भारत और चीन में इस संसार की एक तिहाई आबादी बसती है. लिहाज़ा चीन और भारत के भावी रिश्ते न सिर्फ़ इन दोनों देशों, बल्कि एशिया और समूची दनिया के लिए बेहद अहम हैं.
दुनिया में अपना दबदबा क़ायम करने के लिए चीन के पास भारी-भरकम रणनीति मौजूद है. हिंद महासागर की अहमियत का एहसास उसे भारत से पहले हो गया था. चीन की वैश्विक रणनीति के तौर पर ‘मोतियों की माला’ जैसा जुमला पहली बार 2005 में ईजाद हुआ था. उसके बाद से चीन ने भारत के आसपड़ोस समेत तमाम इलाक़ों में दोस्ताना बंदरगाहों की एक पूरी श्रृंखला खड़ी कर दी है. इसमें पूरब में म्यांमार, दक्षिण में श्रीलंका और पश्चिम में मालदीव और तंज़ानिया शामिल हैं. इनमें पाकिस्तान का ग्वादर सबसे अहम है. दरअसल यहीं से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का आग़ाज़ होता है जो आगे चलकर चीन के शिनजियांग प्रांत के कश्गार तक जाता है. चीन ने बांग्लादेश और नेपाल जैसे भारत के पड़ोसी देशों में भारी-भरकम निवेश कर रखा है. हिंदुस्तानी सीमा में वो अक्सर घुसपैठी वारदातों को अंजाम देता रहता है. ऐसे में भारत आसानी से अपनी दहलीज़ तक ड्रैगन की मौजूदगी का एहसास कर सकता है. भारत आर्थिक और सैन्य रूप से चीन से बेहतर हालत में नहीं है. बहरहाल मौजूदा वैश्विक माहौल भारत को अंतरराष्ट्रीय दायरे में अगुवा भूमिका निभाने का अवसर दे रहा है.
दुनिया में अपना दबदबा क़ायम करने के लिए चीन के पास भारी-भरकम रणनीति मौजूद है. हिंद महासागर की अहमियत का एहसास उसे भारत से पहले हो गया था.
भारत अपने पड़ोसियों के लिए अपनी प्रासंगिकता बरक़रार रखते हुए चीन से निपट सकता है. इसके लिए चार अहम क़दम उठाने ज़रूरी हैं. पहला, भारत को चीन का तौर-तरीक़ा समझना होगा. ख़ासतौर से दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में चीनी हरकतों की बारीक़ पड़ताल ज़रूरी है. भारत को अपने आस-पड़ोस में बहुध्रुवीय व्यवस्था और लोकतंत्र को बढ़ावा देना चाहिए. इस तरह से वो अपने पड़ोसियों के लिए ज़्यादा प्रासंगिक हो सकेगा.
दूसरा, भारत को अपने पड़ोसी देशों के लिए एक वैकल्पिक आर्थिक मॉडल खड़ा करना होगा. भले ही हम आर्थिक और सैन्य रूप से चीन के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते, लेकिन हम अपने पड़ोसियों के साथ व्यापार और निवेश के लिए अपने बाज़ारों को खोलकर उन्हें बेहद ज़रूरी ठिकाने मुहैया करा सकते हैं. पड़ोसी देश भारतीय प्रौद्योगिकी और ज्ञान शक्ति की मदद से आगे चलकर ख़ुद का भी विकास कर सकते हैं.
भारत को अपने पड़ोसी देशों के लिए एक वैकल्पिक आर्थिक मॉडल खड़ा करना होगा. भले ही हम आर्थिक और सैन्य रूप से चीन के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते, लेकिन हम अपने पड़ोसियों के साथ व्यापार और निवेश के लिए अपने बाज़ारों को खोलकर उन्हें बेहद ज़रूरी ठिकाने मुहैया करा सकते हैं.
तीसरे, भारत को ‘विकास के लिए कूटनीति’ अपनानी होगी. नीचे दिए गए क्षेत्रों में इस क़वायद को अंजाम दिया जा सकता है:
- बुनियादी ढांचे से जुड़ी कूटनीति: मेज़बान मुल्क में टिकाऊ बुनियादी ढांचे से जुड़े निवेश से वहां भारत अपने गुणवत्तापूर्ण निवेश का प्रदर्शन कर सकता है. इससे पड़ोसी देशों की जनता या सरकार को दरकिनार किए बिना वहां के आम जनमानस का भरोसा जीतने में मदद मिलेगी. इस सिलसिले में अंतरराष्ट्रीय सौर गठजोड़ और भौतिक संपर्कों (connectivity) पर विचार किया जा सकता है.
