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Published on Oct 10, 2024 Updated 0 Hours ago
Ctrl + Alt + Disconnect: भारत के फ्रंटलाइन वर्कर्स की मानसिक सेहत का मुद्दा!

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यह लेख “विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस 2024” श्रृंखला का हिस्सा है.


फ्रंटलाइन वर्कर्स को नायक कहकर उनकी तारीफ़ें की जाती हैं. फिर भी हम उनकी इस तरह से अनदेखी करते आए हैं, उन पर बोझ बढ़ाते आए हैं, जिसे क़तई तारीफ़ के लायक़ नहीं कहा जा सकता है. ये कामगार, बुरे वक़्तों में समाज के संचालन का बड़ा बोझ अपने कंधों पर उठाते हैं. लेकिन, अक्सर उन्हें मानसिक सेहत के तबाह कर देने वाली समस्याओं का सामना करने के लिए अकेला और ख़ामोश छोड़ दिया जाता है. इस छुपे हुए संकट पर हमें तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है. ऐसा सिर्फ़ हर नागरिक की बेहतरी के नज़रिए से नहीं बल्कि, देश के आर्थिक भविष्य और उसकी सुरक्षा के लिहाज़ से भी बहुत ज़रूरी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2019 में आकलन किया था कि डिप्रेशन और चिंता की वजह से हर साल 12 अरब कार्य दिवस यूं ही बर्बाद हो जाते हैं. इस नुक़सान का मतलब है कि दुनिया भर में इन मसलों की वजह से एक ट्रिलियन डॉलर की उत्पादकता की क्षति हो जाती है. ऐसे में सवाल ये है कि जो लोग देश और समाज की रफ़्तार और सेहत को बनाए रखने में इतना अहम रोल निभाते हैं, उनकी मानसिक सेहत की अनदेखी का जोख़िम भारत कितने वर्षों तक उठा सकता है? 

 

ज़रूरी मगर अनदेखी का शिकार

 

पूरे भारत में फ्रंटलाइन वर्कर्स लगातार दबाव में काम करते हैं. पोस्टग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन ऐंड रिसर्च द्वारा किए गए एक अध्ययन में बताया गया था कि लगभग 30 प्रतिशत डॉक्टर अवसाद या डिप्रेशन के शिकार होते हैं, और इस स्टडी में शामिल 17 फ़ीसद डॉक्टरों ने तो ये माना भी था कि उनके ज़हन में ख़ुदकुशी के ख़याल आते रहते हैं. एक और संस्थागत समीक्षा में ये सच्चाई सामने आई थी कि स्वास्थ्य सेवा के सेक्टर में काम करने वाले पेशेवरों में थकान की समस्या 25 प्रतिशत के उच्च स्तर पर है. ये फ्रंटलाइन वर्कर्स के बीच मानसिक सेहत की समस्या के भयंकर स्तर का संकेत है. इससे भारत के फ्रंटलाइन वर्कर्स की मौजूदा हालत की बहुत ख़राब तस्वीर सामने आती है. समस्या इस वजह से और गंभीर हो जाती है कि मानसिक सेहत और सुरक्षा के सवालों पर परिचर्चा की ये मानकर अनदेखी की जाती है कि इससे कोई व्यक्ति कलंकित होता है.

 स्वास्थ्य सेवा के सेक्टर में काम करने वाले पेशेवरों में थकान की समस्या 25 प्रतिशत के उच्च स्तर पर है. ये फ्रंटलाइन वर्कर्स के बीच मानसिक सेहत की समस्या के भयंकर स्तर का संकेत है. इससे भारत के फ्रंटलाइन वर्कर्स की मौजूदा हालत की बहुत ख़राब तस्वीर सामने आती है. 

काम के बोझ से दबे और थकान के शिकार

 

फ्रंटलाइन वर्कर्स की मानसिक सेहत का संकट इतना भयावाह होने की एक बड़ी वजह उनके काम करने के घंटों का बेहद लंबा होना है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मानसिक सेहत की समस्याओं के जोख़िम के पीछे काम के लंबे घंटे  और असुरक्षित माहौल में काम करने को एक प्रमुख वजह बताया था. भारत के मामले में ये और भी अहम हो जाता है, क्योंकि स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में काम करने वाले, ख़ास तौर से पोस्टग्रेजुएट डॉक्टर और रेज़िडेंट डॉक्टरों को लगातार शिफ्टों में काम करना पड़ता है और कई बार वो 12 से 36 घंटों तक लगातार काम करने को मजबूर होते हैं. इस वजह से उन्हें अक्सर सोने का मौक़ा नहीं मिलता और वो ठीक से खाना-पीना भी नहीं कर पाते हैं. भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र के पेशेवर कामगारों (HCPs) की भी भारी कमी है. 2021 में हर 1,511 लोगों पर बस एक एलोपैथिक डॉक्टर थे और अगर हम इसमें आयुष के डॉक्टरों को भी जोड़ दें, तो ये आंकड़ा 2023 में हर 834 लोगों पर एक डॉक्टर का ही हो पाता है. नर्सिंग के पेशे में काम करने वालों के हालात भी लगभग ऐसे ही हैं. 2023 में हमारे देश में हर 476 लोगों पर केवल एक नर्स की उपलब्धता थी. स्वास्थ्य सेवा के पेशेवरों की ये कमी इस क्षेत्र में काम करने वालों के बीच थकान या बर्न आउट की एक बड़ी वजह हो सकती है. ये अनुपात इस सोच पर आधारित हैं कि स्वास्थ्य क्षेत्र के कुल पेशेवरों में से 80 फ़ीसद काम कर रहे हैं. हालांकि, ज़रूरी नहीं है कि ऐसा ही होता हो. फिर इसकी मानवीय और वित्तीय क़ीमत भी चुकानी पड़ती है: थकान के शिकार मेडिकल क्षेत्र के पेशेवरों पर भारत की निर्भरता किसी व्यक्ति की तकलीफ़ और दर्द से कहीं आगे जाकर, कर्मचारियों के नदारद होने और नौकरी पर न आने तक जाती है, और कई बार स्वास्थ्य सेवा के दौरान ग़लतियों की बढ़ती तादाद तक में दिखती है.

