Author : Shruti Jain

Published on Nov 20, 2021 Updated 0 Hours ago

क्या G-20 अपने सामने खड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार होकर, व्यापार और जलवायु परिवर्तन जैसे मसलों पर दुनिया की उम्मीदों के हिसाब से एक सुर में बात कर सकता है?

G-20 संगठन में दरारें!

अंतरराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग और नियम बनाने के क्षेत्र में 20 देशों का समूह (G-20) एक अग्रणी वैश्विक मंच बनकर उभरा है. इस समूह में दुनिया के अहम विकसित और विकासशील देश शामिल हैं. इस समूह के झंडे तले दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं एकजुट होती हैं, जिनकी दुनिया की कुल GDP के 80 प्रतिशत, वैश्विक व्यापार में 75 फ़ीसद और कुल आबादी में 60 प्रतिशत की हिस्सेदारी है. दुनिया के तमाम बहुपक्षीय मंचों में से G-20 पहला ऐसा मंच है, जो विकसित और विकासशील देशों को एक साथ एक बराबरी पर लेकर आया. हालांकि, हाल के वर्षों में G-20 की आलोचना काफ़ी बढ़ गई है. आलोचक इसकी वैधानिकता के साथ-साथ, वैश्विक चुनौतियों से निपटने में इसके अपर्याप्त साबित होने पर सवाल उठाते रहे हैं. महामारी के बाद, संगठन में पहले से मौजूद दरारें और भी गहरी हो गई हैं. यही नहीं, विश्व अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने के तौर-तरीक़ों को लेकर मतभेद और भी बढ़ गए हैं. इससे भी अहम बात ये है कि G20 के एजेंडे में शामिल अहम मसलों की प्राथमिकता और वैचारिक विभेद बढ़ने के सबूत भी लगातार सामने आ रहे हैं.

G20 के सामने ऐसी कई सीमाएं हैं, जो उसके व्यापारिक एजेंडे और विश्व अर्थव्यवस्था को दोबारा तरक़्क़ी की पटरी पर वापस लाने में देर कर सकती हैं. दिसंबर 2019 से ही विश्व व्यापार संगठन की अपीलीय संस्था (AB) अपने रिटायर हो चुके सदस्यों की जगह नए सदस्यों की नियुक्ति कर पाने में असफल रहा है. 

व्यापार को लेकर मतभेद

पिछले कुछ वर्षों के दौरान G20 ने अपने एजेंडे में विश्व व्यापार संगठन में ज़रूरी सुधार करने पर ध्यान केंद्रित करने को बहुत अहमियत दी है. G20 देशों ने ये स्वीकार किया है कि विश्व व्यापार संगठन में विवादों के निपटारे की व्यवस्था को तुरंत फिर से बहाल करने की ज़रूरत है, जिससे ये ‘बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था का एक रास्ते पर चलना और इसकी सुरक्षा सुनिश्चित करने में योगदान दे सके.’ लेकिन , हक़ीक़त ये है कि G20 के सामने ऐसी कई सीमाएं हैं, जो उसके व्यापारिक एजेंडे और विश्व अर्थव्यवस्था को दोबारा तरक़्क़ी की पटरी पर वापस लाने में देर कर सकती हैं. दिसंबर 2019 से ही विश्व व्यापार संगठन की अपीलीय संस्था (AB) अपने रिटायर हो चुके सदस्यों की जगह नए सदस्यों की नियुक्ति कर पाने में असफल रहा है. इससे किसी सुनवाई के लिए ज़रूरी जजों की आवश्यक संख्या या क़ोरम पूरा नहीं हो पा रहा है. इसका नतीजा ये हुआ है कि अपीलीय संस्था निष्क्रिय हो गई है. ट्रंप प्रशासन के दौर में अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन पर अधिकार क्षेत्र से आगे बढ़कर न्यायिक फ़ैसले लेने का इल्ज़ाम लगाते हुए, अपीलीय संस्था में नए जजों की नियुक्ति में अड़ंगा लगा दिया था. अमेरिका ने अपीलीय संस्था द्वारा एंटी डंपिंग, सब्सिडी और पलटवार वाले करों को लेकर विश्व व्यापार संगठन के नियमों की व्याख्या के प्रति अपनी नाख़ुशी ज़ाहिर की थी. अमेरिका ने इल्ज़ाम लगाया था कि अपीलीय संस्था (AB) ने अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों द्वारा, ख़ास तौर से चीन जैसे देशों द्वारा व्यापारिक नियमों में हेरा-फेरी का मुक़ाबला करने की कोशिशों पर गहरा असल डाला है.

