-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
जब पश्चिमी संस्थानों की साख डगमगा रही है, भारत एक नई नैतिक ताकत बनकर उभर रहा है. जो शक्ति नहीं, भरोसे से नेतृत्व करना चाहता है. यही वक्त है जब दुनिया को भारत की संतुलित और विश्वसनीय आवाज़ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है.
भविष्य के इतिहासकार वेनेज़ुएला की एक नेता (जिन्होंने अपने ही देश पर ट्रंप प्रशासन के हमलों का समर्थन किया और बाद में इज़रायल से भी इसी तरह की कार्रवाई करने का अनुरोध किया) को नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने को पश्चिमी देशों के संस्थानों के नेतृत्व की विश्वसनीयता के मामले में एक निर्णायक मोड़ के रूप में देख सकते हैं. SWIFT (सोसायटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फाइनेंशियल टेलीकम्युनिकेशन) और FIFA (इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ एसोसिएशन फुटबॉल), जो एक समय आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में तटस्थ वैश्विक संस्थाएं थीं, अब अमेरिकी विदेश नीति के किसी ख़ास पहलू से ख़ुद को जोड़ रही हैं. ये ऐसा रुख है जो भारत के हितों को प्रभावित करता है. चूंकि अब नया ‘शीत युद्ध’ पश्चिमी देशों को चीन-रूस के नेतृत्व वाले उभरते गठबंधन के ख़िलाफ़ खड़ा कर रहा है, ऐसे में निष्पक्ष संस्थागत नेतृत्व (जो दुनिया के बहुमत का प्रतिनिधित्व करे और सॉफ्ट पावर में बढ़त प्रदान करे) के लिए एक अवसर है. भारत, जो कि पश्चिम और पूरब से स्वतंत्र सबसे शक्तिशाली और प्रभावी देश के रूप में उभर रहा है, के पास ये ज़िम्मेदारी संभालने के लिए न केवल प्रोत्साहन है बल्कि क्षमता भी है. इसके अलावा अमेरिका में आम लोगों और कुलीन तबके की ये राय बढ़ती जा रही है कि वैश्विक संस्थाओं पर अमेरिका का दबदबा उसके मूल हितों पर बोझ बन रहा है. उन्हें उम्मीद है कि अमेरिका इस वर्चस्व का त्याग करेगा. इसके नतीजतन जो कमी आएगी, उसे भरने के लिए अमेरिका के लोग भारत को सबसे कम ख़तरा पैदा करने वाला दावेदार मान सकते हैं.
जब इस बात की संभावना बढ़ रही है कि अमेरिकी प्रशासन प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों से पीछे हट जाएगा, उस समय अमेरिका की जगह लेने की होड़ में मौजूद किसी गैर-पश्चिमी देश की तुलना में पश्चिमी नज़रिए से भारत सबसे सौम्य विकल्प प्रस्तुत करता है.
भारत ‘गांधी शांति पुरस्कार’ या ‘आर्यभट्ट विज्ञान पुरस्कार’ की शुरुआत करके दुनिया में हैसियत के मामले में नोबेल कमेटी को पीछे छोड़ने के लिए पूरी तरह तैयार है.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और संयुक्त राष्ट्र महासभा जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में सुधार के लिए काफी चर्चा हुई है. इन सुधारों में भारत जैसे देश को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता देना शामिल है. साथ ही महासभा की बैठक को दूसरी जगह ले जाना भी है ताकि मेज़बान देश के इस नियंत्रण को कम किया जा सके कि बैठक में कौन शामिल हो सकेगा.
अब नया ‘शीत युद्ध’ पश्चिमी देशों को चीन-रूस के नेतृत्व वाले उभरते गठबंधन के ख़िलाफ़ खड़ा कर रहा है, ऐसे में निष्पक्ष संस्थागत नेतृत्व के लिए एक अवसर है.
आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की बहुत कम पड़ताल की गई है जबकि उनकी वैधता तटस्थता पर निर्भर करती है. ये इस समझ पर काम करते हैं कि अगर कोई देश संगठन के आंतरिक नियमों का पालन करता है तो संगठन को उस देश के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की जटिलता को लेकर किसी निर्णय पर पहुंचने की आवश्यकता नहीं है. ‘ओलंपिक की भावना’ इस सोच को सटीक रूप से व्यक्त करती है जिसके अनुसार खेलों को दुनिया की राजनीति से अलग रखना चाहिए. दूसरे विश्व युद्ध के बाद पश्चिमी देशों को ये ज़िम्मेदारी सौंपी गई कि जहां तक संभव हो, निष्पक्ष ढंग से इन संस्थाओं को सुविधा प्रदान करें. लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान इसमें निर्णायक बदलाव आया है.
