बढ़ते शहरीकरण ने भारत के शहरों में यात्रा के पैटर्न को बदल दिया है और परिवहन से जुड़ी मांग में बढ़ोतरी की है. मोबिलिटी (आवागमन) की ज़रूरतों में बढ़ोतरी की वजह से टू और फोर-व्हीलर में विस्फोटक बढ़ोतरी हुई है जिसने शहरी परिवहन और पर्यावरण से जुड़ी चुनौतियों को बढ़ा दिया है. सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को विकसित करने की सरकार की कई पहल के बावजूद अपर्याप्त पूंजी निवेश और ज़्यादातर शहरों में इंफ्रास्ट्रक्चर में कमियों के बने रहने से परिवहन की योजना और उस पर अमल के बीच अंतर बढ़ा है. इसके नतीजतन व्यापक परिवहन प्रणाली से कुछ ही बड़े शहरों को फायदा होता है जबकि छोटे शहरों और कस्बों में रहने वाले लोग सार्वजनिक परिवहन के सीमित विकल्पों या पूरी तरह उसकी गैर-मौजूदगी से जूझ रहे हैं.
सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को विकसित करने की सरकार की कई पहल के बावजूद अपर्याप्त पूंजी निवेश और ज़्यादातर शहरों में इंफ्रास्ट्रक्चर में कमियों के बने रहने से परिवहन की योजना और उस पर अमल के बीच अंतर बढ़ा है.
इस विरोधाभास ने शहरी भारत में पाराट्रांज़िट या इंटरमीडिएट पब्लिक ट्रांसपोर्ट (IPT) के उदय को बढ़ावा दिया है. निजी स्वामित्व और अनौपचारिक तौर पर चलने वाला पाराट्रांज़िट ट्रांसपोर्ट शेयर्ड (साझा) मोबिलिटी मुहैया कराता है. आम तौर पर हर गाड़ी में तीन से छह सवारी की क्षमता वाले तीन पहिए के ऑटो-रिक्शा द्वारा ये सुविधा प्रदान की जाती है. पाराट्रांज़िट सर्विस में निर्धारित शुरुआत की जगह से गंतव्य के बीच प्वाइंट-टू-प्वाइंट (P2P) और शटल सर्विस- दोनों शामिल हैं. शेयर्ड ट्रिप में इस सर्विस का महत्वपूर्ण हिस्सा है, ख़ास तौर पर ओला, उबर और कई दूसरी कंपनियों के द्वारा ऐप आधारित ‘शेयर्ड मोबिलिटी’ सॉल्यूशन की बढ़ती पेशकश के साथ. ये ऐप किराए के साथ-साथ ऑन-डिमांड मोबिलिटी की ज़रूरतों के तौर पर काम करने के लिए मोटरसाइकिल, टैक्सी, थ्री-व्हीलर और टू-व्हीलर समेत शेयर्ड व्हीकल को इकट्ठा करते हैं.
भारतीय शहरों में पाराट्रांज़िट का परिदृश्य
भारत में पाराट्रांज़िट गाड़ियों में किराए पर लिए जाने वाले लाइट मोटर व्हीकल (LMV), टैक्सी और दो-पहिया गाड़ियां शामिल हैं. सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय (MoRTH) के मुताबिक 2019 में रजिस्टर्ड 25.89 मिलियन गाड़ियों में किराए के लिए उपलब्ध LMV, टैक्सी और टू-व्हीलर का हिस्सा क्रमश: 26 प्रतिशत, 12 प्रतिशत और 1 प्रतिशत था. तीन सीट वाली गाड़ियों का हिस्सा जहां LMV में 67 प्रतिशत है, वहीं चार से छह सीट वाली गाड़ियां लगभग 33 प्रतिशत हैं.
