रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (R&AW) के बारे में पश्चिमी देशों की मीडिया कवरेज इस संगठन और मोदी सरकार के ख़िलाफ़ पूरी तरह से दुष्प्रचार में बदल गई है. दूसरे मीडिया संगठनों के साथ द गार्जियन और द वॉशिंगटन पोस्ट की हालिया रिपोर्ट ने दोस्ताना संबंध वाले देशों में जासूसी और आक्रामक आतंकवाद विरोधी कदमों के लिए एजेंसी की आलोचना की है जबकि इन दोनों तरीकों का पश्चिमी देशों की खुफिया एजेंसियों ने ऐतिहासिक रूप से इस्तेमाल किया है. इसके अलावा एजेंसी पर विदेशों में असंतुष्टों को निशाना बनाने के आरोप भी लगे हैं. मानक प्रथा (स्टैंडर्ड प्रैक्टिस) का पालन करते हुए R&AW ने इन आरोपों और गलत जानकारी का जवाब देने से परहेज़ किया है. विदेशी खुफिया अभियानों के संवेदनशील स्वरूप को देखते हुए संकट के समय सार्वजनिक बयानबाज़ी से परहेज करना समझ में आता है. हालांकि गोपनीयता के साथ एजेंसी के अनियमित संबंध ने संभवत: इस तरह के नकारात्मक दुष्प्रचार को पनपने के लिए अच्छी बुनियाद मुहैया कराई है. इसलिए मौजूदा समय में अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के द्वारा बदनामी गोपनीयता की हदों और एक जनसंपर्क (PR) तंत्र स्थापित करने के संबंध में चर्चा को ज़रूर आगे बढ़ाए.
गोपनीयता, अनाम स्रोत और नकारात्मक प्रचार
द गार्जियन और द वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट को पढ़ने से जो मुख्य एजेंडा उभरता है वो ये है कि दुनिया भर में रहने वाले असंतुष्टों को निशाना बनाने और उन्हें परेशान करने के लिए मोदी सरकार के हथियार के रूप में R&AW को दोषी ठहराना है. ऐसा करते हुए एजेंसी को सऊदी, ईरानी, चीनी और रूसी खुफिया सेवाओं के साथ जोड़ दिया गया है जिनका विदेशी धरती पर सरकार के विरोधियों को निशाना बनाने का ट्रैक रिकॉर्ड रहा है. किसी विश्वसनीय सबूत की कमी के बावजूद मीडिया रिपोर्ट R&AW के भीतर अनाम स्रोतों के द्वारा की गई टिप्पणी पर आधारित होती है. मिसाल के तौर पर, द गार्जियन ने एक अधिकारी के हवाले से कहा कि R&AW ने मोसाद, KGB और सऊदी के द्वारा जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या से प्रेरणा ली थी. द वॉशिंगटन पोस्ट का लेख भी किसी एक घटना का ज़िक्र करने की तुलना में R&AW के द्वारा असंतुष्टों को निशाना बनाने के दावों का समर्थन करने के लिए अनाम भारतीय और अमेरिकी अधिकारियों पर निर्भर करता है.
द गार्जियन और द वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट को पढ़ने से जो मुख्य एजेंडा उभरता है वो ये है कि दुनिया भर में रहने वाले असंतुष्टों को निशाना बनाने और उन्हें परेशान करने के लिए मोदी सरकार के हथियार के रूप में R&AW को दोषी ठहराना है.
अनाम R&AW के स्रोतों के द्वारा मीडिया में इस तरह की मनगढ़ंत ख़बरों को फैलाने की मिसाल रही है और ये 80 के दशक की है. 1980-1985 के बीच मीडिया में इस तरह की ख़बरें आने लगीं जिसमें पूर्वोत्तर और पंजाब में उग्रवाद खड़ा करने और उसको प्रायोजित करने के लिए R&AW पर आरोप लगाए गए. इन ख़बरों ने वैध मानवीय खुफिया कर्मियों को कानून तोड़ने के लिए उकसाने वाले में बदल दिया था जो एजेंसी के साथ साज़िश रचकर सीमावर्ती राज्यों में हिंसा फैलाना चाहते थे. मीडिया के साथ बातचीत का कोई इतिहास नहीं होने की वजह से एजेंसी आधिकारिक तौर पर इस तरह के दुष्प्रचार का मुकाबला करने के लिए शायद ही कुछ कर सकती थी. R&AW के तत्कालीन सचिव ए. के. वर्मा को इस तरह के नैरेटिव को ठीक करने के लिए मीडिया से संपर्क रखने वाले अपने कुछ अधिकारियों पर भरोसा करना पड़ा था. सनसनी के माहौल में बहुत कम सफलता मिल सकी जबकि संगठन के भीतर नाराज़ तत्वों से गलत जानकारी को बाहर जाने से रोकने से दूसरी प्रमुख खुफिया गतिविधियों पर ख़राब असर पड़ रहा था. एजेंसी के अमले के एक बड़े हिस्से का इस्तेमाल नाराज़ तत्वों पर निगरानी रखने में करना पड़ा. इसके साथ-साथ गुट बनाने पर पाबंदी ने 1985 तक इस समस्या पर काबू पाने में मदद की.