2022 में जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया तो इन गैर-राजनीतिक संस्थाओं ने अभूतपूर्व प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए. दूसरे विश्व युद्ध के बाद से किसी भी देश को युद्ध की वजह से ओलंपिक से प्रतिबंधित नहीं किया गया था. मिसाल के तौर पर, अफ़ग़ानिस्तान पर हमला करने के कुछ महीनों के बाद ही अमेरिका ने शीतकालीन ओलंपिक की मेज़बानी की थी. लेकिन इसके बावजूद रूस और बेलारूस को 2024 के पेरिस ओलंपिक में शामिल नहीं किया गया. उधर गज़ा में आम लोगों की मौत के बाद भी इज़रायल का स्वागत किया गया. इसके अलावा, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने कुछ महीने पहले ही गज़ा में नरसंहार के आरोपों को उचित बताया था. FIFA और UEFA (यूनियन ऑफ यूरोपियन फुटबॉल एसोसिएशन) ने यूक्रेन पर हमले के कुछ हफ़्तों के भीतर ही रूस की राष्ट्रीय टीम और क्लबों को निलंबित कर दिया. इज़रायल अभी भी इसमें भाग ले रहा है. एक तरफ तो दुनिया भर के देशों ने यूक्रेन के साथ एकजुटता दिखाई, वहीं दूसरी तरफ फिलिस्तीनी झंडे (इसके साथ-साथ कैटलान और सर्बियाई राष्ट्रवादी झंडे भी) पर जुर्माना लगाया गया. यूरोविज़न (यूरोपीय ब्रॉडकास्टर का नेटवर्क) ने भी कुछ हफ्तों के भीतर ही रूस को निलंबित कर दिया. यहां भी इज़रायल अभी भी भागीदार है.
इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक और वित्तीय संस्थानों ने बाइडेन प्रशासन की विदेश नीति को प्राथमिकता देने की इच्छा दिखाई जिससे वैश्विक वित्तीय स्थिरता, विकास और कनेक्टिविटी पर प्रभाव पड़ा, विशेष रूप से भारत जैसे देशों के लिए. SWIFT ने कुछ ही हफ्तों के भीतर रूस के वित्तीय संस्थानों से नाता तोड़ लिया. वहीं इज़रायल के संस्थानों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गई. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक ने भी कुछ हफ्तों के भीतर ही रूस के साथ सामान्य सहयोग को भी कम कर दिया. यहां भी इज़रायल की सामान्य भागीदारी बनी रही.
ये संस्थाएं दुरुपयोग के हिसाब से सबसे ज़्यादा कमज़ोर स्थिति में उस समय थीं, जब अमेरिका की विदेश नीति हस्तक्षेपवादी, ताकत के ज़रिए शांति की दिशा में आगे बढ़ रही थी. ये एक ऐसी दिशा थी जो भारत के हितों से काफी हद तक अलग थी. ये संस्थाएं रूस पर अधिकतम दबाव बनाने के पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडेन के दृष्टिकोण का समर्थन करने के लिए तुरंत लामबंद हो जाती थीं. इसके विपरीत अभी तक किसी ने भी तनाव में कमी करने की राष्ट्रपति ट्रंप की सीमित कोशिशों के मुताबिक अपने प्रतिबंधों में कमी नहीं की है. ये स्थिति ट्रंप की उस सलाह के बाद है जिसके मुताबिक रूस को भागीदार बनाने से तनाव में कमी आ सकती है. इसके अलावा ये तथ्य भी है कि शांति के समर्थन वाले दृष्टिकोण को दुनिया में व्यापक समर्थन है जो संस्थागत वैधता बहाल करने में मदद कर सकता है. नोबेल शांति पुरस्कार के लिए ट्रंप की हास्यास्पद दावेदारी को ठुकराने और मारिया मचाडो को देने के फैसले ने वेनेज़ुएला में हस्तक्षेप के लिए दबाव में बढ़ोतरी की. इसका नतीजा दुनिया में अस्थिरता में बढ़ोतरी, व्यापार में कमी और ऊर्जा की कीमत में इज़ाफ़े के रूप में निकल सकता है जो भारत को प्रभावित करते हैं.
वित्तीय और आर्थिक संस्थानों का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करने की रवैये ने उभरती ताकतों के द्वारा पहले से स्थापित नेटवर्क से ख़ुद को अलग करने और डॉलर पर निर्भरता कम करने के प्रयासों को तेज़ कर दिया है जिससे अमेरिकी हितों को नुकसान हो रहा है. इस तरह की कोशिशों का नेतृत्व काफी हद तक चीन कर रहा है और इसमें भारत जैसे देश प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं. उदाहरण के लिए, ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका +) में इसकी भूमिका या चीनी युआन से रूसी तेल की ख़रीदारी.