इसके अलावा रजिस्टर्ड टैक्सी जैसे कि मोटर कैब, मैक्सी कैब या दूसरे वेरिएंट भी पाराट्रांज़िट की ज़रूरतों को पूरा करते हैं. ओला और उबर भारत में टियर I और II के 75 से ज़्यादा शहरों में शेयर्ड (साझा) और रेंटल (किराए पर) कैब, ऑटो-रिक्शा, टू-व्हीलर और टैक्सी सेवा मुहैया कराती हैं. मेरू, ब्लूस्मार्ट, क्विक राइड और लिफ्ट भी देश भर में शेयर्ड और रेंटल कैब सर्विस प्रदान करती हैं. 2006 में शुरू मेरू 24 शहरों में काम करती है जबकि 2019 में स्थापित ब्लूस्मार्ट 10 शहरों में सेवा देती है. क्विक राइड भारत में नौ टियर I शहरों में काम करती है और 2021 में शुरू लिफ्ट विशेष रूप से पश्चिम बंगाल में सेवा प्रदान करती है.
2015 में काम शुरू करने वाली रैपिडो 100 शहरों में बाइक और टैक्सी सर्विस जबकि 26 शहरों में ऑटो-रिक्शा सर्विस देती है. एक और महत्वपूर्ण कंपनी जुगनू 2014 से 50 शहरों में कैब और ऑटो-रिक्शा सर्विस दे रही है.
वैसे तो कुल मोटराइज़्ड ट्रिप में पाराट्रांज़िट सर्विस का औसत शेयर 25 प्रतिशत है लेकिन भारत के ज़्यादातर छोटे और मध्यम आकार के शहरों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट के उपयोग से नौ गुना से ज़्यादा है. ये रुझान परिवहन के एक सुविधाजनक साधन के रूप में पाराट्रांज़िट सेवाओं पर शहरों में रहने वाले लोगों की महत्वपूर्ण निर्भरता का संकेत देता है.
पाराट्रांज़िट को चुनौतियां
भारत में पाराट्रांज़िट सिस्टम में मुख्य रूप से तीन प्रमुख भागीदार (स्टेकहोल्डर) हैं: यूज़र, पाराट्रांज़िट ऑपरेटर (जिसमें ऑटो-रिक्शा ड्राइवर और शेयर्ड मोबिलिटी सर्विस मुहैया कराने वाले शामिल हैं) और सरकार. ऑटो-रिक्शा ड्राइवर एक-दूसरे से मुकाबला, कम मासिक कमाई, आमदनी नहीं देनी वाली यात्रा, अधिक मेंटिनेंस के खर्च, काम-काज के उद्देश्यों से ट्रैफिक विभाग को अनिवार्य भुगतान, पर्यावरण के प्रदूषण और मूलभूत बुनियादी ढांचे जैसे कि निर्धारित स्टैंड और पार्किंग की सुविधाओं में कमी जैसी कई चुनौतियों का सामना करते हैं.
इसके विपरीत शेयर्ड मोबिलिटी मुहैया कराने वाले परिचालन में घाटा, व्यापक नीतिगत रूप-रेखा और रेगुलेटरी गाइडलाइन की कमी, निर्धारित पिक-अप और ड्रॉप-ऑफ लोकेशन जैसे मददगार इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी और प्राइवेट परिवहन के साधनों की तरफ समाज की प्राथमिकता जैसी परेशानियों का सामना करते हैं.
इसके विपरीत शेयर्ड मोबिलिटी मुहैया कराने वाले परिचालन में घाटा, व्यापक नीतिगत रूप-रेखा और रेगुलेटरी गाइडलाइन की कमी, निर्धारित पिक-अप और ड्रॉप-ऑफ लोकेशन जैसे मददगार इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी और प्राइवेट परिवहन के साधनों की तरफ समाज की प्राथमिकता जैसी परेशानियों का सामना करते हैं. अन्य बातों के अलावा उन पर अक्सर ड्राइवर के गैर-पेशेवर व्यवहार, ज़रूरत से ज़्यादा किराया, सुरक्षा में खामी, घटिया यात्रा का अनुभव, पीक आवर में बहुत ज़्यादा इंतज़ार और नकदी लेन-देन पर निर्भरता का आरोप लगाया जाता है.
