Author : Nimisha Chadha

Expert Speak Raisina Debates
Published on Oct 14, 2024 Updated 0 Hours ago

भारत में बुनियादी ढांचे में निवेश लगातार हो रहा है. ऐसे में इस ढांचे में साइको-ऑन्कोलॉजी सेवाओं को शामिल किया जाता है तो सभी के जीवन और स्वास्थ्य की गुणवत्ता संबंधी परिणाम में सुधार लाया जा सकेगा.

कैंसर के मरीज़ को इलाज के दौरान ‘साइको-ऑन्कोलॉजी’ की सुविधा देना अब अनिवार्य हो!

पिछले कुछ वर्षों में स्वास्थ्य सेवाओं की प्राथमिकता जीवन अवधि यानी उम्र में वृद्धि करने से हटकर अब जीवन की गुणवत्ता में सुधार पर है. भारत में कैंसर की दर लगातार बढ़ती जा रही है. कैंसर की दर में 2020 के मुकाबले 2025 में 12.8 प्रतिशत की बढ़त होने का अनुमान है. ऐसे में कैंसर मरीज़ों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार के लिए आवश्यक है कि उपचार तथा साइको-ऑन्कोलॉजी सेवा दोनों में निवेश किया जाए.

 

कैंसर से निदान पाए जाने पर मरीज़ तथा देखभाल करने वाले काफी तनाव में आ जाते है. वैसे भी भारत में कैंसर की शिनाख्त़ काफी देर से होती है. कैंसर मरीज़ों के अवसाद पीड़ित होने के 27 प्रतिशत मामले आते है, जबकि लगभग 10 प्रतिशत कैंसर मरीज़ चिंता का शिकार होते है. जैसे-जैसे बीमारी बढ़ती है वैसे-वैसे मानसिक समस्याएं यानी रोग भी बढ़ते है. इसकी वजह से कैंसर मरीज़ों में आत्महत्या करने वालों की दर बिना कैंसर के आत्महत्या करने वाले मरीज़ों के मुकाबले 20 प्रतिशत अधिक है.

 कमोबेश व्यक्तिवादी पश्चिमी समाज के विपरीत भारत में देखभाल करने की ज़िम्मेदारी में परिवार अहम भूमिका अदा करती है. ऐसे में यह क्षेत्र अनुसंधान तथा हस्तक्षेप के लिए बेहद महत्वपूर्ण बन जाता है.

कमोबेश व्यक्तिवादी पश्चिमी समाज के विपरीत भारत में देखभाल करने की ज़िम्मेदारी में परिवार अहम भूमिका अदा करती है. ऐसे में यह क्षेत्र अनुसंधान तथा हस्तक्षेप के लिए बेहद महत्वपूर्ण बन जाता है. केयरगिवर्स यानी देखभाल करने वालों में नॉन-केयरगिवर्स यानी गैर-देखभाल-कर्ताओं के मुकाबले चिंता तथा अवसाद की दर 1.7 और 1.5 प्रतिशत अधिक होती है. ऐसे में यह सुनिश्चित करना बेहद ज़रूरी है कि मरीज़ तथा देखभाल-कर्ता दोनों को ही संपूर्ण भावनात्मक सहयोग और समर्थन मिले. इस लेख में मरीज़ तथा देखभाल-कर्ता में मानसिक तनाव को बढ़ाने वाले कारणों का परीक्षण कर यह समझने की कोशिश गई है कि मरीज़ तथा देखभाल-कर्ता की ज़रूरतें क्या है और इन बातों को ध्यान में रखते हुए सिफारिशें की गई है.

 

मरीज़ का दृष्टिकोण

 

देर से यानि एडवांस स्टेज पर हुए कैंसर की पहचान को मौत की सज़ा से कम नहीं माना जाता. मरीज़ों में अक्सर खुद को दोषी बताने, असहाय होने के साथ-साथ निराशा की भावनाएं देखी जाती हैं, जिसे तेज़ी से बढ़ते शारीरिक लक्षण जैसे दर्द, कमजोरी तथा उबकाई और भी जटिल बना देती  है.

 

व्यापक रूप से यूरोप में किए गए अध्ययन से यह अनुमान लगाया गया है कि 35-40 प्रतिशत कैंसर मरीज़ों में शिनाख्त़ योग्य यानि निदान योग्य मानसिक रोग के लक्षण दिखाई देते है. इन लक्षणों में तनाव-संबंधी लक्षण, न्यूरो-कॉग्निटिव यानी तंत्रिका संज्ञानात्मक, सामंजस्य तथा शारीरिक विकारों से संबंधित लक्षणों के साथ-साथ न्यूरो-साइकाइट्रिक यानी तंत्रिका-मनोविकार और औषधि संबंधी मानसिक लक्षण शामिल हैं. इसके अलावा अन्य सामान्य लक्षण जैसे थकावट के साथ भी मानसिक कारण जुड़ा हो सकता है. 