अपने संस्थापक आर. एन. काव, जिन्होंने कभी भी मीडिया को इंटरव्यू नहीं दिया और जिनके बारे में कहा जाता है कि “फोटो खिंचवाने से नफरत” करते थे, के नक्शे-कदम पर चलते हुए एजेंसी ने अपने सबसे मज़बूत गुण के रूप में गोपनीयता को अपनाया था.
1980-85 के संकट से जल्दी निपटने में R&AW की नाकामी के लिए गोपनीयता को लेकर एजेंसी का झुकाव काफी हद तक ज़िम्मेदार था. अपने संस्थापक आर. एन. काव, जिन्होंने कभी भी मीडिया को इंटरव्यू नहीं दिया और जिनके बारे में कहा जाता है कि “फोटो खिंचवाने से नफरत” करते थे, के नक्शे-कदम पर चलते हुए एजेंसी ने अपने सबसे मज़बूत गुण के रूप में गोपनीयता को अपनाया था. यहां तक कि जब उस पर आपातकाल लागू करने का गलत आरोप लगाया गया तब भी इंदिरा गांधी के विरोधियों के द्वारा फैलाए गए नैरेटिव को चुनौती देने के लिए कोई कोशिश नहीं की गई थी. निर्णायक सबूत की कमी के बावजूद आपातकाल में R&AW की भागीदारी की धारणा अभी भी बनी हुई है. लोगों के बीच नकारात्मक धारणा के अलावा मोरारजी सरकार के तहत एजेंसी को गंभीर सफाई (पर्ज) का सामना करना पड़ा. फिर भी गोपनीयता की शपथ ने किसी भी तरह से खुफिया तंत्र और मीडिया के बीच संबंध को उभरने से रोक दिया. इसका असर ये था कि भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा की दिशा में एजेंसी का योगदान लोगों से छिपा रहा जबकि गलत प्रचार ने लोगों के बीच उसकी छवि, काम-काज की क्षमता और मानव संसाधनों को ख़राब ढंग से प्रभावित किया.
आज एक बार फिर R&AW असंतुष्टों को निशाना बनाने के आरोपों को लेकर ख़बरों में है. 80 के दशक की तरह गोपनीयता ने एजेंसी की तरफ से जवाबी नैरेटिव उभरने से रोक दिया है लेकिन एजेंसी के भीतर नाराज़ तत्वों से गलत जानकारी को रोकना एक लगातार चुनौती बनी हुई है. इसलिए भारत की खुफिया नौकरशाही के लिए गोपनीयता और खुलेपन के साथ अपने संबंधों पर फिर से विचार करने के लिए स्थितियां अनुकूल हैं.
जनसंपर्क के लिए आवश्यकता: दुनिया भर के सबक
भारतीय खुफिया एजेंसियों के लिए जनसंपर्क का तंत्र स्थापित करने का विचार पूरी तरह से नया नहीं है. 80 के संकट के बाद R&AW ने PR का पद स्थापित करने पर विचार किया लेकिन संभावित अधिकारी की भूमिका और ज़िम्मेदारियों को लेकर स्पष्टता की कमी के कारण इसे छोड़ दिया गया. 2012 में मौजूदा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) अजित डोभाल ने सलाह दी कि “खुफिया एजेंसियों को जन सहयोग के तौर-तरीकों पर विचार शुरू कर देना चाहिए जिसमें समय गुज़रने के साथ एक मीडिया एवं जनसंपर्क की कवायद भी शामिल हो सकती है. जिस तरह से भारतीय लोकतंत्र विकसित हो रहा है, उसमें मीडिया को जानकारी देना और उसके साथ काम-काजी संपर्क रखना राष्ट्रीय हित में होगा. ये जानकारी और विश्वसनीय सूचना की कमी के कारण मीडिया को असमंजस में रखने की स्थिति की तुलना में बेहतर होगा. इसको अमल में लाने से पहले सोच-समझकर एक्शन प्लान तैयार करने में 2-3 साल लग सकते हैं.” इसलिए R&AW के लिए चुनौतीपूर्ण सवाल जनसंपर्क का तंत्र विकसित करना नहीं बल्कि इसे हासिल करने का तौर-तरीका है. जिस समय R&AW अपना तंत्र बनाने की कोशिश करेगी, पश्चिमी देशों के लोकतंत्र के अनुभव से कीमती सबक मिल सकता है.
