Author : Aleksei Zakharov

Published on Dec 17, 2021 Updated 0 Hours ago

राजनीतिक संपर्क हमेशा ही एजेंडे में सबसे ऊपर होते हैं, इसे देखते हुए यह विचार करना भी उतना ही महत्वपूर्ण लगता है कि दोनों देशों के लोगों को कैसे जोड़ा जाए.

India-Russia Relations: क्या पुतिन की यात्रा भारत-रूस संबंधों की दिक्क़तों को दूर करेगी?

India-Russia Relations: ‘अपने विशेष रूप से विशेषाधिकार-संपन्न (specially privileged) रणनीतिक साझेदार, भारत के साथ रूस समान विदेश नीति (India-Russia Relations) का फ़लसफ़ा और प्राथमिकताएं रखता है. हम अपने सच्चे बहुमुखी द्विपक्षीय सहयोग को बढ़ाने का इरादा रखते हैं. हम भारत का बहुध्रुवीय दुनिया के एक स्वतंत्र, मज़बूत केंद्र के बतौर सम्मान करते हैं.’ Russian Foreign Ministry Collegium की विस्तारित बैठक में राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन (President Vladimir Putin) की टिप्पणी का यह हिस्सा भारतीय कानों के लिए संगीत जैसा था. इसमें शायद चेतावनी का एकमात्र स्वर इससे पहले उनके द्वारा चीन के साथ रिश्तों ज़िक्र था जो ‘अब तक के इतिहास में सर्वोच्च स्तर पर थे’ और अब ‘21वीं सदी में प्रभावशाली अंतर-राज्य सहयोग के लिए एक मॉडल’ हैं.

यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि भारत की तरफ़ इस तरह का ध्यान, रूस की विदेश नीति की प्राथमिकताओं की सूची में उसके विशिष्ट महत्व की वजह से है. 

कोरोना वायरस महामारी (Coronavirus Pandemic) के दौरान विदेश जाने को लेकर बहुत सतर्क होने के बावजूद, राष्ट्रपति पुतिन ने जनवरी 2020 के बाद स्टैंड-अलोन विदेश यात्रा (ऐसी यात्रा जहां एक से ज्यादा देश के नुमाइंदे मौजूद न हों) के लिए अपनी पहली मंज़िल के बतौर भारत को चुना. इतना ही नहीं, 6 दिसंबर की जिस तारीख़ को रूसी राष्ट्रपति का दिल्ली आगमन हुआ, वह रूस-भारत संबंधों के लिए एक तरह का ‘सुपर मन्डे’ जैसा रहा. पूरे दिन कई तरह की उच्च-स्तरीय बातचीत का लंबा सिलसिला चला. इसमें पुतिन-मोदी (Vladimir Putin-Prime Minister Narendra Modi) की बातचीत के अलावा, रक्षा और विदेश मंत्रियों का पहला ‘2+2 डायलॉग’ और अंतर-सरकारी आयोग की अलग से बैठक शामिल हैं.

अच्छे रिश्तों का वक्त आ चुका है

यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि भारत की तरफ़ इस तरह का ध्यान, रूस की विदेश नीति की प्राथमिकताओं की सूची में उसके विशिष्ट (exclusive) महत्व की वजह से है. हालांकि, इस दीर्घ-प्रतीक्षित शिखर वार्ता को लेकर माहौल बनाने वाले प्रतीकों और शोर-तमाशों से इतर, पुतिन के आख़िरकार भारत आने के कुछ बिल्कुल ठोस व्यावहारिक कारण हैं.

अफ़ग़ानिस्तान में बिगड़ते हालात, ख़ासकर तालिबान के काबुल पर क़ब्ज़े, ने भारत और रूस को साथ आने पर मजबूर किया. और फिर, सर्वोच्च स्तर पर हुई फोन बातचीत ने अफ़ग़ान संकट को लेकर गहन संवाद का रास्ता तैयार किया.

इनमें से एक है, भारत को जमीन से हवा में मार करने वाली एस-400 मिसाइल (S-400 Missile Defence System) प्रणाली की आपूर्ति, जो दिखाता है कि देनों देशों के बीच महज़ एक उन्नत सैन्य सहयोग से कहीं बढ़कर कुछ है. भारत को यह प्रणाली देकर पुतिन एक तीर से दो शिकार कर सकते हैं. वह अमेरिका को और साथ ही अपने मतदाताओं को यह दिखा सकते हैं कि कैसे रूस कामयाबी के साथ प्रतिबंधों से कतरा कर निकल गया है और, बाहरी दबाव को तवज्जो न देते हुए, अपने मुख्य सहयोगियों के साथ रिश्तों को पटरी पर रखने में सफल हुआ है. जबकि एस-400 की डिलीवरी अभी हाल ही में शुरू हुई है, मॉस्को भारत को इन प्रणालियों की अगली पीढ़ी की पेशकश करने के लिए तैयार है. रूसी सशस्त्र बलों में इन्हें शामिल किये जाने के तुरंत बाद ऐसा किया जा सकता है.