एक प्रमुख हिस्सेदार के रूप में सरकार भी पाराट्रांज़िट सेवाओं के बारे में चिंताओं से जूझती है. इनमें औपचारिक परिवहन प्रणाली की तुलना में ज़्यादा कंपीटिशन, परिवहन सवारियों की संख्या में कमी, ट्रैफिक जाम में बढ़ोतरी, यूनियन के द्वारा नीति पर अमल का विरोध और वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी शामिल हैं.
पाराट्रांज़िट सिस्टम को एकीकृत करने के लिए नीतिगत हस्तक्षेप
महानगरीय क्षेत्रों में पाराट्रांज़िट सर्विस सतत शहरी परिवहन का एक विवादास्पद विषय रही है. फीडर या औपचारिक परिवहन नेटवर्क के मददगार के तौर पर पाराट्रांज़िट सर्विस ने उनकी कुशलता के संबंध में बहस को बढ़ाया है. विशेष रूप से भारत में टियर I और II शहर, जहां बाद के चरणों में औपचारिक ट्रांज़िट सिस्टम शुरू किया गया था, में पाराट्रांज़िट सर्विस और औपचारिक परिवहन के साधनों के बीच हितों का टकराव देखा गया है. पाराट्रांज़िट सेवाओं को अक्सर मौजूदा औपचारिक सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की सहायता के बजाय उनके साथ प्रतिस्पर्धा करते देखा गया है. इसके बावजूद पाराट्रांज़िट सिस्टम भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में निर्णायक भूमिका अदा करते हैं. वो शहरी परिदृश्य में सतत और एकीकृत मल्टीमॉडल परिवहन प्रणाली को हासिल करना आसान बनाते हैं.
मौजूदा स्थिति भारत के अलग-अलग शहरों में असरदार ढंग से पाराट्रांज़िट सेवाओं पर नियंत्रण के लिए एक व्यापक नीति और रेगुलेटरी रूप-रेखा पर ज़ोर देती है. ऑटो-रिक्शा के संबंध में मौजूदा नीति निर्माण में कमियां दिखती हैं, उन ड्राइवर की ज़रूरतों पर पर्याप्त ढंग से विचार करने में नीतियां नाकाम हैं जो कीमती और किफायती परिवहन सेवा प्रदान करते हैं. पाराट्रांज़िट सेवाओं को रेगुलेट करने और प्रबंधन में शामिल सरकार के अलग-अलग संस्थानों और हिस्सेदारों के बीच समन्वय और संचार की गैर-मौजूदगी प्रभावी ढंग से नीति को लागू करने में बाधा डालती है.
राष्ट्रीय शहरी परिवहन नीति शहरी परिवहन के अलग-अलग साधनों के एकीकरण पर ज़ोर देती है. फिर भी ये पाराट्रांज़िट सेवाओं को औपचारिक परिवहन प्रणाली के साथ जोड़ने के लिए रणनीति की रूप-रेखा पेश करने में नाकाम है जो शहरी परिवहन नेटवर्क में पहले और आख़िरी मील की कनेक्टिविटी की दूरियों का समाधान करने के लिए महत्वपूर्ण है. इन प्रणालियों के बीच बिना किसी परेशानी के परिचालन, सूचना संबंधी, संस्थागत और किराए का एकीकरण हासिल करने पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है. इसके अलावा पाराट्रांज़िट सर्विस की क्वॉलिटी में औपचारिक ट्रेनिंग और कौशल विकास से जुड़ी पहल की कमी है जो सेवाओं को उत्कृष्ट बनाने में बाधा है. व्यापक कौशल विकास और ट्रेनिंग की पहल के माध्यम से पाराट्रांज़िट ऑपरेटर की व्यावसायिकता (प्रोफेशनलिज़्म) और सेवा की गुणवत्ता को बढ़ाना अलग-अलग शहरों में सतत और कुशल शहरी परिवहन प्रणाली को बढ़ावा देने के उद्देश्य से नीतियों को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए आवश्यक है. एक मज़बूत निगरानी और मूल्यांकन की रूप-रेखा समय पर सुधार एवं बेहतरी और प्रभावी नीतिगत हस्तक्षेप को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी है. नीतिगत असर पर व्यापक आंकड़ों की कमी जवाबदेही और सोच-समझकर भविष्य से जुड़े नीतिगत फैसले लेने की क्षमता पर असर डालती है.