R&AW पहला और सबसे महत्वपूर्ण सबक इज़रायल के जिस अनुभव से सीख सकती है, वो है किसी संकट के समय एजेंसी की टिप्पणी करना असंभव होना क्योंकि विदेश में अपने कीमती लोगों (एसेट) और अभियान की रक्षा करना सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी. इसलिए किसी संकट के समय इज़रायल में खुफिया एजेंसी और मीडिया के बीच संबंध में ‘चुप्पी’ रहती है और शांति के समय उपलब्धियों और ख़तरे की धारणा को लेकर ख़बरें ‘लीक’ की जाती हैं. इसके नतीजतन इज़रायली इंटेलिजेंस एजेंसियों की नाकामी का सबको पता रहता है लेकिन नैरेटिव में ज़्यादा-से-ज़्यादा दबदबा उसके साहस और आक्रामक रवैये का रहता है. इसके अलावा 60 के दशक के दौरान मिस्र के मिसाइल कार्यक्रम पर काम करने वाले जर्मन वैज्ञानिकों से लेकर मौजूदा समय में छद्म आतंक (टेरर प्रॉक्सी) को ईरान के द्वारा प्रायोजित करने के ख़तरे तक की ख़बरें खुफिया सूत्रों के समर्थन से मीडिया में नियमित रूप से आती रहती हैं. इसका असर ये है कि कई सामरिक और खुफिया गलतियों के बावजूद इज़रायल की एजेंसी मोसाद काफी हद तक उसी रूप में जानी जाती है, जिस रूप में वो चाहती है.
R&AW दूसरा सबक ब्रिटिश अनुभव से सीख सकती है. ये सबक है लोगों तक पहुंचने और खुफिया सीख के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता. ब्रिटिश इंटेलिजेंस सर्विस सोशल मीडिया पर मौजूद है. इससे लोगों को राष्ट्रीय सुरक्षा की प्राथमिकताओं एवं नीतियों के बारे में जानकारी देने, साज़िश की थ्योरी को ख़त्म करने और इंटेलिजेंस सर्विस के पक्ष में ख्याति बनाने का उद्देश्य पूरा होता है.
R&AW दूसरा सबक ब्रिटिश अनुभव से सीख सकती है. ये सबक है लोगों तक पहुंचने और खुफिया सीख के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता. ब्रिटिश इंटेलिजेंस सर्विस सोशल मीडिया पर मौजूद है. इससे लोगों को राष्ट्रीय सुरक्षा की प्राथमिकताओं एवं नीतियों के बारे में जानकारी देने, साज़िश की थ्योरी को ख़त्म करने और इंटेलिजेंस सर्विस के पक्ष में ख्याति बनाने का उद्देश्य पूरा होता है. हाल के समय में ब्रिटिश मिलिट्री इंटेलिजेंस X (पहले ट्विटर) पर रूस-यूक्रेन युद्ध के बारे में जानकारी साझा कर सक्रिय रही है. ये सभी उपाय लोगों के भरोसे को बढ़ाने और भर्ती करने के लिए भी किए जाते हैं. संगठन से जुड़ी इन पहलों के अलावा ब्रिटिश इंटेलिजेंस के लिए एक और फायदा ये है कि उसके पास ब्रिटिश खुफिया इतिहास, संगठन और अभियानों के अलग-अलग पहलुओं पर काम करने वाले स्कॉलर्स की एक बड़ी और बढ़ती संख्या उपलब्ध है. लोगों के लिए जारी (डिक्लासीफाइड) सरकारी दस्तावेज़ों तक पहुंच और इंटेलिजेंस के काम से जुड़े लोगों से बातचीत के सहारे से ये स्कॉलर ब्रिटिश इंटेलिजेंस के बारे में लोगों की सोच को सही करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. मिसाल के तौर पर, जेम्स बॉन्ड के संबंध में MI6 को लेकर ब्रिटेन के लोगों की ग़लत धारणा को सच्चाई से संतुलित करने के लिए नियमित रूप से विश्व स्तरीय इंटेलिजेंस स्कॉलर के कम-से-कम एक दस्ते से विरोध का सामना करना पड़ता है.
