Author : Kanchan Gupta

Published on Nov 21, 2020 Updated 0 Hours ago

क्या इस वैक्सीन को देश के हर कोने में पहुंचाने, भंडारण करने और लोगों को दिए जाने की क्षमता है, जिसके लिए देश को विस्तृत कोल्ड चेन सुविधा और प्रशिक्षित मानव संसाधन की ज़रूरत होगी.

कोविड-19 वैक्सीनेशन की सफलता के लिए भारत को एक ‘पीपीपी’ मॉडल की ज़रूरत है!

कोविड-19 के आंकड़ों में लोकप्रिय रुचि – नए मरीज़, ठीक हुए मरीज़ और मौतों – में हाल के दिनों में महामारी के चलते भारत में लंबे समय तक चले लॉकडाउन के बाद इसके खुलने की क्रमिक और वर्गीकृत प्रक्रिया शुरू होने के साथ काफ़ी कमी आई है. दूसरी ओर, घातक बीमारी से बचाने के लिए, वादा की गई वैक्सीन में रुचि और जिज्ञासा बढ़ रही है. अब आम चर्चाओं में तीन सवाल शामिल हो गए हैं: कौन सी वैक्सीन आ रही हैं? ये कब आएंगी? और, ये किन लोगों को मिलेंगी?

दुनिया भर में कोविड-19 वैक्सीन की भारी मांग को देखते हुए – हर देश अपने नागरिकों के लिए इसे चाहता है – इस बात की आशंकाएं जायज़ हैं कि कुल उपलब्ध वैक्सीन का कितना हिस्सा भारत के हिस्से में आएगा, कम से कम शुरुआती महीनों में. इससे जुड़ी दो और  आशंकाएं हैं: क्या भारत के पास वैक्सीन (एक या एक से अधिक वैक्सीन) की पर्याप्त डोज़ हासिल करने के लिए वित्तीय संसाधन हैं, और शायद इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या इस वैक्सीन को देश के हर कोने में पहुंचाने, भंडारण करने और लोगों को दिए जाने की क्षमता है, जिसके लिए देश को विस्तृत कोल्ड चेन सुविधा और प्रशिक्षित मानव संसाधन की ज़रूरत होगी.

हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि अमीर और ताक़तवर इसमें खेल न कर दें जैसा कि अन्य संस्थानों के मामले में हाल के दिनों में हुआ है. दूसरी आशंका को अभी तक स्पष्ट रूप से संबोधित नहीं किया जा सका है

पहली आशंका को कोवेक्स (COVAX- वैक्सीन ग्लोबल एक्सेस) द्वारा एक हद तक दूर करने का प्रयास किया गया है, जिसे बड़ा बदलाव लाने वाली वैश्विक सहयोग व्यवस्था के रूप में पेश किया गया है जिसका उद्देश्य “कोविड-19 वैक्सीन के विकास और निर्माण में तेज़ी लाना और दुनिया में हर देश के लिए उचित और न्यायपूर्ण पहुंच की गारंटी देना है .” हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि अमीर और ताक़तवर इसमें खेल न कर दें जैसा कि अन्य संस्थानों के मामले में हाल के दिनों में हुआ है. दूसरी आशंका को अभी तक स्पष्ट रूप से संबोधित नहीं किया जा सका है, हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महामारी को लेकर राष्ट्र को अपने हालिया संबोधन में ज़ोर देकर कहा है कि “कोरोना के विरुद्ध जब भी वैक्सीन आती है, सरकार जल्द से जल्द हर भारतीय को वैक्सीन पहुंचाने की तैयारी कर रही है. और हर नागरिक को वैक्सीन की डिलीवरी सुनिश्चित करने का काम तेज़ गति से किया जा रहा है.”

