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भारत-रूस संबंधों को “विक्रेता-ख़रीदार” रिश्तों के रूप से हटकर एक अधिक रणनीतिक बुनियाद पर एक आदर्श बदलाव की आवश्यकता है.
2010 से भारत-रूस के बीच ख़ास और विशेषाधिकार प्राप्त रणनीतिक साझेदारी मज़बूत इतिहास की ठोस बुनियाद पर विकसित हुई है और ये राजनीतिक ज़रूरत के माध्यमों से बनी हुई है. रूस ने शंघाई सहयोग संगठन (SCO) में भारत की सदस्यता का समर्थन किया और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार और इसमें भारत को शामिल करने की अपील की. इस तरह रूस ने व्यापक रूप से अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्षेत्र में भारत की बढ़ती भूमिका को स्वीकार किया.
रूस की विदेश नीति में क्षमता और इच्छा के बीच जटिल परस्पर क्रिया (इंटरप्ले) दो साल पहले, 24 फरवरी की घटनाओं यानी रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध की शुरुआत के कुछ समय बाद, साफ तौर पर ध्यान देने योग्य हो गई थी.
पिछले दशक में रूस की ‘टर्न टू दी ईस्ट’ नीति ने यूरोपियन यूनियन (EU) के साथ आर्थिक जुड़ाव को संतुलित करने के लिए एशिया के देशों के साथ अपने आर्थिक संबंधों को नया आकार देने की उसकी इच्छा का संकेत दिया है. लेकिन इस बदलाव की गति और गुंजाइश बहुत कुछ पश्चिमी देशों के साथ आर्थिक संबंधों को बनाए रखने की क्षमता से निर्धारित थी जो हर पक्ष के लिए सुविधाजनक होगी. रूस की विदेश नीति में क्षमता और इच्छा के बीच जटिल परस्पर क्रिया (इंटरप्ले) दो साल पहले, 24 फरवरी की घटनाओं यानी रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध की शुरुआत के कुछ समय बाद, साफ तौर पर ध्यान देने योग्य हो गई थी. यूक्रेन में संघर्ष, जो एक निर्णायक बिंदु के तौर पर काम कर रहा है, ने रूस के राजनीतिक कुलीन वर्ग (एलिट्स) को विविधता लाने और भारत की तरफ अपनी नज़र घुमाने के लिए प्रेरित किया.
अतीत में भारत और रूस- दोनों देश राजनीतिक घनिष्ठता को ठोस आर्थिक सहयोग में बदलने के मामले में सुस्त थे और द्विपक्षीय व्यापार ठंडा था. सैन्य और ऊर्जा के क्षेत्रों में पारंपरिक सहयोग के अलावा रूस और भारत के बीच कारोबार निष्क्रिय था और दोनों देश एक-दूसरे की तरफ निर्णायक कदम उठाने के मामले में काफी झिझक रखते थे. इन दिनों वाणिज्यिक संबंधों में पक्के विश्वास के लिए अच्छी स्थिति के बावजूद राजनीतिक और आर्थिक अनिश्चितताओं के बीच हर जगह व्याप्त आशंका की वजह से बहुप्रतीक्षित रणनीतिक परियोजनाओं के ठहराव के रूप में नतीजा निकला है जैसे कि इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (INSTC) और भारत एवं यूरेशियन इकोनॉमिक यूनियन (EAEU) के बीच फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (FTA). ये हालात कुशलता से आगे बढ़ने की गुंजाइश को काफी हद तक कम करते हैं.
मौजूदा दशक में जो घटनाक्रम हुए हैं, उनकी वजह से उन आवाज़ों में तेज़ी आई है जिन्होंने आत्मनिर्भरता और आयात की जगह लेने की वकालत की है. कोविड-19 महामारी ने सप्लाई चेन में रुकावट पैदा की है, ख़ास तौर पर उन इलेक्ट्रॉनिक सामानों के उत्पादन में जिनकी मांग अधिक है. इस तरह संरक्षणवादी भावनाओं को बढ़ावा मिला है. इसके फौरन बाद पश्चिमी देशों के साथ रूस के संबंधों में तनाव के साथ यूक्रेन में संघर्ष का नतीजा ऊर्जा की कीमत में कम समय के लिए लेकिन बहुत ज़्यादा उछाल के रूप में निकला. इसके अलावा उर्वरक की कीमत ने भी कृषि उत्पादों, ख़ास तौर पर मक्का, जौ, गेहूं और सूरजमुखी तेल, के वैश्विक बाज़ार को प्रभावित किया है.
