बिजली की मांग
पीक लोड को बिजली की मांग की एक विशिष्ट विशेषता माना जा सकता है. पीक लोड का मतलब है किसी खास वक्त पर बिजली की मांग पर उच्चतम भार. यही वजह है कि बिजली की मांग से जुड़े कामों को सिर्फ कीमत और मात्रा के आधार पर मानकीकृत नहीं किया जा सकता. इसमें समय को भी शामिल किया जाना चाहिए. चूंकि बिजली को आसानी से स्टोर नहीं किया जा सकता. सिस्टम लोड में भी लगातार बदलाव आते रहते हैं. (किलोवाट में बिजली की तात्कालिक मांग). इसका मतलब ये है कि बिजली पैदा करने में पूंजी (उत्पादन परिसंपत्तियां) अक्सर निष्क्रिय पड़ी रहती हैं. इससे लागत कम करने और कीमतों के उचित निर्धारण में समस्याएं आती हैं. अगर आर्थिक नियमों का पालन किया जाए तो पूरे दिन (या फिर दूसरी समयावधि जैसे कि महीने या सीज़न) में उपभोक्ता की बिजली की मांग का वितरण उस राशि से प्रभावित होना चाहिए, जो ग्राहक की तरफ से बिजली वितरण कंपनी (डिस्कॉम) को दी जाती है. लेकिन भारत में शुल्क तय करने का ये नियम नहीं है. भारत में लोड फैक्टर में गिरावट और विविधता कारकों में वृद्धि की प्रवृत्ति शुल्क निर्धारण में आर्थिक सिद्धांतों के पालन को आधार बनाने को मज़बूती देते हैं.
भारत में लोड फैक्टर में गिरावट और विविधता कारकों में वृद्धि की प्रवृत्ति शुल्क निर्धारण में आर्थिक सिद्धांतों के पालन को आधार बनाने को मज़बूती देते हैं.
लोड फैक्टर और विविधता कारक
एक खास अवधि में बिजली की खपत की विशेषताओं के बारे में बताने के लिए लोड फैक्टर एक उपयोगी संकेतांक हो सकता है. इसे औसत बिजली मांग और बिजली की उच्चतम मांग के अनुपात के रूप में दिखाया जाता है, जो हमेशा एक से कम होती है. एक उच्च लोड फैक्टर (तब औसत मांग उच्चतम मांग के करीब होती है) लगातार और अनुमानित बिजली की खपत को दिखाता है, जो डिस्कॉम के लिए बेहतर है. कम लोड फैक्टर अल्प अवधि के लिए बिजली ग्रिड पर उच्च मांग को दिखाता है. इससे क्षमता में निवेश और बिजली आपूर्ति की लागत बढ़ जाती है.
अगर बात डाइवर्सिटी फैक्टर यानी विविधता कारकों की करें तो ये पावर सिस्टम के विभिन्न उपमंडलों (भारत के संदर्भ में राज्य या क्षेत्रीय स्तर) की अधिकतम मांग और उससे जुड़े लोड का अनुपात है. ये फैक्टर भार का समय विविधिकरण बताता है. इसका इस्तेमाल पर्याप्त उत्पादन और ट्रांसमिशन क्षमता की स्थापना का फैसला लेते वक्त किया जाता है. अगर बिजली की सारी मांग एक ही समय आए (जब विविधता कारक एक हो) तो आवश्यक कुल स्थापित क्षमता बहुत ज़्यादा होगी. लेकिन ऐसा बहुत कम होता है कि सारी मांग एक ही वक्त पर आए और विविधता कारक एक से ज़्यादा हो. खासकर घरेलू बिजली भार के मामले में. अप्रैल 2023 में भारतीय ग्रिड का डाइवर्सिटी फैक्टर 1.054 था, जबकि अप्रैल 2018 में ये 1.03 था.
ये भी एक तथ्य है कि ऊर्जा की वृद्धि दर और इसकी उच्चतम मांग करीब बराबर रही है. इसने में उच्च भार कारक में अपना योगदान दिया है.
पावर सिस्टम ऑपरेशन कॉर्पोरेशन (POSOCO) ने जनवरी 2009 से दिसंबर 2020 यानी 12 साल के 5 मिनट के तात्कालिक निरीक्षणात्मक और आंकड़ों का अर्जन करके (SCADA) रोज़ाना, महीने और सालाना लोड फैक्टर के हिसाब से उनका विश्लेषण किया. इस विश्लेषण में ये सामने आया कि इन 12 वर्षों में अखिल भारतीय स्तर पर सालाना लोड फैक्टर 83-86 की रेंज में रहा लेकिन अखिल भारतीय डाइवर्सिटी फैक्टर बढ़ रहा था.