 

निदान तथा उपचार के साथ जुड़े कष्ट के अलावा कैंसर जीवन के अन्य पहलुओं को भी प्रभावित करता है. इसकी वजह से फैमिली डायनैमिक्स यानी पारिवारिक रिश्तों में बदलाव आता है और व्यक्तियों के बीच संबंध तथा पेशेवर जीवन भी प्रभावित होता है. ऐसे में इस वजह से उत्पन्न होने वाली अलगाव अथवा अकेलेपन की भावना का मुकाबला करने के लिए साइकोलॉजिकल मदद  की बेहद ज़रूरत महसूस होती है.

 

इसके अलावा, कैंसर उपचार की लंबी अवधि, जीवन भर देखभाल करने की चिंता और कैंसर के वापसी की आशंका का हमेशा सिर पर मंडराते रहने का खतरा जैसे कारण भी तनाव बढ़ाने में अहम भूमिका अदा करते हैं. उपचार के बावजूद 54 प्रतिशत सर्वाइवर्स यानी कैंसर से बचने वाले मरीज़ों में कम से कम एक न एक मानसिक समस्या या विकार पाया गया है.

 

केयर-गिवर्स यानी देखभाल-कर्ता का दृष्टिकोण

 

अनौपचारिक केयरगिविंग यानी देखभाल के मामले में परिवार की भूमिका का विचार किया जाए तो यह ज़रूरी हो जाता है कि उनका भी भावनात्मक वेल-बींग यानी कल्याण उतना ही महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि यह सीधे-सीधे मरीज़ के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है. जब निदान करने की बात आती है तो देखभाल-कर्ता की आवश्यकताओं को मरीज़ की आवश्यकताओं से कमतर आंका जाता है यानी उनकी ज़रूरतों की ओर कम ध्यान जाता है. हिम्मत बनाए रखते हुए दिखाई देना और मरीज़ तथा परिवार के अन्य लोगों के लिए ऊर्जा तथा समर्थन का स्रोत बने रहना काफी थकाने वाला अनुभव साबित हो सकता है.

 भारत में अनेक परिवार, मरीज़ तथा परिवार के अन्य सदस्यों को लेकर नॉन-डिस्क्लोजर यानी खुलासा न करने का फैसला करते हैं यानी मरीज़ तथा परिवार के अन्य सदस्यों को यह पता ही नहीं लगने देते कि मरीज़ कैंसर से पीड़ित है. 

भारत में अनेक परिवार, मरीज़ तथा परिवार के अन्य सदस्यों को लेकर नॉन-डिस्क्लोजर यानी खुलासा न करने का फैसला करते हैं यानी मरीज़ तथा परिवार के अन्य सदस्यों को यह पता ही नहीं लगने देते कि मरीज़ कैंसर से पीड़ित है. ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि मरीज़ और परिजनों को तनाव से बचाया जा सके. एक अनुमान है कि 23-66 प्रतिशत परिवारों ने खुलासा न करने को पसंद किया, जिसकी वजह से एशियन कल्चर यानी एशियाई संस्कृति में 17-63 प्रतिशत मरीज़ों को उनके कैंसर पीड़ित होने की जानकारी ही नहीं होती है. ऐसे में परिजनों के लिए भावनात्मक समर्थन हासिल करने की राह में दिखावा, गोपनीयता तथा सहयोग की कमी जैसे मुद्दे एक बाधा बनकर खड़े रहते हैं.

 

लंबी अवधि तक चलने वाले उपचार की वजह से औपचारिक देखभाल-कर्ता यानी स्वास्थ्य सेवा कर्मचारी भी मरीज़ तथा उसके परिजनों के साथ काफी घुलमिल जाते है. अत: उनकी भी इसी तरह की भावनात्मक ज़रूरतें होती है. विशेषतः: जब मरीज़ बच नहीं पाता तो ऐसी स्थिति में यह संपूर्ण अग्निपरीक्षा भावनात्मक रूप से बेहद प्रभावित करने वाली होती है. ऐसे में इन्हें भी यानी स्वास्थ्य कर्मचारियों को भी पर्याप्त समर्थन मुहैया कराने की जरूरत है, ताकि उनके वेल-बींग यानी कल्याण के साथ-साथ मरीज़ों के कल्याण का भी ध्यान रखा जा सके.