दूसरा, रक्षा और ऊर्जा क्षेत्र में दूसरे कई सारे सौदे लंबे समय से लटके हुए थे और आगे बढ़ने के लिए जिन्हें मोदी-पुतिन की मुलाक़ात का इंतज़ार था.

तीसरा, पुतिन फिर से भारत यात्रा को रद्द नहीं कर सकते थे, क्योंकि रूस को लेकर कमज़ोर पड़ते भारतीय जनमत ने रिश्ते को प्रभावित करना शुरू कर दिया था. पिछले साल शिखर बैठक का न होना एक मुश्किल फ़ैसला साबित हुआ, जिसके साथ विवादों की एक पूरी लड़ी सामने आयी. इसमें हिंद-प्रशांत और भारत-अमेरिका संबंधों को लेकर रूसी विदेश मंत्री की असंवेदनशील टिप्पणियां, अफ़ग़ानिस्तान के मुद्दे पर ‘विस्तारित त्रोइका’ की बातचीत से बाहर रखे जाने पर नयी दिल्ली का असंतोष और लावरोव की पाकिस्तान यात्रा शामिल हैं.

भले ही रूसी विदेश मंत्रालय ने अफ़ग़ानिस्तान से दरपेश फ़ौरी सुरक्षा खत़रे के रूप में सबसे आगे इस्लामिक स्टेट को रखा है, लेकिन तालिबान की जिहादी विचारधारा ने भी रूसी शहरों में अपने प्रशंसकों को आकर्षित किया है, जिसके चलते टेररिस्ट सेल्स सामने आ रहे हैं. 

2020 का आख़िर और 2021 का पूर्वार्ध भारत-रूस संबंध के लिए शायद सबसे अच्छा समय नहीं था. लेकिन, यह साबित हुआ कि कठिनाइयां जोड़ती हैं. अप्रैल महीने में पुतिन-मोदी की फोन पर बातचीत वह मोड़ थी जहां से द्विपक्षीय संपर्कों ने उछाल पकड़ी. कोविड-19 की नयी लहर को देखते हुए भारत को रूसी चिकित्सकीय मदद और स्पुतनिक वी (Sputnik V) की आपूर्ति ने सहयोग को आगे बढ़ाने के लिए एक सकारात्मक पृष्ठभूमि तैयार की. जुलाई में भारतीय विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर की मॉस्को यात्रा के दौरान बातचीत के स्वर ने इशारा किया कि आपसी विरोध अब शांत हो चुका है. अफ़ग़ानिस्तान में बिगड़ते हालात, ख़ासकर तालिबान के काबुल पर क़ब्ज़े, ने भारत और रूस को साथ आने पर मजबूर किया. और फिर, सर्वोच्च स्तर पर हुई फोन बातचीत ने अफ़ग़ान संकट को लेकर गहन संवाद का रास्ता तैयार किया.

अफ़ग़ानिस्तान मसले को लेकर बदलते समीकरण

बीते दशक में, मॉस्को ने इस क्षेत्र को पश्चिम, ख़ासकर अमेरिका, के साथ अपने टकराव के चश्मे से देखा है. जब वाशिंगटन के साथ रिश्ते में खटास आयी, तो अमेरिकी सेना की अफ़ग़ानिस्तान में मौजूदगी रूस के लिए कांटा बनकर सामने आयी. निश्चित रूप से क्षेत्र से अमेरिका का बाहर निकलना मॉस्को की मनोकामना थी, क्योंकि सुरक्षा प्रतिष्ठान लगातार रूसी सीमाओं को पश्चिमी और दक्षिणी दोनों तरफ़ से वाशिंगटन द्वारा घिरा हुआ महसूस कर रहे थे.