- सार्वजनिक वस्तुओं से जुड़ी कूटनीति: प्राकृतिक आपदाओं और संकट के समय आपदा राहत और पुनर्वास से जुड़ी सहायता एक आदर्श उपाय है. इस तरह भारत इन देशों को एकतरफ़ा मदद और पुनर्वास से जुड़ी सहायता पहुंचा सकता है. इससे संकट के दौरान तकलीफ़ें कम करने के साथ-साथ राहत, बचाव और पुनर्वास से जुड़ी क़वायद को अंजाम दिया जा सकेगा. इस सिलसिले में भारत की पड़ोसी प्रथम नीति पर ज़ोर देने के लिए मौजदा वक़्त से कहीं ज़्यादा प्रभावी संसाधन इस्तेमाल में लाने होंगे.
- खाद्य और ईंधन कूटनीति: भारत फ़िलहाल आर्थिक संकट में घिरे श्रीलंका की मदद कर रहा है. पड़ोसी देशों के लिए खाद्य और ईंधन कूटनीति का इस्तेमाल वक़्त की मांग है. आर्थिक संकट से गुज़र रहे मुल्कों का वजूद बरक़रार रखने और उनके गुज़र-बसर के लिए ये सबसे ज़रूरी मदद साबित हो सकती है.
- स्वास्थ्य सहायता से जुड़ी कूटनीति: ये भी मदद का एक बेहतरीन उपाय है. स्वास्थ्य सहायता कूटनीति के ज़रिए वैक्सीन और ज़रूरी मेडिकल आपूर्ति मुहैया कराई जा सकती है. इसके साथ ही पड़ोसी देशों के लिए भारत अपने यहां सस्ते इलाज की सुविधा वाली यात्राओं को भी बढ़ावा दे सकता है.
- शैक्षणिक सहायता से जुड़ी कूटनीति: पड़ोसी देशों के छात्रों के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की साझेदारी के ज़रिए और ज़्यादा वज़ीफ़े मुहैया कराए जा सकते हैं. इससे इन छात्रों को भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिला करवाने में मदद मिल सकेगी. इसके अलावा शैक्षणिक और पेशेवर डिग्रियों को पारस्परिक रूप से मान्यता दिए जाने से सांस्कृतिक कूटनीति स्थापित करने में भी मदद मिलेगी.
चौथे, भारत को रूस और ईरान की तरह व्यापारिक आदान-प्रदान के लिए दक्षिण एशियाई साझा करेंसी की व्यवस्था शुरू करनी चाहिए. भले ही पाकिस्तान के साथ तनाव भरे हालात बने हुए हैं लेकिन भारत को इस दिशा में क़दम उठाने चाहिए. वैसे भी दक्षिण एशिया के ज़्यादातर देशों की मुद्रा भारतीय रुपए से मिलती-जुलती है.
प्रधानमंत्री मोदी ने शांग्री-ला संवाद में कहा था- “अगर भारत और चीन एक-दूसरे के हितों के प्रति संवेदनशील रहते हुए आपसी भरोसे और आत्मविश्वास के साथ मिलकर काम करेंगे तो एशिया और संसार का भविष्य और बेहतर हो सकेगा.”
तमाम मुश्किलों और झटकों के बावजूद भारत-चीन के रिश्ते आगे बढ़ रहे हैं. दोनों ही देशों ने आपसी रिश्ते सुधारने और उनमें नई जान फूंकने के लिए कई क़दम उठाए हैं. दोनों पक्षों ने वार्ताओं से और सक्रिय रूप से जुड़ने की इच्छा दिखाई है. प्रधानमंत्री मोदी ने शांग्री-ला संवाद में कहा था- “अगर भारत और चीन एक-दूसरे के हितों के प्रति संवेदनशील रहते हुए आपसी भरोसे और आत्मविश्वास के साथ मिलकर काम करेंगे तो एशिया और संसार का भविष्य और बेहतर हो सकेगा.” हालांकि इसके लिए भारत को नया तौर-तरीक़ा अपनाना होगा ताकि वो अपने आस-पड़ोस में अपनी प्रासंगिकता बरक़रार रखते हुए भारत-चीन रिश्तों में नए युग का आग़ाज़ कर सके.
अपनी आज़ादी के 75 वर्ष पूरे कर चुका भारत कुछ अर्से बाद जी20 की अध्यक्षता करने जा रहा है. दुनिया में उभरती ताक़त के तौर पर भारत के लिए इन घटनाओं की बड़ी अहमियत रहने वाली है. भारत को इस मौक़े का लाभ उठाते हुए, ख़ासतौर से चीन के संदर्भ में, ख़ुद को एक समझदार ताक़त के तौर पर पेश करना चाहिए. वक़्त आ गया है जब राष्ट्रीय और वैश्विक हितों को पूरा करने के लिए भारत को अपनी भौतिक और सांस्कृतिक- दोनों शक्तियों का भरपूर इस्तेमाल करना होगा.
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