सार्वजनिक परिवहन प्राधिकरण (PTA) जैसे संस्थागत ढांचे को लागू करना शहरी भारत में अलग-अलग मोबिलिटी के साधनों में सामंजस्यपूर्ण व्यवस्था और रेगुलेशन को सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी है.
सार्वजनिक परिवहन प्राधिकरण (PTA) जैसे संस्थागत ढांचे को लागू करना शहरी भारत में अलग-अलग मोबिलिटी के साधनों में सामंजस्यपूर्ण व्यवस्था और रेगुलेशन को सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी है. सार्वजनिक परिवहन प्राधिकरण (PTA) या सार्वजनिक परिवहन परिषद (PTC) परिवहन के विभिन्न साधनों में सेवा के मानकों समेत निर्णायक नीतिगत निर्धारणों के लिए ज़िम्मेदारी लेती है. ये शहरों की ज़रूरत के मुताबिक एक व्यापक मल्टीमॉडल सार्वजनिक परिवहन का ब्लूप्रिंट तैयार करती है. PTA/PTC को ऑपरेटर को कॉन्ट्रैक्ट जारी करने का काम सौंपा जाता है जिसमें पहले से निर्धारित सेवा की सूची के साथ सेवाओं को जोड़ने और आपसी सहमति से मेहनताना की शर्तों को तय करना शामिल है. इस तरह का संरचनात्मक दृष्टिकोण सार्वजनिक परिवहन क्षेत्र के भीतर कार्य-कुशलता और जवाबदेही को बढ़ावा देता है, साथ ही शहरी मोबिलिटी के मानकों को प्रोत्साहन देता है.
इसके अलावा शेयर्ड मोबिलिटी सॉल्यूशन के लिए मौजूदा रेगुलेशन उन्हें साबित कर चुकी ऑटो-रिक्शा सेवाओं के प्रतियोगी के रूप में पेश करते हैं. इसके नतीजतन ‘एग्रीगेटर रूल्स’ और अलग-अलग नगरपालिकाओं के ‘टैक्सी रेगुलेशन’ जैसी नियामक रूप-रेखा (रेगुलेटरी फ्रेमवर्क) ने वैकल्पिक साझा साधनों के साथ प्रतिस्पर्धा को कम करने के लिए परमिट की सीमाएं और न्यूनतम किराए का नियम निर्धारित किया है. इसके विपरीत सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय (MoRTH) के द्वारा तैयार ‘टैक्सी गाइडलाइन' अधिक समावेशी दृष्टिकोण की वकालत करती है. इसमें शेयर्ड मोबिलिटी को भीड़-भाड़ के मुद्दे में योगदान देने वाले के बजाय समाधान के एक हिस्से के रूप में शामिल किया गया है.
सार्वजनिक परिवहन के सीधे विरोधी की तुलना में निजी गाड़ी से आवागमन पर निर्भरता घटाने में सक्षम ऑन-डिमांड सॉल्यूशन के रूप में शहरों को साझा मोबिलिटी सेवाओं पर ज़रूर विचार करना चाहिए. वियना और हेलसिंकी जैसे शहरों में लागू किए गए ‘मोबिलिटी एज़ ए सर्विस (MaaS)’ जैसे मॉडल औपचारिक सार्वजनिक परिवहन के नेटवर्क के साथ ‘न्यू मोबिलिटी’ सॉल्यूशन के प्रभावी एकीकरण का उदाहरण देते हैं. भारतीय शहरों में ऐसी पहल को शुरू करने से सार्वजनिक परिवहन की सवारी पर उनके असर की संपूर्ण समीक्षा करने में मदद मिल सकती है.
नंदन दावड़ा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के अर्बन स्टडीज़ प्रोग्राम में फेलो हैं.
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