राजनीतिक हुआ कोविड का वैक्सीन

कोविड-19 वैक्सीनेशन कार्यक्रम की गति और पैमाना तय करेगा कि भारत 2021 में वैश्विक महामारी से कैसे मुकाबला करता है – इस पर ना तो जल्द लगाम लगने वाली है ना ही ग़ायब होने वाली है. सफलता या विफलता के नतीजे जीवन और आजीविका दोनों से जुड़े हैं. इसलिए, कोविड-19 वैक्सीनेशन जन स्वास्थ्य के साथ-साथ राजनीतिक मुद्दा भी बन गया है. बीजेपी ने अपने बिहार चुनाव घोषणापत्र और मध्य प्रदेश के महत्वपूर्ण उपचुनाव में भी सभी को मुफ्त वैक्सीन का वादा किया; तमिलनाडु सरकार ने राज्य में चुनाव से पहले ऐसा ही वादा किया. और अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में जो बिडेन ने भी मतदाताओं के लिए ऐसी  प्रतिबद्धता जता चुके हैं. वैक्सीन की दौड़ में पूरी दुनिया शामिल है, यह गहरी राजनीतिक लड़ाई है जिसमें प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता देखने को मिलेगी.

अधिग्रहण, वितरण और वैक्सीनेशन की निगरानी कौन करेगा क्योंकि असल में इसे राज्य सरकारों द्वारा ही लागू किया जाना है जो अपने ख़राब फ़ाइनेंस और बदहाल जनस्वास्थ्य प्रणाली के साथ इससे कैसे निपटेंगे, जो पहले से ही महामारी से चरमराई हुई है?

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन भारत की आशंकाओं को दूर करने में पूरे जुझारूपन के साथ आशावादी हैं कि दूसरे देशों के ग़लत तौर-तरीके अपनाने के बाद भी भारत पीछे नहीं है. उन्होंने यहां तक कहा कि कोविड-19 वैक्सीन को प्रमाणित करने वाली एजेंसियों की मंजूरी मिल जाने के बाद भारत को इसके प्रमुख मैन्युफ़ैक्चरिंग केंद्रों में से एक होगा, तब सरकार न केवल इस बात का लाभ उठाने की स्थिति में होगी, बल्कि भारत दुनिया की मदद भी करेगा. लेकिन शब्द आख़िरकार शब्द ही हैं और हक़ीकत कई बार उम्मीदों से जुदा होती है. क़ीमत को लेकर अनसुलझे मसले हैं – क्या भारत कानून में ऐसा प्रावधान करेगा जो भारतीय मैन्युफ़ैक्चरिंग सुविधाओं का इस्तेमाल करने वाली विदेशों की फार्मा कंपनियों को लाइसेंस फ़ीस के हस्तांतरण पर रोक लगाएगा? क्या अधिकतम मूल्य की सीमा तय की जाएगी? क्या वैक्सीनेशन कार्यक्रम सभी या कुछ लोगों के लिए मुफ़्त होगा? जिसे मुफ़्त वैक्सीनेशन नहीं मिलेगा उसके लिए इसकी क़ीमत कितनी होगी? अधिग्रहण, वितरण और वैक्सीनेशन की निगरानी कौन करेगा क्योंकि असल में इसे राज्य सरकारों द्वारा ही लागू किया जाना है जो अपने ख़राब फ़ाइनेंस और बदहाल जनस्वास्थ्य प्रणाली के साथ इससे कैसे निपटेंगे, जो पहले से ही महामारी से चरमराई हुई है?

भारत सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार प्रो. के विजय राघवन ने ORF के साथ बातचीत के दौरान बताया था कि कोविड-19 वैक्सीनेशन कार्यक्रम के सभी पहलुओं से निपटने के लिए वैक्सीन प्रशासन का एक राष्ट्रीय विशेषज्ञ समूह बनाया गया है. डॉ. हर्षवर्धन ने बताया था कि विशेषज्ञ समूह “ग्रामीण और दूरदराज़ के इलाकों में वैक्सीन को बांटने के लिए नए तरीके तैयार किए जा रहे हैं.” ऐसा कहना आसान है, लेकिन करना मुश्किल है. इसके लिए अभूतपूर्व रफ़्तार और पैमाने पर बजट और क्षमताओं की ज़रूरत होगी.

