Author : Harsh V. Pant

Published on Nov 13, 2025 Updated 0 Hours ago

यह दौर सिर्फ़ हथियारों या समझौतों का नहीं बल्कि भरोसे और साझेदारी का है. भारत-अमेरिका के रिश्ते एक नए मोड़ पर खड़े हैं. वीज़ा विवादों और टैरिफ़ तनातनी से तने रिश्ते के बाद ट्रंप का एच-1बी पर बदला सुर और नया डिफेंस फ्रेमवर्क एग्रीमेंट दोनों इस बात के संकेत हैं कि टकराव से संवाद की ओर रुख बदल रहा है.

वीज़ा पर नरमी, रक्षा में गरमी- ट्रंप के बदलते सुर

अपने आक्रामक रुख से कूटनीतिक संबंध तक को दांव पर लगाने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अब संभवत: नरम पड़ने लगे हैं. एच-1बी वीजा कार्यक्रम पर उनका ताजा बयान कम-से-कम यही संकेत दे रहा है. एक टीवी कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा कि अमेरिका को प्रतिभाओं की जरूरत है, इसलिए ‘खास भूमिकाओं’ के लिए उनको बुलाया जाएगा. जाहिर है, यह भारतीय पेशेवरों के लिए एक राहत भरी खबर है, जिनकी पेशानी पर तब बल पड़ गए थे, जब ट्रंप प्रशासन द्वारा वीजा शुल्क में अप्रत्याशित वृद्धि का एलान किया गया था. जबकि, इन्हीं भारतीयों की योग्यता पर अमेरिकी टेक कंपनियां निर्भर रही हैं.

  • ट्रंप का रुख नरम पड़ने के संकेत दिखाई दे रहे हैं.
  • एच-1बी पर नए बयानों से भारतीय पेशेवरों के लिए राहत की उम्मीद है.
  • दोनों देशों ने अगले दस वर्षों के लिए रक्षा सहयोग का नया फ्रेमवर्क स्वीकार किया है.

हालांकि, इससे पहले भारत और अमेरिका ने अगले 10 वर्षों में रक्षा सहयोग बढ़ाने के लिए एक फ्रेमवर्क पर भी सहमति जताई है. वास्तव में, दोनों देशों के रिश्तों का एक मजबूत स्तंभ रक्षा साझेदारी है, जो पिछले दो दशकों की हथियारों की खरीद, तकनीक के हस्तांतरण और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बढ़ते तालमेल से पुष्ट होती है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि द्विपक्षीय संबंधों में अपेक्षा व वास्तविकता के बीच का अंतर खत्म होने लगा है, जिसकी वजह निस्संदेह राजनीतिक व सुरक्षा संबंधों का लगातार सुधरना है.

“नए ‘डिफेंस फ्रेमवर्क एग्रीमेंट’ को कम से कम चार कारणों से बेहद अहम माना जा रहा है.”

बेशक, राष्ट्रपति ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में एक के बाद दूसरी प्रतिकूल राजनीतिक घटनाएं हुई हैं, जिनसे धारणा और तरक्की के बीच की खाई घटने के बजाय बढ़ गई है. खासतौर से ट्रंप के नाटकीय रुख से यही सोच बनी कि दोनों देशों के बीच सब कुछ ठीक नहीं है. फिर भी, उम्मीद जगाने वाली कवायदें निरंतर चलती रही हैं. रक्षा समझौते के बाद ट्रंप का एच-1बी वीजा पर यह नया रुख इसी की तस्दीक करता है.

डिफेंस फ्रेमवर्क — क्यों है यह निर्णायक?

नए ‘डिफेंस फ्रेमवर्क एग्रीमेंट’ को कम से कम चार कारणों से बेहद अहम माना जा रहा है. पहला, यह समझौता राजनीतिक रूप से ऐसे संवेदनशील समय में हुआ है, जब राष्ट्रपति ट्रंप ने भारत पर सबसे ज्यादा टैरिफ लाद रखा है. दूसरा, दोनों देशों के बीच सुरक्षा और व्यापार का रिश्ता चोली-दामन सा रहा है, लिहाजा रक्षा समझौता आश्वस्त करता है कि व्यापार समझौते को लेकर चल रही बातचीत भी देर-सबेर पटरी पर आ जाएगी. तीसरा, इस समझौते के बाद न सिर्फ भारत को महत्वपूर्ण रक्षा उपकरणों की तेज आपूर्ति सुनिश्चित हो सकेगी, बल्कि तकनीकी सहयोग व उसके हस्तांतरण की राह भी आसान हो सकती है.

“नया डिफेंस फ्रेमवर्क भारत और अमेरिका के रक्षा व सुरक्षा संबंधों को नई दिशा देने का काम करेगा.”

