Author : Vikrom Mathur

Expert Speak India Matters
Published on Mar 08, 2024 Updated 2 Days ago

जिस प्रकार से शिक्षित, प्रशिक्षित और अनुभवी कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है, उससे साफ ज़ाहिर होता है कि स्वच्छ ऊर्जा की दिशा में भारत के टिकाऊ परिवर्तन की संभावनाएं बहुत प्रबल हैं.

भारत के स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन के लिए बेहद अहम् है सशक्त महिला शक्ति!

ये लेख अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सीरीज़ का हिस्सा है.  


 भारत द्वारा अपनी ओर से महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं और इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए आर्थिक भागीदारी में लैंगिक असमानता एक बड़ा अवरोध है, जिसे दूर करने के लिए, यानी महिलाओं को आर्थिक तौर पर समृद्ध बनाने के लिए व्यापक स्तर पर तेज़ी के साथ क़दम उठाने की आवश्यकता है. ज़ाहिर है कि अगर ग्रीन इकोनॉमी यानी हरित अर्थव्यवस्था की दिशा में एक समानता वाले और न्यायोचित परिवर्तन को साकार करना है, तो जलवायु कार्रवाई में, ख़ास तौर पर स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन में महिलाओं को एक प्रमुख हितधारकों के रूप में स्थापित करना होगा. इस संदर्भ में इस साल के अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की थीम, अर्थात 'महिलाओं में निवेश: विकास में तेज़ी' न केवल प्रासंगिक है, बल्कि आज के समय के मुताबिक़ भी है.

 देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभावों का सामना अक्सर महिलाओं को अधिक करना पड़ता है, क्योंकि वे परिवार की देखभाल, खाने-पीने और ऊर्जा जैसी ज़िम्मेदारियों को उठाती हैं. 

जलवायु परिवर्तन कोई ऐसी समस्या नहीं है, जो महिलाओं या पुरुषों से जुड़ी हुई हो. लेकिन यह एक सच्चाई है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से ग़रीब और विकासशील देशों की महिलाओं एवं लड़कियों समेत, वहां हाशिए पर पड़े समूहों के लोग, यानी कमज़ोर और बेसहारा लोग विशेष रूप से प्रभावित होते हैं. अनुमान जताया गया है कि अगले 25 वर्षों में जलवायु परिवर्तन 158 मिलियन से अधिक और महिलाओं एवं लड़कियों को ग़रीबी के दुष्चक्र में धकेल देगा. देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभावों का सामना अक्सर महिलाओं को अधिक करना पड़ता है, क्योंकि वे परिवार की देखभाल, खाने-पीने और ऊर्जा जैसी ज़िम्मेदारियों को उठाती हैं. ज़ाहिर है कि वर्तमान में जो सामाजिक और सांस्कृति मापदंड हैं, उनमें इस तरह की ज़िम्मेदारियां महिलाओं के ऊपर ही होती हैं. 

 

निसंदेह तौर पर अगर महिलाओं के विकास में निवेश किया जाता है और लैंगिक अंतर को कम किया जाता है, तो इसका आर्थिक प्रगति पर सीधा प्रभाव पड़ेगा. भारत की कुल जीडीपी में महिला कार्यबल का योगदान महज 18 प्रतिशत ही है. अगर शिक्षित, प्रशिक्षित और अनुभवी वर्क फोर्स में महिलाओं की भागीदारी बढ़ती है, तो ज़ाहिर तौर पर देश की विकास दर बढ़ाने में यह बेहद लाभदायक सिद्ध हो सकता है.

 

चाहे किसी सेक्टर पर नज़र डालें, तो साफ तौर दिखाई देता है कि कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों की अपेक्षा काफ़ी कम है. उदाहरण के तौर पर रूफटॉप सोलर सेक्टर को देखें, तो भारत में इस सेक्टर में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सिर्फ़ 11 प्रतिशत हैं, जो कि वैश्विक औसत 32 प्रतिशत से बेहद कम है. देखा जाए तो अक्सर महिलाओं को उन्हीं सेवाओं या नौकरियों में प्राथमिकता के तौर पर नियुक्त किया जाता है, जिन्हें महिलाओं के लिए उपयुक्त मान लिया गया है, जैसे कि प्रशासनिक और सहायता सेवाओं में. इसकी तुलना में तकनीक़ी सेवाओं में महिलाओं को उपयुक्त नहीं समझा जाता है और इसीलिए तकनीक़ी पदों पर पुरुषों का दबदबा बना हुआ है. भारत में महिलाओं की स्नातक करने की दर बहुत उच्च है, बावज़ूद इसके सिस्टम में कई प्रकार के अवरोध हैं, जो कि लड़कियों को साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और गणित (STEM) के क्षेत्रों में करियर बनाने से रोकने या कहा जाए कि उन्हें हतोत्साहित करने का काम करते हैं.

