Author : Kwame Owino

Published on Feb 08, 2022 Updated 0 Hours ago

‘अफ्रीकी-एशियाई सदी’ की संभावना के एक वास्तविकता होने के बावजूद, दो कारक इसे मद्धिम बनायेंगे: आर्थिक वृद्धि और जनसंख्या वृद्धि.

भारत, कीनिया और अफ्रीकी-एशियाई सदी

अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्येता वैश्विक मामलों में भविष्य के परिदृश्य रचने की कोशिश करते हैं; मसलन, इस बारे में अनुमान लगाने का प्रयास करना कि कौन-से देश और क्षेत्र मध्यम और लंबी अवधि में दबदबा हासिल कर सकते हैं. अब दुनिया घूम-फिर कर पुरानी जगह पहुंच गयी लगती है, और विकासशील विश्व के कुछ हिस्से उच्च आमदनी वाले देशों के साथ मुक़ाबले में आ रहे हैं, विश्लेषक एशिया और अफ्रीका को उन क्षेत्रों के रूप में देख रहे हैं जिन पर भावी वैश्विक वृद्धि टिकी होगी. तथाकथित ‘अफ्रीकी-एशियाई या एशियाई-अफ्रीकी सदी’ के पीछे का विचार यह है कि हाल के वर्षों में अफ्रीका का आर्थिक प्रदर्शन, एशिया की सफलता के साथ मिलकर दुनिया पर अपनी छाप छोड़ रहा है, और यह 21वीं सदी के सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक और आर्थिक बदलावों में शामिल होगा.

अफ्रीका के केवल चुनिंदा देश कम से कम एक पीढ़ी तक मध्यम से उच्च स्तर की आर्थिक वृद्धि बनाये रख पायेंगे, जो कि व्यापक समृद्धि हासिल करने के अलावा वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक अहम खिलाड़ी होने के लिए बेहद ज़रूरी है.

दरअसल, अफ्रीकी महाद्वीप के कुछ देशों की आर्थिक वृद्धि के लिए शानदार मौक़ा है. एशिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की ताक़त के साथ, दोनों क्षेत्रों का संयुक्त रूप से ख़ासा आर्थिक दबदबा होगा. इसके साथ ही, ज्य़ादातर दक्षिण एशियाई और अफ्रीकी देशों में जनसंख्या वृद्धि दर प्रतिस्थापन स्तरों (replacement levels) से काफ़ी ऊपर है, जबकि यूरोप में, यह ठहरी रहेगी और ऊंची आमदनी वाले कई देशों में शायद इसमें गिरावट आयेगी. यहीं से भारत और कीनिया फ्रेम में आते हैं.

अनिश्चितता के दो स्रोत

‘अफ्रीकी-एशियाई सदी’ की संभावना वास्तविकता है, लेकिन दो कारक इसे मद्धिम बनायेंगे. पहली है आर्थिक वृद्धि. अफ्रीका के केवल चुनिंदा देश कम से कम एक पीढ़ी तक मध्यम से उच्च स्तर की आर्थिक वृद्धि बनाये रख पायेंगे, जो कि व्यापक समृद्धि हासिल करने के अलावा वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक अहम खिलाड़ी होने के लिए बेहद ज़रूरी है. हालांकि, एक अच्छी ख़ासी संख्या में देश शायद ऐसा नहीं कर पायेंगे. अगर ऐसा होता है, तो उन देशों के लिए नतीजा एक ‘अफ्रीकी-एशियाई सदी’ के रूप में नहीं होगा, जो पर्याप्त आर्थिक और राजनीतिक वजन नहीं रखते. 

यह और अधिक स्पष्ट हो चुका है कि कोविड-19 महामारी के प्रभाव व्यापक होंगे और ये कई अफ्रीकी देशों में वृद्धि को कम से कम दो साल के लिए बाधित करेंगे. अपने आकलन में, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) साल 2020 को इस तथ्य के लिहाज़ से अलग मानता है कि 30 साल में पहली बार उप-सहारा अफ्रीका (SSA) के देशों ने आर्थिक संकुचन देखा है. वृद्धि दर को बनाये रखने और ग़रीबी में कमी जारी रखने की चुनौती के अलावा, निम्न वृद्धि दर के लंबे चलनेवाले प्रभावों से जल्दी उबरना सुनिश्चित करना होगा. SSA के कई देशों के सबसे ग़रीब नागरिक ग़रीबी में कमी से मिले लाभों में अवनति महसूस करेंगे, और बहुत से लोगों के कल्याण पर दीर्घकालिक रूप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. इन सब का मिलाजुला असर यह है कि कई देश अर्थव्यवस्था में ढांचागत क्षति भुगतेंगे, जो इसे उलट पाना कठिन बना देगी.