अतीत की सफलताओं से सीख

हालांकि, भारत के सफल और दुनिया भर में सराहे गए पोलियो वैक्सीनेशन अभियान के प्रमुख योजनाकार रहे डॉ. हर्षवर्धन को पता होना चाहिए कि वह किस बारे में बात कर रहे हैं और उनके सामने क्या चुनौती है: जुलाई 2021 तक 20-25 करोड़ भारतीयों को वैक्सीन लगाने के लिए 40 से 50 करोड़ डोज़ की ज़रूरत होगी. उनका भरोसा भारत के ट्रैक रिकॉर्ड पर आधारित है: इसने दुनिया के सबसे बड़े वैक्सीनेशन कार्यक्रम को लागू किया है, जो हर साल 2.70 करोड़ नवजात बच्चों का वैक्सीनेशन करता है. भारत में ‘अंतिम सिरे तक’  वैक्सीन की आपूर्ति, भंडारण और वितरण के लिए एक बुनियादी ढांचा है. सरकार की योजना “वैक्सीन वितरण के प्रबंधन के लिए अपने एकीकृत आईटी प्लेटफॉर्म ई-विन (e-Vin इलेक्ट्रॉनिक वैक्सीन इंटेलिजेंट नेटवर्क) से फ़ायदा उठाने की है.” भारत का यूआईडी या आधार डेटाबेस इस परियोजना में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और निश्चित रूप से इसे इस राष्ट्रीय आपदा के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए. 130 करोड़ लोगों के देश के लिए मांग और वितरण का बुनियादी ढांचा तैयार करने के ‘ज़बरदस्त उछाल’ की कल्पना करना ही दिमाग़ हिला देता है.

सरकार वैक्सीन की खरीद मूल्य पर जो भी फ़ैसला लेती है, इसके लिए भारी धनराशि खर्च करनी होगी. सीरम इंस्टीट्यूट के सीईओ अदार पूनावाला का आकलन है कुल लागत लगभग 80,000 करोड़ रुपये हो सकती है. यह सिर्फ़ वैक्सीन की कीमत है. वैक्सीन के वितरण, भंडारण और लगाने पर खर्च अलग होगा. 

सरकार वैक्सीन की खरीद मूल्य पर जो भी फ़ैसला लेती है, इसके लिए भारी धनराशि खर्च करनी होगी. सीरम इंस्टीट्यूट के सीईओ अदार पूनावाला का आकलन है कुल लागत लगभग 80,000 करोड़ रुपये हो सकती है. यह सिर्फ़ वैक्सीन की कीमत है. वैक्सीन के वितरण, भंडारण और लगाने पर खर्च अलग होगा. यह आंकड़ा अतिशयोक्ति हो सकती है और केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव ने पूनावाला के दावे को ख़ारिज कर दिया है. इसके बावजूद, इससे व्यय सचिव टीवी सोमनाथन वैक्सीकरण कार्यक्रम में रुकावट डाल सकने वाली अपर्याप्त धन की आशंका को दूर करने लिए आगे आना पड़ा और उन्होंने कहा: ज़रूरतमंदों को वैक्सीन लगाने में “बजटीय संसाधन रुकावट नहीं बनेंगे; यह हमारी ज़िम्मेदारी है.”

इसलिए सार यह है कि, यह स्थिति है जहां भारत आज कोविड-19 वैक्सीनेशन कार्यक्रम को लागू करने के मामले में खड़ा है: जुलाई 2021 तक 20-25 करोड़ भारतीयों को वैक्सीन लगाई जाएगी, पैसे की कमी नहीं होगी, राष्ट्रीय मुफ़्त कोविड-19 वैक्सीनेशन नीति में कोई बदलाव नहीं होता है तो यह ज़रूरतमंदों के लिए मुफ़्त होगी, जोखिम वाले कारकों के आधार पर यह तय करने के लिए मापदंड अपनाया जाएगा कि पहले किसे वैक्सीन दी जाएगी, और सरकार का मानना है कि टीकाकरण कार्यक्रम के संचालन के लिए उसके पास दम-ख़म है.

ऐसा कहा जा रहा कि, फिलहाल शुरुआती चरण में वैक्सीनेशन कार्यक्रम भारत की 130  करोड़ आबादी के एक चौथाई से भी कम के लिए होगा. हालांकि वैसे अलग से देखें तो यह संख्य़ा भी कई विकसित देशों की आबादी से ज़्यादा है, फिर भी कोविड-19 के ख़िलाफ़ सभी भारतीयों के वैक्सीनेशन के आदर्श लक्ष्य के एक चौथाई से भी कम है. ऐसे में, सवाल उठता है: निजी क्षेत्र से भागीदारी करके सरकार वैक्सीनेशन कार्यक्रम को गति और दक्षता दोनों के साथ आगे बढ़ाने के बारे में क्यों नहीं सोच रही है?