POSOCO ने इस उच्च भार कारक के लिए अलग-अलग राज्यों में बिजली की मांग के पक्ष के प्रबंधन, उत्पादन क्षमता की साझेदारी के लिए राष्ट्रीय ग्रिड से क्षेत्रीय ग्रिडों में समकालिक पारस्परिक संपर्क, ट्रांसमिशन सिस्टम में तेज़ी से बढ़ोतरी, राज्य और क्षेत्रीय स्तर बिजली प्रणाली में विविधता के दोहन को और सुविधाजनक बनाने के लिए ट्रांसफर क्षमता को जिम्मेदार ठहराया है. ये भी एक तथ्य है कि ऊर्जा की वृद्धि दर और इसकी उच्चतम मांग करीब बराबर रही है. इसने में उच्च भार कारक में अपना योगदान दिया है.
इस विश्लेषण से मिली एक अहम जानकारी ये थी कि औसत और न्यूनतम मांग की तुलना में उच्चतम मांग तेज़ी से बढ़ रही है. करीब 70 प्रतिशत समय अखिल भारतीय लोड फैक्टर 90 प्रतिशत से ज़्यादा था, जबकि 2019 और 2020 में 90 प्रतिशत से ऊपर लोड फैक्टर सिर्फ 60 फीसदी समय ही था. विश्लेषण में ये भी सामने आया कि दैनिक ऑल इंडिया लोड फैक्टर धीरे-धीरे कम हो रहा है. POSOCO के मुताबिक उच्चतम भार और ऊर्जा में आई इस कमी की वजह ये है कि ग्रिड में पारंपरिक ऊर्जा के साथ ही नई और अक्षय ऊर्जा (रिन्यूएबल एनर्जी) के उत्पादन में वृद्धि हुई है.
आंकड़े ये भी दिखाते हैं कि उत्तरी क्षेत्र में 2009 में जो लोड फैक्टर 79 प्रतिशत था, वो 2020 में कम होकर 63 रह गया है. गर्मियों और सर्दियों के बीच लोड फैक्टर में करीब 5-6 प्रतिशत का अंतर दिखता है. इस आंकड़े से उत्तरी क्षेत्र में मौसम की संवेदनशीलता और कृषि भार का पता चलता है. इसी तरह पश्चिमी क्षेत्र में सालाना लोड फैक्टर 2009 में 80 प्रतिशत था, जो 2020 में कम होकर 72 प्रतिशत रह गया है. यहां गर्मी और सर्दी के सीज़न में दैनिक लोड फैक्टर में 8 से 10 प्रतिशत का अंतर देखा गया. दक्षिणी क्षेत्र में सालाना लोड फैक्टर 69-84 प्रतिशत के बीच है. अलग-अलग सीज़न में इसमें 4-5 प्रतिशत का अंतर दिखता है. दूसरे क्षेत्रों की तुलना में दक्षिणी क्षेत्र में लोड फैक्टर में भिन्नता प्रमुख तौर पर दिखती है. पिछले तीन साल से इसमें गिरावट की प्रवृति देखी गई है.
अगर कभी बिजली की मांग में अचानक ज़्यादा मांग आ गई तो इसे मांग प्रतिक्रिया, मांग पक्ष प्रबंधन और थोक ग्राहकों को बिजली आपूर्ति के समय में बड़े बदलाव जैसे तरीकों को प्रोत्साहित करके पूरा किया जा सकता है.
पूर्वी क्षेत्र का वार्षिक लोड फैक्टर 68 से 77 प्रतिशत के बीच स्थिर रहा है और यहां सीज़न के हिसाब से इसमें 7-9 प्रतिशत का अंतर दिखा. इसी तरह पूर्वोत्तर क्षेत्र का वार्षिक लोड फैक्टर 59-64 प्रतिशत और दैनिक लोड फैक्टर में 8-10 प्रतिशत का अंदर देखा गया. दैनिक लोड फैक्टर जुलाई-अगस्त में सबसे ज़्यादा रहा. केरल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओडिशा और पश्चिम बंगाल को छोड़कर ज़्यादातर राज्यों में लोड फैक्टर में गिरावट की प्रवृत्ति देखी जा रही है. झारखंड में लोड फैक्टर पर सीज़न का असर बहुत कम दिखा. जनवरी, फरवरी, अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर की तुलना में अप्रैल, मई, जून, जुलाई और अगस्त में लोड फैक्टर ज़्यादा रहा.
