Published on Jun 16, 2022 Updated 0 Hours ago

भारत के साथ आर्थिक, रणनीतिक, रक्षा तथा सांस्कृतिक संबंधों को मज़बूत करने के लिए इज़राइल मौजूदा भूराजनीतिक स्थिति का फ़ायदा उठा सकता है.

भारत को एशिया की अग्रणी शक्ति के निर्माण में इज़राइल की भूमिका

मार्च में अपनी भारत यात्रा टालने के बाद, इज़राइली रक्षा मंत्री बेंजामिन गैंट्ज बीते सप्ताह दिल्ली आये. मौका था भारत और इज़राइल के राजनयिक संबंधों के तीन दशक पूरे होने पर एक ‘सुरक्षा घोषणा’ पर दस्तख़त करने का. यह यात्रा ऐसे समय में हुई जब इज़राइल का सत्तारूढ़ गठबंधन केसेट (संसद) में अपना बहुमत खोने के बाद लगातार अस्थिरता झेल रहा है और जब इज़राइली नागरिकों के ख़िलाफ़ आतंकी हमलों में तेज़ उछाल देखने को मिल रहा है. यह येरूशलम द्वारा भारत के साथ आर्थिक और रणनीतिक संबंधों को दिये जाने वाले महत्व को दिखाता है.

दोनों देशों के बीच रक्षा संबंध आर्थिक, रणनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में मौजूदा समृद्ध संबंधों की बुनियाद का निर्माण करते हैं. भारत के संदेह (जो दो उत्तर-औपनिवेशिक स्वतंत्र देशों के शुरुआती दशकों की विशेषता थी) के बावजूद और इस तथ्य के बावजूद कि पड़ोसी अरब राष्ट्रों के साथ इज़राइल के युद्ध के दौरान नयी दिल्ली उसके प्रतिद्वंद्वियों को मदद भेज रही थी, इज़राइल की रणनीति राजनयिक रूप से डोरे डालने और भारत का लायक सहयोगी बनने की विश्वसनीयता साबित करने के लिए अपनी उन्नत सैन्य क्षमताओं का इस्तेमाल करने पर केंद्रित थी. 1992 में पूर्ण राजनयिक संबंधों की स्थापना एक आरंभिक मील का पत्थर थी, लेकिन भारतीय संदेह से छुटकारा मिलने में कई साल लगे.

यह यात्रा ऐसे समय में हुई जब इज़राइल का सत्तारूढ़ गठबंधन केसेट (संसद) में अपना बहुमत खोने के बाद लगातार अस्थिरता झेल रहा है और जब इज़राइली नागरिकों के ख़िलाफ़ आतंकी हमलों में तेज़ उछाल देखने को मिल रहा है. यह येरूशलम द्वारा भारत के साथ आर्थिक और रणनीतिक संबंधों को दिये जाने वाले महत्व को दिखाता है.

बिल्कुल शुरुआत से भारत सरकार ने इज़राइल के साथ सैन्य सहयोग को गुपचुप रखा था, लेकिन भारत के लिए इस सहयोग में मौजूद ज़बरदस्त संभावनाओं को देखते हुए, इसका सार्वजनिक रूप से सामने आना महज़ वक़्त की बात थी. पूर्व रक्षा मंत्री शरद पवार ने फरवरी 1992 में उल्लेख किया कि येरूशलम के साथ संबंधों के सामान्य होने से आतंकवाद-निरोध के क्षेत्र में इज़राइल के विश्व-विख्यात अनुभव से सीखते हुए एक समुचित बुनियादी ढांचे का निर्माण संभव हो पाया, और इसके साथ ही उन्होंने अनुसंधान एवं विकास (आरएंडडी) में दिल्ली की मुख्य दिलचस्पी को बयां किया. पूर्ण राजनयिक रिश्ता स्थापित होने के कुछ महीनों बाद, दोनों देशों ने सैन्य संबंधों को मज़बूत बनाने के लिए एक बड़ी छलांग लगायी. इज़राइल के रक्षा कर्मियों का एक विशेष प्रतिनिधिमंडल अपने भारतीय समकक्षों से मिलने आया. इन वार्ताओं के ब्योरे गुप्त रखे गये, लेकिन इस यात्रा ने दोनों पक्षों के साझा रास्ते पर चलने के इरादे को साफ़ कर दिया.

