को सिखाने के लिए व्यावहारिक रणनीति और बच्चों की भागीदारी वाली शिक्षण व्यवस्था अपनाई जानी चाहिए. इन मंचों द्वारा छात्रों में संचार, निर्णयात्मक और आलोचनात्मक सोच जैसे 21वीं सदी के कौशलों की समझ बढ़ानी चाहिए, ताकि उनमें ये कौशल व्यापक रूप से पैदा हो सकें.

मापन संबंधी कमियों को दूर करने के लिए, भारत को इन कौशलों को मापने के लिए चरणबद्ध, बहु-स्तरीय ढांचे में निवेश करना होगा. 21वीं सदी के कौशलों के क्रियान्वयन पर नज़र रखने के लिए एक केंद्रीय डैशबोर्ड बनाया जाना चाहिए, जिसे UDISE + या PARAKH (समग्र विकास के लिए ज्ञान का निर्धारण, मूल्यांकन और विश्लेषण) से जोड़ा जा सकता है.

21वीं सदी के कौशल को शामिल करने के इस प्रयास को केवल शहरी या उच्च-संसाधन वाले स्कूलों तक सीमित नहीं रखना चाहिए. इसे सुगम, और मांग के अनुसार गुणवत्तापूर्ण व दक्ष भी बनाना चाहिए. विशेषज्ञ सहकर्मी से सीखने वाले मॉडल, सामुदायिक स्वयंसेवी प्रशिक्षण कार्यक्रम, ऑफ़लाइन डिजिटल सामग्री और स्मार्टफोन के माध्यम से शैक्षिक सामग्री मुहैया कराने वाली व्यवस्थाओं में यह क्षमता होती है कि वे विशेष रूप से वंचित और ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे की कमियों के साथ-साथ शिक्षकों की उपलब्धता से जुड़ी समस्याओं का भी समाधान निकाल सकें.

उद्योग और शिक्षा जगत की साझेदारी वाले पाठ्यक्रमों को वास्तविक दुनिया की मांगों के अनुसार बनाकर, और मार्गदर्शन, इंटर्नशिप व व्यावहारिक अनुभव की सुविधाएं उपलब्ध कराकर हम 21वीं सदी के कौशलों को तेज़ी से अपनाने में मदद कर सकते हैं. 

आंगनबाड़ी, पैरेंट्स-टीचर मीटिंग और कम्युनिटी रेडियो के माध्यम से अभिभावकों में जागरूकता बढ़ाई जा सकती है. इसके अलावा, इन प्रयासों को पोषण अभियान और समग्र शिक्षा जैसे मौजूदा अभियानों से भी जोड़ा जा सकता है. उद्योग और शिक्षा जगत की साझेदारी वाले पाठ्यक्रमों को वास्तविक दुनिया की मांगों के अनुसार बनाकर, और मार्गदर्शन, इंटर्नशिप व व्यावहारिक अनुभव की सुविधाएं उपलब्ध कराकर हम 21वीं सदी के कौशलों को तेज़ी से अपनाने में मदद कर सकते हैं. एडटेक फर्म, कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व कार्यक्रम और गैर-लाभकारी संस्थाएं कौशल-निर्माण में अच्छे पायलट प्रोजेक्ट और व्यापक इस्तेमाल योग्य नवाचार उपलब्ध करा सकती हैं. इनको बड़े पैमाने पर अनुकूल बनाया जा सकता है.

निष्कर्ष

अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस इस बात की याद दिलाता है कि राष्ट्रों का भविष्य उनके युवाओं की आशाओं, क्षमताओं और कार्यों से जुड़ा है. भारत के लिए आगे की चुनौती बिल्कुल साफ़ है- इसे संकीर्ण शैक्षणिक मानदंडों से आगे बढ़कर एक समग्र, कौशल-आधारित और भविष्य के अनुकूल शिक्षा व्यवस्था की ओर बढ़ना होगा. भारत को एक कुशल कार्य-बल की ज़रूरत है. ये युवा केवल डिग्रीधारक ही न हों, बल्कि नैतिक नवाचार करने वाले, सहानुभूतिपूर्ण रवैया रखने वाले और डिजिटल क्षमताओं से दक्ष होकर समस्याओं का समाधान करने वाले भी हों.


(अर्पण तुलस्यान ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सेंट्रर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी में वरिष्ठ फेलो हैं)

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