ओलंपिक की भावना’ इस सोच को सटीक रूप से व्यक्त करती है जिसके अनुसार खेलों को दुनिया की राजनीति से अलग रखना चाहिए. दूसरे विश्व युद्ध के बाद पश्चिमी देशों को ये ज़िम्मेदारी सौंपी गई कि जहां तक संभव हो, निष्पक्ष ढंग से इन संस्थाओं को सुविधा प्रदान करें. लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान इसमें निर्णायक बदलाव आया है.
जहां तक बात सांस्कृतिक संस्थानों की है तो भारत के पास नेतृत्व करने का अवसर है. चीन की तरह भारत के पास भी संस्थानों का नेतृत्व करने और मानक तय करने वाला देश बनने के लिए काफी हद तक आर्थिक और सैन्य क्षमताएं हैं. लेकिन भारत की छवि रणनीतिक रूप से पश्चिम और पूरब- दोनों से गुटनिरपेक्षता की है, जबकि चीन की छवि ऐसी नहीं है. इसका पता यूक्रेन युद्ध को लेकर रिपोर्टिंग के लिए एक भरोसेमंद स्रोत के रूप में भारतीय मीडिया के तेज़ी से बढ़ते प्रभाव से चला.
भारत की भू-राजनीतिक स्वतंत्रता भी उसे एक ऐसा दावेदार बनाती है जिसका अमेरिका और पश्चिम देशों के भीतर हस्तक्षेप विरोधी ताकतें समर्थन कर सकती हैं. ट्रंप के ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (MAGA) अभियान में शामिल बड़े लोगों समेत अमेरिका के ज़्यादातर लोग ऐसा अमेरिका चाहते हैं जो अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में अपनी भागीदारी समेत दुनिया में अपने महत्व को बनाए रखने के लिए कम संसाधन खर्च करे. सरकारी दक्षता विभाग (DOGE) के द्वारा USAID को ख़त्म करने में तेज़ी इसी भावना से आई. वैश्विक संस्थानों के लिए पश्चिमी देशों के लोगों के समर्थन में कमी, घरेलू संस्थानों में भरोसे की महत्वपूर्ण कमी के समान है. जब इस बात की संभावना बढ़ रही है कि अमेरिकी प्रशासन प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों से पीछे हट जाएगा, उस समय अमेरिका की जगह लेने की होड़ में मौजूद किसी गैर-पश्चिमी देश की तुलना में पश्चिमी नज़रिए से भारत सबसे सौम्य विकल्प प्रस्तुत करता है.
इसके अलावा मानवता की सांस्कृतिक और सभ्यतागत गाथा में भारत का व्यापक रूप से स्वीकृत योगदान उसे अपेक्षाकृत रूप से अनूठी स्थिति प्रदान करता है. भारत ‘गांधी शांति पुरस्कार’ या ‘आर्यभट्ट विज्ञान पुरस्कार’ की शुरुआत करके दुनिया में हैसियत के मामले में नोबेल कमेटी को पीछे छोड़ने के लिए पूरी तरह तैयार है. गिरते यूरोविज़न की तुलना में एशियाविज़न को अधिक दर्शक मिलेंगे. शायद ऐसे दर्शक पश्चिमी देशों में भी होंगे.
हाल के वर्षों में पश्चिमी देशों के अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों ने काफी विश्वास खोया है. विश्वास की ये कमी पश्चिमी देशों के लोगों में भी आई हैं. इन संस्थानों ने जो दिशा अपनाई है, उसे देखते हुए भारत के पास कदम उठाने का प्रोत्साहन और अवसर है. पश्चिम, पूर्व और ग्लोबल साउथ (विकासशील देश) में अपनी अनूठी सकारात्मक छवि के साथ भारत इस उभरती ‘वैधता में कमी’ को पाटने में मदद करने के लिए अच्छी स्थिति में है. ऐसा करने से भारत की सॉफ्ट पावर में बढ़ोतरी होगी और उसे वो नेतृत्व की स्थिति मिलेगी जिसकी मांग वो लंबे समय से कर रहा था और जिसका वो हक़दार भी है.
कदिरा पेठियागोडा भू-राजनीति के विशेषज्ञ और पूर्व राजनीतिक सलाहकार एवं राजनयिक हैं.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Kadira Pethiyagoda is a geopolitics expert and former political advisor and diplomat. His expertise on foreign policy stems from being a Fellow at the Brookings ...
Read More +