क्या प्रभाव
सिस्टम लोड और विविधता कारक विद्युत प्रणाली के पूरे अर्थशास्त्र को प्रभावित करते हैं. अलग-अलग पॉलिसी ट्रेजेक्टरी का मूल्यांकन करते समय नीति निर्माता और नियामक उस ट्रेजेक्टरी को प्राथमिकता देते हैं, जो लोड और डाइवर्सिटी फैक्टर को बढ़ाकर बिजली आपूर्ति की लागत कम करके परिसंपत्तियों का उपयोग बढ़ाते हैं. भारत की बिजली प्रणाली में लोड फैक्टर में गिरावट की जो प्रवृत्ति देखी जा रही है, वो इस तरफ इशारा कर रही है कि ऊर्जा के भंडारण की लचीली प्रौद्योगिकी में निवेश की ज़रूरत है. ये मार्केट डिज़ाइन (इंट्रा डे मार्केट और इससे जुड़ी दूसरी सेवाएं) और शुल्क तय करने के तरीके (पीक टैरिफ, व्यस्ततम समय में क्षमता की उपलब्धता) में नियामक संस्थाओं के दखल की आवश्यकता पर भी ज़ोर देता है. इसमें ऐसी नीतियां बनाने की बात भी कही गई है, जो पूंजीगत व्यय को स्थगित और क्षेत्रीय विविधता का दोहन करके लोड फैक्टर को बढ़ाया जा सके. अगर कभी बिजली की मांग में अचानक ज़्यादा मांग आ गई तो इसे मांग प्रतिक्रिया, मांग पक्ष प्रबंधन और थोक ग्राहकों को बिजली आपूर्ति के समय में बड़े बदलाव जैसे तरीकों को प्रोत्साहित करके पूरा किया जा सकता है. इसी तरह कुछ खास श्रेणी के बिजली उपभोक्ताओं, जैसे कि किसान और कुछ उद्योग, को प्रोत्साहन देखकर उच्च विविधता कारक को हासिल किया जा सकता है. किसान और कारोबारियों से कहा जा सकता है कि वो अपनी मशीनों के लिए बिजली का इस्तेमाल रात में या हल्के लोड के समय करें. वितरण कंपनियां भी ग्राहकों को बिजली आपूर्ति में कीमतों को दिन के समय (TOD) के हिसाब से तय कर सकती हैं. दिन की प्राकृतिक रोशनी की बचत और उसका इस्तेमाल करना, ऑफिस के टाइम में बदलाव और दो तरह के शुल्क तय करना भी फायदेमंद हो सकता है. दो तरह से शुल्क तय करने से मतलब ये है कि उपभोक्ता अपनी उच्चतम मांग के हिसाब से बिल का भुगतान करें. इसके साथ ही हर अतिरिक्त किलोवाट (यूनिट) बिजली खपत पर शुल्क लगाना भी डाइवर्सिटी फैक्टर को हासिल करने के लिए अपनाए जाने वाले सामान्य तरीके हैं. परिवहन और घर में खाना पकाने को विद्युतीकरण से जोड़ने का भी लोड फैक्टर पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. एक ऐसे तंत्र को विकसित करने पर भी विचार किया जा सकता है जो बिजली की मौजूदा क्षमता के भीतर उपलब्ध भंडारों का आकलन और उसका दोहन कर सके.
POSOCO के आंकड़ों से ये भी पता चलता है कि 65 गीगावॉट के अधिकतम और न्यूनतम मांग में अंतर के साथ ही पीक आवर्स के दौरान दिन-प्रतिदिन रैंपिंग भी बढ़ती जा रही है. रैंपिंग का मतलब पावर सप्लाई की स्थिति बदलने के जवाब में आपूर्ति के स्रोतों को ऊपर या नीचे करने के लिए आवश्यक ग्रिड ऑपरेशन से है. उच्चतम मांग वृद्धि अब ऊर्जा खपत में बढ़ोतरी को भी पार कर रही है. इसकी वजह कृषि में लोड का ट्रांसफर और ग्रामीण इलाकों का विद्युतीकरण हो सकता है. भविष्य में उच्चतम पीक लोड और अपेक्षित उच्च रैंपिंग की वजह से ये माना जा रहा है कि पीक आवर्स के दौरान रैंपिंग को नियंत्रित करना पाना और इंडियन इलेक्ट्रिसिटी ग्रिड कोड (IEGC) बैंड के साथ अखिल भारतीय स्तर पर फ्रीक्वेंसी बनाए रखना एक बड़ी चुनौती होगी. इसका मतलब ये हुआ कि सुबह और शाम की उच्चतम मांग के दौरान लचीला रैंप रिज़र्व की आवश्यकता बेस लोड की ज़रूरत से ज्यादा महत्वपूर्ण है. रिन्यूएबल एनर्जी की बढ़ती पैठ और इसकी परिवर्तनशीलता भी लोड फैक्टर प्रोफाइल पर काफी प्रभाव डाल रही है. ऐसे में ये ज़रूरी है कि बिजली शुल्क में घटते लोड फैक्टर के प्रभाव को सीमित करने के लिए विद्युत प्रणाली में बढ़ते विविधता कारकों का फायदा उठाया जाए.
Source: GRID-INDIA
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