 

जनसांख्यिकीय विशेषताओं का असर

 

मरीज़ तथा देखभाल-कर्ताओं की भावनात्मक मदद संबंधी आवश्यकता को कुछ अन्य कारण भी प्रभावित करते है. इन कारणों में आय के स्तर, आवासीय इलाका, शिक्षा का स्तर, आयु तथा लिंग शामिल है. इन कारणों से भी यह तय होता है कि मरीज़ तथा देखभाल-कर्ताओं को किस तरह की और कितने भावनात्मक समर्थन की आवश्यकता है.

 

कैंसर उपचार में होने वाला खर्च भी अपने आप में बहुत ज़्यादा होता है. ऐसे में यह भावनात्मक भार को और भी बढ़ाने वाला साबित होता है. ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि कैंसर सबसे खर्चीली बीमारी है. निजी एवं सार्वजनिक अस्पतालों में भर्ती होने के बाद कैंसर के मरीज़ों को अस्पताल में प्रति मरीज़ औसत क्रमश: ₹93,305 तथा ₹22,520 तक खर्च करना पड़ता है. इस बीमारी की सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा के कवरेज की कमी इस समस्या और भी जटिल बना देती है. एक अध्ययन के अनुसार 30 प्रतिशत मामले में लोगों को अपनी व्यक्तिगत संपत्ति बेचकर उपचार के लिए संसाधन जुटाने पड़ते है. इसी प्रकार 10 प्रतिशत मरीज़ ऊंचे ब्याज दर वाले निजी कर्ज लेकर अपना उपचार करवाते हैं, जबकि तीन प्रतिशत मरीज़ तो वित्तीय संसाधनों की कमी के कारण उपचार अधूरा छोड़ देते हैं.

 

ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोग और महिला कैंसर मरीज़ों में चिंता और अवसाद का शिकार होने की संभावना उनके शहरी इलाकों में रहने वाले तथा पुरुष मरीज़ों के मुकाबले ज़्यादा होती है. एक अध्ययन के अनुसार कैंसर का उपचार करवाने के दौरान बाल झड़ने का सामना करने वाली महिलाओं, विशेषत: यदि महिला स्तन कैंसर का उपचार करवा रही हैं, को बॉडी-इमेज यानी शारीरिक छवि संबंधी मुद्दों का सामना करना पड़ता है. इसका कारण यह है कि महिलाओं में केश तथा स्तन दोनों को ही वूमनहुड यानी नारीत्व का प्रतीक माना जाता है. इसके अतिरिक्त कैंसर संबंधी मानसिक आवश्यकताओं का सामना करने वाली महिलाओं में इसके उपचार के लिए सहमत होने की संभावना बेहद कम देखी जाती है. कुछ मामलों में तो ऐसी महिलाएं उपचार अधूरा भी छोड़ देती है.

 कम आय वाले परिवारों में तनाव और भी व्यापक तौर पर देखा गया है. इसका कारण यह है कि वे उपचार करवाने के लिए अपने परिवार के साथ घर से दूर स्थित कैंसर केयर सुविधाओं तक पहुंचने के लिए लंबी यात्रा करते है.

कम आय वाले परिवारों में तनाव और भी व्यापक तौर पर देखा गया है. इसका कारण यह है कि वे उपचार करवाने के लिए अपने परिवार के साथ घर से दूर स्थित कैंसर केयर सुविधाओं तक पहुंचने के लिए लंबी यात्रा करते है. भारत के कैंसर मरीज़ों के बीच किए गए एक क्वांटिटेटिव यानी मात्रात्मक अध्ययन ने पाया कि कम आय वाले तथा कम शिक्षा स्तर वाले लोगों में चिंता तथा अवसाद का होने वाला प्रभाव अधिक बुरा होता है. ऐसे में इस वर्ग के लिए कम खर्च वाले विशेष रूप से तैयार किए गए मानसिक मदद मुहैया करवाना आवश्यक है. 