कारगिल युद्ध में जीत दिलाने का विशेष श्रेय

1990 के दशक के उत्तरार्ध ने इज़राइल को भारत के प्रति अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के कई मौक़े मुहैया कराये. 1998 में किये गये पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद भारत-अमेरिका संबंधों में गिरावट के दौरान, अमेरिका ने इज़राइल पर दबाव डालकर भारत को उन्नत इलेक्ट्रॉनिक प्रणालियों की बिक्री रुकवाने की कोशिश की. अमेरिका के साथ अपनी मज़बूत साझेदारी के बावजूद, इज़राइल ने वाशिंगटन के अनुरोध को ठुकरा दिया और भारत के अमेरिकी प्रतिबंधों से गुज़रने के दौरान नयी दिल्ली का समर्थन किया. प्रतिबंधों के चलते अंतरराष्ट्रीय दायरे में संघर्षरत भारत के लिए, 1999 में कारगिल युद्ध (जो भारत का टीवी पर प्रसारित पहला युद्ध था) में मिली जीत, बहुपरतीय (मल्टी-लेयर्ड) महत्व रखती थी. रक्षा विशेषज्ञों का तर्क है कि अगर इज़राइल द्वारा भारत को वक़्त पर लेजर-गाइडेड मिसाइलें नहीं दी गयी होतीं, तो ‘ऑपरेशन विजय’ शायद कामयाब नहीं हुआ होता. 

तब से लेकर, तकनीक हस्तांतरण और लाइसेंस प्राप्त उत्पादन भारत और इज़राइल के बीच रणनीतिक रक्षा गठबंधन को परिभाषित करने वाले मूलभूत आयाम बन गये हैं. मोदी-भाजपा युग के दौरान संबंधों में मज़बूती के साथ रक्षा सहयोग और ख़रीद के दायरे में वृद्धि हुई. 2014 के बाद से, रूस और फ्रांस के साथ-साथ इज़राइल भी भारत के रक्षा बाजार का एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बन गया है. सिप्री (SIPRI) की रिपोर्ट के मुताबिक़, 2015 और 2019 के बीच, इज़राइल के साथ भारत का हथियारों का आयात 175 फ़ीसद बढ़ गया.

1998 में किये गये पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद भारत-अमेरिका संबंधों में गिरावट के दौरान, अमेरिका ने इज़राइल पर दबाव डालकर भारत को उन्नत इलेक्ट्रॉनिक प्रणालियों की बिक्री रुकवाने की कोशिश की. अमेरिका के साथ अपनी मज़बूत साझेदारी के बावजूद, इज़राइल ने वाशिंगटन के अनुरोध को ठुकरा दिया और भारत के अमेरिकी प्रतिबंधों से गुज़रने के दौरान नयी दिल्ली का समर्थन किया.

मोदी शासन ने इज़राइली बाजार के लिए कई अवसर पैदा किये हैं, लेकिन साथ ही साथ इसने देशों के बीच रक्षा व्यापार के लिए कई अवरोध भी पैदा किये हैं. मौजूदा सरकार के सबसे प्रमुख कार्यक्रम ‘मेक इन इंडिया’ के तहत भारत को दुनिया का सबसे बड़ा कारख़ाना बनाने की महत्वाकांक्षा के साथ रक्षा क्षेत्र में ‘आत्मनिर्भर’ की मोदी की दृष्टि इज़राइली रक्षा उद्योगों के निर्णयकारी लोगों के लिए दु:स्वप्न बन गयी है. अब तक, राफेल जैसी इज़राइली रक्षा कंपनियों की रणनीति तीन मुख्य चैनलों पर केंद्रित थी, और हरेक में एक अवरोध था : पहला है स्थानीय कंपनियों के साथ गठजोड़, जो बहुत जटिल बन गया और हमेशा उपयुक्त साबित नहीं हुआ. दूसरा है लोकल एंटिटी कंपनियों की स्थापना, जो कंपनी के स्वामित्व के मूल के सवाल में आने पर समस्याजनक हो गया. तीसरा है प्रणालियों और उत्पादों के क्षेत्र के लिए उपयुक्त साझा उपक्रम (ज्वाइंट वेंचर) की स्थापना, जो उपलब्ध टेंडरों के मानदंडों को पूरा करने में विफल हो गये.   

एक विशेष कमेटी की ज़रूरत  

दुर्भाग्य से, SIBAT और ‘एडमिनिस्ट्रेशन फॉर द डेवलपमेंट ऑफ वीपन्स एंड टेक्नोलॉजिकल इंफ्रास्ट्रक्चर’ जैसे इज़राइली सरकारी रक्षा निकायों में अपनी रणनीतियों को भारत की मौजूदा हक़ीक़त के मुताबिक़ ढालने की कार्यप्रणाली का अब भी अभाव है. इज़राइली और भारतीय रक्षा प्रतिष्ठानों के बीच सहयोग बढ़ाने और गहरा करने के लिए ‘मेक इन इंडिया’ अवरोधों को दूर करने के वास्ते एक विशेष कमेटी का गठन ज़रूर किया जाना चाहिए. आख़िरकार, संबंधों के आगे विकास और संभावनाओं को अधिकतम बनाने की कुंजी भारत में इज़राइली कंपनियों की गतिविधियों और इज़राइल में भारतीय कंपनियों की गतिविधियों को आसान बनाने में निहित है. 