यह चुनौती एक जटिल लेकिन सुविधाजनक दावे से आती है कि अफ्रीकी जनसंख्या वृद्धि दरें कम से कम एक पीढ़ी तक जारी रहेंगी, और इस तरह, अफ्रीका और एशिया के बीच जनसंख्या आकारों में साम्य बनेगा. 

दूसरा कारक जनसंख्या वृद्धि का है. यह चुनौती एक जटिल लेकिन सुविधाजनक दावे से आती है कि अफ्रीकी जनसंख्या वृद्धि दरें कम से कम एक पीढ़ी तक जारी रहेंगी, और इस तरह, अफ्रीका और एशिया के बीच जनसंख्या आकारों में साम्य बनेगा. इस धारणा में अफ्रीका के अपेक्षाकृत ऊंची प्रजनन दर वाले कुछ देशों के आधार पर निकाला गया निष्कर्ष शामिल है. ये विश्लेषण मानते हैं कि चूंकि ज्यादातर SSA देश आनेवाले सालों में कहीं ज्यादा आबादी वाले होंगे, इसलिए अफ्रीकी आबादी और कामगार दुनिया के आंकड़ों में हावी रहेंगे. हालांकि, यह तर्क दोषपूर्ण है. यह सही है कि बहुत से SSA देशों को अब भी जनसांख्यिकीय रूपांतरण यानी demographic transition से गुज़रना है, लेकिन बढ़ती साक्षरता दर और धीमी लेकिन वास्तविक आर्थिक वृद्धि ‘अतिप्रजनन वाले’ (overbreeding) महाद्वीप का डर निराधार बना देती हैं. अफ्रीका में प्रजनन दरें आगे चलकर शायद और तेजी से गिरेंगी, straight-line extrapolations (एक तरह की गणितीय आकलन पद्धति) जैसा सुझाते हैं उससे कहीं ज्य़ादा तेज़ी से.

इस बीच, एशिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं का विशाल आकार सुनिश्चित करता है कि इस क्षेत्र की 21वीं सदी में एक विस्तारित भूमिका होगी. इसके अपनी चुनौतियों के बावजूद वाहकों में जापान की अर्थव्यवस्था का आकार शामिल है; तथा भारत और चीन की अर्थव्यवस्था एवं जनसांख्यिकीय आकार शामिल हैं. इस तरह, अफ्रीका 21वीं सदी में कुछ कर दिखाने की चुनौती से रूबरू है. पूरी संभावना है कि एक मिलीजुली तस्वीर रहेगी, जिसमें कुछ सुपरस्टार होंगे; कई मध्यम स्तरीय देश; और एक छोटी संख्या टकराव, ख़राब शासन और आर्थिक सुधार शुरू करने व बनाये रखने में अक्षमता में फंसे देशों की होगी. 

कीनिया और भारत

हिंद महासागर में मानसून व्यापार (मानसूनी हवाओं के इस्तेमाल से समुद्री व्यापार) के ज़रिये कीनिया और भारत के बहुत पुराने संबंध हैं. यह रिश्ता कीनिया के औपनिवेशीकरण से कई सदियों पहले का है. बाद में, पूरे कीनियाई क्षेत्र में रेलवे के निर्माण ने इस देश में दक्षिण एशियाई लोगों की सांस्कृतिक मौजूदगी को ज्यादा दृश्यमान बनाया. यहां यह तथ्य भी है कि अंग्रेजों ने रेलवे का निर्माण दक्षिण एशियाई मजदूरों के इस्तेमाल से किया, और आजादी मिलने के बाद, कीनिया और भारत ने ब्रिटिश राष्ट्रमंडल की सदस्यता ली. इस तरह, राजनयिक फ़ायदा उठाने के मौक़े और नौकरशाही का एकजैसा चरित्र नयी सदी में साथ काम करने के लिए दोनों देशों के लिए एक मज़बूत ऐतिहासिक मंच प्रदान करते हैं.