 

कम-आय वाले समूह में आने वाले परिवारों के सामने एक और भावनात्मक बोझ इस बात का होता है कि उन्हें अपने मरीज़ की देखरेख करने के साथ-साथ अपनी पेशेवर प्रतिबद्धता को भी पूर्ण करना होता है. यह प्रतिबद्धता पूर्ण करना इसलिए भी आवश्यक होता है ताकि वे अपने मरीज़ के उपचार पर होने वाले खर्च के लिए आवश्यक वित्तीय प्रवाह को जारी रख सकें. इस वर्ग के मरीज़ों के लिए परिजनों की ही देखभाल-कर्ता के रूप में मौजूदगी ज़रूरी होती है, क्योंकि वे पैसा देकर देखरेख करने वाली सेवाओं के कारण पड़ने वाला खर्च का बोझ नहीं उठा सकते. इतना ही नहीं भारत में यह माना जाता है कि कैंसर मरीज़ की देखरेख करने की जिम्मेदारी परिवार की महिला की ही होती है. ऐसे में उन पर पड़ने वाला बोझ बेहद ज़्यादा होता है.

 

भारत में साइको-ऑन्कोलॉजिकल मदद 

 

कैंसर के उपचार से जुड़ी जटिलताओं तथा होने वाले मानसिक तनाव को देखते हुए मरीज़ तथा देखभाल कर्ताओं को संपूर्ण मदद उपलब्ध करवाने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाया जाना आवश्यक है.

 

नेशनल कॉम्प्रिहेंसिव कैंसर नेटवर्क गाइडलाइंस यानी राष्ट्रीय समग्र कैंसर नेटवर्क दिशा-निर्देशों में मरीज़ों तथा देखभाल-कर्ताओं पर पड़ने वाले तनाव को प्रबंधित करने और उनकी पहचान करने के लिए सिफारिशें और साधन मुहैया कराए गए हैं. लेकिन 2021 में हुए एक अध्ययन में पाया गया है कि भारतीय अस्पतालों में साइको-ऑन्कोलॉजिकल सेवाओं के पास रेफर किए गए मामलों की संख्या सिर्फ 8.6 प्रतिशत ही है. इसमें भी केवल तनाव के लिए ही स्क्रीनिंग की गई थी. लेकिन इसके बाद साइको-ऑन्कोलॉजिकल सेवाओं का उपयोग नहीं किया गया. ऐसे मामलों में इस क्षेत्र के विशेषज्ञों को रेफर किया जाना आवश्यक है, ताकि ऐसे मरीज़ों के लिए विशेष रूप से तैयार किए गए मानसशास्त्र-संबंधी मदद पीड़ित तक पहुंचाया जा सके.

 

पैलेटिव केयर अब भारत में भी लोकप्रिय होने लगी है. नेशनल प्रोग्राम फॉर पैलेटिव केयर अब सामाजिक स्वास्थ्य कर्मियों का उपयोग करने लगा है. ऐसा होने से यह सुनिश्चित होता है कि दूर-दराज के इलाकों में भी सामाजिक स्वास्थ्य कर्मियों की उपलब्धता को सुनिश्चित किया जा सके. हालांकि, एक मेटा-एनालिसिस के अनुसार मरीज़ों तथा देखभाल-कर्ताओं की चिंता तथा अवसाद के स्तर में पैलेटिव केयर की वजह से सांख्यिकीय रूप से उल्लेखनीय सुधार नहीं देखा गया. इस काम में जुटी टीमें मनोवैज्ञानिक लक्षणों की समग्रता का वर्णन करने में विफल है. इसी प्रकार हस्तक्षेपों में विभिन्न हितधारकों की भूमिका, जिसमें हस्तक्षेप के दौरान विशिष्ट मानसशास्त्र-संबंधी चिकित्सा तथा उसमें होने वाली प्रगति शामिल है जिसे तय करने में भी टीमों को सफलता नहीं मिली. ऐसे में पैलेटिव केयर मुहैया करवाने के लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि इस काम को करने वाली टीमों को उचित तरह से प्रशिक्षित दिया जाए ताकि उनके पास पैलेटिव केयर देने की क्षमताएं हो. 

 

आयुष्मान भारत-प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रमों के तहत 70 वर्ष से अधिक आयु के नागरिकों तथा 40 प्रतिशत गरीब परिवारों को सालाना ₹500,000 प्रति परिवार का स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध करवाया गया है. राष्ट्रीय आरोग्य निधि तथा स्टेट इलनेस अस्सिटेंस फंड्स यानी राज्य बीमारी सहायता कोष के माध्यम से भी कैंसर मरीज़ों को वित्तीय सहायता दी जाती है. ये प्रयास भी ऐसे मरीज़ों पर पड़ने वाला वित्तीय बोझ कम करने के लिए पर्याप्त नहीं है. सरकारी योजनाओं के तहत उपलब्ध करवाई जाने वाली अतिरिक्त सहायता से, विशेषत: कम-आय वाले समूहों में, तनाव के स्तर को कम किया जा सकेगा.