महामारी से देश की अर्थव्यवस्था कमज़ोर

महामारी ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है, और इसके नतीजे में सबसे अधिक आजीविका (भारत ने ज़िंदगियां बचाने में अच्छा किया है) प्रभावित हुई है और यह निजी क्षेत्र के बड़े हितधारकों के हित में है कि वे भारतीयों की प्रतिरक्षा चुनौती का सामना करने और एक हद तक, सरकार के बोझ को कम करने में अपना योगदान दें, ताकि वह बेहतर तरीक़े से ग़रीबों, वंचितों, कोमॉर्बिटी या ज़्यादा उम्र के कारण अधिकतम जोख़िम का सामना कर रहे लोगों पर ध्यान केंद्रित कर सके. निजी क्षेत्र की प्रमुख कंपनियों को अपने कर्मचारियों, उनके परिवारों और सहयोगियों के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय और उसकी एजेंसियों की निगरानी में सब-इम्युनाइजेशन प्रोग्राम चलाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है. वे वैक्सीन को उस कीमत पर हासिल करने के लिए स्वतंत्र होंगे, जो वे निर्माताओं के साथ बातचीत में तय करते हैं, कोल्ड चेन के माध्यम से इसके भंडारण और वितरण की व्यवस्था करेंगे, जिसे इस तरह से तैयार किया जा सकता है कि बाद में उचित व्यवस्था के माध्यम से व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सके जिससे इसके निवेश को बढ़ावा मिलेगा.

निजी क्षेत्र की प्रमुख कंपनियों को अपने कर्मचारियों, उनके परिवारों और सहयोगियों के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय और उसकी एजेंसियों की निगरानी में सब-इम्युनाइजेशन प्रोग्राम चलाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है. वे वैक्सीन को उस कीमत पर हासिल करने के लिए स्वतंत्र होंगे, जो वे निर्माताओं के साथ बातचीत में तय करते हैं

वे वैक्सीनेशन प्रक्रिया के लिए निजी क्षेत्र में हेल्थ वर्कर की सेवाओं का इस्तेमाल कर सकती हैं. जो कंपनियां अपनी ज़रूरत से ज़्यादा ख़रीद सकने की क्षमता रखती हैं, वे बची हुई वैक्सीन राष्ट्रीय भंडार में दे सकती हैं. या, अपने साथ जुड़ी कंपनियों और वेंडर्स के कर्मचारियों और उनके परिवारों का वैक्सीनेशन कर सकती हैं. इस तरीके से असाधारण गति के साथ लाखों भारतीयों का वैक्सीनेशन किया जा सकता है. यह उद्योग जगत को कोविड-19 के प्रति अधिक सहनशील बना देगा. यह उनके संचालन के लिए पूर्वानुमान और निश्चितता का एक स्तर प्रदान करेगा, जो व्यवसाय संचालन के लिए एक ज़रूरी शर्त है. यह जीवन और आजीविका दोनों की रक्षा करेगा.

महामारी या वैश्विक महामारी के समय में स्वास्थ्य सेवा की उपलब्धता सरकार की ज़िम्मेदारी पर नहीं छोड़ा जा सकता और न ही छोड़ना चाहिए. सरकार के प्रयासों में ‘कॉरपोरेट सोशल रिस्पांबिलिटी (सीएसआर)’  जैसी मदद मिलनी चाहिए, जो सालाना लाभ से अनिवार्य रूप से दिए जाने वाले योगदान से अलग हो.

निजी क्षेत्र बना बड़ा सहारा

वैश्विक महामारी के शुरुआती दौर में सरकार टेस्टिंग जैसे बुनियादी काम में कम आपूर्ति — किट और पब्लिक हेल्थ वर्कर दोनों मोर्चों पर संघर्ष करती और मुहावरे में इस्तेमाल किए जाने शब्द ‘कगार’ पर दिख रही थी. आखिरकार जब निजी क्षेत्र को साथ मिलाया गया तब भारत में टेस्टिंग प्रक्रिया में गति और पैमाने का विस्तार दोनों देखा गया, जिसके नतीजे में महामारी की बेहतर हैंडलिंग और रोकथाम सुनिश्चित हुई.