वर्षों से, इज़राइल ने ‘बाज़ार का अनुसरण करो’ तर्क के तहत विकासशील देशों से लेकर एशिया व अफ्रीका के देशों में हथियार बेचे हैं. दशकों तक, भारत इस श्रेणी में सबसे महत्वपूर्ण रहा. हालांकि, बीते दो दशकों में देश की तेज वृद्धि दर और बाजार संबंधी बड़ी संभावनाओं ने उस चश्मे को बदल दिया है जिससे कई निजी कंपनियां भारत को देखती हैं. फरवरी 2020 में, ‘यूनाइटेड स्टेट्स ट्रेड रिप्रजेंटेटिव्स’ (यूएसटीआर) के कार्यालय ने भी विकासशील और सबसे कम विकसित देशों की सूची की समीक्षा की और भारत को उन देशों की सूची से बाहर कर दिया जो विकासशील के रूप में श्रेणीबद्ध हैं. लेकिन आज के भारत की महत्वाकांक्षाएं बड़ी हैं. 

एक अग्रणी शक्ति बनने की भारत की महत्वाकांक्षाओं का ज़िक्र मौजूदा सरकार के अधिकारियों के लगभग हर सार्वजनिक बयान में होता है. मोदी जानते हैं कि इस सम्मान के लायक होने के लिए सैन्य और आर्थिक शक्ति की क्षमताओं को मज़बूत करना होगा. इसलिए, इज़राइली कंपनियां चैन से बैठ सकती हैं. भारतीय रक्षा उद्योग के आधुनिकीकरण को अभी लंबा सफ़र तय करना है. और जब तक चीन भारत के साथ लगी ज़मीनी और समुद्री सीमाओं पर उकसावे और धमकी के लिए अपनी युद्ध क्षमताओं को निर्मित करना जारी रखता है, भारत यूएवी, ड्रोन और उन्नत मिसाइल प्रणालियों जैसे इज़राइल निर्मित उत्पादों की ख़रीद के साथ आगे बढ़ेगा. लेकिन एक चीज़ बदल गयी है – भारतीयों की ख़ुद के बारे में धारणा. भारत न सिर्फ़ अपनी ज़रूरतों को लेकर, बल्कि अपनी उदीयमान शक्ति को लेकर भी जागरूक हुआ है और वह महज़ एक ख़रीदार बनकर रहना नहीं चाहता, बल्कि एक ऐसे देश की हैसियत चाहता है जो विचारों का आदान-प्रदान करता है, नवाचार को बढ़ावा देता है, और जिसे बातचीत की मेज़ पर बराबरी के महत्व की ज़रूरत है. इज़राइलियों के लिए, इस बदलाव को समझने में समय लगता है.

भूराजनीतिक बदलावों के समक्ष भारत का महत्व

भूराजनीतिक बदलावों के समक्ष भारत का महत्व फिर से पुष्ट हुआ है. एक तरफ़, अमेरिका और चीन के बीच भूआर्थिक होड़ इज़राइल के लिए बीजिंग के साथ अप्रिय स्थितियां पैदा करती रही है, क्योंकि वाशिंगटन ने इज़राइल सरकार पर रणनीतिक बुनियादी ढांचे, हथियार प्रणालियों और संवेदनशील तकनीक वाली कंपनियों में निवेश के बीजिंग के साथ सौदों को ख़त्म करने के लिए दबाव बनाया. दूसरी तरफ़, यूक्रेन में युद्ध ने पुराने रूसी उपकरणों से दिल्ली की निर्भरता ख़त्म करने पर ज़ोर दिया. इसके अलावा, अब्राहम समझौते और इसका नवजात गुट – मध्य पूर्व का क्वॉड – अरब-भूमध्यसागरीय व्यापार गलियारे के ज़रिये भारत के साथ रिश्तों को गहरा करने का अनमोल अवसर पैदा करते हैं. आंतरिक और बाह्य परिवर्तनों के आलोक में, अब वक़्त आ गया है कि इज़राइल भारत के साथ अपने रिश्तों को ख़रीदार-विक्रेता के रिश्ते से परे समझना शुरू करे. येरूशलम को ख़ुद को एशिया की अगली अग्रणी शक्ति के निर्माण के साझेदार के रूप में देखना चाहिए.


[1] Sharad Pawar quoted in The Stateman, February 28, 1992.

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