 

काम से दूरी बना लेने का अधिकार: सच्चाई से कोसों दूर

 

फ्रांस और स्पेन जैसे देशों ने ‘राइट टू डिसकनेक्ट’ यानी काम पूरा होने के बाद, अपने काम की जगह से दूरी बनाने के अधिकार को लागू करके फ्रंटलाइन वर्कर्स की मानसिक सेहत को तवज्जो देनी शुरू कर दी है. इस अधिकार के तहत काम के घंटे पूरे होने के बाद, कामगार अपनी पेशेवर संस्था से दूरी बना सकते हैं. ये क़ानून सबसे पहले 2017 में फ्रांस में लागू हुआ था. इसके बाद ऐसा ही क़ानून स्पेन, इटली और बेल्जियम में भी लागू किया गया. इन देशों ने अपनी संघीय सरकारी क्षेत्र की संस्थाओं के कर्मचारियों को काम के घंटों के बाद संपर्क से दूर रहने के अधिकार से सशक्त बनाया है. आयरलैंड में कोड ऑफ प्रैक्टिस तैयार किया गया है, ताकि कर्मचारियों के आराम के घंटे सुनिश्चित किए जा सकें. इसका मक़सद काम और बाक़ी ज़िंदगी के बीच संतुलन बनाना है. हालांकि, आयरलैंड ने इस कोड को अभी औपचारिक रूप से क़ानूनी दर्जा नहीं दिया है.

 फ्रांस और स्पेन जैसे देशों ने ‘राइट टू डिसकनेक्ट’ यानी काम पूरा होने के बाद, अपने काम की जगह से दूरी बनाने के अधिकार को लागू करके फ्रंटलाइन वर्कर्स की मानसिक सेहत को तवज्जो देनी शुरू कर दी है. इस अधिकार के तहत काम के घंटे पूरे होने के बाद, कामगार अपनी पेशेवर संस्था से दूरी बना सकते हैं.

हालांकि, इन देशों की तुलना में भारत की स्थिति बिल्कुल विपरीत है. जबकि अपने देश में भी ऐसे क़ानूनों की ज़रूरत बढ़ती जा रही है. लेकिन, राइट टू डिसकनेक्ट जैसे विधेयक अभी काग़ज़ों में ही हैं. संसद सदस्य सुप्रिया सुले ने 2018 में राइट टू डिसकनेक्ट बिल पारित करने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन इसे ज़्यादा सांसदों का समर्थन हासिल नहीं हो सका. यही नहीं, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों ने तो काम के घंटे बढ़ाने का प्रस्ताव रखा है, जिससे फ्रंटलाइन वर्कर्स के लिए हालात और भी ख़राब हो जाएंगे.

 

भारत के ज़रूरी सेक्टरों और ख़ास तौर से स्वास्थ्य सेवा और क़ानून व्यवस्था के क्षेत्र में काम करने वाले अक्सर तय समय से कहीं ज़्यादा घंटे काम करते हैं. 2020 की एक रिपोर्ट में पाया गया था कि 2017 में भारत में लोग औसतन लोग सालाना 2,117 घंटे काम करते हैं, जो आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) के 1,749 घंटों से काफ़ी ज़्यादा हैं. महामारी के दौरान फ्रंटलाइन वर्कर्स पर काम का बोझ बहुत बढ़ गया था. उनको कई महीनों तक अपनी तय सीमा से कई गुना ज़्यादा घंटों तक काम करना पड़ा था. राइट टू डिसकनेक्ट जैसे क़ानून के न होने से ये कामगार थकान के शिकार हुए. उन्होंने मानसिक सेहत की समस्याओं का सामना किया. जहां ऐसे क़ानून पारित भी हो जाते हैं, वहां आलोचकों का तर्क ये होता है कि इन्हें व्यवहार में लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसके नियम क़ायदे अस्पष्ट होते हैं और इनके उल्लंघन पर होने वाला जुर्माना भी मामूली होता है. इसका एक उदाहरण कनाडा का ओंटेरियो राज्य है. इससे पता चलता है कि अगर भारत में ऐसा कोई क़ानून बना भी, तो आगे चलकर कैसी समस्याएं पैदा होने वाली हैं.