इसी तरह, जब महामारी बड़े पैमाने पर फैली तो भारत को मास्क और बॉडी कवर सहित पर्सनल हेल्थ इक्विपमेंट की भारी और गंभीर कमी का सामना करना पड़ा. एक समय ऐसा भी आया जब हेल्थ वर्कर दयनीय रूप से पर्सनल हेल्थ इक्विपमेंट को दोबारा इस्तेमाल कर रहे थे, जिससे उनके मरीज़ों के साथ-साथ उनकी ज़िंदगी भी ख़तरे में पड़ गई. पर्सनल हेल्थ इक्विपमेंट की वैश्विक मांग में भारी उछाल को देखते हुए, अंतरराष्ट्रीय बाजार में पैसे से भी मास्क और बॉडी कवर नहीं खरीदा जा सकता था. यहां तक कि जब उन्हें ख़रीदना मुमकिन भी हुआ तो आपूर्ति लाइनों में रुकावट से पहुंचने में देरी हो रही थी या इससे भी बुरी बात यह हुई कि, ऐसे समय में डाइवर्ट किया गया जबकि बहुत समय महत्वपूर्ण था.

फिर एक जादू हुआ. निजी क्षेत्र में पर्सनल हेल्थ इक्विपमेंट का उत्पादन किया गया और यह गेम-चेंजर साबित हुआ. निश्चित रूप से भारत ख़रीदने के लिए भटकते शुद्ध आयातक से, आज पर्सनल हेल्थ इक्विपमेंट का प्रमुख निर्यातक है. राष्ट्रीय प्रयास में निजी क्षेत्र की दमदार भागीदारी से यह बदलाव मुमकिन हुआ. इसी तरह, अगर कहा जाता है और खुली छूट दी जाती है तो निजी क्षेत्र प्रस्तावित कोविड-19 वैक्सीनेशन कार्यक्रम में गेम-चेंजर भूमिका निभा सकता है. ऐसा होने के लिए, सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र को एक राष्ट्रीय एंटी-कोविड मिशन प्लेटफॉर्म में एकीकृत करने की प्रक्रिया जल्द से जल्द शुरू करनी होगी.

निजी क्षेत्र प्रस्तावित कोविड-19 वैक्सीनेशन कार्यक्रम में गेम-चेंजर भूमिका निभा सकता है. ऐसा होने के लिए, सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र को एक राष्ट्रीय एंटी-कोविड मिशन प्लेटफॉर्म में एकीकृत करने की प्रक्रिया जल्द से जल्द शुरू करनी होगी.

वैक्सीनेशन कार्यक्रम के लिए बना राष्ट्रीय विशेषज्ञ समूह सिर्फ़ सरकारी अफ़सरों और महामारी विशेषज्ञों का खास क्लब नहीं बना रहना चाहिए; निजी क्षेत्र के चैंपियंस को शामिल करने के लिए इसकी सदस्यता का विस्तार किया जाना चाहिए और पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप बनाने और गति, पैमाने व दक्षता पर आधारित एक मॉडल बनाने व लागू करने के लिए उनके विचारों को जगह दी जानी चाहिए. सरकार की प्राथमिक ज़िम्मेदारी जान बचाने की है; आजीविका को बचाने के लिए उद्योग को अपनी कोशिश करने दें.

ऐसे कई बड़े कॉरपोरेट्स हैं जो स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा अनुमोदित की गई किसी भी वैक्सीन को बड़ी मात्रा में हासिल करने के बाद सब-इम्युनाइजेशन प्रोग्राम के लिए ज़रूरी भंडारण, आपूर्ति और इंसानी बुनियादी ढांचा बनाने के लिए पूरी तरह तैयार हैं. उनके पास उनकी कंपनी से बाहर के, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लोगों को भी अपने प्रयासों में शामिल करने की गति और क्षमता है. इसमें भारत की बड़े पैमाने पर काम कर रही निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सुविधाओं और एक पीपीपी मॉडल को भी मिला लें, तो यह भारत की क्षमता को कई गुना बढ़ा देगा.

अब यह सरकार को तय करना है कि उसे पहले चरण में वैक्सीनेशन के लिए 20-25 करोड़ भारतीयों को लक्षित कर संतुष्ट हो जाना चाहिए या निजी क्षेत्र की मदद से इस आंकड़े को अधिक संख्या में बढ़ा देना चाहिए. यह एक ऐसा फ़ैसला है जिसे कल के लिए नहीं टाला जा सकता है.

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