 भारत में महिलाओं की स्नातक करने की दर बहुत उच्च है, बावज़ूद इसके सिस्टम में कई प्रकार के अवरोध हैं, जो कि लड़कियों को साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और गणित (STEM) के क्षेत्रों में करियर बनाने से रोकने या कहा जाए कि उन्हें हतोत्साहित करने का काम करते हैं.

भारत एक ऐसा देश है, जहां दुनिया के किसी भी देश की तुलना में साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और गणित में ग्रेजुएशन करने वाली लड़कियों की संख्या सबसे अधिक और इस संख्या में साल-दर-साल इज़ाफा हो रहा है. जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान तलाशने में भारत की यह मानव पूंजी, यानी STEM स्नातक महिलाएं क्रांतिकारी सिद्ध हो सकती हैं. यद्यपि एक सच्चाई यह भी है कि जो भी लड़कियां STEM में अपना करियर चुनती हैं, उन्हें अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में बहुत कम वेतन मिलता है. इसके अलावा ये महिलाएं या तो समय के साथ-साथ धीरे-धीरे वर्क फोर्स से बाहर हो जाती हैं या कोई अन्य करियर चुन लेती हैं. ज़ाहिर है कि टेक स्नातक महिलाओं के साथ यह दोयम दर्ज़े का व्यवहार एक गंभीर चिंता का मुद्दा है और कहीं न कहीं भारत के जलवायु लक्ष्यों पर भी इसका असर पड़ता है.

 

आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी के हालांकि तामम फायदे हैं, इसके बावज़ूद उनकी राह में कई क़ानूनी, संरचनात्मक और सांस्कृतिक रुकावटें हैं, जिन पर गंभीरता के साथ विचार-विमर्श किए जाने की ज़रूरत है. इस आर्टिकल में महिलाओं की तरक़्क़ी की राह में आने वाली ऐसी ही कुछ प्रणालीगत बाधाओं पर चर्चा की गई है, जिन पर तत्काल प्रभाव से ध्यान देने की आवश्यकता है.

 

जेंडर-स्मार्ट जलवायु वित्तपोषण की कमी

 

COP27 को दौरान जेंडर-स्मार्ट जलवायु वित्तपोषण पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया गया थी, यानी ऐसे क्षेत्रों में निवेश की बात कही गई, जो महिलाओं को उद्यमियों, सामुदायिक नेताओं, परिवार की मुखिया और उपभोक्ताओं के रूप में सशक्त बनाने का काम करते हैं. महिलाओं पर केंद्रित इस प्रकार के निवेश स्पष्ट रूप से इस बात को स्वीकार करते हैं कि जलवायु कार्रवाई में महिलाओं की भूमिका बेहद अहम होती है. ख़ास तौर पर जिन क्षेत्रों में महिलाएं नेतृत्वकारी भूमिका में होती है, फिर चाहे वो बिजनेस हो, समुदाय हो या फिर परिवार, वहां ये महिलाएं जलवायु अनुकूल तंत्र का निर्माण करने को लेकर बेहद संवेदनशील होती हैं. इतना ही नहीं जिन कंपनियों की बागडोर महिलाओं के हाथ में है, उनके व्यवसायिक गतिविधियों में जलवायु के लिहाज़ से संवेदनशील और टिकाऊ तरीक़ों को अपनाने एवं कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए प्रभावी क़दम उठाने की संभावना ज़्यादा होती है. महिला नेतृत्व और जलवायु नवाचार के बीच यह प्रगाढ़ संबंध बेहद महत्वपूर्ण है.