यह विडंबना ही है कि, अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी मध्य एशियाई गणराज्यों और वहां से बढ़ते हुए रूस तक के लिए नया सुरक्षा ख़तरा पेश कर रही है. रूस इस बात के लिए बाध्य हो गया है कि वह Collective Security Treaty Organisation (CSTO) के एक अंग के रूप में किये गये अपने वादों पर कुछ करके दिखाए. और, इन राज्यों के जरिये अफ़ग़ान प्रवासियों की आवक और आतंकवाद के संभावित निर्यात से अपनी सरज़मीन की सुरक्षा करे. इससे बढ़कर यह कि, तालिबान ने जिस दृढ़ता से सत्ता दख़ल की है, वह रूसी ज़मीन समेत पूरे क्षेत्र में मौजूद कट्टरपंथी समूहों के लिए प्रेरणा का स्रोत हो गया है. भले ही रूसी विदेश मंत्रालय ने अफ़ग़ानिस्तान से दरपेश फ़ौरी सुरक्षा खत़रे के रूप में सबसे आगे इस्लामिक स्टेट को रखा है, लेकिन तालिबान की जिहादी विचारधारा ने भी रूसी शहरों में अपने प्रशंसकों को आकर्षित किया है, जिसके चलते टेररिस्ट सेल्स सामने आ रहे हैं. इसने मॉस्को को दुविधा में डाल रखा है. एक तरफ़ वह तालिबान सरकार को वैश्विक स्तर पर वैधता दिलाने के कूटनीतिक प्रयास करता है, तो दूसरी तरफ़ रूसी सरज़मीन पर उसकी विचारधारा पर बैन जारी रखा हुआ है (तालिबान अब भी रूस में गैरक़ानूनी संगठन है).

इस क्षेत्र में रूस की भू-आर्थिक (geoeconomic) महत्वाकांक्षाओं की अक्सर उपेक्षा की जाती है. इस बीच, जब तालिबान रूस की नज़रों में सौदे करने की अपनी क्षमता साबित कर रहा है, तो मॉस्को ने अफ़ग़ानिस्तान में वाणिज्यिक परियोजनाओं में साझेदारी के लिए उत्साह दिखाना शुरू कर दिया है. ख़ास करके, रूसी रेलवे कंपनी RZD ने काबुल होते हुए मज़ारे-शरीफ से पेशावर के लिए ट्रांस-अफ़ग़ान रेलवे को ज़मीन पर उतारने के लिए उज्बेकिस्तान की रेलवे कंपनियों से बात तेज़ कर दी है. पाकिस्तानी व उज्बेक वरिष्ठ अधिकारियों और तालिबान कैबिनेट के नुमाइंदों के बीच हुई हालिया बातचीत में सभी पक्षों ने इस परियोजना को लागू करना जारी रखने पर सहमति जतायी. इससे इस प्रोजेक्ट को नया बल मिला है.

यह सब अफ़ग़ानिस्तान पर रूस और भारत के बीच बातचीत को कहां ले जाता है? कागज़ पर, ऐसा लग सकता है कि बहुचर्चित ‘चीन-पाकिस्तान-रूस धुरी’ हक़ीक़त बनेगी, क्योंकि तालिबान से अपनी क़रीबी संपर्कों द्वारा निर्देशित होकर तीनों पक्ष अफ़ग़ान मामलों पर राज कर सकते हैं. लेकिन वास्तविकता में, तालिबान के सत्ता दख़ल को लेकर मॉस्को का उत्साह जल्द ही ज्यादा व्यावहारिक दृष्टिकोण में बदल गया. तालिबान के शासन के प्रति अमूमन सहयोगी रुख रखने और हालात को स्थिर करने में उनकी कोशिशों को श्रेय देने के बावजूद, रूसी अधिकारियों ने सभी जातीय-राजनीतिक समूहों को नयी सरकार में शामिल करने पर जोर देना और आतंकवादी ख़तरे के नियंत्रण से बाहर चले जाने के बारे में चिंताओं को ज़ाहिर करना जारी रखा हुआ है.

रूस ने सब कुछ बीजिंग-इस्लामाबाद के सहारे नहीं छोड़ रखा है और वह विभिन्न स्वरूपों में अफ़ग़ान संकट को लेकर अपनी चर्चाओं में पूरी एहतियात बरत रहा है. 

अपनी कूटनीतिक गतिविधियों में, रूस ने सब कुछ बीजिंग-इस्लामाबाद के सहारे नहीं छोड़ रखा है और वह विभिन्न स्वरूपों में अफ़ग़ान संकट को लेकर अपनी चर्चाओं में पूरी एहतियात बरत रहा है. आश्चर्यजनक रूप से, भारत ही अकेला देश है, जिसके साथ अफ़ग़ानिस्तान को लेकर उच्च-स्तरीय सलाह-मशविरे के लिए एक विशेष प्रणाली स्थापित की गयी- यह याद दिलाता है संयुक्त कार्य समूह की, जो 2000 के दशक के शुरुआती दिनों में मौजूद हुआ करता था. भारत इस लिहाज़ से भी अकेला देश है जिसकी यात्रा रूसी सुरक्षा परिषद (Russian Security Council) के सचिव निकोलाय पात्रुशेव ने बहुत कम समय में दो बार की.