बाइडेन प्रशासन ने संकट से उबारने में नाकाम

अमेरिका द्वारा विश्व व्यापार संगठन की अपीलीय संस्था में जजों की नियुक्ति रोकने से नियमों पर आधारित बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था संकट की शिकार हो गई है. बाइडेन प्रशासन ने भी अपीलीय संस्था को इस संकट से उबारने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया है. एक समूह के तौर पर G20 भी विवादों के निपटारे की इस व्यवस्था को दोबारा बहाल करने में कोई भूमिका नहीं निभा पाया है. जबकि, इस समूह ने कई उच्च स्तरीय बैठकों में इसे तुरंत लागू करने की बात कही थी. इसके अलावा, G-20 देशों के नेताओं द्वारा जारी रोम घोषणापत्र में इस मसले का कोई ज़िक्र तक नहीं किया गया था. इसकी एक वजह शायद ये हो सकती है कि इस मसले के समाधान के लिए समूह के सदस्य देशों ने अलग-अलग तरह के प्रस्ताव दिए हैं. मिसाल के तौर पर यूरोपीय संघ (EU) ने प्रस्ताव दिया है कि अपीलीय संस्था (AB) का विस्तार किया जाए और इसकी सदस्यता को नए सिरे से परिभाषित किया जाए. वहीं, कनाडा ने व्यापारिक नियमों को अपडेट करने की ज़रूरत पर बल दिया है, जिससे कि आधुनिक व्यापारिक मसलों पर विश्व व्यापार संगठन की अहमियत बनी रहे. इसके अलावा कुछ देशों ने बहुपक्षीय अंतरिम अपील (MPIA) का गठन करने का सुझाव भी दिया है. लेकिन ऐसा समाधान बहुत दिन चलने वाला नहीं है. क्योंकि अब तक विश्व व्यापार संगठन के 164 में से केवल 22 और 20 G-20 देशों में से केवल 6 ने इस प्रस्ताव को अपना समर्थन दिया है.

इसके अलावा G-20 देशों के नेताओं ने मेडिकल आपूर्ति, वैक्सीन और दवाओं को लेकर बहुपक्षीय व्यापारिक व्यवस्था की अहम भूमिका पर भी काफ़ी बल दिया है. हालांकि कोविड-19 के टीकों, दवाओं और जांच के उपकरणों के उत्पादन और वितरण के मामले में विकसित , विकासशील और कम आमदनी वाली अर्थव्यवस्थाओं के बीच बहुत अंतर है. आज विकसित देशों की 60 प्रतिशत आबादी को कोरोना के सभी टीके लग चुके हैं; हालांकि कम आमदनी वाले देशों की 96 फ़ीसद आबादी को अभी भी (अक्टूबर 2021 तक) एक भी टीका नहीं लग सका है. 

इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका और भारत जैसे G-20 देशों ने एक बार फिर ज़ोर देकर ये कहा था कि सभी देश वैक्सीन से जुड़े बौद्धिक संपदा के अधिकारों (TRIPS) में रियायत के प्रस्ताव पर सहमति देकर इसकी इच्छाशक्ति का संकेत दे सकते हैं.