 

जलवायु परिवर्तन में महिलाओं की सकारात्मक भूमिका को लेकर इतने प्रमाणों के बावज़ूद, जेंडर-स्मार्ट जलवायु वित्तपोषण पर ध्यान केंद्रित करने वाले प्रयासों की संख्या बहुत ही कम है. सच्चाई यह है कि जलवायु कार्रवाई में लिंग के मुद्दे को न तो प्रमुखता ही दी जाती है और न ही विचार-विमर्श के दौरान पर इस पर गंभीरता से चर्चा की जाती है. कहने का मतलब है यह है कि लिंग से जुड़े इस अहम मुद्दे को बहुत हल्के में लिया जाता है. इतना ही नहीं ऐसे व्यवसाय जिनकी कमान महिलाओं के हाथ में होती है, उन्हें पुरुषों की अगुवाई वाले व्यवसायों की तुलना में पर्याप्त फंडिंग नहीं मिलती है. यहां तक कि कृषि जैसे क्षेत्रों में भी, जहां महिलाओं की बहुत सशक्त भूमिका है, वहां भी जब वित्तपोषण की बारी आती है, तो पुरुषों की तुलना में महिला किसान अक्सर पीछे छूट जाती हैं.

 कार्यस्थलों पर लैंगिक पूर्वाग्रहों को संबोधित करने के लिए मानव संसाधन नीतियां काफ़ी लचीली होनी चाहिए. महिला कर्मचारियों को लेकर पैरेंटल लीव, काम के घंटों में लचीलापन और लिंग-संवेदनशील रिपोर्टिंग तंत्र जैसी चीज़ें पहले से मौज़ूद हैं, लेकिन इनके साथ तमाम तरह के लैंगिक पूर्वाग्रह भी बने हुए हैं.

उल्लेखनीय है कि जलवायु परिवर्तन में लैंगिक समानता एक बड़ा मुद्दा है और इसे अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए. कहने का मतलब यह है कि लैंगिक समानता को लेकर किए जा रहे प्रयासों एवं जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के मुताबिक़ ढलने एवं इसके दुष्प्रभावों को खत्म करने की दिशा में किए जा रहे प्रयासों के बीच तालमेल स्थापित किया जाना चाहिए, यानी दोनों तरह की कोशिश को साथ-साथ करना चाहिए. इतना ही नहीं जलवायु निवेशों में भी यह स्पष्ट रूप से दिखाई देना चाहिए.

 

लैंगिक-समावेशन के लिए बहुत कम मानव संसाधन नीतियां

 

जिस प्रकार से जलवायु परिवर्तन से जुड़ी नीतियों और प्रक्रियाओं में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम दिखाई देती है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि जलवायु कार्रवाई से संबंधित योजना लैंगिक तौर पर संवेदनशील नहीं रही है, यानी इसमें महिलाओं के समुचित प्रतिनिधित्व पर ध्यान नहीं दिया गया है. जहां तक क्लीन एनर्जी सेक्टर यानी स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र की बात है, तो इसमें वरिष्ठ पदों पर और प्रबंधन से संबंधित पदों पर महिलाओं की संख्या बहुत कम है. ऊर्जा से संबंधित क्षेत्रों में सक्रिय कंपनियों का लेखा-जोखा रखने वाली अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) के मुताबिक़ प्रबंधन से जुड़े वरिष्ठ पदों पर महिलाओं की संख्या 14 प्रतिशत से भी कम है. ज़ाहिर है कि जब प्रबंधन से जुड़े वरिष्ठ पदों पर महिलाएं नहीं बैठी होंगी, तो इस बात की संभावना भी बहुत कम होगी कि कार्यस्थलों पर महिलाओं से जुड़ी परेशानियों और समस्याओं को दूर करने के लिए उचित एवं पर्याप्त उपाय किए जाएं. ऐसे में कंपनियों में प्रबंधन से जुड़े उच्च पदों पर महिला प्रतिनिधित्व बढ़ाने के अलावा, कार्यस्थल पर लैंगिक पूर्वाग्रहों को कम करने के लिए प्रभावी तरीक़े से दख़ल दिए जाने की ज़रूरत है, साथ ही महिलाओं के अनुकूल माहौल बनाए जाने की आवश्यकता है. इतना ही नहीं आर्थिक ताक़त के विभाजन में भी पारदर्शिता को प्रमुखता देना ज़रूरी है.

 

इसके अलावा, विशेष रूप से जलवायु से जुड़े सेक्टर में लैंगिक असमानता पर ध्यान देना बेहद अहम है. अर्थात इस क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों में मानव संसाधन नीतियां ऐसी होनी चाहिए, जो कार्यस्थल पर लैंगिक समानता पर ज़ोर देने वाली हों, यानी महिलाओं को कार्य करने के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करने वाली हों. कहने का तात्पर्य यह है कि कार्यस्थलों पर लैंगिक पूर्वाग्रहों को संबोधित करने के लिए मानव संसाधन नीतियां काफ़ी लचीली होनी चाहिए. महिला कर्मचारियों को लेकर पैरेंटल लीव, काम के घंटों में लचीलापन और लिंग-संवेदनशील रिपोर्टिंग तंत्र जैसी चीज़ें पहले से मौज़ूद हैं, लेकिन इनके साथ तमाम तरह के लैंगिक पूर्वाग्रह भी बने हुए हैं. ये लैंगिक पूर्वाग्रह ऐसे हैं, जो कार्यस्थल पर कुछ ज़िम्मेदारियों को निभाने को लेकर महिलाओं की क्षमताओं को कम आंकते हैं और उनके बारे में गलत धारणाओं को पैदा करते हैं.