तालिबान के काबुल पर क़ब्ज़े से पहले, रूस इस क्षेत्र में चीन की मौजूदगी से काफ़ी संतुष्ट था. लेकिन अब चीज़ें अलग ढंग से सामने आ सकती हैं. अमेरिका फिलहाल क्षेत्र से हट गया है और चीन अपनी सैन्य मौजूदगी बढ़ा रहा है. एक तरह से वह रूस के प्रभाव के दायरे का अतिक्रमण कर रहा है. ऐसे में मॉस्को और नयी दिल्ली क्षेत्र में एक नये अधिपति (hegemon) को खुली छूट देने से रोकने के लिए ज्यादा मिलता-जुलता दृष्टिकोण साझा कर सकते हैं.

भरोसेमंद वादे और आकांक्षाओं का नया आसमान

अफ़ग़ान संकट के समाधान की दिशा में दृष्टिकोण में कुछ बारीकी भरे बदलावों के अलावा, रूस ने अपनी हिंद महासागर नीति को एक नया मोड़ दिया है और यह वो क्षेत्र है जहां भारत को केंद्रीय साझेदार होना ही है. मॉस्को कई सारे नौसैनिक अभ्यासों के संचालन और सूडान में लॉजिस्टक्स सपोर्ट फैसिलिटी (सैन्य साजो-सामान से जुड़ी मदद के लिए सुविधा) की स्थापना के ज़रिये हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) में अपनी मौजूदगी बढ़ाने की कोशिश कर रहा है. भारत के साथ Reciprocal Exchange of Logistics Agreement (RELOS) पर दस्तख़त का लंबे समय से इंतज़ार मोदी-पुतिन की मुलाक़ात में ख़त्म हुआ. यह समझौता भी IOR में रूस की मौजूदगी बढ़ाने में मददगार हो सकता है. कूटनीतिक स्तर पर Indian Ocean Rim Association (IORA) में बातचीत होने की गुंजाइश है, क्योंकि रूस को डायलॉग पार्टनर का दर्जा दिया गया है. ग़ौरतलब है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में समुद्री सुरक्षा (maritime security) पर हुई संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की उच्च-स्तरीय बहस के दौरान रूसी राष्ट्रपति ने IORA और Indian Ocean Commission (IOC) के साथ ‘उत्पादक सहयोग के निर्माण’ में दिलचस्पी को रेखांकित किया. स्वाभाविक तौर पर, भारत और रूस ने इस पटरी पर अपनी बातचीत की संभावनाओं को अभी तक पूरी तरह नहीं खोला है. मॉस्को और नयी दिल्ली के पास अपने राजनीतिक संबंधों को बनाये रखने के पर्याप्त कारण हैं, लेकिन उनकी द्विपक्षीय वार्ता के दूसरे दायरे भी तवज्जो मांगते हैं- अफगानिस्तान में बनी हुई तरल स्थिति और वाशिंगटन-बीजिंग सुलह वार्ता इसके केवल दो उदाहरण भर हैं. सबसे बड़ा सवाल यह है क्या सचमुच कोई बड़ा बदलाव है, या जैसा कि रूस में भारत के पूर्व राजदूत डीबी वेंकटेश वर्मा कहते हैं, भारत-रूस संबंधों में ‘एक खामोश क्रांति’.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में समुद्री सुरक्षा पर हुई संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की उच्च-स्तरीय बहस के दौरान रूसी राष्ट्रपति ने IORA और Indian Ocean Commission (IOC) के साथ ‘उत्पादक सहयोग के निर्माण’ में दिलचस्पी को रेखांकित किया.

कुछ बड़े सौदों, मुख्यत: रक्षा क्षेत्र में, पर भरोसा करते हुए, दोनों राज्य बीते दो सालों में हुई प्रगति से संतुष्ट नज़र आते हैं. लेकिन यह पूरा सहयोग जानी-पहचानी परस्पर-निर्भरता पर चल रहा है, इसकी अंतर्निहित प्रकृति में बदलाव नहीं आ रहा: यह अब भी दो राज्यों की मित्रता है, दो देशों की नहीं, क्योंकि कारोबारी और सिविल सोसाइटी दरकिनार हैं. राजनीतिक संपर्क हमेशा ही एजेंडे में सबसे ऊपर होते हैं, इसे देखते हुए यह विचार करना भी उतना ही महत्वपूर्ण लगता है कि दोनों देशों के लोगों को कैसे जोड़ा जाए. संयुक्त बयानों में कुछ सुंदर-सुंदर शब्दों को छोड़ दें तो, अभी तक इस मुद्दे को लेकर कोई सुदृढ़ कोशिश नहीं है.

क्रेमलिन का नयी दिल्ली के क़रीब आना एक आशाजनक संकेत है, इसके बावजूद रिश्ते को पुरानी बीमारी से पूरी तरह ठीक होने में मदद के लिए रूस की भारत नीति को लंबे चलने वाले इलाज की ज़रूरत होगी.

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