इसके साथ-साथ सामने आ रही घटनाएं भारत-रूस आर्थिक संबंधों के सामर्थ्य के लिए एक लिटमस टेस्ट बन गईं. 2019 में दोनों देशों ने द्विपक्षीय व्यापार का स्तर 10 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़ाकर 2025 के अंत तक 30 अरब अमेरिकी डॉलर करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किया. हालांकि वित्तीय वर्ष 2022-23 में ही द्विपक्षीय व्यापार ने इस लक्ष्य को पार कर लिया और कुल व्यापार 49 अरब अमेरिकी डॉलर पर पहुंच गया. इसका कारण छूट वाली दर पर रूसी तेल के आयात में छह गुना बढ़ोतरी थी. द्विपक्षीय व्यापार में तेल का योगदान 62.8 प्रतिशत था और भारत के कुल तेल आयात में रूसी तेल का हिस्सा 19.2 प्रतिशत था. अभी तक के आंकड़ों से पता चलता है कि ये हिस्सा आने वाले वर्ष में पार हो जाएगा. अप्रैल से दिसंबर 2023 के बीच भारत ने 34.4 अरब अमेरिकी डॉलर का रूसी तेल ख़रीदा जो कि कुल कच्चे तेल के आयात का लगभग 34 प्रतिशत है. द्विपक्षीय व्यापार में मज़बूत प्रदर्शन प्रतिकूल परिस्थितियों और आर्थिक प्रतिबंधों (सेकेंडरी सैंक्शन) से निपटने में असाधारण रूप से ढलने पर ज़ोर देता है क्योंकि व्यापार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अंतरराष्ट्रीय समुद्री व्यापार के ‘शैडो फ्लीट’ (नियमों को तोड़कर गुप्त रूप से सप्लाई करने वाले तेल के टैंकर) और ‘ग्रे ज़ोन’ (ऐसी परिस्थिति जहां ये साफ नहीं है कि कोई चीज़ कानूनी है या गैर-कानूनी, स्वीकार्य है या अस्वीकार्य) के ज़रिए किया जाता है. इसके साथ-साथ तीसरे पक्षों जैसे कि सिंगापुर, संयुक्त अरब अमीरात और तुर्किए के ज़रिए भी. रूसी तेल को प्राप्त करने के लिए भारत के बंदरगाह सिक्का और वदिनार सबसे बड़े केंद्र बन गए हैं.
भारत-रूस आर्थिक संबंधों के सामर्थ्य के लिए एक लिटमस टेस्ट बन गईं. 2019 में दोनों देशों ने द्विपक्षीय व्यापार का स्तर 10 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़ाकर 2025 के अंत तक 30 अरब अमेरिकी डॉलर करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किया.
वर्तमान स्थिति दोनों पक्षों के लिए फायदेमंद लग रही है, दोनों पक्षों को भरोसे की भावना प्रदान करती है. अपनी ऊर्जा सुरक्षा को मज़बूत करने की भारत की आवश्यकता सर्वोपरि है. इसका कारण ये है कि कच्चे तेल की कीमत में महज़ 1 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल की बढ़ोतरी से चालू खाते का घाटा लगभग 2 अरब अमेरिकी डॉलर बढ़ सकता है. इसके अलावा भारत को तेल के रिफाइनिंग सेक्टर और यूरोप के बाज़ारों में पेट्रोलियम उत्पादों के निर्यात से काफी लाभ हासिल होता है.
नीदरलैंड्स को भारत के द्वारा डीज़ल के निर्यात की मात्रा में कई गुना बढ़ोतरी हुई है और ये 12.5 अरब अमेरिकी डॉलर पर पहुंच गया है जबकि तुर्किए को निर्यात में 54 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है और ये 3 अरब डॉलर के पार चला गया है. इसी तरह फ्रांस को भारत के निर्यात में डीज़ल और केरोसिन दो प्रमुख श्रेणियां हैं जिसकी रकम 1.2 अरब अमेरिकी डॉलर है. पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने पिछले दिनों कहा था, “रूसी तेल ख़रीदने के लिए दुनिया भारत का एहसान मानती है.” उनका ये बयान इस पूरे मामले को साफ तौर पर दिखाता है.