2021 में इटली में हुई G-20 की व्यापार एवं निवेश बैठक में भारत ने मांग की थी कि टीकों को लेकर हो रहे भेदभाव, कोविड पासपोर्ट और आवाजाही पर लगी अन्य तरह की व्यापारिक पाबंदियों को हटाया जाए, क्योंकि ये पाबंदियां अहम सेवाओं की गतिविधि को प्रभावित कर सकती है. इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका और भारत जैसे G-20 देशों ने एक बार फिर ज़ोर देकर ये कहा था कि सभी देश वैक्सीन से जुड़े बौद्धिक संपदा के अधिकारों (TRIPS) में रियायत के प्रस्ताव पर सहमति देकर इसकी इच्छाशक्ति का संकेत दे सकते हैं. बाइडेन प्रशासन द्वारा इस प्रस्ताव को समर्थन देने का एलान करने के बावजूद, G-20 के कुछ सदस्य जैसे कि यूरोपीय संघ, जर्मनी और ब्रिटेन अभी भी, इस मसले पर आम सहमति का विरोध कर रहे हैं. यूरोपीय संघ के मुताबिक़, वैक्सीन के उत्पादन की क्षमता बढ़ाने में बौद्धिक संपदा के अधिकार बाधा नहीं बन रहे हैं. यूरोपीय आयोग का तर्क है कि बौद्धिक संपदा में रियायतें देने से वैक्सीन के निर्माण की रफ़्तार नहीं बढ़ने वाली है. इसी तरह जर्मनी का दावा है कि, ‘बौद्धिक संपदा के अधिकार इनोवेशन को बढ़ावा देने का स्रोत हैं और भविष्य में भी इन्हें ऐसे ही बने रहने देना चाहिए.’ जर्मनी और यूरोपीय संघ के मुताबिक़, कोरोना के टीकों का उत्पादन सीमित करने में बौद्धिक संपदा के अधिकार बाधक नहीं हैं. बल्कि, इसकी राह में उच्च मानक, मूलभूत ढांचा, कौशल और उत्पादन की क्षमता जैसी बाधाएं हैं. ये ऐसी चीज़ें हैं, जो विकासशील देशों के पास नहीं हैं और सीमित समय में ये क्षमताएं विकसित भी नहीं की जा सकती हैं.

आर्थिक बहाली

वैसे तो G-20 देशों ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से देशों द्वारा लिए जाने वाले क़र्ज़ के विशेष अधिकार (SDR) को बढ़ाकर 650 अरब डॉलर करने पर सहमति जताई है. लेकिन, आलोचकों का तर्क ये है कि उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के सामने जिस तरह की चुनौतियां खड़ी हैं, उन्हें देखते हुए ये रक़म पर्याप्त नहीं है. 250 नागरिक संगठनों ने दावा किया है कि महामारी से उबरने के लिए 3 ख़रब डॉलर के SDR की ज़रूरत है; हालांकि, बिना अमेरिकी कांग्रेस के समर्थन के केवल 650 अरब डॉलर की रक़म ही मुहैया कराई जा सकती थी. चूंकि ये अधिकार (SDR) का आवंटन, IMF में सदस्य देशों के हिस्से के हिसाब से होता है. ऐसे में इस रक़म का वितरण बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के प्रति पक्षपात भरा है. यूरोपियन नेटवर्क ऑन डेट ऐंड डेवेलपमेंट के मुताबिक़, इस रक़म का 67 फ़ीसद आवंटन विकसित देशों को होगा. वहीं, सबसे कम विकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों को बस एक प्रतिशत रक़म ही मिल सकेगी.

G-20 देश जलवायु परिवर्तन के लक्ष्यों को लेकर मतभेद दूर करने में भी नाकाम रहे हैं- बहुत से देश ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने और कोयले का इस्तेमाल कम करने का विरोध कर रहे हैं. 