 

कार्य संस्कृति और मानसिक स्वास्थ्य

 

भारत में विशेष रूप से स्वास्थ्य सेवाओं और क़ानून व्यवस्था की एजेंसियों जैसे भारी दबाव वाले कामगार क्षेत्रों में काम करने का माहौल अफ़सरों के दबदबे वाली संस्कृति के लिए बदनाम है. जूनियर डॉक्टर और पुलिस अधिकारियों की नौकरी शुरू होते ही उनसे ये उम्मीद की जाती है कि वो लगातार दबाव में काम करते रहें. ऊंचे दर्जे में दाख़िल होने का रिवाज कष्ट को सामान्य बात बना देता है और इससे मानसिक सेहत की बीमारियों और बर्न आउट जैसी समस्याएं और बढ़ जाती हैं.

 

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन द्वारा जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि, अपने पेशेवर जीवन में 75 फ़ीसद से ज़्यादा डॉक्टर ज़बानी या शारीरिक हिंसा के शिकार होते हैं. इससे तनाव और बढ़ जाता है. काम करने वालों के दर्जे के हिसाब से बर्ताव करने की ये संस्कृति, काम के लंबे घंटे और मदद के अभाव की वजह से लोग काम पर नहीं आते. इससे उत्पादकता में भी कमी आती है. नेशनल मेंटल हेल्थ सर्वे (NMHS 2015-16) के मुताबिक़, देश की 10.6 प्रतिशत आबादी मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं से जूझ रही है; हालांकि, फ्रंटलाइन वर्कर्स के बीच ये समस्या कहीं ज़्यादा होगी, क्योंकि वो अपनी ज़िम्मेदारियां निभाते वक़्त भयंकर दबाव और तनाव झेलते हैं.

 

संस्थागत बदलाव

 

भारत के फ्रंटलाइन वर्कर्स के बीच मानसिक स्वास्थ्य के संकट से निपटने के लिए प्रतीकात्मक क़दमों से आगे बढ़ने की ज़रूरत है. भारत के मौजूदा श्रम क़ानूनों में वैसे तो सुधार किए गए हैं. लेकिन अभी भी वो अपने कामगारों की मानसिक सेहत से निपटने के मामले में काफ़ी कमज़ोर हैं. ख़ास तौर से स्वास्थ्य और आपातकालीन सेवाओं जैसे भारी दबाव वाले क्षेत्रों में तो इनकी कमी साफ़ दिखाई देती है. 2017 का मेंटल हेल्थ एक्ट भी गोपनीयता और मानसिक स्वास्थ्य की वजह से नौकरी से बर्ख़ास्त करने से बचाव के रूप में कुछ क़ानूनी सुरक्षा देता है. असल कमी सुरक्षा के इन प्रावधानों को लागू करने के मामले में दिखती है. यही नहीं, बल्कि काम करने की जगह से जुड़ी मज़बूत नीतियों का अभाव भी इन क़ानूनों का मक़सद हासिल करना कमज़ोर बना देता है. काम के घंटों को बढ़ाकर हफ़्ते में 70 घंटे करने या फिर फैक्टरीज़ एक्ट में संशोधन की परिचर्चाएं दिखाती हैं कि किस तरह रोज़गार देने वाले काम के बोझ तले दबे कर्मचारियों से लाभ तो ख़ूब उठाती हैं, मगर इनके दूरगामी नतीजों के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचती हैं. यूरोप की तरह श्रम क़ानूनों को लागू करने के लिए मज़बूत ढांचा बनाए बग़ैर, भारत के फ्रंटलाइन वर्कर्स पर काम के बोझ की आर्थिक और मानसिक सेहत संबंधी क़ीमत और बढ़ती ही जाएगी. भारत को छोटे छोटे और टुकड़ों में क़दम उठाने के बजाय नेशनल मेंटल हेल्थ प्रोग्राम का स्तर बढ़ाकर फ्रंटलाइन वर्कर्स पर ध्यान बढ़ाना होगा. उनके काम के घंटे सख़्ती से लागू करने होंगे और मानसिक सेहत की समस्याओं को बुरी नज़र से देखने की संस्कृति ख़त्म करनी होगी.

काम के घंटों को बढ़ाकर हफ़्ते में 70 घंटे करने या फिर फैक्टरीज़ एक्ट में संशोधन की परिचर्चाएं दिखाती हैं कि किस तरह रोज़गार देने वाले काम के बोझ तले दबे कर्मचारियों से लाभ तो ख़ूब उठाती हैं, मगर इनके दूरगामी नतीजों के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचती हैं.

भारत को राइट डू डिसकनेक्ट जैसी काग़ज़ी नीतियों या फिर चार दिनों के सप्ताह के ख़्वाब से आगे बढ़ना होगा. भारत को काम और ज़िंदगी के बीच संतुलन को वास्तविकता और हासिल की जा सकने वाली प्राथमिकता बनाने की ज़रूरत है, न कि रूमानी ख़्वाब दिखाने की.

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