 

इसके अलावा अनेक NGOs तथा निजी कैंसर मदद समूह वित्तीय तथा भावनात्मक सहयोग मुहैया करवाते हैं. एक सर्वे में पाया गया था कि 93 प्रतिशत मरीज़ों एवं देखभाल-कर्ताओं ने माना था कि उन्हें नियमित रूप से होने वाली समूह बैठकों से लाभ हुआ. इन लोगों का मानना था कि ऐसी बैठकों में शामिल होने की वजह से ही उन्हें अपने मेडिकल यानी चिकित्सा संबंधी सवाल के जवाब तथा पोषण संबंधी मार्गदर्शन मिला. इतना ही नहीं इन बैठकों ने उन्हें भावनात्मक सहयोग भी मुहैया करवाया. भविष्य में एक केंद्रीयकृत पोर्टल विकसित किया जाना चाहिए, जो इस तरह के वित्तीय अथवा भावनात्मक सहयोग मुहैया कराने वाले सभी समूहों की सूची अथवा जानकारी उपलब्ध कराएं. इस पोर्टल के माध्यम से भी वित्तीय अथवा भावनात्मक सहयोग की आवश्यकता वाले मरीज़ों अथवा देखभाल-कर्ताओं को इन समूहों तक सीधे रेफर किया जा सकता है. ऐसा होने पर सहायता पाने के इच्छुक तथा सहायता देने वालों के बीच की दूरी को कम किया जा सकेगा.

 

पहले से उपलब्ध सरकारी कार्यक्रमों को विस्तारित करते हुए इनमें साइको-ऑन्कोलॉजिकल घटकों को शामिल किया जाना चाहिए. इसमें इंडिया के फर्स्ट कैंसर केयर (FCC) जैसी पहल भी  शामिल है, जो डाटा एनालिटिक्स तथा AI का उपयोग करते हुए निजी या व्यक्तिगत और प्रभावी उपचार रणनीति बनाता है. समग्र देखरेख मुहैया करवाने के लिए निदान और उपचार के मानसशास्त्र-संबंधी प्रभावों का अध्ययन करते हुए अनुसंधान और उपचार डिजाइन करने के लिए FCC का उपयोग किया जा सकता है. टर्शरी केयर कैंसर सेंटर स्कीम का उद्देश्य राष्ट्रीय स्तर पर कैंसर सुविधाओं में सुधार करना है. इसमें इन सुविधाओं के भीतर ही साइको-ऑन्कोलॉजिकल सेवाओं का समावेश करने का प्रावधान किया जाना चाहिए.

 

देश में मौजूद नेशनल कैंसर ग्रिड को साइको-ऑन्कोलॉजिकल सहायता के मानकीकरण की दिशा में काम करते हुए इसके लिए क्षमता विकास पर बल देना चाहिए. कैंसर मरीज़ों तथा देखभाल-कर्ताओं की बढ़ती मांग को देखते हुए परामर्शदाताओं के वर्तमान समूह को उन्नत किया जाना चाहिए, ताकि वे डिस्टेंस स्क्रीनिंग करते हुए सहायता मुहैया करवा सकें. यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि साइको-ऑन्कोलॉजिकल सहायता न केवल आसानी से पहुंच में है, बल्कि यह किफायती भी है. हालिया वर्षों में मजबूत हुई सार्वजनिक-निजी साझेदारी के कारण अधिक समग्र कैंसर केंद्रों की स्थापना की गई है. इस तरह की पहल को विस्तारित किया जाना चाहिए, ताकि मानसिक स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराई जा सके.

 

कुल-मिलाकर भारत ने कैंसर के उपचार में महत्वपूर्ण प्रगति की है. ऐसे में अब कैंसर मरीज़ों तथा देखभाल-कर्ताओं के लिए आवश्यक मानसिक मदद की अहमियत को समझा जाना चाहिए. यह देश के सामाजिक-सांस्कृतिक डायनैमिक्स और जनसांख्यिकीय कारणों को देखते हुए भी आवश्यक है, क्योंकि इन कारणों की वजह से ही मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट देखी जाती है. भारत में बुनियादी ढांचे में निवेश लगातार हो रहा है. ऐसे में इस ढांचे में साइको-ऑन्कोलॉजी सेवाओं को शामिल किया गया तो सभी के जीवन और स्वास्थ्य की गुणवत्ता संबंधी परिणाम में सुधार लाया जा सकेगा.


(निमिषा चड्ढा, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च असिस्टेंट हैं.) 

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