इसके अलावा, 2020 में G-20 देशों के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों की असाधारण बैठक में ये स्वीकार किया गया था कि कोरोना महामारी के बाद के दौर में, क़र्ज़ लौटाने में रियायत की पहल (DSSI) से आगे बढ़कर क़र्ज़ के भुगतान की व्यवस्था में ज़रूरी बदलाव के क़दम हर देश की ज़रूरत के हिसाब से उठाने होंगे. आज तक, 75 में 46 देशों ने ही इस योजना का फ़ायदा उठाने की अर्ज़ी दी है. हालांकि, इस पहल की राह में भी कई रोड़े हैं. सेंटर फॉर ग्लोबल डेवेलपमेंट में सीनियर फेलो क्लीमेंट लैंडर्स के मुताबिक़, क़र्ज़ लौटाने में रियायत की योजना (DSSI) में 20 प्रतिशत क़र्ज़ निजी क़र्ज़दाताओं ने दिया है. इन लोगों ने इस योजना में भाग लेने से मना कर दिया है. दूसरी बात ये कि जिन देशों ने क़र्ज़ लौटाने में छूट (DSSI) का लाभ लेने की अर्ज़ी लगाई है, उनकी रेटिंग, क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने घटा दी है. आख़िर में DSSI योजना के तहत सबसे अधिक क़र्ज़ देने वाले चीन ने अपनी सरकारी कंपनियों द्वारा दिए गए क़र्ज़ को निजी क्षेत्र का घोषित करके उन्हें इस योजना से अलग कर दिया है. इस मामले में G-20 देशों की असफलता साफ़ दिखती है कि वो बैंकों, हेज फंड और तेल के कारोबारियों को क़र्ज़ लौटाने में रियायत की इस योजना का हिस्सा बना पाने में नाकाम रहे हैं. विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकड़े बताते हैं कि कम आमदनी वाले 46 देशों को इस योजना के बावजूद, 36.4 अरब डॉलर की रक़म के क़र्ज़ चुकाने पड़े. इसके अलावा, विश्व बैंक ने चेतावनी दी है कि कम आमदनी वाले देशों पर क़र्ज़ का बोझ 12 प्रतिशत बढ़ गया है.

वैसे तो G-20 देशों के हालिया घोषणापत्र में कुछ अहम मसलों पर ज़ोर भले ही दिया गया हो. लेकिन, इसके एजेंडे को पूरा करने और आगे की राह सुगम बनाने की ज़िम्मेदारी G-20 देशों के नए अध्यक्ष देश पर होगी.

जलवायु परिवर्तन पर मतभेद

G-20 देश जलवायु परिवर्तन के लक्ष्यों को लेकर मतभेद दूर करने में भी नाकाम रहे हैं- बहुत से देश ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने और कोयले का इस्तेमाल कम करने का विरोध कर रहे हैं. अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान और कनाडा चाहते हैं कि G-20 देश, तापमान बढ़ने के लक्ष्य को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित रखें और 2025 तक कोयले का इस्तेमाल बंद करना तय करें. हालांकि, चीन, रूस, भारत, सऊदी अरब और तुर्की जैसे देश जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल जारी रखने के पक्ष में हैं. सदस्य देश एक ऐसी तारीख़ पर भी सहमत नहीं हो सके, जब तक वो जीवाश्म ईंधन पर दी जाने वाली बेमतलब की सब्सिडी ख़त्म करेंगे. भारत जैसी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के मुताबिक़, जलवायु परिवर्तन से निपटने का संघर्ष किसी भी देश विशेष के हालात और उसके आर्थिक विकास के स्तर के आधार पर तय होना चाहिए, न कि उस देश की समानता और विकास के अधिकार की क़ीमत पर. इसके अलावा, भले ही रोम घोषणापत्र में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सरकारी औऱ निजी क्षेत्र की मदद से वर्ष 2025 तक 100 अरब डॉलर की पूंजी जुटाने का लक्ष्य रखा गया है. लेकिन, इस घोषणापत्र में 2020 तक देशों को जो रक़म देने का वादा किया गया है, उसे पूरा करने के बारे में कोई ज़िक्र नहीं किया गया है.

नाज़ुक आर्थिक हालात और महामारी के चलते पैदा हुई वैश्विक चुनौतियों को देखते हुए, G-20 के लिए ये ज़रूरी है कि वो वैश्विक व्यापार के प्रशासन, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संगठनों और टिकाऊ विकास को लेकर एक ऐसी साझा राय बनाने की कोशिश करे- जो विकासशील और अविकसित देशों की अपेक्षाओं के भी मुताबिक़ हो. वैसे तो G-20 देशों के हालिया घोषणापत्र में कुछ अहम मसलों पर ज़ोर भले ही दिया गया हो. लेकिन, इसके एजेंडे को पूरा करने और आगे की राह सुगम बनाने की ज़िम्मेदारी G-20 देशों के नए अध्यक्ष देश पर होगी.

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