हालांकि ये शांति भ्रामक हो सकती है क्योंकि मौजूदा परिस्थिति द्विपक्षीय व्यापार को बाहरी कारकों यानी बाज़ार में उतार-चढ़ाव और राजनीतिक रूप से प्रेरित फैसलों को लेकर अतिसंवेदनशील बनाती है. इसका नतीजा अक्सर अधिक जटिल लॉजिस्टिक और कंज़्यूमर प्रोडक्ट्स के लिए अधिक कीमत के रूप में निकलता है. तकनीकी संकीर्णता की तरफ अमेरिका के धीरे-धीरे लेकिन साफ झुकाव के बीच भारत की कंपनियां रूस के साथ सहयोग को लेकर सावधानी बरत रही हैं. इसके अलावा रूस से आयात में बढ़ोतरी के साथ-साथ भारतीय निर्यात में बढ़ोतरी नहीं हुई. द्विपक्षीय व्यापार में असंतुलन व्यापार घाटे की स्थायी समस्या में केवल बढ़ोतरी करता है.
पहला रेखाचित्र ऊर्जा संसाधनों को छोड़कर रूस से आयात की जाने वाली 10 प्रमुख श्रेणियों के बारे में बताता है. आंकड़ों से पता चलता है कि वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान फर्टिलाइज़र, सूरजमुखी तेल और हीरे के आयात में बढ़ोतरी की वजह से 6 अरब अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा का आयात हुआ. दिलचस्प बात ये है कि मुख्य श्रेणियों में ध्यान देने योग्य मज़बूती के साथ आयात किए जाने वाले सामानों की संपूर्ण संरचना में बदलाव नहीं आया है. इसका एक कारण मेटलर्जिकल प्रोडक्ट्स के आयात में उल्लेखनीय गिरावट है. G7 के द्वारा पिछले दिनों रूस के हीरे के परोक्ष आयात पर 1 मार्च से प्रतिबंध लगाने का फैसला द्विपक्षीय व्यापार के स्तर को झटका दे सकता है क्योंकि रूस को भारतीय हीरा उद्योग के लिए कच्चे माल का एक प्रमुख स्रोत माना जाता है. चूंकि भारत वैश्विक हीरा बाज़ार में 35 प्रतिशत तक का योगदान करता है, ऐसे में G7 के इस फैसले के नतीजतन हीरे के अनरेगुलेटेड (अनियमित) व्यापार में बढ़ोतरी हो सकती है और फिर मिड-टर्म में उपभोक्ताओं के लिए हीरे के दाम में बढ़ोतरी हो सकती है.
आंकड़ा 1: रूस से भारत के प्रमुख आयात
स्रोत: भारत के व्यापार एवं वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों के आधार पर लेखक की गणना
(https://commerce.gov.in/trade-statistics/ )
जैसा कि दूसरे रेखाचित्र में देखा जा सकता है, रूस को किया जाने वाला निर्यात अधिक विविध (डायवर्सिफाइड) है हालांकि उनकी कीमत कम है और कुल निर्यात लगभग 3.1 अरब अमेरिकी डॉलर था. चाय, दवाई, एडिबल प्रिपरेशन (इंस्टेंट कॉफी, आइसक्रीम, आदि) और संभवत: ऑर्गेनिक केमिकल के निर्यात में इस साल उम्मीद के मुताबिक गिरावट के बावजूद मशीन-बिल्डिंग और मेटलर्जिकल सेक्टर के उत्पादन में एक निश्चित बढ़ोतरी हुई है.
रेखाचित्र 2- रूस को भारत के प्रमुख निर्यात
स्रोत: भारत के व्यापार एवं वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों के आधार पर लेखक की गणना
(https://commerce.gov.in/trade-statistics/ )
ये दावा अदूरदर्शिता है कि द्विपक्षीय व्यापार की मुख्य समस्या सिर्फ ऊर्जा आयात से पैदा होती है. भारत के निर्यात की मात्रा दिखाती है कि उसने अभी तक रूस के बाज़ार में अपनी गुंजाइश की तलाश नहीं की है. इस मुश्किल हालात में कई फैक्टर योगदान करते हैं. सबसे पहले लॉजिस्टिक है- INSTC व्यापार कॉरिडोर व्यवहार की तुलना में सिद्धांत में ज़्यादा काम करता है. दूसरा, भारतीय कंपनियों पर पाबंदी लगने का ख़तरा है. तीसरा, रूबल-रुपया भुगतान की प्रणाली ठीक तरह से काम नहीं कर रही है. कहा जाता है कि कुछ व्यापार संयुक्त अरब अमीरात के दिरहम, चीन के युआन और सिंगापुर के डॉलर के ज़रिए किया जा रहा है लेकिन ये देश पश्चिमी देशों के दबाव से मुक्त नहीं हैं.