R&AW तीसरा सबक अमेरिका से सीख सकती है. 1975 में CIA के घरेलू जासूसी अभियान का खुलासा हो गया. इसकी वजह से लोगों के बीच उसकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा. इसको दुरुस्त करने के लिए CIA ने 1977 में ऑफिस ऑफ पब्लिक अफेयर्स बनाया. इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि CIA ने अपने समर्थन में बातों को बढ़ावा देने के लिए पूर्व खुफिया अधिकारियों के संघ (AFIO) और हॉलीवुड का सहारा लिया. पूर्व खुफिया अधिकारियों ने जहां सफल अभियानों का दावा करने वाले संस्मरण लिखे वहीं हॉलीवुड ने द रिक्रूट और ज़ीरो डार्क थर्टी जैसी लोकप्रिय फिल्में बनाई. PR तंत्र की वजह से ज़्यादा पारदर्शिता नहीं आने को लेकर आलोचनाओं के बावजूद ये व्यापक तौर पर स्वीकार किया जाता है कि “CIA के द्वारा अपने इतिहास को नियंत्रित रखने में ये बहुत ज़्यादा असरदार” रहा है.
PR के साथ भारत का अनुभव और आगे का रास्ता
PR को लेकर भारतीय खुफिया तंत्र को कुछ सफलता मिली है, भले ही इसकी तैयारी नहीं की गई थी. अतीत में साउथ एशिया एनालिसिस ग्रुप नाम की एक वेबसाइट ने भारतीय इंटेलिजेंस को लेकर काफी जानकारी मुहैया कराई. इसने वैश्विक सुरक्षा घटनाक्रम को लेकर भारतीय इंटेलिजेंस का दृष्टिकोण भी प्रदान किया. ये वेबसाइट अमेरिका की CIA के द्वारा पूर्व खुफिया अधिकारियों के संघ के इस्तेमाल की तर्ज पर R&AW की प्रतिष्ठा बनाने के सबसे करीब थी. वेबसाइट चलाने वाले पूर्व अतिरिक्त सचिव एस. चंद्रशेखरन के निधन के बाद ये पहल ख़त्म हो गई. आज R&AW को इस तरह के प्लैटफॉर्म की आवश्यकता है लेकिन रिटायर्ड सरकारी अधिकारियों के द्वारा अपने प्रोफेशनल अनुभव को लेकर लिखने के बारे में कड़े कानूनों की वजह से ये फायदा पूरी तरह से दुश्मन को दे दिया गया है.
जैसे-जैसे भारत का अंतर्राष्ट्रीय कद बढ़ रहा है, वैसे-वैसे उसकी खुफिया एजेंसियां अधिक छानबीन के दायरे में आएंगी. ऐसे माहौल में R&AW को ये तय करने की ज़रूरत होगी कि वो किस तरह अपनी पहचान बनाना चाहती है.
अकादमिक जगत के भीतर भारतीय इंटेलिजेंस पर काम करने वाले बहुत कम अच्छे स्कॉलर हैं. इसकी वजह से पश्चिमी देशों के पत्रकार काफी हद तक पश्चिमी देशों के स्कॉलर पर निर्भर रहे हैं जो विश्लेषण के लिए भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के अप्रासंगिक पहलुओं पर काम करते हैं. ऐसी बातचीत ने नैरेटिव को ठीक करने का काम नहीं किया है. इसलिए आगे आने वाले समय में R&AW को एक PR तंत्र की ज़रूरत होगी जिसे शांति के समय में मीडिया से जुड़ाव, अकादमिक तालमेल और लोकप्रिय संस्कृति की भागीदारी का समर्थन हो. जैसे-जैसे भारत का अंतर्राष्ट्रीय कद बढ़ रहा है, वैसे-वैसे उसकी खुफिया एजेंसियां अधिक छानबीन के दायरे में आएंगी. ऐसे माहौल में R&AW को ये तय करने की ज़रूरत होगी कि वो किस तरह अपनी पहचान बनाना चाहती है.
धीरज परमेशा चाया यूनाइटेड किंगडम की हल यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ क्रिमिनोलॉजी में इंटेलिजेंस और सिक्युरिटी के लेक्चरर हैं.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.