वैश्विक वाणिज्य के मार्ग के रूप में हिंद महासागर का महत्व भविष्य में बढ़ेगा, और उनकी यह लोकेशन अनमोल हो जायेगी. इसके अलावा, आईओआर पर किसी देश को प्रभुत्वकारी नियंत्रण स्थापित करने से रोकने की भारत की प्रतिबद्धता का पूर्वी अफ्रीकी देशों को स्वागत करना चाहिए.

अपनी विशाल आबादी और बढ़ती अर्थव्यवस्था के चलते, यह ज़ाहिर है कि भारत 21वीं सदी में एक बड़ा भू-राजनीतिक खिलाड़ी होगा. यहां इस बात को अच्छे से जांचा जाना चाहिए कि क्या भारत का आर्थिक ढांचा उस टिकाऊपन के साथ बदलेगा जो उसे चीन का महत्वपूर्ण प्रतियोगी बना सके. चीन की कीनिया और शेष अफ्रीकी महाद्वीप में निर्यात और बुनियादी ढांचे के ज़रिये बड़ी मौजूदगी है. ऑब्ज़र्वेटरी ऑफ़ इकोनॉमिक कॉम्पलेक्सिटी के मुताबिक़, 2018 में निर्यात से हुई कमाई के मामले में, केन्या और भारत 222 देशों में क्रमश: 103वें और 16वें स्थान पर हैं. यह अकेले दिखाता है कि वैश्विक व्यापार भागीदारी (निर्यात मूल्य में मापी गयी) में भारत की जगह प्रभावशाली है, जबकि कीनिया अपनी अर्थव्यवस्था के आकार और अधूरे सुधारों की सीमाओं में क़ैद है.

कीनिया की महत्वाकांक्षा पूर्वी अफ्रीकी क्षेत्र में और हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में वृद्धि का अगुवा बनने की है. व्यापार मार्गों की सुरक्षा सुनिश्चत करके, बंदरगाहों की तैयारी, और नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य की प्रतिबद्धता के द्वारा समुद्री वाणिज्य को विकसित करने के लिए हितों और अवसरों का स्पष्ट संगमन दिख रहा है. लामू पोर्ट, इथोपिया, साउथ सूडान ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (LAPPSET) के ज़रिये, कीनिया इथोपिया और दक्षिणी सूडान में पूर्वी अफ्रीकी तटरेखा पर सबसे बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजना का निर्माण कर रहा है. इसके तहत एक बंदरगाह, राजमार्गों, रेलवे लाइन, पाइपलाइन, नये शहरों और हवाई अड्डों को जोड़ा जा रहा है. इन देशों ने ठीक ही अनुमान लगाया है कि वैश्विक वाणिज्य के मार्ग के रूप में हिंद महासागर का महत्व भविष्य में बढ़ेगा, और उनकी यह लोकेशन अनमोल हो जायेगी. इसके अलावा, आईओआर पर किसी देश को प्रभुत्वकारी नियंत्रण स्थापित करने से रोकने की भारत की प्रतिबद्धता का पूर्वी अफ्रीकी देशों को स्वागत करना चाहिए.

अपनी विशाल आबादी और बढ़ती अर्थव्यवस्था के चलते, यह ज़ाहिर है कि भारत 21वीं सदी में एक बड़ा भू-राजनीतिक खिलाड़ी होगा. यहां इस बात को अच्छे से जांचा जाना चाहिए कि क्या भारत का आर्थिक ढांचा उस टिकाऊपन के साथ बदलेगा जो उसे चीन का महत्वपूर्ण प्रतियोगी बना सके.

अंत में, पूर्वी अफ्रीका और मध्य-पूर्वी क्षेत्र स्थित एयरलाइंस के लिए कॉमर्शियल लिंक मौजूद हैं, जो कीनिया और भारत के शहरों को जोड़ते हैं. इसके साथ ही, कीनिया पूर्वी अफ्रीकी समुदाय और अफ्रीकी महाद्वीपीय मुक्त वाणिज्य क्षेत्र के साथ क्षेत्रीय और महाद्वीपीय स्तरों पर अंतर-अफ्रीकी व्यापार को लेकर भी उत्साही है. चीन पहले ही अफ्रीकी यूनियन में दिलचस्पी दिखा चुका है, जो महाद्वीपीय एकजुटता की तलाश की अगुवाई कर रहा है. शायद वक्त़ आ गया है कि भारत भी इसी तरह की दिलचस्पी दिखाए.

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