इन बातों को ध्यान में रखते हुए इस बात की संभावना नहीं है कि आर्थिक पाबंदी के रहते हुए द्विपक्षीय कानूनी व्यापार में असंतुलन को दूर किया जा सके. निश्चित रूप से संबंधों में “विक्रेता-ख़रीदार” के ढांचे से एक अधिक रणनीतिक बुनियाद की तरफ मूलभूत बदलाव की ज़रूरत है.
ऐसा लगता है कि रणनीतिक सहयोग की मूल बातों पर अलग-अलग देशों का अलग-अलग नज़रिया है. अगर रूस को लेकर कई मामलों में आर्थिक संबंध के लिए राजनीतिक फैक्टर बुनियाद और प्रोत्साहन बन गए तो वहीं भारत उन देशों के साथ राजनीतिक संबंधों को मज़बूत करने को प्राथमिकता देता है जो व्यापार के ज़रिए नज़दीकी तौर पर जुड़े हैं. दोनों पक्षों के द्वारा उठाए गए संरक्षणवादी उपायों से प्रेरित साथ मिलकर काम करने की कमी को द्विपक्षीय आर्थिक संबंधों की एक मुख्य समस्या के तौर पर स्वीकार किया जा सकता है. व्यापार के मामले में एक-दूसरे पर निर्भरता बढ़ाने के लिए किसी को इतना साहसी होने की ज़रूरत है कि वो कुछ दे सके. राजनीतिक परिदृश्य में बढ़ रही ख़राबी के लिए अधिक विश्वसनीय आश्वासनों की आवश्यकता होगी. आज के संदर्भ में गारंटी के तौर पर क्या काम कर सकता है?
कुछ व्यापार संयुक्त अरब अमीरात के दिरहम, चीन के युआन और सिंगापुर के डॉलर के ज़रिए किया जा रहा है लेकिन ये देश पश्चिमी देशों के दबाव से मुक्त नहीं हैं.
भारत और रूस के बीच व्यापार संबंधों में सुधार उस बुनियाद को बनाकर और मज़बूत करके हासिल किया जा सकता है जिस पर वो टिके हुए हैं. पहला, दोनों देशों को निवेश में सहयोग का विस्तार करने की ज़रूरत है. ऊर्जा सेक्टर से आगे किसी तीसरे देश समेत मेटलर्जी, मैकेनिकल इंजीनियरिंग और फार्मास्युटिकल्स के क्षेत्र में ज्वाइंट वेंचर तैयार करना भरोसा बढ़ाने वाला है. दूसरा, रूस और भारत- दोनों देशों में इस दिशा में बढ़ी हुई दिलचस्पी के बीच एक और महत्वपूर्ण रास्ता बायोटेक्नोलॉजी, कृषि, तेल एवं गैस उत्पादन के साथ-साथ उच्च तकनीक, अंतरिक्ष, IT सेक्टर और फंडामेंटल साइंस के क्षेत्र में वैज्ञानिक, तकनीकी और शैक्षणिक सहयोग हो सकता है. मौजूदा चुनौतियों का समाधान करने के लिए दोनों देशों के राजनीतिक और कारोबारी अभिजात वर्ग को 10-15 वर्षों की अवधि में “विकास के बिंदुओं” और सहयोग के भरोसेमंद क्षेत्रों की पहचान करने की ज़रूरत है. इस तरह के संवाद के विकास के लिए तकनीक और शिक्षा के क्षेत्रों में द्विपक्षीय सहयोग और निवेश की व्यवस्था का निर्माण ज़रूरी है. इस बात की संभावना है कि एक साझा रूसी-भारतीय इनोवेशन फंड की स्थापना द्विपक्षीय सामरिक संबंधों को बढ़ावा देगी और साथ ही द्विपक्षीय व्यापार में भुगतान से जुड़ी चुनौतियों को आंशिक तौर पर कम करेगी.
इवान शेदरोव ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में विज़िटिंग फेलो हैं.
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Ivan Shchedrov is presently a Visiting Fellow at Observer Research Foundation, New Delhi. He is also a research fellow at the Center of Indo-Pacific Region ...
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