चौथी व आखिरी वजह. यह समझौता द्विपक्षीय सहयोग के दशकों पुराने उस वायदे को आगे बढ़ाता है, जो 1995 में अमेरिका व भारत के बीच रक्षा संबंधों को लेकर ‘एग्रीड मिनट’ (सहमत कार्यवृत्त) पर हस्ताक्षर किए जाने के साथ शुरू हुआ था. यह शीत युद्ध के बाद के दौर में दोनों देशों के बीच पहला औपचारिक रक्षा समझौता था. साल 2005 में तत्कालीन रक्षा मंत्री प्रणब मुखर्जी और उनके अमेरिकी समकक्ष डोनाल्ड रम्सफेल्ड ने एक नया समझौता करके इसको आगे बढ़ाया था. इसके बाद, जून 2015 में भारतीय रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और अमेरिकी रक्षा मंत्री ऐश कार्टर ने भी एक डिफेंस फ्रेमवर्क एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किए थे.

नया डिफेंस फ्रेमवर्क भारत और अमेरिका के रक्षा व सुरक्षा संबंधों को नई दिशा देने का काम करेगा. वह भी ऐसे वक्त में, जब तकनीक ही नहीं, युद्ध का स्वरूप भी तेजी से बदल रहा है, और युद्ध-क्षेत्र की जरूरतें, प्रौद्योगिकियां और प्रकृति में तेज बदलाव नजर आ रहे हैं. इस फ्रेमवर्क से द्विपक्षीय सुरक्षा साझेदारी में एक मजबूत भरोसा बनेगा, साथ ही महत्वपूर्ण क्षेत्रों में समय-समय पर समीक्षा और उसी के अनुसार सुधार की प्रक्रिया भी हो सकेगी.

इस समझौते को क्षेत्रीय स्थिरता, प्रतिरोध, तकनीकी सहयोग और सूचनाओं के लेन-देने के लिहाज से भी अहम माना जा रहा है. रक्षा क्षेत्र में इससे फायदा तो मिल ही रहा है, इसमें हिंद-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा व स्थिरता को लेकर दीर्घकालिक सामरिक नजरिये की झलक भी मिलती है. इसमें मुक्त, खुले और नियम आधारित हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर जोर दिया गया है, जो ट्रंप के इस दूसरे शासनकाल के दौरान क्षेत्रीय सुरक्षा में घटते भरोसे को फिर से मजबूत बनाने का काम कर सकता है. हालांकि, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में ट्रंप प्रशासन की बदलती सामरिक नीतियों और क्षेत्रीय सुरक्षा के प्रति उसकी सोच के बीच अंतर करना जरूरी है, क्योंकि इसी से हम जान सकेंगे कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में वह कभी-कभी अप्रतिबद्ध रवैया क्यों अपनाता है?

हिंद-प्रशांत पर नये समीकरण: अवसर व चुनौतियाँ

वास्तव में, हिंद-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा को लेकर अमेरिका की घोषित प्रतिबद्धता में अंतर तब दिखता है, जब चीन के साथ आर्थिक समझौते को अंजाम तक पहुंचाने के लिए वह बेकरार नजर आता है. आसियान शिखर सम्मेलन के दौरान ही अमेरिका और चीन ने एक आर्थिक समझौते पर सहमति जताई है, जो अमेरिकी कंपनियों को राहत पहुंचा सकती है और उनकी आपूर्ति शृंखला में मदद कर सकती है. मगर इसने ‘क्वाड’ के तहत भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे क्षेत्रीय साझेदारों के साथ बनाए गए तालमेल को खतरे में भी डाल दिया है. इससे मुमकिन है कि इस क्षेत्र में अमेरिका को कुछ रणनीतिक नुकसान हो. इसी तरह, नए रक्षा ढांचे को भी क्रियान्वयन के दौरान कठिन परीक्षाओं का सामना करना पड़ सकता है.

“शर्तों के मुताबिक, साल 2035 में इस समझौते का नवीनीकरण किया जाएगा.”

साल 2015 के फ्रेमवर्क का यदि कोई सबक है, तो यही कि भारत-अमेरिका रक्षा साझेदारी को लेकर फैसले लेने और तालमेल बनाने में तेजी लानी चाहिए. पिछले दशक की प्रतिबद्धताएं अब तक पूरी नहीं हो सकी हैं, विशेष रूप से रक्षा व्यापार और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में संयुक्त नवाचार को प्रोत्साहित करने और साझा तकनीकी व औद्योगिक संबंध विकसित करने के मामले में. इतना ही नहीं, ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के दौरान निवेश बढ़ाने के लिए दिए जा रहे राजनीतिक व कूटनीतिक दबावों को देखते हुए एक खतरा यह भी है कि भारत-अमेरिका रिश्ता ‘क्रेता-विक्रेता मॉडल’ में न ढल जाए. यह एक ऐसा मॉडल है, जिससे ऊपर उठने का फैसला दोनों देशों ने 2015 में ही कर लिया था.

लिहाजा, अब दोनों देशों को इस नए दशकीय सुरक्षा समझौते को ध्यान में रखकर आगे बढ़ना चाहिए, और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि द्विपक्षीय संबंध अब भी साझा नवाचार, आपसी विश्वास और रणनीतिक नजदीकी पर टिके रहें. शर्तों के मुताबिक, साल 2035 में इस समझौते का नवीनीकरण किया जाएगा. मगर दस वर्षों का यह रास्ता काफी लंबा है और दोनों देश इसे कैसे तय करते हैं, इसी से द्विपक्षीय रक्षा व सुरक्षा संबंधों का अगला अध्याय लिखा जाएगा.

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