 

परिवार से जुड़े महिलाओं के कामकाज को अहमियत नहीं देना  

 

क्लाइमेट एक्शन यानी जलवायु कार्रवाई के समक्ष अगर सबसे बड़ा कोई अवरोध है, तो वो महिलाओं की पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को लेकर सामाजिक मानदंड हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं रोज़ाना तकरीबन 14 घंटे अपने परिवार से जुड़े कामकाज में बिता देती हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि ग्रामीण महिलाओं के इस काम को न तो वास्तविक कार्य ही समझा जाता है और न ही इसके लिए उन्हें कोई मेहनताना या वेतन प्रदान किया जाता है. ज़ाहिर है कि महिलाओं के पास समय की कमी होती है और वे स्वच्छ ऊर्जा पहलों जैसे कि प्रशिक्षण और उद्यमिता गतिविधियों में हिस्सेदारी नहीं कर पाती हैं. टिकाऊ और स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन में ऊर्जा उपभोक्ताओं, उत्पादकों, उद्यमियों और निर्णय लेने वालों के रूप में महिलाओं की भूमिका अग्रणी और महत्वपूर्ण है.

 इस बात के पर्याप्त प्रमाण मौज़ूद हैं कि स्वच्छ ऊर्जा मूल्य श्रृंखला में महिलाओं की संलग्नता सुनिश्चित करना अहम है. वास्तविकता यह है कि स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन में महिलाओं की सहभागिता पर्याप्त नहीं है.

लैंगिक अंतर यानी महिला और पुरुषों को लेकर फैले पूर्वाग्रहों को संबोधित करने का तात्पर्य, संभावित रूप से परिवारिक देखभाल के मुद्दे पर लंबे समय से चले आ रहे सामाजिक मानदंडों में बदलवा लाना है. यानी कि समाज में फैली इस धारणा को बदलना है कि 'परिवार की देखभाल का काम सिर्फ़ महिलाओं का ही है.' इस धारणा में बदलाव लाकर ही इस लैंगिक अंतर को समाप्त किया जा सकता है और यह विश्वास दिलाया जा सकता है कि परिवार की देखभाल का काम महिलाओं की तरह पुरुषों का भी है.

 

इस बात के पर्याप्त प्रमाण मौज़ूद हैं कि स्वच्छ ऊर्जा मूल्य श्रृंखला में महिलाओं की संलग्नता सुनिश्चित करना अहम है. वास्तविकता यह है कि स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन में महिलाओं की सहभागिता पर्याप्त नहीं है. यानी महिलाओं की हिस्सेदारी को बढ़ाकर स्थाई ऊर्जा परिवर्तन सुनिश्चित किया जा सकता है. महिलाओं को न केवल घरेलू और सामुदायिक ऊर्जा ज़रूरतों की जानकारी होती है, बल्कि अनौपचारिक नेटवर्क के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी व्यापक पहुंच भी होती है. ज़ाहिर है कि जिस प्रकार से स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन के क्षेत्र में निवेश और नवाचार लगातार बढ़ रहे हैं, ऐसे में स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन में महिलाओं को भागीदारी सुनिश्चित करने का यह सुनहरा अवसर है. साथ ही लैंगिक अंतर को कम करने के लिए परिवार की देखभाल जैसे अवैतनिक कार्य के मुद्दे का समाधान तलाशने का भी यह उचित अवसर है.

 

कुल मिलाकर यह निष्कर्ष निकलता है कि स्वच्छ ऊर्जा की दिशा में भारत के टिकाऊ परिवर्तन के लिए कार्यबल में महिलाओं की व्यापक भागीदारी बेहद अहम है. ऐसे में भारत को लैंगिक असमानता से जुड़े उन प्रणालीगत अवरोधों यानी भेदभाव पैदा करने वाली नीतियों, प्रथाओं और प्रक्रियाओं को समाप्त करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए, जो टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित करने की दिशा में रोड़ा बने हुए हैं.


विक्रम माथुर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.

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